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स्त्री-पुरुष संबंध >> अपूर्वा

अपूर्वा

प्रहलाद सिंह राठौड़

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5458
आईएसबीएन :8177111469

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श्रीदत्त और मालती के अन्तर्सम्बन्धों की वास्तविक स्थिति...

Apurva a hindi book by Prahalad Singh Rathaur - अपूर्वा - प्रहलाद सिंह राठौड़

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्री प्रहलादसिंह जी राठौड़ के इस उपन्यास को पूर्ण रूप से सूक्ष्म दृष्टि डाल कर देखें-परखें तो यह निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि उन्होंने श्रीदत्त और अपूर्वा के दाम्पत्य जीवन में उपजी संकीर्ण मानसिकता को भी सकारात्मक पहल का अंजाम देकर अन्त में एक नई दिशा प्रदान की है। उन्होंने दाम्पत्य जीवन को छिटकने से बचाया है। लेखक ने अंकित, अपूर्वा और श्रीदत्त के साथ मालती के सम्बन्धों, अन्तर्सम्बन्धों की वास्तविक स्थिति परिस्थिति की वस्तुस्थिति को कोमलता से उभारा है। कॉलेज के माहौल में भावुकता के दायरे में कैद अपूर्वा को अन्तत: सुखी दाम्पत्य की नींव रखने और आनन्दपूर्वक जीने के गुणों का प्रादुर्भाव दिखाया है जो लेखक की सकारात्मक सोच का प्रमाण है। यही नहीं श्रीदत्त और अपूर्वा के संवाद और अंकित को दाम्पत्य जीवन की पवित्रता को समझाने में लेखक ने अपने आदर्शवादी दृष्टिकोण को उभारा है।

यहाँ यह बात स्पष्ट है कि लेखक ने सामाजिक परिवेश में पनप रही संकीर्णताओं पर पैनी नज़र डाली है, वहीं समाधान के मार्ग भी सुझाये हैं। बनवारी लाल की पत्नी का बेटी के प्रति संकीर्ण व शंकालु होना इसी बात का द्योतक है। वहीं बनवारीलाल की सोच प्रगतिशील व्यक्ति की सोच है जो समय के साथ कदमताल करता दिखाई पड़ता है। लेखक ने एक ओर भारतीय दाम्पत्य जीवन के व्यावहारिक पक्ष को अनुभूत कर उसे भटकन के दायरों से निकलने का मार्ग सुझाया है वहीं समाज में फैली खोखली आदर्शवादिता और नैतिकता पर प्रहार कर बढ़ती विसंगतियों को उजागर किया है।

विजय जोशी

भूमिका


बचपन का वह समय-सीधा, सरल, निश्चिंत और मस्त ! शिक्षा ग्रहण करने विद्यालय जाना और पाठ्य-पुस्तकों की निर्धारित विषय-वस्तु के साथ आत्मसात् होते हुए परीक्षा उत्तीर्ण करना...एक सतत् प्रक्रिया...तथापि मन के भीतर करवट लेते सोच के दायरे फैलते ही रहते, जिज्ञासा बनी रहती, अध्ययन का मार्ग प्रशस्त होता....मिडिल कक्षा तक वह बालक पाठ्यक्रम से इतर विषय की जानकारी एकत्रित कर मन में उठते प्रश्नों के उत्तर खोजता रहता। आस-पास के घटनाक्रम पर चिंतन करता....दशक निकले, आया साठ का दशक, और बाल्यावस्था से लेकर किशोरावस्था तक की तमाम हलचलों के तीव्र आवेग से शब्द क़ाग़ज पर आकार लेने लगे और नियति के रंग कथाओं के संग पदचाप करने लगे...। नवें दशक के अंतिम दिनों में यह पदचाप गति पकड़ने लगी और वर्ष दो हज़ार दो में प्रथम कहानी संग्रह का आगाज़ हुआ ‘शेष यात्रा’ से।

इस यात्रा के नायक कथाकार प्रहलाद सिंह राठौड़ ने जीवन के विविध सन्दर्भों को वैचारिक यात्रा के साथ प्रवाहमान कर समय की धर को महसूसा और विषय-वस्तु का चयन कर अपनी कथाओं को विस्तार दिया। ‘शेष यात्रा’, ‘मंथन’, ‘सूना आँगन’, ‘आगे और आगे’, ‘बुझे अंगारे:गर्म राख’ और ‘अवर्ण’ हिन्दी कहानी संग्रहों के अतिरिक्त ‘धडकनों के पार’, ‘रावला’ और ‘भूल का फूल’ हिन्दी उपन्यासों तथा ‘होत की जोत’ राजस्थानी उपन्यास के साथ श्री राठौड़जी ने अपने समय के विविध आयामों को कथाओं में पिरोकर समय का दस्तावेज सृजित किया है। ये दस्तावेज मात्र घटनाओं के विवरण का पुलिन्दा नहीं है वरन् सामाजिक परिप्रेक्ष्य में उपज रहे बदलते वैचारिक सन्दर्भों के साथ पनप रही नई संस्कृति के त्रिकोणात्मक आयामों का खुला पिटारा है।

इसी तेवर को पूरी शिद्दत से प्रहलाद जी ने अपने उपन्यास ‘अपूर्वा’ में उभार कर वर्तमान परिवेश में पनप रहे आपसी सम्बन्धों के मध्य परस्पर विरोधी विचारधारा और उससे उपजी परिस्थिति से संघर्ष कर जी रहे लोगों की मानसिकता और द्वन्द्व को बड़ी बारीकी से चित्रित किया है। यही नहीं, पारिवारिक रिश्तों के विविध पहलुओं को एक नई दिशा दृष्टि से उकेरने का प्रयास किया है। नई दिशा दृष्टि इस माने में कि जब संस्कार की प्रबलता, मनोविकारी दृष्टिकोण और विचारधारा को भी ध्वस्त कर देती हैं एवं नई सुबह का आगाज़ होता है जिसमें रिश्तों की सुगंध से पारिवारिक माहौल उल्लासित हो उठता है।

परिवार के इसी उल्लासित परिवेश की धुरी है ‘अपूर्वा’ उपन्यास की नायिका ‘अपूर्वा’ जो रिश्तों के बन्ध की पवित्रता की सुगन्ध को चहुँ ओर फैलाकर अन्तत: संस्कारों से उपजी विविधताओं को केन्द्रित कर अपने भावी जीवन की यात्रा को प्रारम्भ करती है।
अपूर्वा बनवारी लाल की बेटी है। वे पेशे से वकील हैं। हाँ ! यह बात अवश्य हैं कि वे परम्परागत संस्कारों के साथ-साथ आधुनिक जीवन-शैली को भी आत्मसात् करने में हिचकते नहीं हैं परन्तु उनकी पत्नी चित्रा देवी आज के रंग-ढंग से परहेज रखती है। यही कारण है कि बनवारी लाल और चित्रा देवी के विचारों के मध्य अक्सर टकराव की स्थिति पैदा होती रहती है। इसीलिए चित्रा देवी अपने बेटे उमेश की पढ़ाई की ही तरफदारी करती है जो अभी दसवीं में पढ़ रहा है जबकि बनवारी लाल अपनी पुत्री अपूर्वा को भी पढ़ाई की इजाजत देते हैं, जो एम.ए. कर रही है।

विरोध के फलस्वरूप अपूर्वा कॉलेज में प्रवेश लेती है। कॉलेज का वातावरण अपूर्वा को अपने रंग में रंग लेता है। वह अंकित से प्यार करने लगती है और दोनों का समय-समय पर मिलना-जुलना बढ़ जाता है। यहाँ तक कि अपूर्वा का रोज रात को देर तक आना चित्रा देवी को खलता है। बनवारी लाल जी भी चिंतित हो उठते हैं। दोनों की यह चिंता वाजिब भी थी। भला जवान बेटी के होते कौन चैन की नींद सो सकता है।

बनवारी लाल जी अपने निकट के रिश्तेदार कमलकान्त जी के कहने पर कानपुर के श्रीदत्त के साथ अपूर्वा की बात पक्की कर देते हैं। श्रीदत्त दूजवर है। नियति ने उसकी पत्नी को असमय काल-कवलित कर दिया था। यह बात जानते हुए भी बनवारी जी अपूर्वा का विवाह श्रीदत्त से कर देते हैं। अपूर्वा की सारी इच्छाएँ दम तोड़ देती हैं।

श्रीदत्त अपूर्वा जैसी पत्नी पाकर धन्य हो जाता है। वह अपनी पूर्व पत्नी नमिता को बिसरा देता है। अपूर्वा ने भी विगत को भूलकर वर्तमान के साथ समझौता कर लिया था। श्रीदत्त आधुनिक रंग में रंग कर खन्ना साहब के साथ पार्टी में मस्त रहता। पीने पिलाने का दौर चलता। पार्टी में वह अपूर्वा को भी शामिल करता। वह करती भी क्या, पति का साथ देती। इधर श्रीदत्त की मालती नामक युवती से प्रगाढ़ता बढ़ती जाती है उधर अपूर्वा का मन अंकित की यादों में उलझा रहता है। कानपुर से कई बार वह अपने पीहर उदयपुर गई थी परन्तु अंकित से मिलना नहीं हुआ। पता चला उसकी नौकरी दूसरे शहर में कहीं लग गई है। विचारों की ऊहा-पोह में अपूर्वा का जीवन चलता रहा।

एक दिन पत्र आये देखकर एक पत्र पर अंकित नाम पढ़कर श्रीदत्त को पत्र के माध्यम से अपूर्वा और अंकित के प्रेम सम्बन्धों का पता चल जाता है। यह जानकर अपूर्वा का मन विचलित हो जाता है। वह किसी अनजान भय से ग्रसित हो जाती है। वह दोराहे पर आकर खड़ी हो गई थी। वह पति-पत्नी के बीच के सम्बन्धों के चिटकने की आशंका से भीतर तक काँप गई थी।

श्रीदत्त, अंकित को लेकर शंका के दायरे में कैद हो जाता है तथापि वह अंकित से अपूर्वा के विवाह न होने के कारण को भी खोजने लगता है। हालाँकि अपूर्वा की ओर से ऐसा कोई संकेत नहीं मिला था। वह एक कुशल गृहिणी ही साबित हुई थी।
उधर, एक दिन अंकित, अपूर्वा के घर आ जाता है। परन्तु अपूर्वा उसे संस्कार रूपी सीख से परपत्नी पर नजर न रखने की सलाह देती है। श्रीदत्त में हुए परिवर्तन से अपूर्वा का मन वेदना से भर उठता है। श्रीदत्त भी अपूर्वा की असलियत जानकर मालती के साथ समय व्यतीत करने लगता है। अंकित एक दिन अपूर्वा को होटल में ले जाकर मालती और श्रीदत्त को दिखाता है। परन्तु अपूर्वा उसे समय से उत्पन्न घटनाक्रम के रूप में लेती है। वह यह भी कह देती है कि ‘‘हमें अपनी सीमा में रहना चाहिये।’’ सुनकर अंकित अवाक् रह जाता है।

श्रीद्त्त भी खन्ना साहब से अंकित की बात कहता है तथापि वह सकारात्मक सोच लिये हुए यह बात उजागर करता है कि अपूर्वा और अंकित के साथ अन्याय हुआ है। इसी ऊहापोह में दिन व्यतीत होते हैं। श्रीदत्त और अपूर्वा में एक नई दृष्टि आकार लेने लगती है। और अपने-अपने मूल दायित्वों का तथा पति-पत्नी के पवित्र समबन्ध का अहसास होता है। खन्ना साहब की पहल और अपूर्वा की दृढ़ इच्छाशक्ति से मालती और अंकित का विवाह होता है। श्रीदत्त और अपूर्वा नई राह पाकर विवाह मंडप से चल पड़ते हैं...।

इस प्रकार प्रहलाद सिंह जी राठौड़ के इस उपन्यास को पूर्ण रूप में सूक्ष्म दृष्टि डालकर देखें-परखें तो यह निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि उन्होंने श्रीदत्त और अपूर्वा के दाम्पत्य जीवन में उपजी संकीर्ण मानसिकता को भी सकारात्मक पहल का अंजाम देकर अन्त में एक नई दिशा प्रदान की है। उन्होंने दाम्पत्य जीवन को चिटकने से बचाया है। लेखक ने परिस्थिति की वस्तुस्थिति को कोमलता से उभारा है। कॉलेज के माहौल में भावुकता के दायरे में कैद अपूर्वा को अंतत: सुखी दाम्पत्य की नींव रखने और आनन्दपूर्वक जीने के गुणों का प्रादुर्भाव दिखाया है जो लेखक की सकारात्मक सोच का प्रभाव है। यही नहीं श्रीदत्त और अपूर्वा के संवाद और अंकित को दाम्पत्य जीवन की पवित्रता को समझाने में लेखक ने अपने आदर्शवादी दृष्टिकोण को उभारा है।

लेखक की आदर्शोन्मुख यथार्थ की दृष्टि भी सामने आती है जब वे बनवारी लाल से कहलवाते हैं कि ‘‘अरी भली मानुष..आज बेटा और बेटी समान है। बेटी को भी पुत्र के बराबर मान-सम्मान दिया जाना चाहिए। पुत्रियों को भी जहाँ तक बन पड़े शिक्षा दिलानी चाहिए।..लड़की पढ़ी गुणी होगी तो वह अपने घर-परिवार को ठीक से सम्भाल सकेगी।’’
यहाँ तक बात स्पष्ट है कि लेखक ने सामाजिक परिवेश में पनप रहे संकीर्णताओं पर पैनी नजर डाली हैं वहीं समाधान के मार्ग भी सुझाये हैं। बनवारी लाल की पत्नी का बेटी के प्रति संकीर्ण व शंकालु होना इसी बात का द्योतक है वहीं बनवारी लाल की सोच प्रगतिशील व्यक्ति की सोच है जो समय के साथ कदमताल करता दिखाई पड़ता है। लेखक ने एक ओर भारतीय दाम्पत्य जीवन के व्यावहारिक पक्ष को अनुभूत कर उसे भटकन के दायरों से निकलने का मार्ग सुझाया है वहीं समाज में फैली खोखली आदर्शवादिता और नैतिकता पर प्रहार कर बढ़ती विसंगतियों को उजागर किया है।

लेखक ने समाज की दु:खती रग पर अंगुली रखकर परिवार की धुरी दाम्पत्य जीवन के प्रेम स्वरूप को उभारा है और आवश्यकता जताई है कि वैवाहिक जीवन एक सामाजिक संस्कार है जिसे प्रत्येक को निभाना चाहिए जिससे पारिवारिक सन्दर्भों में बिखराव की स्थिति पैदा न हो। अपूर्वा की मन:स्थिति और विचार में परिवर्तन कर लेखक ने यही बात बड़ी शिद्दत से चित्रित की है। यह होना भी चाहिए क्योंकि पति-पत्नी में प्रेम की शुद्ध धारा के प्रवाह के साथ विश्वास की अजस्र धारा को भी गतिमान रहना आवश्यक और अपेक्षित है।

कथाकार ने वर्तमान समय की ज्वलन्त समस्या की ओर भी ध्यानाकर्षण किया है। पति-पत्नी के मध्य बढ़ती शंकालु प्रवृ्ति और अतीत के झरोखे से आती बयार से कुण्ठित होते वर्तमान को दर्शाना इसी बात की पुष्टि करता है। क्योंकि जब श्रीदत्त को अपूर्वा के और अंकित के प्रेम सम्बन्धों का पता लगता है तो उनके दाम्पत्य जीवन में एक दरार-सी प्रकट होने लगती है। यह स्वाभाविक भी है। परन्तु लेखक की लेखनी ने सकारात्मक सोच से दाम्पत्य को टूटने से बचाया ही नहीं वरन् एक-दूसरे के प्रति समर्पण की भावना का विकसित और परिमार्जित रूप उभारा है। यही सकारात्मकता इस औपन्यासिक कृति की विशेषता कही जा सकती है।

सकारात्मक इस माने में भी कि जहाँ पाश्चात्य सभ्यता की अंधानुकरण प्रवृत्ति ने युवाओं की मानसिकता और विचारों को पूरी तरह प्रभावित किया है वहीं भारतीय संस्कारों ने उनके भटकते कदमों को सम्हाला है। लेखक ने मालती और श्रीदत्त तथा अंकित की अन्तर्कथा की सहायता से पारिवारिक बिखराव को होने से बचाया है। श्रीदत्त और अपूर्वा के मध्य पनपी टकराहट और कटुता को समयानुरूप बदलती मानसिकता और दोनों की सहनशीलता एवं गम्भीरता से दूर कर दाम्पत्य को विघटित होने से रोका है वहीं खन्ना साहब के प्रयास और श्रीदत्त तथा अपूर्वा की नई पहल से मालती और अंकित का विवाह सम्पन्न कराकर दरकते रिश्तों को सम्भाला है।

परिवार सामाजिक संगठन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है जिसके बिना सामाजिक सन्दर्भों को गति नहीं मिलती और न ही राष्ट्रीय विकास की बात हो सकती है। व्यक्ति और समाज के बीच में यही परिवार एक सुदृढ़ सेतु के रूप में कार्य करता है। परिवार एक अनिवार्यत: संस्था होती है जिसका निर्माण स्त्री-पुरुष (पति-पत्नी) द्वारा होता है। यह एक सतत् प्रक्रिया है क्योंकि स्त्री-पुरुष मिलकर दम्पत्ति का आगाज़ करते हैं और ये एक परिवार का जो अन्तत: एक समूह समाज के निर्माण में सहायक होते हैं। इसीलिए लेखक ने अपूर्वा के दाम्पत्य जीवन में आयी भावनात्मक आँधी को संस्कार और कर्त्तव्यों के उजास से रोक कर सफल पारिवारिक जीवन की राह दिखाई है।

यह उपन्यास इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण बन पड़ा है कि माता-पिता की इच्छा और अहम् के कारण कई बार बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो जाता है। यहाँ बनवारी लाल की प्रगतिशील सोच अपनी बेटी अपूर्वा के लिए दिशाबोध का कार्य करती है वहीं उनकी पत्नी चित्रा देवी की संकीर्ण मानसिकता अपूर्वा के जीवन में द्वन्द्व की अधिकता को बढ़ाती है। लेखक ने यहाँ अपने आदर्शवादी सोच के सहारे ही माता-पिता के विचारों में समन्वय बताकर बेटी अपूर्वा के जीवन को सुधारा है। इस प्रक्रिया में लेखक ने अपूर्वा को द्वन्द्व से उभार कर पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन के लिए सकारात्मक विचारधारा से आत्मसात् करवाकर दाम्पत्य के सुखी सन्दर्भों की ओर अग्रसर किया है जो इस उपन्यास की एक बड़ी सफलता तो है ही सामाजिक संरचना की एक महत्त्वपूर्ण इकाई भी है।

समग्रत: यह उपन्यास रिश्तों के मध्य बढ़ती दूरियों और उत्पन्न विरोधाभास को दूर करने के लिए व्यावहारिक दस्तावेज है। लेखक की भाषा इतनी सरल है कि पात्रों के साथ पाठक आत्मसात् होता हुआ आगे बढ़ता रहता है। लेखक की आदर्शवादी दृष्टि पात्रों के जरिये विकसित होती है। कथा में मनोवैज्ञानिक पक्ष को बखूबी उभारा गया है जो कथा का प्राण होता है। द्वन्द्व, संघर्ष और उससे उबरने के तमाम उपक्रम इस कथा में है। ये ही उपक्रम आज के सामाजिक दायरों में कैद स्व को छोड़ते जा रहे व्यक्तियों के लिए दिशानिर्देश के साथ उन्हें आत्मज्ञान कराने की पहल करते हैं।

कुल मिलाकर ‘अपूर्वा’ पारिवारिक सन्दर्भों को उजागर करता ऐसा उपन्यास है जो दरकते जा रहे सम्बन्धों को एक दिशा प्रदान कर वैचारिक रूप में एकाकार होने और परिवार को संगठित रखने की पहल करता है।

विजय जोशी

समर्पण


मानव-जीवन में जाने-अनजाने गंधाते नाजुक रिश्ते, जो जीवन के सफर में प्यार, स्नेह, टीस, तड़प की अनुभूति के गहरे अहसास के साथ हर पल हृदय को स्पंदित करते रहते हैं। मेरा यह उपन्यास ‘अपूर्वा’ उन्हीं पवित्र रिश्तों को सादर समर्पित है।

दो शब्द

समाज और व्यक्ति एक-दूसरे के अभिन्न अंग हैं, एक-दूसरे के पूरक है, यह बात तो सर्वविदित है। व्यक्ति से परिवार और परिवार से समाज का गहरा जुड़ाव है। समाज और परिवार में रहते हुए व्यक्ति के जीवन में सम्बन्धों की महती भूमिका होती है। कुछ रिश्ते वंशानुगत होते हैं, जो जन्म से ही साथ जुड़े हुए होते हैं और कुछ समय के साथ खुद तलाश कर व्यक्ति अपने साथ जोड़ लेता है। प्यार और दोस्ती के ऐसे ही भावनात्मक रिश्ते हैं जो जीवन के सफर में कभी जुड़ते हैं और कभी बीच में ही टूट जाते हैं। अर्थात् व्यक्ति का समूचा जीवन ही रिश्तों की नाजुक डोर से बँधा हुआ होता है। वह चाह कर भी अपने आप को इस बंधन से मुक्त नहीं कर सकता।

रिश्ते नाजुक और काँच की तरह होते हैं जो भावनात्मक विरोधाभास के हल्के झोंके से टूट कर किरच-किरच बिखर जाते हैं। फिर भी किसी न किसी रूप में अपना प्रभाव छोड़ जाते हैं। यह प्रभाव हृदय की अतल गहराई में चुभता, टीसता हुआ हर पल दर्द का अहसास देता रहता है। दर्द के इस अहसास से मन का विश्वास डगमगाने लगता है। सोच के धरातल पर शंकाएँ, आशंकाएँ और अविश्वास पल्लवित होने लगता है। अनिश्चय की शून्यात्मक स्थिति उत्पन्न हो जाती है। हृदय विकार से भर कर विचलित होने लगता है।

क्योंकि रिश्तों में कभी प्यार की महक होती है, तो कभी अपनत्व की खुशबू का अहसास। किन्तु रिश्तों के इस धरातल पर विरोध रूपी वर्जनाओं के नकारात्मक कँटीले झाड़ भी होते हैं जो तीव्र तीखी चुभन के साथ हृदय को लहूलुहान कर देते हैं। इस पीड़ादायक अनुभूति के साथ मन में तिक्तता उभरती है तो सम्बन्धों में कटुता, मनमुटाव, घृणा, नफरत, उपेक्षा और शक की तेज आँच हृदय को झुलसा कर तड़प से भर देती है। फिर रिश्तों की निकटता फासलों का आभास देने लगती है। यह संवेदनात्मक एवं भावनात्मक आभास ही रिश्तों के जुड़ाव का सकारात्मक पहलू होता है।

और अक्सर ऐसी संभावनाएँ प्रेम के रिश्तों में अधिक हुआ करती है। यहाँ तक कि परिवार में तनाव, स्वयं खुदकुशी और विद्रोहपूर्ण आक्रोश इन्हीं संभावनाओं की देन होता है। कई-कई बार तो पति-पत्नी के बीच मधुर सम्बन्ध भी दरकने लगते हैं, टूटन के कगार पर जा खड़े होते हैं। ऐसे संवेदनात्मक नाजुक क्षणों में धैर्य, साहस और विवेक की कमी सर्वनाश का कारण बन सकती है।

मेरे उपन्यास ‘अपूर्वा’ का घटनाक्रम प्रेम सन्बन्धों पर आधारित है। परस्पर विरोधी विचारों के संघर्ष से टकराता हुआ, परिस्थितिजन्य वेदनाओं को सहता हुआ सभ्यता और संस्कृति के धरातल पर आकर ठहर जाता है। पाश्चात्य सभ्यता से प्रेरित आधुनिक जीवन शैली के मनोविकारी सोच पारिवारिक संस्कारों के समक्ष बौने साबित हो जाते हैं। परम्परागत मर्यादा के सकारात्मक संदर्भ इस उपन्यास को जीवन्तता प्रदान करते हैं। साथ ही सामाजिक, पारिवारिक रिश्तों की विविधता को सकारात्मक सोच के साथ इस उपन्यास में मैंने उकेरने का प्रयास किया है।

मैं अपने इस प्रयास में कितना सफल हो पाया हूँ, यह तो इस कृति पर आपके अमूल्य विचार ही मुझे बता सकेंगे।
इसी आशा के साथ ‘अपूर्वा’ आपके कर-कमलों में सौंप रहा हूँ।
प्रहलाद सिंह राठौड़

अपूर्वा

मानव जीवन की यात्रा में फूलों का बिछावन कम ही मिलता है। कदम-कदम पर काँटे बिछे होते हैं, जिन्हें टाला नहीं जा सकता। जीने के लिए उन्हें बुहारना ही पड़ता है। कभी कर्त्तव्य, दायित्व और जिम्मेदारी जैसे व्यवहार अन्तर्रात्मा को कचोटने लगते हैं ऐसे में मन का उद्वेलन बढ़ जाता है। यथार्थ के धरातल पर विचारों का संघर्ष अर्न्तद्वन्द्व को चीरने लगता है। जीवन की नवीन सम्भावनाएँ हृदय पटल पर दस्तक देने लगती हैं। घटित-अघटित सब पीछे छूट जाता है।..और फिर....

‘‘अजी सुनते हो !....अपूर्वा अभी तक नहीं आई। मैंने कई बार चेताया कि सयानी बेटी को इतनी खुली छूट देना ठीक नहीं है। पर मेरी सुने तब न !’’ चित्रा देवी का स्वर चिंता में डूबा हुआ था। वर्तमान पीढ़ी में पनपता सस्पेंस, थ्रिल और आधुनिक सभ्यता के नाम पर खुलापन उन्हें कहीं गहरे तक डरा गया था।

अपूर्वा के पिता जो अगले दिन के मुकदमों की फाइलें बस्ते में जमा रहे थे, बोले-‘‘क्या ! अपूर्वा अभी तक घर नहीं आई। ! क्या कह रही हो तुम ?....रात का एक बज रहा है !’’ उन्हें भी पुत्री के प्रति चिंता का दंश कचोटने लगा था।
बनवारीलाल पेशे से वकील हैं। पुरानी बस्ती में पुश्तैनी मकान है। नीचे की मंजिल में किरायेदार और ऊपर की मंजिल पर खुद रहते हैं। वकालत कभी मंदी और कभी सुस्त-चुस्त चलती रहती है। हाँ, मकान का किराया जरूर नियमित मिलता रहता है। गृहस्थी की गाड़ी बस इसी से चल रही है।

मकान भी समय की तीव्र धारा के थपेड़े सहते-सहते बेदम हो चला है। बाहरी दीवारों का प्लास्टर धीरे-धीरे अपनी जगह छोड़ने लगा है। छज्जे टूट कर अपना अस्तित्व खो चुके हैं। मुख्य द्वार जर्जर होकर मानवीय सहारे की आस करने लगा है। हां, मकान के भीतर का रंग-रोगन कुछ सही था। क्योंकि हर वर्ष दीपावली पर उसे सम्हाला जाता रहता है। मकान का अन्दरूनी भाग देशी और पाश्चात्य सभ्यता का संगम जैसा ही लगता है। नूतन और पुरातन की झलक दिखाता हुआ। किन्तु वह जो कुछ भी है अपने सीमित दायरे में सिमटा हुआ है। किसी को कोई ग़िला-शिकवा नहीं है।

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