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बचपन की यादें

माधविकुट्टि

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5481
आईएसबीएन :8123727712

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प्रस्तुत हैं श्रेष्ठ उपन्यास...

Bachpan Ki Yadain a hindi book by Madhvikutti - बचपन की यादें - माधविकुट्टि

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बचपन की यादें मलयालम की प्रसिद्ध लेखिका माधविकुट्टि के संस्मरणात्मक उपन्यास का अनुवाद है। लेखिका ने इसमें बचपन की स्मृतियों के बिखरे सूत्रों को कथात्मक धागे में पिरोने का एक शानदार और सफलतम नमूना पेश किया है। बाल्यावस्था की भिन्न-भिन्न घटनाओं को जोड़ने के क्रम में कथात्मकता इतनी घनी हो गई है कि पुस्तक अद्भुत रूप में आनंददायक, रोचक और लगातार उत्सुकता बनाए रखती है। इसमें मलयालम भाषी क्षेत्र के आहार व्यवहार रीति-रिवाज, पारिवारिक संबंधों के सूत्र, सामाजिक राग-विराग, छुआछूत, दया-क्रोध प्रेम-घृणा शिक्षा प्रगति-पाखंड सबकी व्याख्या यथा योग्य है। अनुभव की गहनता और मर्म की सघनता से संस्मरण प्रधान यह उपन्यास सार्वजनिक जीवन के बालापन को भी जीवंत कर देता है।

माधुविकुट्टि मलयालम भाषा की विख्यात रचनाकार हैं। प्रारंभ में ये कविता और कथा साहित्य लिखती थीं। मलयालम में ‘माधविकुट्टि’ तथा अंग्रेजी में ‘कमला दास’ के नाम से लिखती रही हैं। भावुक मन और कोमल संवेदनाओं के सूक्ष्म सूत्रों को पकड़ने वाली रचनाकार माधविकुट्टि सदा अपने पाठकों के मन पर छाई रहती हैं।
अनुवादक अरविन्दन एम. एक प्रसिद्ध भाषा सेवी, साहित्य सेवी तथा शिक्षा सेवी हैं। अनुवाद के क्षेत्र में इन्होंने अपनी प्रशंसनीय छवि, अपनी निष्ठा के बल पर ही बनाई है। मलयालम, हिन्दी तथा अंग्रेजी पर इनका अधिकार है। इनके द्वारा अनूदित कई पुस्तकें प्रकाशित हैं।

भूमिका


वर्षों तक कथा और कविता लिखते-लिखते मैं थक गई। मैंने महसूस किया कि या तो मुझे लिखना बंद कर देना चाहिए या फिर किसी ऐसी विद्या का चयन करना चाहिए जो पूरी तरह अलग हो। डा. रमणलाल पटेल, प्रसिद्ध मनोविश्लेषक हैं और हमारे परिवारिक दोस्त हैं। एक बार उन्होंने अतीत के टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर आत्म केंद्रित होकर सोचने की सलाह दी।
जब मैंने अतीत के भूले हुए संवाद और सतह पर बिखरे दृश्यों को खंड-खंड स्मृतियों में जोड़ने का प्रयास किया तो मेरी इच्छा हुई कि मैं उन सारी यादों को पुनर्जीवित करूं, जिन्हें अपने विकास के क्रम में मैंने खो दिया है।

मैं चाहती थी कि प्रत्येक अध्याय को एक मुकम्मल कहानी बनाऊं और वे सारी कहानियां मिलकर उस असाधारण बचपन की बड़ी कहानी हो जो एक पश्चिमीकृत नगर कलकत्ता और एक समुद्रतटीय कला विहीन गांव के बीच बीता है।
मूल मलयालम में मैंने मालाबार गांव के विभिन्न आंचलिक शब्दों, वाक्यों, का इस्तेमाल किया है, पर मुझे डर है कि अनुवाद में इसकी ग्राम्य-गंध आ नहीं पाएगी।
मेरा बचपन ब्रिटिश शासित भारत में बीता है। इसलिए इस पुस्तक में नई पीढ़ी के पाठकों को हमारे उस इतिहास के क्षण की भी अनुभूति मिल सकती है।
माधविकुट्टि


वह दिन मुझे अभी भी याद है जब मेरी नानी मुझे कोविलकम्1 ले गई थीं। जाति-भेद का पहला पाठ मैंने उसी दिन सीखा।
मुझे याद है कि कोविलकम् के फाटक पर पत्थर की दो मूर्तियां मौजूद थीं। नानी ने मुझसे कहा कि वे द्वारपाल हैं। तब कलकत्ता के पार्कस्ट्रीट में दिखाई पड़नेवाले उस द्वारपाल को मैंने प्रेम के साथ याद किया, जहां मेरे मां-बाप रह रहे थे। सजीव द्वारपाल। चारपाई पर मुझे पास बिठाकर, मेरी टीचर तथा आया के बारे में पूछनेवाला प्रिम मित्र।
कोविलकम् के बरामदे में टहलते तथा अथाई पर उठंगकर लेटते अनेक अधनंगे मर्द दिखाई पड़े। उन्होंने कुर्ते नहीं पहने थे। उन्होंने माथे पर ही नहीं, छाती पर भी चंदन लगाया था। रेत पर पान-रस बिखरा पड़ा था।
नानी दहलीज को नजर अंदाज कर मुझे कसकर पकड़ती हुई उत्तरी ओसारे की ओर चलीं। कोमल चमक के साथ सरोवर के हंसों की भांति कोठरी के अंधकार से कुछ सुंदर महिलाएं प्रकट हुईं। प्रत्येक के हाथ में पंखा था। हमें देखते ही पंखे रुक गए। वे जल्दी दरवाजे पर आ गईं।
‘‘कोच्चू ! कौन है यह लड़की ?’’

‘‘यह बाला की बेटी है, कमला। गर्मी की छुट्टियों में आई है। आषाढ़ की बारह तारीख को कलकत्ता लौटेगी।’’
‘‘बैठो कोच्चू।’’
‘‘बैठ कमला।’’
हमें बैठने के लिए एक स्त्री ने एक चटाई बिछा दी, जिस पर बाघ का चित्र अंकित था। उनमें से कोई भी हमारी चटाई पर नहीं बैठीं। चारपाई, अथाई तथा फर्श पर बैठकर वे हमें देख मुस्कुराने तथा पंखा झलने लगीं। उनके सफ़ेद कपड़ों तथा पंखों की वजह से मुझे ऐसा लगा कि वे सफेद चिड़ियां हैं। स्वर्ग में उड़नेवाली चिड़ियां। प्रत्येक के बाल लंबे और घुंघराले थे, आंखें चमकीली तथा होठ लाल थे। उन्होंने अड्ढिकाएं, कटक आदि पहन रखे थे। वे मेरी ओर देखकर बार-बार मुस्कुराती रहीं।

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1. कोविलकम्-क्षत्रिय राजवंश के लोगों की हवेली।

‘‘इसका रंग बाला जैसा तो नहीं है न ?’’
‘‘पर, माधवन नायर जैसा सांवलापन भी नहीं है।’’
‘‘सुंदर बाल ! कोच्चू, इस बच्ची के सिर पर कौन-सा तेल मलती हो ?’’
‘‘उबाला हुआ नारियल का तेल। मैं हर साल तेल बनाकर कलकत्ता भेज देती हूं। कारण, वहां बनाने की सुविधा तो है नहीं।’’
‘‘यह बच्ची का सौभाग्य समझो कि इसे एक नानी मिल गई।’’
‘‘वह खुशनसीब है, इसमें कोई संदेह नहीं।’’
‘‘अम्मा तंपुरान1 सो रही हैं क्या ?’’
‘‘नहीं, अभी आएंगी।’’

अम्मा तंपुरान ने कंचुकी नहीं पहनी थी। एक दुपट्टे से अपनी छाती ढक ली थी। वे गोरे रंग की स्थूल शरीरवाली थीं। उनके थोड़े से बाल पक गए थे। मेरी ओर घूरकर देखती हुई उन्होंने नानी से पूछा, ‘‘यह बाला की बच्ची है न ?’’
‘‘जी हां।’’
‘‘नान कमलम् है न ?’’
‘‘कमला कहकर पुकारते हैं।’’
‘‘बच्ची को बोलने दो कोच्चू, मेरे सवालों के लिए तू क्यों जवाब देती है ? क्या बच्ची को मलयालम बोलने नहीं आती।’’
‘‘जी, बच्ची को मलयालम आती है। उनके घर मलयालम ही बोली जाती है।’’
‘‘कलकत्ते में अक्सर दूसरी भाषाएं ही सुनती होगी, है न ? अंग्रेजी, बंगला वगैरह-वगैरह।’’
‘‘जी हां।’’
‘‘क्या बच्ची को स्कूल नहीं जाना है ?’’

‘‘जी हां।’’
‘‘किस स्कूल जाती है ?’’
‘‘सेंट सिसिलियस यूरोपियन स्कूल।’’
‘‘इस बच्ची को माधवन नायर, यूरोपियन स्कूल क्यों भेजते हैं ?’’
‘‘वह माधवन नायर की मर्जी।’’
‘‘तुझे यह गांव पसंद है न ? यहां नारियल का पानी मिलेगा, पके आम मिलेंगे, नंपिडि मास्टर से मलयालम पढ़ सकेगी और कोच्चू के लिए एक सहारा भी बन जाएगी। क्यों कमला, कलकत्ता जाना जरूरी है ?’’ उस वक्त मुझे अम्मा तंपुरान की अक्लमंदी पर असीम आदर महसूस हुआ। मुझे पिता जी से डर था।
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1. अम्मा तंपुरान-बड़ी मालकिन

उतना डर मुझमें मां के मामा ने पैदा नहीं किया था। अपनी संतानों को लेकर पिता के मन में काफी आशाएं थीं। उन आशाओं के अनुरूप मैं कभी भी ऊंचा नहीं उठ पाती थी। पिताजी की निकटता में मैं अपने को छोटी महसूसकर मन ही मन कुढ़ रही थी। मामा की दृष्टि में मैं अत्यंत चतुर थी।
कोविलकम् से पुए खाकर लौटते वक्त नानी ने कहा कि उनमें से किसी को छूने का अधिकार हमें नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि उनकी जाति और हमारी जाति अलग-अलग है।
‘‘मैं अम्मा तंपुरान को छूऊंगी तो क्या होगा ?’’

‘‘छूएगी तो अम्मा तंपुरान को तालाब जाकर डुबकियां लेनी पड़ेंगी। हम नायर जाति के हैं न ? नायर के छूने से वे अपवित्र हो जाएंगी न ?’’
नानी ने जाति भेद के बारे में विस्तार से बता दिया। पहले नंबूदिरी, फिर तंपुरान, उनके नीचे नायर, तीय्यर, वेट्टुवर, पुलयर, परयर, नायाड़ी आदि। बेचारे नायाड़ी को खेत के दूसरे छोर से ऊंची आवाज में सिर्फ ‘नालाप्पाट1 की बड़ी मालिकिन’ पुकारने का अधिकार प्राप्त है। बड़े-बड़े पेड़ों की ऊंची डालियों में अदृश्य रहकर कराहने वाली चिड़ियों की भांति हैं नायाड़ी लोग। मुझे उनसे मिलने की इच्छा हुई। परंतु उनके लिए सूप में चावल ले जानेवाली तीय्य जाति की औरतें मुझे कभी भी साथ नहीं ले गईं।
‘‘छोटी मालकिन नायाड़ी को देखते ही डर के मारे चीखने चिल्लाने लगेंगी।’’
‘‘नायाड़ी देखने में काल-मुर्गा2 जैसा है।’’
‘‘क्या काल मुर्गा को देखा है कभी ? सर्पक्काव3 के बछनाग वृक्ष पर बैठकर कूआ...आ...कूआ...आ चीखनेवाली चिड़िया ! नायाड़ी भी उसी भांति है। छोटी मालकिन को इस जनम में मैं नायाड़ी से मिलने नहीं दूंगी।’’
एक दिन मैं चूनी की कंजी पी रही थी इसी बीच नानी पापड़ परोसने लगीं तो मैंने कहा, ‘‘अड़ियन4 को पापड़ नहीं चाहिए।’’
‘‘कमला ‘अड़ियन’ क्यों कहती है ? ‘मैं’ क्यों नहीं कहती ?’’
‘‘वल्ली इस प्रकार अड़ियन बोलती है न ?’’
‘‘वल्ली तीय्य जाति की है न ? पर कमला तीय्य जाति की नहीं।’’
‘‘मैं किस जाति की हूं ?’’
‘‘कमला किस जाति की है, अभी तक यह नहीं मालूम ? अभी तक इसका पता नहीं तो किसी के कहने पर भी नहीं समझ पाएगी।’’

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1. नालाप्पाट-एक खानदान का नाम
2. काल-मुर्गा-एक विशेष प्रकार का उल्लू जिसकी चीख डरावनी तथा मृत्यु सूचक है।
3. सर्पक्काव-वह स्थान जहां सर्पों की प्रतिष्ठा कर उनकी पूजा की जाती है।
4. अड़ियन-गुलाम (Servant)

नानी ने जो बात कही थी, उसका मतलब आज मेरी समझ में आ रहा है।
एक बार पिताजी कलकत्ते से आ गए थे तब सर्पक्काव के झाड़-झंखाडों को साफकर वहां बच्चों के खेलने लायक बनाया। बूढी़ औरतें डर के मारे पीली पड़ गईं। पिताजी से सीधे शिकायत करने की हिम्मत उनमें नहीं थी। इसलिए उन्होंने आपस में कहा कि सर्प कोप होगा।

स्त्रियों ने कहा कि किसी भी हालत में नागयक्षि शिवलिंग तथा चित्रखचित पत्थरों को न हिलाएं। फिर भी पिताजी ने वहां सीमेंट का एक बैठका बना लिया। सर्पक्काव के चारों ओर बैठने का एक चबूतरा बनाया गया। शायद इतना काफी न समझकर उन्होंने सर्पक्काव में दो म्लेच्छ पेड़ भी लगाए-गुलमोहर के पेड़।
उन्हीं दिनों मौलसिरी का एक बड़ा पेड़ भी गायब हुआ। वह स्वयं गिरा था या गिराया गया था, यह मुझे अब याद नहीं। नालाप्पाट के दक्षिणी आंगन में झरे हरे फूल तथा उनकी हल्की महक केवल स्मृति बनकर रह गई।
सर्पक्काव के परी नामक वृक्ष की डालियों पर हमें बिठाकर पिताजी ने फोटो खींचा। उन्होंने नानियों को समझा दिया कि अंधविश्वासों की उपेक्षा करनेवाले पर कोई विपत्ति नहीं आएगी।
इसे समझाने के सिलसिले में चिड़ियों के घोंसले धराशायी हुए। अंडे चकनाचूर हो गए। पिप्पलि की लताएं घराशायी हो गईं। अधखिले फूल भी झर गए। पिताजी ने नौकरों से कहा कि जिस मौलसिरी पर झूला डाला गया है, वह मत काटें। अनार का पेड़ भी बच गया।

मामाजी तथा नानी दक्षिणी कोठरी में एक मंदिर बनाकर उसमें पिताजी को पुरस्कार में मिले शालिग्राम पत्थर की प्रतिष्ठा कर पूजा करते थे। पूजा के वक्त नानी केवल नए कपड़े ही पहनती थीं। उस मंदिर में किसी का घुसना नानी को कतई पसंद न था। नानी को संदेह था कि वे सब मंदिर को अपवित्र कर देंगे।
महिलाएं ऋतुमति होते ही उत्तरी ओसारे की ओर जाती थीं। फिर तीन दिन वहीं ठहरती थीं। घरेलू काम करने की इजाजत उन्हें नहीं दी जाती थी। इसलिए वक्त काटने के लिए वे किताबें पढ़ती थीं। चंगमपुषा का ‘रमणन’, कुमारनाशान की ‘नलिनी’ तथा ‘लीला’, कप्पना कृष्णमेनोन के उपन्यास आदि के अलावा आत्मपोषिणी, कैरली, महिला आदि पुरानी मासिक पत्रिकाएं उनकी सहेलियां होती थीं। ऋतुवेला के अलावा किताब पढ़नेवाली महिलाएं उस गांव में दुर्लभ थीं। उस दुर्लभ श्रेणी में मेरी मां और छोटी मां भी शामिल थीं। नालाप्पाट में रसोइए की सुविधा हमेशा उपलब्ध रहने के कारण स्त्रियों ने पाक-कला में पटु होने की चेष्टा नहीं की। स्त्रयों का काम भारी नहीं था। दीया साफ करना, बत्तियां बनाना, सांध्या-वेला में दिया जलाना, विल्व वृक्ष के चबूतरे पर, सर्पक्काव में तथा चारों ओर के बरामदों में बत्तियां जलाकर रखना, सांध्य-वेला में दीया के पास बैठकर ऊंची आवाज में साप्ताहिक पत्रिकाएं पढ़ना, उबालने के लिए धान नापकर देना, पूजा-सामग्रियां साफ करना...आदि छोटे-छोटे काम उनके होते। शेष सारे काम नौकरों के होते थे। विशेष प्रकार कुछ तेल बनाने की देख रेख भी घर की स्त्रियां ही करती थीं।

एक दिन दोपहर को मैं ऊपर के बरामदे में चटाई बिछाकर लेटी हुई थी। नानी तकली से सूत कात रही थीं। तब गोयिश्शार नामक एक आदमी मैला अंगोछा पहने दक्षिणी कमरे के बाहर दरवाजे पर आया।
उसने कहा, ‘‘अंबाषत्त वालों को एक लेह बनाने के लिए एक कड़ाह चाहिए।’’
नानी सीढ़ियां उतरकर नीचे आईं। मैं भी उनके पीछे हो लिया। नानी ने नौकरानी को एक कड़ाह दे देने का आदेश दिया।
नानी ने कहा, ‘‘अभी ला देगी। जरा वहां रुको गोयिश्शार1।’’
‘‘अरे गोयिश्शार, तुम्हारे कहने का मतलब यह तो नहीं कि अंबाषत्त में कड़ाह नहीं ?’’ नौकरानी ने पूछा।
‘‘वहां का कड़ाह बहुत बड़ा है न ? वहां का सबसे छोटा कड़ाह यहां के सबसे बड़े कड़ाह के बराबर है।’’ गोयिश्शार अपने लाल दांतों को दिखाते हुए बोला।
‘‘मैं ऐसी बातें सुनना नहीं चाहती हूं।’’ नौकरानी बड़बड़ाई। कड़ाह लेकर आंखों से ओझल होने तक मैं उस बूढ़े के कौपीन के छोर को देखती खड़ी रही।

जब मैं और नौकरानी ही वहां रह गईं तो नौकरानी बोली, ‘‘ऐसी बातें सुनने पर मुझे गुस्सा आता है। वह अपना रौब जता रहा है। उसके कहने का मतलब है, अंबाषत्त वाले यहां के लोगों की अपेक्षा काफी पैसे वाले हैं। चाहें तो बच्ची के पिता इस पूरे गांव को खरीद सकते हैं। क्या बच्ची को इसका पता है ? वहां के अमीर लोगों में बच्ची के पिता को छोड़कर ही और किसी का नाम आता है। क्या यह मालूम है ? बच्ची की मां सफेद खद्दर के कपड़े पहनकर चलती है न, इसीलिए दूसरे लोग सोचते हैं कि इनके पास कुछ हैं नहीं। अंबाषत्त की स्त्रियों की तरह क्या वे चल नहीं सकती ? आठ-दस पवन1 की हार और चूड़ियां बनवा नहीं सकती ? क्या अच्छी धोती पहन नहीं सकती ? पैसे की कमी तो नहीं है। कोई बच्ची की मां की खिल्ली उड़ाए तो गांधीजी को क्या हर्ज है ? कोई बच्ची की मां का परिहास करे तो उसका दोष बच्ची पर ही लगेगा न ? अपनी मां से कहना कि वे अच्छी तरह सज-धजकर चलें ताकि दूसरे भी देख लें। इसे देखने पर प्रत्येक का होंठ सिकुड़ जाएगा। बच्ची को जिद करना होगा कि आगे से उसकी मां का मजाक कोई न उड़ाए।’’
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1. पवन-आठ ग्राम सोना

‘‘क्या मेरी मां का मजाक उड़ाया जाता है ? कौन है, मेरी मां का मजाक उड़ानेवाला ?’’ मैंने पूछा। मैं रुलाई को संभालकर बोल रही थी।

‘‘जब मैं तालाब में नहाने गई थी, तब सुना-वह पणिक्कर की बीवी है न ? हमेशा दांत निपोरती रहनेवाली कोता ! वह कह रही थी कि बालामणिअम्मा कोग्रस है।’’
‘‘कोग्रस ? वह क्या बला है ?’’
‘‘मुझे नहीं पता। मैं इंग्लिश और परंद्रीस, कुछ नहीं जानती। इतना जरूर जानती हूं कि वह शब्द अच्छा नहीं है। जो गांधी के आदमी हैं न, उन्हें कोग्रस कहते हैं। बड़ी शरम की बात है, मेरी बच्ची, बड़ी शरम की।’’
जिस दिन आंधी आई थी, उस दिन अंबाषत्त के किसी की वर्षगांठ थी। मैं और मेरे भाई अंबाषत्त के घर में हुई दावत में आमंत्रित थे। भोजन के पूर्व हम मालतिकुट्टि के साथ सर्पक्काव गए। वहां हमने देखा कि मीनाक्षी दीदी सांपों के लिए हल्दी का चूर्ण, दूध तथा फल रखकर बत्ती जला रही थीं। मीनाक्षी दीदी अंबाषत्त वालों की दूर की रिश्तेदार थीं। गरीब होने की वजह से उन पर आश्रित भी थीं। वे सांवले रंग की अधेड़ उम्रवाली औरत थीं। हमेशा सभी से क्षमा-प्रार्थी की मुद्रा में वे उस घर तथा परिसर में बिना विश्राम के दौड़ धूप करती थीं। परक्कार1 के आते वक्त धन सहित उनका स्वागत-सत्कार करना, बत्तियां जलाना, बच्चों के लिए दही-मंथनकर मक्खन निकालना, निरा2 के दिन चावल के गीले आटे में हाथ डुबोकर उससे दरवाजों पर छापे लगाना आदि छोटे-छोटे काम ही उन्हीं निभाने थे। अन्य सारे कामों के लिए असंख्य नौकर-चाकर मौजूद थे। फिर भी मीनाक्षी दीदी के अभाव में एक दिन भी चैन से काटना उस परिवार के लिए असंभव था। कितना धान उसनना है, कितनी धोतियां धोबी को दी गई हैं, बच्चों का पेट साफ करने के लिए कब रेंडी का तेल देना है, आदि बातें मीनाक्षी दीदी के अलावा और किसी को मालूम न थीं।

‘‘सांप क्यों नहीं आता ?’’ मैंने पूछा।
‘‘आदमी के देखते रहने पर सांप कैसे आएगा, बच्ची ? हमारे चले जाने पर रेंगते हुए आएगा, काला नाग।’’ मीनाक्षी दीदी ने कहा।

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1. परा-दस सेर के माप का बर्तन है। कुछ विशेष अवसर पर मंदिर की ओर से कुछ लोग परा लेकर घर-घर आते हैं। घरवाले मंदिर के लिए परा भर धान दक्षिणा के रूप में देते हैं। परा ले आनेवालों को ‘परक्कार’ कहते हैं।
2. निरा-केरल का एक विशेष पर्व।

भोजन करते ही मुझे नींद आने लगी। नालाप्पाट लौटते वक्त हमारे साथ मालतिकुट्टि भी आ गई। घर पहुंचकर एक घंटा बीता ही होगा कि हमने हवा की आवाज सुनी।
दक्षिणी अहाते के नारिकेल-कुंजों के बीच से तेज आवाज के साथ एकाएक हवा ऊपर उठी। तालाब के किनारे पड़े सूखे पत्ते खड़खड़ाते हुए ऊपर उठे। वृक्षों ने अपनी शाखाएं हिला दीं। मौलसिरी पर लटके झूले का तख्त नीचे गिरा।
‘‘कहीं आंधी तो नहीं आ रही ? आवाज सुनने पर डर लगता है।’’ नानी ने कहा। उन्होंने हमें छत के बीच के कमरे में बिठा दिया और खेलने के लिए कांसे के पांसे दिए। रोशनी के मंद पड़ने पर एक दीया जलाकर रख दिया।
‘‘कोच्चू, दरीचियां बंद की है न ?’’ परनानी ने नीचे दक्षिणी कोठरी से ऊंचे स्वर में पूछा।
‘‘बंद करती हूं मां, मैं सब बंद कर लेती हूं।’’ नानी ने जवाब दिया। तभी दक्षिणी-पश्चिमी कोने से भीड़ शोरगुल-सी बारिश की आवाज हमने सुनी। नानी ने खिड़की के किवाड़ों को बलपूर्वक बंद कर दिया। उनके चेहरे पर पानी के छींटे चमक उठे।
‘‘चार भी नहीं बजा था। पर आंगन में अंधेरा छा गया है।’’ नानी ने कहा।
‘‘मुझे कट्योप्पु1 से मिलना है।’’ मालतिकुट्टी बोली।
‘‘कुट्योप्पु सांझ होते ही आ जाएगी।’’ नानी ने कहा।

‘‘मुझे अभी अंबाषत्त जाना है।’’ मालतिकुट्टि बोली।
‘‘हवा और बारिश को थम जाने दें। फिर बच्ची को अंबाषत्त भेज दूंगी।’’ नानी ने मालती को शांत करने की चेष्टा की। मालतिकुट्टि ऊंचे स्वर में सिसकने लगी। तब हमें नारियल के पेड़ के गिरने की आवाज सुनाई पड़ी।
‘‘कोच्चु, क्या गिरा है ? मकान गिरेगा तो नहीं ?’’ परनानी का सवाल था।
‘‘मां, डरने की कोई बात नहीं। नारियल का एक पेड़ ही गिरा है।...बारिश के थमते ही जाकर देख लूंगी। अब नाम जपते आराम से बैठना अच्छा है।’’ नानी बोलीं।
मामाजी की मां के आदेश के मुताबिक सभी ने नीचे की मंजिल के दक्षिणी कोठरी का आश्रय लिया। बड़ी मां का कहना है कि उस कोठरी की छत ही काफी मजबूत है। दक्षिणी आंगन में पानी उमड़कर बहने लगा। बीच के आंगन में भी पानी भर गया। दक्षिणी कोठरी की चारपाई पर मामाजी और हम बच्चे बैठ गए। फर्श पर तहकर रखी रजाइयों पर नानियों ने आसन जमाया। नौकरानी ने बाहर के एक कमरे में आश्रय लिया। बारिश, मेघ गर्जन तथा बिजली की परवाह किए

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1. कुट्योप्पु-छोटी दीदी

बिना मामी भी भीगती हुई चली गई।
‘‘बाला, यह कैसी मूर्खता है ? बुखार आ गया तो ?’’ मामा ने पूछा।
मामी हंसी।
‘‘कुट्योप्पु आ गईं।’’ मालतिकुट्टि ने खुशी के साथ कहा। नानी ने मालतिकुट्टि को गले लगाया। छोटी मां ने एक राय प्रकट की कि घबराहट से बचने के लिए अक्षर श्लोक गाया करें। छोटी मां ने वल्लत्तोल की कृति ‘बंदी अनिरुद्ध’ के कुछ पद सुनाए। पर अक्षर श्लोक की प्रतियोगिता में किसी ने दिलचस्पी नहीं ली।
‘‘मुझे कोई श्लोक याद नहीं आ रहा है।’’ नानी बोलीं।

‘‘मकान न गिरे तो अच्छा है।’’ परनानी बड़बड़ाईं।
मामाजी और मामी के ऊपर जाते ही नौकरानी जोर से चीखने लगी। चीखने के साथ वह अपने माथे को हाथों से पीट भी रही थी।
‘‘यह क्या पागलपन है ? सिर क्यों फोड़ रही है ?’’ नानी ने पूछा।
‘‘मैं अपने घरवालों को अबसे कैसे देख पाऊंगी।’’
‘‘मेरे गुरुवायूरप्पा1 ! मैं अपना घर कैसे देख पाऊंगी ?’’
‘‘बारिश के थमते ही कल सुबह घर चली जाना, क्यों ?’’ नानी ने पूछा।
‘‘यह बारिश नहीं थमेगी। यह आंधी है न ? इसमें हम सब मर जाएंगे।’’ नौकरानी सिसकने लगी।
‘‘यह क्या पागलपन है ?’’ नानी ने कहा।
हमें पेड़ों के गिरने की आवाज सुनाई पड़ी और पश्चिमी अहाते से एक कुत्ते की चीख भी।





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