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तीस कविता वर्ष

सीताकान्त महापात्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1994
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5465
आईएसबीएन :0000

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ज्ञानपीठ पुरस्कार (1993)द्वारा सम्मानित उड़िया कवि श्री सीताकान्त महापात्र की कालजयी कविताओं का संग्रह।

Tees Kavita Varsh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ज्ञानपीठ पुरस्कार (1993)द्वारा सम्मानित भारत के विश्वविख्यात उड़िया कवि श्री सीताकान्त महापात्र का यह संग्रह उनकी सारस्वत साधना का अप्रतिम दस्तावेज है। जैसा कि पुस्तक के नाम से ही स्पष्ट है, इसमें सीताकान्त जी की तीस वर्षों की काव्य-यात्रा के अनेक पड़ाव हैं जिनके साक्षी हैं अनेक रंग, रूप और रेखाएँ। विराट फलक पर जीवन के इन्द्रधनुषी आयामों को उजागर करने वाली इन कालजयी कविताओं को पढ़ना हिन्दी कविता के सुधी पाठकों के लिए, निसन्देह एक अद्वितीय अनुभव होगा।

सुमुख


आमुख, श्रीमुख, वाङ्मुख, आकाश, प्रकाश, अनिल, अनल, सलिल, समुद्र, संसार—कितने नाम हैं शब्द के और कितने धाम हैं अर्थ के। आर्थ अपने वाच्यार्थ की पार्थिव परिधि को पारकर चरितार्थ, निहितार्थ और परमार्थ की समर्थ पद-विधियों में विचरण करने लगता है तब बहुमुखी शब्द अपनी सर्वतोमुखी सश्रीकता को अपने में समेटकर केवल ‘सुमुख’ बनकर सहृदय के दहर-कुहर में प्रतिष्ठित होता है।

यही परमाक्षर का परमव्योम है जिसको वाग्देवी के वरद पुत्र डॉ. सीताकान्त महापात्र ने शब्दों का आकाश (शब्दर आकाश) कहा है। आकाश का लक्षण ही शब्द है और धरती का निक्षेप है—सौरभ। दोनों को वहन करने वाला परम पावन पवन कभी-कभी कवि-हृदय को निःशब्दता में निःस्वन बनने के लिए बाध्य कर देता है और कभी-कभी अन्तहीन सौर-पथ में अनन्त महामौन का अन्तर्नाद सुनने का अवसर भी देता है। इसीलिए निःशब्द माधुर्य के मर्मज्ञ कवि को शेफाली अच्छी लगती है। क्योंकि वह बोलती नहीं और बोलने के लिए उसे शब्द की ज़रूरत नहीं होती। तभी तो कवि को पता चलता है कि जो वह नहीं जानता, पेड़ों को उसका पता है, गौरेया उसे जानती है। यही सीताकान्त के शब्दाकाश की स्वर-निरपेक्ष विशेषता है जो कि उनकी तीस वर्ष की काव्य-साधना का सार है।

प्रो. नामवर सिंह ने सीताकान्त की कवि-मनीषा की इसी परिणति को एक ‘नयी शब्दहीनता’ कहकर रसात्मक वाक्यज्ञता का एक नया आयाम पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है। इस नीरवता के निर्लिप्त माधुर्य पर मनन करते समय वाल्मीकि के ‘सीताकान्त’ का एक वाक्य याद आता है। सरितापति  सागर के परम तीर पर पहुँचते ही उस सीताकान्त ने पवन को अपनी कान्ता के साथ सम्पर्क का साधन बनाते हुए उसे सम्बोधित कर कहा है—वाहि वात यतः कान्ता, तां स्पृष्ट्वा मामपि स्पृश। इस कार्य के लिए सीतापति ने पहले वातात्मज का सहारा लिया था। अब उनके पिता वात को ही अपना दूत बना रहे हैं।

हवाईअड्डे पर बैठकर बादल की थकी लहर, चमचमाती रुपहली धूप और नीरव आकाश में लम्बी यात्रा की वापसी विदाई का अनाहत स्वर सुनने में तल्लीन हमारे इस सीताकान्त की कान्तासम्मत काव्योक्ति में वाल्मीकि के सीताकान्त का वही प्रभाकर भास्कर स्वर नयी रागिनी में सुनाई देता-सा प्रतीत होता है। दोनों सीताकान्त ‘आसमान से परिचित धरती और धरती से अनजाना आसमान’ में समय-समागम को अवगत करने का प्रयास कर रहे हैं। उस सीताकान्त का समयबोध आज हमारे लिए कुछ दुरूह-सा हो गया होगा, पर हमारे आज के इस सीताकान्त ने स्पष्ट नहीं तो कम-से-कम समृद्ध शब्दों में कह दिया है :


    आत्मा के बोधि-वृक्ष पर हरे नील दंगे के बाद
    आयी हुई निष्करुण शून्यता को
    आज क्या ? कल भी क्या ?
    आज भी कभी बन जाता है कल !


समय का शेष नाम सीताकान्त का पदनाम है तो उनका वास्तविक और व्यावहारिक नाम है—शब्द। एक प्रत्यय है और दूसरा उपसर्ग। दोनों का सत्व सार लेकर सीताकान्त काव्य और जीवन के परमार्थ को एक साथ उद्घोषित करते हुए कहते हैं
:

    समय की अन्तिम गली-मोड़ पर
    वे ही शब्द सारे
    तुम्हारी ही प्रतीक्षा करते हैं कवि !
    उनके उच्चारित प्रत्येक शब्द
    महाचुप्पी की लग्न में
    तुम्हारे समय में ही
    चन्दामामा जैसे झर जाते हैं


महापात्र की प्रारम्भिक रचना ‘दीप्ति ओ द्युति’ (1963) से लेकर नवीनतम रचना ‘वर्षा सकाळ’ (1993) तक के लगभग सभी काव्य-संकलनों में संगृहीत प्रशस्त चौंसठ कविताएँ प्रस्तुत संग्रह में प्रकाशित हैं। स्वनामधन्य नामवर जी ने इस संग्रह का नाम भी बहुत सुन्दर रखा है—‘तीस कविता वर्ष’। वर्ष संख्या-‘तीस’—त्रिदश अथवा देवतावाचक है और कविताओं की संख्या—चौंसठ—कला-द्योतक है। भवभूति के शब्दों में, कवि की वाणी आत्मा की अमृत-कला होती है क्योंकि उसमें आत्मीयता, अमृतत्व और कलात्मक अभिव्यंजना का लोकहितकारी समाहार समाहित होता है। इस संग्रह में पन्द्रह असंकलित कविताएँ भी सम्मिलित हैं जो पहली बार रसग्राही और हृदयज्ञ पाठकों के सामने प्रस्तुत हो रही हैं। इन चौंसठ कविताओं का रसास्वादन करने पर किसी भी सुधी पाठक को लगेगा कि ये चौंसठ कविताएँ ‘चतुष्षष्टि’ के कलाखण्ड हैं।
भारतीय ज्ञानपीठ के उनतीसवें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित इकतीसवें साहित्य-मनीषी डॉ. सीताकान्त महापात्र का यह काव्य-कलश साहित्य-प्रेमियों के सामने प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है।

‘समय और शब्द के कवि सीताकान्त’ के शीर्षक से प्रो. नामवर सिंह जी ने जो सुरुचिपूर्ण और विवक्षात्मक भूमिका दी है, उसके लिए हम उनके अत्यन्त आभारी हैं। कविताओं का चयन भी उन्होंने स्वयं किया है। मूल उड़िया भाषा में कवि द्वारा प्रणीत सारगर्भित सारस्वत अभिव्यंजना को राष्ट्रभारती हिन्दी में समर्थ पद विधि में निबद्ध किया है हिन्दी और उड़िया के जाने-माने विद्वान्, अनुवादकों ने। इन सबके प्रति अपना आभार व्यक्त करना हमारा दायित्व है। अनुवाद-जैसे पवित्र पाप को पुण्य-सृष्टि का तपःपूत रूप प्रदान करना एक राष्ट्रीय सारस्वत समाराधन है। इस प्रकार का पुनीत कार्य अखिल भारतीय स्तर पर भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सम्पन्न होता रहे और भारत-भारती की सात्त्विक और तात्त्विक भारतीयता को हृदयंगम करने में शब्द-जीवियों को अपेक्षित सुविधा उपलब्ध होती रहे, यही हमारी कामना है, और इसकी पूर्ति रसग्राही साहित्य समाज के द्वारा ही हो सकती है।
अब सीताकान्त की तीस-वर्षीय काव्य-साधना आपके सामने है।



समय और शब्द के कवि सीताकान्त



    सीताकान्त महापात्र की तीस वर्षों की अनवरत काव्य-यात्रा पर दृष्टि जाती है तो उनकी हाल की ही लिखी ‘रास्ता’ (1993) शीर्षक कविता याद आ रही है। कवि को इस बात का एहसास है कि सभी तलाशते हैं रास्ता अपने-अपने ढंग से : मिट्टी तले केंचुआ, समुद्र में कोलम्बस, चक्रव्यूह में अभिमन्यू, तरह-तरह की यातनाओं में बुधिया नाई, बोधिवृक्ष तले बुद्धदेव, शून्य में एकाकी नक्षत्र, साँझ के आकाश में घर लौटती चिड़िया, और ‘जिद्दी शब्दों के घेरे में कवि’ भी। कभी लगता है रास्ता हर जगह है पर रास्ता कहीं भी नहीं। और कभी लगता है डग बढ़ाते ही रास्ता है, कोई शब्द कहते ही रास्ता है ! किन्तु अन्त में बोध यही होता है कि—


    रास्ता तो बस समय की परछाईं है
पल-भर में
शून्यता में ही घुल जाता है ओस की तरह
रास्ता जो स्वयं ही एक अशरीरी राहगीर है।

इस अशरीर राहगीर के कायाकल्प का रहस्य तो कवि का कोई सहयात्री ही बता सकता है। मेरे जैसे पार्श्वदर्शक के सामने तो सिर्फ़ उस रास्ते के कुछ पदचिह्न ही हैं और उनमें सबसे ज़्यादा उभरकर जो पद आते हैं वे हैं समय और शब्द ! शायद कवि की चिन्ता के ये दो केन्द्र-बिन्दु हैं।
कोई चाहे तो कह सकता है कि सीताकान्त समय और शब्द के कवि हैं। समय को शब्द  में और शब्द को समय में बदलना ही कवि की काव्य-साधना है जिसकी अन्तिम परिणति सम्भवतः एक ‘नयी शब्दहीनता’ है।
यह अकारण और आकस्मिक नहीं है कि सीताकान्त के एक कविता-संग्रह का नाम ‘शब्दर आकाश’ (1971) है और एक अन्य कविता-संग्रह का ‘समयर शेषनाम’ (1984)। समय और शब्द के प्रत्यय कवि को निश्चय ही विशेष रूप से प्रिय हैं।
समय सीताकान्त के काव्य-संसार में विविध रूप धारण कर प्रकट होता है जिसका एक रूप है स्मृति।

    क्षणों के घास-फूस भर-भर चोंच लाकर
    बनाता है घोंसला समय हमारे ही भीतर
    बन जाता है स्मृति

इन स्मृतियों में सम्भवतः उड़िया जातीय परम्परा के प्रतीक जगन्नाथ की स्मृति स्थायी है। जगन्नाथ केवल एक देवता या मिथक नहीं, बल्कि उड़िया जाति के लिए समग्र संस्कृति हैं। इसीलिए वे किसी अतीत के अवशेष नहीं, बल्कि सतत उपस्थिति हैं। ऐसी उपस्थिति से उदासीन रहकर कोई भी सार्थक सृजन सम्भव नहीं है—इसे उड़िया के अन्य आधुनिक कवियों की तरह सीताकान्त भी गहराई से अनुभव करते हैं। इसीलिए ‘कविता का जन्म’ (1991) शीर्षक अपनी लम्बी महत्त्वाकांक्षी कविता में वे कहते हैं—

    शब्द गढ़ता है
    मेरे हृदय के टूटे मन्दिर में वही
    हाथ-पैर हीन और अधगढ़ा प्रेम-देवता !

कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह ‘अधगढ़ा प्रेम देवता’ जगन्नाथ है। यह भी एक विरोधाभास ही है कि सीताकान्त अपने नाम के विपरीत कवि के रूप में कृष्णकान्त हैं। कृष्ण की छाया उनकी कविता पर काफी लम्बी है। कृ्ष्ण-कथा के जीवन-प्रसंग कवि के मानस में इस हद तक रचे-बसे हैं कि अपने गाँव की स्मृति भी इस बिम्ब के रूप में आती है—

    दोनों पहाड़ों के बीच सिर टिकाये
    तुम्हारा गाँव तब भी सोया होता है
    पूतना के दो विशाल
    स्तनों के बीच बालकृष्ण !

इस बिम्ब से स्पष्ट है कि सीताकान्त ने कृष्ण को एक आधुनिक कवि के रूप में ग्रहण किया है। कवि की इस आधुनिक दृष्टि की पहली झलक उनके प्रथम कविता-संग्रह ‘दीप्ति ओ द्युति’ (1963) की ‘जारा शबर का गीत’ शीर्षक कविता की इन पंक्तियों में मिलती है—

    मैं नहीं देखना चाहता वह विश्वरूप
    नहीं माँगता तेरा ज्ञान, नहीं माँगता मैं तेरी स्मृति असीम    
हे मायावी विश्वरूप, मेरी बस इतनी ही विनती है
हर युग, हर काल, हर समय में मेरा तीर
तुझे मुक्ति दे तेरे शरीर से, तेरी अपनी ही छलना से
और युग युग तक मैं रोता रहूँ
अपने दुर्बल वक्ष पर तेरे कोमल जामुनी पाँव सहेजकर।

एक तरह से देखें तो यह आधुनिक भारतीय कविता का घोषणा-पत्र भी है और काव्य-शास्त्र भी।
आधुनिकता परम्परा का वध करने के लिए अभिशप्त है, लेकिन इसके साथ ही अपने वक्ष पर उस परम्परा के पाँवों को सहेजकर रोती भी है। आधुनिकता की यह विडम्बनापूर्ण नियति भी है। आधुनिक कवि का अपना वक्ष चाहे जितना दुर्बल हो, किन्तु वह न तो परम्परा का ‘विश्वरूप’ चाहता है और न असीम स्मृति ही। शायद इसलिए कि वह सब एक छलना है। इस छलना के मायाजाल को छिन्न-भिन्न करना आवश्यक है। यह हर आनेवाले युग का दायित्व है। इसी में परम्परा की मुक्ति है और आधुनिकता की भी। जारा शबर कृष्ण का वधिक नहीं, मुक्तिदूत है। किन्तु कविता अन्ततः उस करुणा में है जिससे जारा शबर का वक्ष आप्लावित है।
कहना न होगा कि सीताकान्त की इस कविता का जारा शबर पन्द्रहवीं शताब्दी के उड़िया कवि सारलादास की सजीव स्मृति है। सच तो यह है कि उड़िया के अन्य आधुनिक कवियों के समान ही सीताकान्त के लिए भी सारलादास का उड़िया महाभारत और जगन्नाथदास का उड़िया भागवत प्रेरणा-स्रोत से अधिक सृजन-प्रक्रिया में सतत उपस्थित हैं।
कृष्ण की मृत्यु के समान ही पिता की मृत्यु भी सीताकान्त के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव है। यह अनुभव कहीं अधिक आत्मीय और उत्कट है और इसलिए अधिक काव्यात्मक भी। बेहिचक कहा जा सकता है कि पिता की मृत्यु से सम्बन्धित कविताएँ सीताकान्त की सर्वोत्तम कविताओं में से हैं। ये कविताएँ भी एक तरह से समय के साथ कवि के सम्बन्ध की व्यंजना करती हैं। इस श्रेणी की कविताओं में एक कविता है ‘शत्रु’ (समयर शेषनाम, 1984)।
कविता इस प्रकार शुरू होती है जैसे किसी आक्रामक शत्रु का मुकाबला करने के लिए शिविर में युद्ध की तैयारी की जा रही हो। वातावरण युद्ध-का-सा है, लेकिन स्थल अस्पताल। अस्त्र-शस्त्र की हैं दवा की शीशियाँ और इंजेक्शन। प्रतिरक्षा में खडे़ सैनिक हैं डॉक्टर, नर्स और बेटा-बहू, बेटी-दामाद तथा नाते-रिश्तेदार। शत्रु और कोई नहीं स्वयं यमराज। अचानक कुछ चमत्कार-सा घटित होता है। दवा और स्पिरिट की गन्ध ख़त्म हो गयी और एक अद्भुत-अपार्थिव सुगन्ध चारों ओर छा गयी। सूक्ष्म बाँसुरी की धुन गूँज उठी। इन सबका कुछ ऐसा जादुई असर पड़ा कि शिविर में सब सो गये। आँख खुली तो क्या देखा कि-

    खाट पर वह नहीं है
    जिसे चक्रव्यूह के केन्द्र में स्थापित कर
    पहरा दे रहे थे योद्धागण, सम्पूर्ण सेना
    है सिर्फ़ मिट्टी का पुतला रूपहीन, शब्दहीन
    जो है मिट्टी में लौटने को अधीर।

कविता इस नाटकीयता में ही है और सन्देह नहीं कि इस कविता का नाटकीय विन्यास अद्भुत है !
पिता की मृत्यु से सम्बन्धित एक और कविता है ‘पवन’ (चढ़ेइ रे तू कि जाणु, 1990)। कविता के शीर्षक से भ्रम होता है कि कविता पवन के बारे में है, जैसे कोई जानी-पहचानी प्रकृति-कविता। आरम्भिक पंक्तियों से कुछ ऐसी ही प्रतीति होती है। कविता हवा की गति के साथ धीरे-धीरे सरकती हुई इस बिन्दु पर आती है कि ‘निपट अप्रत्याशित स्थानों पर / एकाधबार भेंट हुई है उससे।’ उससे यानी हवा से। इन अप्रत्याशित स्थानों में से एक है राजपथ का किनारा जहाँ भिखारी का बच्चा मरा पड़ा था। पवन ‘उसे सहला रहा था / मानो उतने से ही वह बच्चा / आँखें मलता हुआ फिर से उठ बैठेगा।’ और यहीं से कविता ‘अप्रत्याशित’ मोड़ लेती है। स्मृति के रंगमंच पर सहसा पिताजी का प्रवेश होता है और इन शब्दों के साथ ‘मैंने देखा था पिताजी से / उसकी अच्छी मित्रता थी।’ मित्रता का प्रमाण यह है कि कभी-कभी दिन-ढले अँधेरे में जब पिताजी चबूतरे पर मूर्तिवत् अकेले बैठे होते हैं, वह आकर चबूतरे के किनारे खड़ा हो, जाने क्या-कुछ बतियाता रहता है। इसी तरह बिस्तरे पर लेटे हुए पिताजी का जी उकताने पर अधखुली खिड़की से आकर उनके कानों में न जाने क्या-कुछ कह जाता है ! परिचय की नाटकीय परिणति है—

    और उस दिन श्मशान में
    उनकी चिता जलते समय
    मैंने देखा, न जाने कहाँ से
    पागलों की तरह दौड़ते हुए आकर
    वह उसी धधकती आग में
    घुस गया
    क्या जाने उसके मन में
    कौन-सी गुप्त बात थी !

यह है सीताकान्त का पवन ! यह वही पवन है जिसने भिखारी के मरे बच्चे को न जाने किस मोह से, आस से झुककर सहलाया था !
ऐसे ही नाटकीय विन्यास की एक और कविता है ‘परछाईं’ (चढ़ेइ रे तू कि जाणु, 1990)। सन्दर्भ भिन्न है, फिर भी इस क्रम में इसलिए उल्लेखनीय है कि मुझे वह कविता सीताकान्त की श्रेष्ठ कविताओं में से एक लगती है। कविता शुरू होती इन पंक्तियों से—

    देख रहा हूँ काफी दिनों से
    वह वहीं खड़ी है
    पैर जमाये, सिर झुकाये
    ठीक मेरे फाटक के सामने
    अडिग मूर्ति-सी

और अन्त में भी—

    क्या रात, क्या दिन
    क्या आषाढ़, क्या फागुन
    सिर झुकाए, सपने में देखे सपने-सी
    वह वहीं, उसी तरह खड़ी रहती है।

मजे की बात यह है कि किसी और को यह दिखायी नहीं पड़ती। ‘नौकर-चाकर, बीवी-बच्चे जिससे पूछो / वे कहते हैं, कहाँ है / फाटक के पास तो नंगी हवा के सिवा / और कोई भी तो नहीं !’ इस परछाईं का तौर-तरीका इतना अजीब है कि अन्दर नहीं आती, वैसे चाहती तो अनायास ही फाटक खोल अन्दर आ सकती थी। लेकिन नहीं आती तो नहीं आती। आती है तो सिर्फ सपनों में। और इस तरह आने का नतीजा यह होता है कि बेटा-बेटी, बीवी और खुद मैं-यानी सब कुछ अटपटा लगने लगता है। उसकी उपस्थिति से पेड़-पौधे सूखने लगते हैं, चाँद की रोशनी मलिन लगने लगती है, और चिड़ियाँ चहकना भूल जाती हैं ! गरज़ कि सब-कुछ अर्थहीन लगने लगता है।

यह परछाईं कोई छायावाद नहीं, ठेठ अस्तित्ववाद है और किसी वाद से ज़्यादा काव्य !
यह भी एक विडम्बना या कि विरोधाभास है कि ‘परछाईं’ ऐसे कवि की कृति है जो एक सामाजिक प्राणी के नाते जीवन में अत्यन्त सफल है। अपनी इस विडम्बनापूर्ण अवस्थिति को भी सीताकान्त ने कविता का रूप दे डाला है। इधर की ही एक कविता ‘मत पूछो मुझसे, प्रिय मित्र’ में वे कहते हैं—

    फिर भी मैं घर-घाट
    सो रही पत्नी और पुत्र को
    छोड़कर नहीं जा पाया हूँ घने अरण्य में
    मेरी तपस्या है खिड़की के निरंजना-तट पर खड़े हो
    चुपचाप आकाश की ओर देखना
    कापुरुष अमृत-सन्तान मैं
    रोया हूँ युगों से युगों तक !
कापुरुष अमृत-सन्तान ! अमृत-सन्तान फिर भी कापुरुष !

सीताकान्त के समय का एक निश्चित भूगोल भी है और यह भूगोल इतिहास के सन्त्रास को सन्तुलित करता है। इस भूगोल में उड़ीसा की नदियों का स्थान विशेष है। फिर चाहे वह निरंजना हो या चित्रोत्पला अथवा कोई और ! नाम इतने काव्यात्मक हैं जैसे इन्द्रलोक की अप्सराओं के नाम। ‘नदी को देखने पर क्या याद आते हैं’ (फेरि आसिबार बेळ, 1991) शीर्षक कविता में कवि कहता है :

    नदी को देखने पर
    पहाड़, समुद्र के सिवा
    और क्या याद आते हैं
    याद आते हैं
    स्वर और समय
    स्वर में बहता है समय !
    ... ... ... ... ... ... ...
क्या नदी समय की परछाईं है

रास्ता भी समय की परछाईं और नदी भी समय की परछाईं ! सीताकान्त को समय से ज़्यादा उसकी परछाईं अच्छी लगती है। इसीलिए वे कवि हैं, वरना दार्शनिक होते !
लगता है सीताकान्त के अन्दर अब भी एक जारा शबर जीवित है जो कभी-कभी आदिवासी लोकगीतों की सहज शारीरिक भाषा में फूट पड़ता है। ऐसी ही एक कविता है क्वाँरे आदिवासी युवक ‘घाँगड़ा का प्रेम गीत’—

    साँझ के अँधेरे में
    महुवा फूल की महक से विह्वल गाँव के बाहर
    तुमसे स्नेह माँगा, देह माँगी
    तूने कहा
    यहाँ नहीं, यहाँ नहीं
    तूने कहा
    अभी नहीं, अभी नहीं।

इसी अनावृत्त ऐन्द्रियता की अकुण्ठ अभिव्यक्ति है वह छोटी-सी कविता ‘पहली छुअन’ (1993) जिसकी ये दो आरम्भिक पंक्तियाँ मन में अजीब-सी सिहरन पैदा करती हैं—

    कहाँ है उस उँगुली की
    पहली छुअन की महक !

कवि पकड़ना चाहता है वह ‘पहला एहसास / विकल्प नहीं उसका। ‘अभ्यास की धूल’ जब परत-दर-परत जम जाती है तो उसे कुरेद कर ‘पहले एहसास’ को खोज निकालना ही कवि-कर्म है। जिसका विकल्प नहीं, वही कविता का संकल्प है। कवि की तलाश वही शब्द है-आदि शब्द, अनुभव-मूल में निहित शब्द ! क्या इसलिए कि प्रत्येक अनुभव शब्द से अनुबिद्ध है ? क्या सीताकान्त की शब्द-चिन्ता का रहस्य यही है ? कौन जाने ?

कवि के सिवा और कौन जानता है कि अन्ततः टिकते हैं शब्द ही। शब्द को अक्षर कहा गया है। समय का क्या ? आया और गया। किसकी मजाल जो उसे पकड़ रखे ! क्या इसीलिए कवि अपने समय को शब्द में बदलता रहता है ?
इसमें कोई शक नहीं कि सीताकान्त के पास कुछ तो शब्द ऐसे हैं ही जिनमें बचे रहने की सम्भावना है। आधुनिक भारतीय कविता में उन्होंने अपना स्थान आरक्षित या सुरक्षित कर लिया है। ऐसे प्रतिष्ठा-प्राप्त कवि के लिए इससे अधिक बखान की ज़रूरत नहीं है। आत्म-परितोष के लिए सम्प्रति इतना ही पर्याप्त है। तीस वर्षों की काव्य-साधना के इस चयन से अधिक ठोस प्रमाण और क्या होगा ? एक नितान्त निर्वैक्तिक कवि का नितान्त वैयक्तिक दस्तावेज !


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