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पुरुष

श्रीनरेश मेहता

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :71
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5470
आईएसबीएन :81-263-1114-2

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प्रस्तुत हैं काव्य-खंड...

Purush

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित श्रीनरेश मेहता के काव्य ‘पुरुष’ में प्रकृति ही नहीं, पुरुष-पुरातन की भी भाव-लीलाएं हैं, जिनमें सामान्य पुरुष की सहभागिता है। इस कारण यह काव्य दर्शन जैसा बोझिल न होकर जीवन-सौंदर्य और भाषा के लालित्य से आप्लावित है।
देहावसान के कुछ समय पूर्व से नरेशजी ब्रह्माण्ड पर एक काव्य रचना चाह रहे थे। वे अहर्निश चिन्तन मनन में डूबे रहते थे। उन्होंने अनुभव किया कि मनुष्य और ब्रह्माण्ड दो धुव्रों के बीच मानवीय विचारधारा सम्पन्न होती है। ब्रह्माण्ड के अतुल विस्तार में मनुष्य एक बिन्दुमात्र है जबकि दूसरी ओर वह उसका द्रष्टा है और इस नाते उसका अतिक्रामी। वे इसी आधारभूमि पर सम्भवत: खण्ड-काव्य लिख रहे थे जो उनके निधन से दुर्भाग्यवश अधूरा रह गया। ब्रह्माण्ड विषयक उसी काव्य का एक महत्त्वपूर्ण खण्ड है ‘पुरुष’ जो अपने में पूर्ण है।

पुरुष और प्रकृति के युगनद्ध से रचा सृष्टि बोध नरेशजी के जीवनराग की कोमलता का पर्याय है। यही प्रतीति उनके कवि को पूर्णता देती है।
‘पुरुष’ काव्य-खण्ड की प्रकृति उर्वशी की भाँति रमणीय तो है पर सृष्टि के सन्दर्भ में उसके अनगढ़ या ज्वलन्त विराट रूप के हमें दर्शन होते हैं। पुरुष और प्रकृति की पारस्परिकता, निर्भरता और एक दूसरे में विलय का जो मनोरम वर्णन इस कृति में मिलता है वह सृष्टि की अद्भुत व्याख्या के रूप में हमारे सामने आता है।
भारतीय ज्ञानपीठ श्रीनरेश मेहता के इस काव्य खण्ड को प्रकाशित करते हुए सन्तोष का अनुभव करता है कि गम्भीर और मर्मज्ञ पाठक के लिए उसे एक परा और अपरा संवेदी कृति प्रस्तुत करने का अवसर मिल रहा है।

पुरोवाक्

महाप्रस्थान के कुछ समय पूर्व से नरेश जी कॉसमोस या ब्रह्माण्ड पर लिखने की इच्छा से बहुत कुछ पढ़ रहे थे। बहुत कुछ नोट्स भी ले रहे थे। बीच बीच में लिखते भी थे। ब्राह्माण्ड विषयक उसी काव्य के खण्डों का सम्प्रति ‘पुरुष’ शीर्षक से प्रकाशन हो रहा है। मनुष्य के लिए वस्तुतत्त्व एक ओर बहिर्जगत के रूप में प्रकाशित होता रहा है, दूसरी ओर स्वगत अन्तर्जगत के रूप में। यद्यपि दोनों ही, ब्रह्म एवं उसके द्वारा अभिव्यक्त ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत हैं तो भी प्रचलित रूढ़ि के अनुसार ब्रह्माण्ड कहने से जिस वैश्विक इकाई का बोध होता है वह बहिर्मुख दृष्टि से ही उपलब्ध होती है। दूसरी ओर ब्रह्म या बृहत् सत्य की उपलब्धि का मार्ग ‘आत्मनं विद्धि’ इस सूत्र का अनुसरण ही है। मनुष्य और ब्रह्माण्ड दो ध्रुव हैं जिनके बीच मानवीय विचार यात्रा सम्पन्न होती है। एक दृष्टि से ब्रह्माण्ड में मनुष्य नगण्य है। ब्रह्माण्ड के अतुल विस्तार में मनुष्य एक बिन्दुमात्र है, जबकि दूसरी ओर वह दृष्टा है और इस नाते उसका अतिक्रामी भी।

वर्तमान भौतिकी और ज्योतिभौतिकी के विश्वविश्रुत आचार्य स्टीफिन हॉकिन्स ने प्रतिपादित किया है कि विराट् ब्रह्माण्ड का उद्गम एक महाविस्फोट से हुआ, जिसमें विस्फोट की मूलभूत भौतिक सत्ता आकार में शून्यवत् होते हुए भी अपने ठोसपन में अनन्तप्राय थी। इस विलक्षण बिन्दु की अवस्थिति किसी प्रकार के देश-काल या वैज्ञानिक नियमों से परिभाषित नहीं हो सकती-

‘सारे देश सारे कालों के प्रकाश
नेत्र मूँदे हुए समाहित हैं वहीं।’

अब इधर यह भी प्रतिपादित हुआ है कि बिग बेंग के पूर्व सम्भवतः बिग क्रंच था। इस प्रकार से सृष्टि प्रलय के चक्र की बात फिर से सोचनी होगी। सृष्टि का आरम्भ जैसे भी हो प्राकृत ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत सृष्ट भौतिक सत्ता में वैज्ञानिक दृष्टि से किसी प्रकार की प्रयोजनवत्ता का निवेश नहीं हो पाता। जीव विकास के परिणाम मनुष्याकूल होने पर भी उसके हेतु अतर्कित संयोग और हिंसात्मक संघर्ष ही बने रहते हैं। किन्तु कवि की दृष्टि अचित को चित से अलग नहीं करती-


        ‘चिद् शक्ति के लास्य स्पर्श की प्रतीक्षा में
        गणनातीत कालयात्रा सम्पन्न कर निश्चेष्ट है’


ऐसी स्थिति में यह प्रश्न खड़ा होता है कि ‘प्रज्ञाचक्षु’ ब्रह्माण्ड में मनुष्य की क्या सार्थकता है। अभी-अभी सुनामी द्वारा प्रदर्षित प्रलंयकारी घटना ने मनुष्य की असहायता और प्रकृति अतर्क्य शक्ति के विरोध को उजागर किया है। वैज्ञानिक दृष्टि से इस विरोध की विडम्बना असमाधेय है किन्तु अध्यात्मविद्या के सभी प्रभेदों में मनुष्य की सारभूत सत्ता को ही सृष्टि का वास्तविक केन्द्र स्वीकार किया गया है। सृष्टा तो स्वयं ही सृष्टि का अतिक्रमण करता है ‘त्रिपादस्यामृतं दिवि’। यदि ईश्वर और जीव को सृष्टि के दो केन्द्र माने तो उनमें एक बाहर और तटस्थ, दूसरा बाहर से नगण्य दिखते हुए भी वस्तुतः महत्त्वपूर्ण है। ईश्वीय सत्ता का मनुष्य के समक्ष उसी के रूप में प्रकट होना एक अद्भुत चमत्कार है, जिसे सब नहीं पहचानते, ‘अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।’ किन्तु अर्जुन इस बात को पहचानते थे। इसीलिए उन्होंने गीता में श्रीकृष्ण के विश्वरूप को देखकर उनसे पुनः सौम्य मानव रूप देखने की इच्छा प्रकट की। वस्तुतः मानवरूप में चरम सत्य के अवतरण का रहस्य न केवल वेदान्त का सत्य है वरन् समस्त मानवतावाद का अन्तर्निहित सत्य है-

        ‘हमें जन्म देकर
         ओ पिता सूर्य !
         ओ माता सविता !
         क्या इसलिए तुम मार्तण्ड हो कि
         अब तुम प्रकाश के अतिरिक्त
         और कुछ भी जन्म नहीं दे सकते ?

नरेश जी के काव्य में भी नाना वैदिक, तान्त्रिक और अत्याधुनिक प्रत्ययों और प्रतीकों के द्वारा ब्रह्माण्ड के उपस्थान के बाद मानवीय जीवन की प्रस्तुति ऐसे ही मिलती है जैसे दुर्गम हिमश्रृंगों को पार कर यात्री रम्य उपत्यिका में उतर आये। उनकी चेतना मानव जीवन के रहस्य को ब्रह्माण्ड में और ब्रह्माण्ड के रहस्य को मानव जीवन में खोजना चाहती है। यह तादाम्य परखता इसमें संकेतित है कि काव्य में वक्ता अपने पुत्र और पुत्री का नाम दिन और रात रख देता है-

        ‘...पर, सन्तान के इस मोह ने
        मुझे व्यक्ति से समय बना दिया है
        जो अहोरात्र जागता ही रहता है’

वह उनकी गतिविधि को नियन्त्रित नहीं कर सकता। किन्तु उनके विषय में चिन्तित रहता है। यह मानव जीवन की शाश्वत विडम्बना है।
नरेश जी की रचना प्रणाली इस काव्य में एक नवीन दिशा का अनुसन्धान करती है। उसमें एक और वैदिक ऋचाओं की ब्रह्माण्ड परख प्रशस्तता है, दूसरी ओर कुछ समसामयिक विदेशी कवियों की अतिशयोक्ति और विरोधाभासपरक प्रयोगों के सादृश्य की प्रतीति होती है-

‘धरती पर इतिहास की खून टपकाती भूषाएँ पहने
         इतिहास-पुरुष यात्रा कर रहा है
         जबकि अन्तरिक्ष में
         पुराण के प्रकाश-झुलसे
         उत्तरीय में विराट पुरुष यात्रा कर रहा है।’

किन्तु पुरुष की बाहरी रूपसज्जा में इन लक्षणों को आगन्तुक अलंकरण ही मानना चाहिए। नरेश जी की विचार लय और गति अनुक्रम में प्रकाशित उनकी रचनात्मक निजता इस महत् और उदात्त विषय के अनुकूल है, जिसको लेकर लिखने का बहुत कम कवियों ने साहस किया है-

जब तुम भाषा के द्वारा नदी को नदी कहते हो
तो क्या तुम जानते हो कि
           वह फूल भी है
           या वह सूर्य भी है
           या वह सम्पूर्ण सृष्टि है ?’

प्रकाश और अन्धकार शाश्वत प्रतीक हैं। उनका समवाय ही सृष्टि के छन्द में ध्वनित होता है-

            ‘प्रलय कपाट मूँद कर
            श्री चक्र के इस चैतन्य
            त्रिकोण में शिवा के साथ शिव सो रहा है
            उसे सोने दो
            इस महाशून्य में प्रकाश भी अनभिव्यक्त है
            तभी तो यह परा-अन्धकार
            परम भास्वरता का है’

प्रकृति को नरेश जी ने अनेक रूपों में प्रस्तुत किया है। सृष्टि के सन्दर्भ में उसका अनगढ़ या ज्वलन्त विराट रूप नीहारिकाओं, आकाशगंगा एवं ‘कृष्णगर्त’ में मिलता है। दूसरी ओर उसकी रमणीयता पर दृष्टिपात करते हुए उन्हें उर्वशी का स्मरण होता है-

           ‘.... तुम पुरुष हो प्रकृति उर्वशी है
               जिसका देह-आसव ही सोमपान है।’

अन्त में प्रकृति को अपने में लय कर कवि को ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की प्रतीति होती है-

         ‘मैं प्रत्येक दिन जन्म लेता हूँ
          इसलिए अपना ब्रह्मा हूँ
         मैं प्रत्येक दिन अपने संसार को बसाता हूँ, फैलाता हूँ
         इसलिए मैं अपना विष्णु हूँ
         और मैं प्रत्येक दिन मृत्यु को प्राप्त होता हूँ
         इसलिए रुद्र हूँ
         लेकिन फिर भी अजन्मा हूँ
         इसलिए मेरा कोई गोत्र नहीं
         और न ही मृत्यु को प्राप्त हूँ
         इसलिए मृत्युंजय शिव हूँ।’

इन पंक्तियों में भी पारम्परिक प्रत्ययों का रूपान्तरण दृष्टव्य है। भरत-वाक्य के रूप में ‘पुरुष’ के अन्त की पंक्तियाँ ध्यान देने योग्य हैं-

        ‘जब रेवती में तपाया था
        तो क्या पुष्य बरसेगा नहीं...’
        ‘...लिखती है वर्षा
दूव-भाषा
पृथिवी पर’

गोविन्दचन्द्र पाण्डे

पुरुष


हमें जन्म देकर
ओ पिता सूर्य !
ओ माता सविता !
क्या इसलिए तुम मार्तण्ड हो कि
अब तुम प्रकाश के अतिरिक्त
और कुछ भी नहीं जन्म दे सकते ?
मैं जानता हूँ तुम वामन हो
पर हिरण्यगर्भ तो हो
और हिरण्यगर्भ होने का तात्पर्य है
युगनद्ध शिव होना
पर लगता है उषा के सोम अभिषेक ने
तुम्हें सदा के लिए शम्भु बना दिया
तुम शक्ति हो चुके हो।
पर शायद सृष्टि को जन्म देने के उपरान्त
उसके पालन के लिए तुम प्रकाशरूप
विष्णु हो।

ओ पिता सूर्य !
हिरण्यगर्भ से वामन
और वामन से श्वेत वामन तारा बनने की
आकांक्षा में

ओ आदि हिरण्यगर्भ !
तुम ही महागणपति,
गणाधिपति कारणभूत महापिण्ड हो
तुम्हारा ही गण-वैभव रूप
तारों की मन्दाकिनियों, आकाशगंगाओं के रूप में
पराब्रह्माण्डों में व्याप्त है
जैसे आकारातीत सूँड़ में सारे तारों के गण
लिपटे पड़े हों
और तुम आनन्दभाव से सिहरित होकर
शाश्वत ओंकार नाद कर रहे हो
जिसे हमारी पृथिवी, आकाश ही नहीं
हम सब अपने स्तत्व में सुनते हैं
तुम्हें प्रणाम है।

प्रत्येक अपने स्व का चक्र
प्रतिक्षण लगा रहा है
और इस गति की परम तेजी को
सामान्य भाव में नहीं देखा जा सकता
पर यह चन्द्रगति है
जिससे हमारे आकाश में प्रकम्पन उत्पन्न होता है
ताकि हमारी पृथिवी अपनी धुरी पर घूम सके
और धुरी-गति को स्वरूप मिल सके
यही धुरी-गति ही हमारी पृथिवी को
ऋतुमति बनाती है।
ऋतुमति धरती की यह ऋतुगति हमारे लिए
कितनी उत्सवरूपा है यह हम सब जानते हैं
पर शायद यह हम नहीं जानते कि
सूर्य हमारी इस पृथिवी को लेकर
और पृथिवी हमें लेकर
आकाशगंगा के केन्द्र की परिक्रमा पर
मन्वन्तर गति की गणनातीतता की ओर
भी धावित है
और क्या उस परायात्रा की हमें कोई प्रतीति है
कि हमारी नभगंगा अन्य मंदाकिनियों के साथ
अनावर्ती नक्षत्र-विस्तार की ब्रह्माण्डातीतता में
अपसर्पण गति ये यात्रा कर रही है ?
एक महाशेष नाग-यात्रा है
जिस पर जैविकता का विष्णु शेषाशायी है।



वह-
जो सोया हुआ है
जाग भी रहा है अलख वही,
वह-
जो पुरुष है
अक्षतयोनि अपनी नारी भी है वही,
वह-
जो चिद्बिन्दु है
सारे प्रकाशों की
परम अन्धकार विराटता भी है वही,
वह-
जो शून्य है
समाहित हैं सारे संख्यातीत अंक वहीं,
वह-
जो अक्षर है
पद और अर्थ की सारी वर्णमाला भी है वही
वह-
जो परा अन्धकार है
सारे देश, सारे कालों के प्रकाश
नेत्र मूँदें हुए समाहित हैं वहीं।

यहाँ
जहाँ न प्रकाश है, न अन्धकार है
जबकि प्रकाश भी है और अन्धकार भी है
इसे भाषा कैसे अभिव्यक्त करे, कि
ताली दो हाथों से ही नहीं
एक हाथ से भी बजती है।

कोई ऐसा विश्वास करेगा कि
प्रकाश सुने जा सकते हैं
और ध्वनियाँ देखी जा सकती हैं

यहाँ इस परा अन्धकार में
अँधेरा अँधेरे को खोज रहा है।

इन परा ज्योतियों में प्रकाश अन्धे हो गये हैं

ब्रह्माण्ड के पराचुम्बकीय संकर्षण क्षेत्र
की महाज्योतियों का अत्यन्त नगण्य आलोक है
जो हम तक प्रकाश रूप में आता है।

प्रकाश भी लय है।

ब्रह्माण्डीय किरणों के सप्तवर्णी रंगमण्डल
वह
हाँ वह, जो युगनद्ध है
अर्धनारीश्वर है
जड़, चेतन औ गति की सघनतम युति के साथ
अपनी योगमाया में अवस्थित है।
वह महाशव
चिद्शक्ति के लास्य स्पर्श की प्रतीक्षा में
गणनातीत काल-यात्रा सम्पन्न कर निश्चेष्ट है।

सोने दो
महाशव बने इस चिद्बिन्दु को सोने दो।
ब्रह्माण्डों की पराविस्तृति में
कहीं भी, किसी में भी
न कहीं सूर्यों के भी सूर्य वाले तारे हैं
न कहीं नभगंगाएँ हैं
और न कहीं नक्षत्रमालिकाएँ ।
सारे प्रकाशों की मृत्यु हो चुकी है
सारी ध्वनियाँ पथरा चुकी हैं
महाकाल के इस पराकृष्णगर्त में
सारे व्योमकेशी देश और काल
नामहीन, आयुहीन, परिचितिहीन बन कर
न जाने कहाँ
न जाने किस देश और काल में बिला गये हैं।
अब केवल अन्धकार
परा अन्धकार
नहीं, परात्पर अन्धकार की ही सत्ता है
पराविराट परात्पर बिन्दु बना लेटा है
सोने दो
महाछन्द के इस गोलक को सोने दो।


जैसे ही सोने के लिए बत्ती बुझाई
और अँधेरा हुआ तो
सहसा पूरा दिन भी लौट आया
जैसे उसे घर लौटने में थोड़ी देर हो गयी थी

और वह सिर झुकाये अपराध भाव से खड़ा था।
पूरे दिन की घटनाएँ भी
खिलौने थामे बच्चों सी आ खड़ी हुईं।
उन्हें खेल-खेल में ध्यान ही नहीं रहा कि
इतनी रात हो गयी है
और घर भी लौटना है।
मैं उन सबको कुछ कहना चाहता था
पर सब केवल थके ही नहीं लग रहे थे
बल्कि उनकी आँखों में नींद घिरी पड़ रही थी
और मैंने हँसते हुए अपने में समेटा और सो गया।

आकाश के चरखे पर
बादलों की पूनियाँ काती जा रही हैं।
देखते नहीं
यह प्रभु नहीं
प्रभु की परात्परता है।
देखते नहीं
यह मूर्ति नहीं, लिंग है
जिसका पूजन नहीं अभिषेक किया जाता है।
जो स्वयं भी
सत्, रज, तम का बिल्वपत्र है
त्रिकाल ही जिसका त्रिपुण्ड है
सृष्टि की परागतियाँ जिसके कण्ठ में नाग हैं
जो महायोनि में अवस्थित होकर अट्टहास कर रहा है
पर अभी वह केवल पिण्ड है
चिद्बिन्दु है।
देखते नहीं
इस योगमाया निद्रा में
केवल प्रलय का अधिकार
पार्षद बना जाग रहा है।
सारे प्रकाशों पर आरूढ़
यह नामहीन, रूपहीन प्रलय का पार्षद ही
जाग रहा है।
किसी की भी कोई सत्ता नहीं
केवल वह चिद्बिन्दु ही है,
लेकिन कहाँ ?
जब कोई देश और काल ही नहीं है
तब यह कहाँ, क्या !!

महाशून्य के कृष्ण के चारों ओर
अनन्त नभगंगाओं, तारा-मण्डलों की गोपिकाएँ
ज्योति का महारास कर रही हैं

प्रकाश के सप्त सोपान ही सप्त आकाश हैं।

कौन अपनी परासंकर्षण शक्ति से
प्रकाश-अश्वों की महागतियों पर वल्गा लगा देता है ?

कौन परासंकर्षण का जाल फेंक कर
प्रकाश और ज्योतियों की मछलियों को समेट रहा है ?

कृष्णगर्त सारे प्रकाशों और ज्योतियों को पी डाल रहा है
कृष्णगर्त के इस महाराक्षस के उदर-विविर में समा कर
गणनातीत वर्षों के बाद
ये प्रकाश, ज्योतियाँ, ध्वनियाँ
किस ब्रह्माण्ड में
भूत या भविष्य के किस काल में कब मुक्त होंगी
यह कौन जानता है ?


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