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आस्था के फूलों से

बाल गोविन्द द्विवेदी

प्रकाशक : हिन्दी प्रचारिणी समिति कानपुर प्रकाशित वर्ष : 1994
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5527
आईएसबीएन :00000

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‘आस्था के फूलों से’ नामक इस संग्रह में कथ्य और शिल्प की सद्यः स्फूर्ति का अनुभव हुआ है। इसमें अपनी धरती तथा संस्कृति के प्रति राग व्यक्त हुआ है।

Aastha Ke Phoolon Se a hindi book by Bal Govind Dwivedi - आस्था के फूलों से - बाल गोविन्द द्विवेदी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस कृति में

हम तो हिन्दू नहीं, हम मुसलमाँ नहीं
सिख-ईसाई नहीं, मात्र इंसान हैं।

सभी सुखी हों, सभी बंधु हैं, हर मानव है भाई।
मानव धर्म बड़ा है सबसे, विधि ने सृष्टि बनाई।।

हम भारत के भारत अपना, संस्कृत सुधा समान है।
हैं अनेक पर एक रहेंगे, भारत देश महान है।

प्रेम औ’ उदारता का गूढ़ ज्ञान संस्कृति।
एकता-अखण्डता का मूल मंत्र संस्कृति।

एकता यदि दिलों में समाई नहीं
प्रश्न चिन्हों से इतिहास भर जायेगा।

भेद से राष्ट्र में घुन लगाते हैं जो
उन गुनाहों का पर्दा उठा देंगे हम।

देश हमारा मन्दिर, मस्जिद, गिरिजाघर, गुरुद्वारा है। ‘खून एक हैं—एक पसीना’ यही हमारा नारा है।

ज्ञान-रश्मिमिलती दिनकर से, सबको सांझ सकारे।
वंदित है भारत माता, नित सागर चरण पखारे।


डॉ. बाल गोविन्द द्विवेदी


मुझे ‘आस्था के फूलों से’ नामक इस संग्रह में कथ्य और शिल्प की सद्यः स्फूर्ति का अनुभव हुआ है। इसमें अपनी धरती तथा संस्कृति के प्रति राग व्यक्त हुआ है, साथ ही युग प्रबोधन का स्वर भी मुखरित हुआ है। इन रचनाओं की अपनी गंध है, अपनी वर्ण छटा है और सर्वोपरि यह है कि इतनी विसंगतियों के बीच भी इनमें कवितात्व सुरक्षित है। मैं रचनाकार की सम्भावनाओं के प्रति आश्वस्त हूँ।

डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित

कतिपय प्रेरक अंश


शत-शत नमन राष्ट्र की रज को,
नमन कोटि जन-जन को।
शश्य-श्यामलाप्रकृतिसुन्दरी,
नमन भूमि भारत को।।

एक रहे हैं – एक रहेंगे,
यह विश्वास हमारा है।
आर्यावर्त हमारा है,
पावन कैलाश हमारा है।

धर्म जुड़ना सिखाता रहा है सदा,
धर्म हिंसा की राहों उतरता नहीं।

भक्ति-श्रद्धा-प्रेम की गाथा सुनाती संस्कृति।
शस्य-श्यामला भूमि को नन्दन बनाती संस्कृति।

अस्मिता में निहित व्यापक चेतना है राष्ट्र की,
भारत ऋणी जिस गीत का, वह गीत वन्दे मातरम् है।


प्रकाशकीय


प्रस्तुत गीत-संकलन ‘हिन्दी प्रचारिणी समिति कानपुर’ द्वारा किया जा रहा है। कवि डॉ. बालगोविन्द द्विवेदी के चवालीस गीत इस कृति में संगृहीत हैं। प्रत्येक गीत राष्ट्रीय चेतना को जागरण-स्वर प्रदान करता है। इन गीतों के माध्यम से कवि राष्ट्रीय एकता की भावना को बल प्रदान करता है। इन गीतों के माध्यम से कवि राष्ट्रीय एकता की भावना को बल प्रदान करते हुए भारत की अखण्ता को अक्षुण्ण बनाये रखने की प्रेरणा देता है। डॉ. द्विवेदी भारतीय संस्कृति के पोषक हैं। इसलिए उनके काव्य में सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति जागरुकता  परिलक्षित होती है। उनकी प्रत्येक कविता राष्ट्र के प्रति गहरी निष्ठा का प्रमाण है तथा मानवता वादी आस्था के महकते फूलों में से कुछ फूल यहाँ मातृभूमि की सेवा में समर्पित हैं।
मैं, राष्ट्रीय एकता को बल प्रदान करने वाली इस कृति और सारस्वत-साधना के लिए कवि को साधुवाद देते हुए  हार्दिक कामना करता हूँ कि उनकी कलम से अनेकानेक कालजयी कृतियों का सृजन होता रहे। जय भारत, जय भारती।

डॉ. राजीव रंजन पाण्डेय प्रधानमंत्री
हिन्दी प्रचारिणी समिति
कानपुर (उ.प्र.)


राष्टीय चेतना : एक विचार



भारतीय वाङ्गमय में ‘राष्ट्र’ शब्द का प्रयोग वैदिक काल से ही होता रहा है। यजुर्वेद के ‘राष्ट्र में देहि’ और अथर्वेद के ‘त्वा राष्ट्र भृत्याय’ में राष्ट्र शब्द समाज के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मानव की सहज सामुदायिक भावना ने समूह को जन्म दिया, जो कालान्तर में राष्ट्र के रूप में स्थापित हुआ।
राष्ट्र एक समुच्चय है, कुलक है और राष्ट्रीयता एक विशिष्ट-भावना है। जिस जन समुदाय में एकता की एक सहज लहर हो, उसे राष्ट्र कहते हैं। आर्यों की भूमि आर्यावर्त में एक वाह्य एकता के ही नहीं वैचारिक एकता के भी प्रमाण मिलते हैं। आर्यों की परस्पर सहयोग तथा संस्कारित सहानुभूति की भावना राष्ट्रीय संचेतना का प्रतिफल है।
साहित्य का मनुष्य से शाश्वत संबंध है। साहित्य सामुदायिक विकास में सहायक होता है और सामुदायिक भावना राष्ट्रीय चेतना का अंग है।

आधुनिक युग में भारत माता की कल्पना अथर्ववेद के सूक्तकार की देन है। वह स्वयं को धरती पुत्र मानता हुआ कहता है—‘‘माता भूमिः पुत्रो ऽहं पृथिव्याः’’
अथर्व वेद के पृथ्वी-सूक्त का प्रत्येक मंत्र राष्ट्र-भक्ति का पाठ पढ़ाता है। वेदों में राष्ट्रीयता की भावना मातृभूमि-स्तवन और महापुरुषों (देवताओं) के कीर्तिगान के द्वारा प्रकट होती है। उपनिष्दकाल के क्रान्तिकारी अमर संदेशों को भुलाया नहीं जा सकता है। यथा--
‘उत्तिष्ठित् जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’
उठो ! जागो ! श्रेष्ठ पुरुषों के पास जाकर (राष्ट्रप्रेम के तत्व को) भली-भाँति जानो !
भारतीय मनीषियों का चिन्तन सूक्ष्म और विचार उद्त्त थे। उन्होंने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ मंत्र से अंतर्राष्ट्रीयता का सूत्रपात किया था। विश्व-बंधुत्व की भावना से भारी कार्य जाति विचारों में महान थी। साथ ही शौर्य-पराक्रम और तेज से समूचे राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोकर रखने की क्षमता रखती थी।

समाज का राष्ट्र से सीधा संबंध है। किसी भी संस्कारित समाज की विशिष्ट जीवन शैली होती है। जोकि राष्ट्र के रूप में दूसरे समाज को प्रभावित करती है। रूढ़ियों एवं विकृत परम्पराओं से जर्जर समाज राष्ट्र को पतन की ओर ले जाता है। कवि मोह-निद्रा में डूबे राष्ट्र को  जागृति के गान गाकर संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। राष्ट्रीयता जैसी उदात्त प्रवृत्तियों का पोषण और उन्नयन साहित्य द्वारा होता है किन्तु हिन्दी साहित्य के उद्भव काल में केन्द्रीय सत्ता के अभाव ने राष्ट्रीयता की जड़े हिला दीं। ‘राष्ट्र’ छोटे-छोटे राज्यों की सीमाओं में बँध कर रह गया। राष्ट्र का यह संकुचित स्वरूप देश की दुर्भाग्य-निशा की संध्या-बेला थी। इस युग के सम्पूर्ण काव्य में राष्ट्रीय-भावना के स्वस्थ-स्वरूप का नितान्त अभाव है।
आक्रान्ताओं के अत्याचारों से जर्जर भारतीय संस्कृति का सूर्य अस्तप्राय हो चला था। किन्तु भक्त कवियों के अंतःकरण में बहती राष्ट्रीय-चेतना धारा ने सुप्त निराश्रित समाज को नयी दिशा दी।

महात्मा कबीर ने निराकार ब्रह्म की उपासना का उच्च आदर्श प्रस्तुत कर राष्ट्रीय-गरिमा में नव-जीवन का संचार किया। राम और रहीम को एक सूत्र में पिरोने का प्रयास किया। कबीर अपने युग के महान राष्ट्रवादी थे। राष्ट्र-भक्त तुलसी ने राम के समन्वयवादी, लोकरक्षक और लोकरंजक स्वरूप को स्थापित कर सांस्कृतिक, एकता को शक्ति प्रदान की। सूर ने कर्मयोगी कृष्ण की विविध लीलाओं के माध्यम से आध्यात्मिक चेतना का संचार किया और समाज को सत्कर्म के लिए प्रेरित किया।

 रीतिकाल के कवियों की चमत्कारिक वृत्ति के कारण काव्य की आत्मालुप्त हो गयी। किन्तु भूषण के राष्ट्रवादी स्वरों ने लोक चेतना को झकझोर दिया। आधुनिक काल में भारतीय हरिश्चन्द्र ने अपनी लेखनी से भारत-दुर्दशा का चित्र खींचकर समाज को जागृति प्रदान किया। छायावादी काव्य में राष्ट्रीय आन्दोलनों की स्थूल अभिव्यक्ति नहीं मिलती है।
किन्तु छायावादी कवियों की राष्ट्रीय-सांस्कृतिक-संचेतना को नकारा नहीं जा सकता है। उसका राष्ट्र-प्रेम भावात्मक एवं व्यापक था। उन्होंने स्वातंत्र्य-भावना को विशिष्ट-कौशल द्वारा व्यंजित किया है।
भारत का पतन मानवीय मूल्यों के ह्रास का परिणाम था। गुप्तजी ने अपने काव्य द्वारा मानवीय मूल्यों की स्थापना पर बल दिया। उनकी भारत-भारती ने राष्ट्रीयता की सुप्त भावना में लहरें उठा दीं। माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ रामनरेश त्रिपाठी और सोहनलाल द्विवेदी ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, ‘जन’-जागरण तथा अभियान गीतों से राष्ट्र की आत्मा को नयी चेतना प्रदान की।

‘दिनकर’ की वैचारिक भाव-भूमि मानवतावादी है। तथापि समसामयिक परिस्थितियों में उठे विक्षोभ ने उन्हें राष्ट्रीयता वादी कवि के रूप में स्थापित कर दिया। ‘दिनकर’ के काव्य ने भारतीय जन-मानस को नवीन चेतना से सराबोर किया है।
राष्ट्रीय-कविता का स्वरूप राष्ट्र के रूप पर ही आधारित होता है। राष्ट्रीय काव्य में समग्र राष्ट्र की चेतना प्रस्फुटित होती है। प्रत्येक भाषा के आधुनिक काव्य में राष्ट्रीय भावना का समावेश है। राष्ट्रीय-भावना राष्ट्र की प्रगति का मंत्र है। सम्पूर्ण मानवता की प्रगति का स्वरूप है। राष्ट्रीय भावना की सृजनात्मक पक्ष मानवता वादी है। जन-गण के मंगल का स्रोत है। किसी भी राष्ट्र-रूपी वृक्ष की क्षाया में अनेक पंथ-धर्म और भाषाएँ पल्लवति और पुष्पित हो सकते हैं। एक राष्ट्र में अनेक धर्म हो सकते हैं। भाषायें और बोलियाँ अनेक हो सकती हैं किन्तु मूल भावना और सांस्कृतिक विरासत एक ही होगी। राष्ट्रीय भावना से भरे होने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम दूसरे राष्ट्रों के समाज को हेय दृष्टि से देखें या दुर्भावना रखें। किसी भी राष्ट्र के समाज की भौगोलिक एवं ऐतिहासिक परिस्थितियां उनकी जीवन-शैली का निर्माण करती हैं। बलात् अपनी सभ्यता-संस्कृति-थोपना हिंसा है और हिंसा वृत्ति कभी मानव का कल्याण नहीं कर सकती है।
भारतीय राष्ट्रीयता कोरी राजनीति कभी नहीं रही। उसने अध्यात्म, दर्शन और साहित्य के माध्यम से भी अपना नव-जागरण अभियान चलाया है।

अंग्रेजों ने भारतीय समाज में जो विष-बेलें बोई थीं। वह आज भी पनप कर लह लहा रही हैं। स्वतंत्रता के इतने लंबें अंतराल में भी हम, उन बेलों का समूल नष्ट नहीं कर सके क्योंकि हमने अपना बहुमूल्य समय राष्ट्रीय चिन्तन के बजाय राजनैतिक चिन्तन में बिताया है और राष्ट्रीय चेतना को अंधेरे में घेरकर व्यक्तिगत हित साधन को सर्वोपरि समझा है। स्वाधीनता तो मिली किन्तु राष्ट्रीय चेतना सो गई। स्वाधीनता आकाश से नहीं उतरी वरन् राष्ट्रीय-चेतना से सराबोर शहीदों की शहादत का परिणाम है।

आज जब भारतीय वैज्ञानिक शोध को नई दिशा देने में समर्थ हैं। हमारी सामर्थ्य के अनेकों आयाम विकसित हो रहे हैं। संसाधनों की कोई कमी नहीं है। भारत-भूमि में स्वर्ग उतर सकता है किन्तु राजनीति के कुशल-दिग्भ्रान्त पहरुए राष्ट्र की जनता को वर्गों-धर्मों में बाँटकर क्षेत्रवाद की धुँध फैला रहे हैं। इसीलिए आवश्यक हो गया है कि लोक-चेतना में नया-संचार हो। प्रत्येक राष्ट्रीवादी नागरिक अस्मिता की रक्षा के लिए आगे बढ़कर आत्म-समीक्षा करे।
आज राष्ट्र वाह्य और आंतरिक शत्रुओं के चक्रव्यूह में फंस कर अपना संगठित स्वरूप खोने लगा है। विघटनकारी तत्व अपना सिर उठा रहे हैं। साम्प्रदायिकता का विषैला प्रभाव राष्ट्रीय शिराओं में बहती जीव-धारा को विषाक्त कर रहा है। ऐसी विनाशक और विस्फोटक स्थिति में देश को दिशा देना साहित्य का गुरुत्वर दायित्व है। राष्ट्रीय काव्य-धारा ऐसी काव्य-प्रवृत्ति है जिसमें राष्ट्र-जन को तेजस्वी और पराक्रमी बनाने की सामर्थ्य निहित है।

वस्तुतः राष्ट्रीय संचेतना को झकझोरने वाला काव्यजन मानस को आन्दोलित कर नैतिक मूल्यों को स्थापित करने का साहस भरता है। उन मूल्यों को महत्त्व देने के लिए प्रेरित करता है जिनमें हिंस, घृणा को नकारकर एक उन्मुक्त वातावरण उत्पन्न किया जा सके और जिसमें सभी धर्म निश्चिन्त होकर सांस ले सकें। यदि प्रत्येक राष्ट्र-धर्मी काव्य अपने समाज के अन्दर व्यापक उदात्त-भाव और रचनात्मक संस्कार उत्पन्न कर सकें, तो निश्चय ही ऐसा काव्य मानव के कल्याण के लिए होगा। अर्थात् राष्ट्रीय-काव्य मूलतः मानवता वादी काव्य ही है।

राष्ट्र के प्रति मेरी आस्था के अनंत पुष्पों में से कुछ राष्टीय भावना से भरे पुष्प ‘आस्था के फूलों से’ काव्य-संग्रह में सम्मिलित हैं। इस कृति का उद्देश्य राष्ट्रीय-चेतना को नये आयाम देना है ताकि सम्पूर्ण राष्ट्र एक होकर मुख्य धारा में चल सके। यदि इस उद्देश्य में किंचित मात्र भी सफलता मिल सकी तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझूँगा। मातामयी माँ श्रीमती कमला द्विवेदी और भारतमाता के उन चरणों की वन्दना करता हूँ जिन्होंने मुझे कुछ कर सकने की क्षमता प्रदान की।

अंत में, मैं परम आदरणीय गुरु डॉ. श्यामनारायण पाण्डेय के चरणों का स्मरण करता हूँ जिनके आशीर्वाद से इस कृति का सृजन हो सका। पूज्य डॉ. हरिप्रसाद शुक्ल अकिंचन’ और भाई डॉ. सत्यकाम  ‘शिरीष’ की प्रेरणाओं का मैं सदैव आभारी रहूँगा। कृति के मुद्रण के लिए डॉ. विनोद कुमार एवं प्रकाशन के लिए हिन्दी प्रचारिणी समिति, कानपुर का आभारी हूँ। वहीं, हिन्दी कवि एवं समीक्षक डॉ. ‘विधु’ के सुझावों एवं समीक्षात्मक लेख के प्रति मेरा मन आदर भाव से आप्लवित है।

-डॉ. बाल गोविन्द द्विवेदी

आस्था के फूलों से : मेरी दृष्टि में



कविवर डॉ. बालगोविन्द द्विवेदी के प्रस्तुत काव्य-संग्रह में कुल 44 कविताएँ हैं जिनमें राष्ट्र-प्रेम की भावना मुखर हुई है। ‘राष्ट्र देवो भव’ की आस्थाभिव्यक्ति इन कविताओं की आधार-भूमि है। दिन-प्रतिदिन के गिरते नैतिक-मूल्यों, आपाधापी और ध्वंसाचरण से कवि का मन-देश-प्रेम की अटूट निष्ठा में भाव विभोर हो उठता है और अपने गौरवमय अतीत से प्रेरणा प्राप्त कर गा पड़ता है—

‘‘आ रही खुशबू शहीदों की चिताओं से जहाँ;
गा रही है गीत माटी, लग रहे मेले वहाँ।।’’ (पृष्ठ-1)


इतना ही नहीं ‘जननी जन्म-भूमिश्च स्वर्गादि गरीयसी’ की उदात्त भावना कवि के अन्तः करण में गहरे बैठी हुई प्रतीत होती है। वह अपने देश के लिए सर्वोच्च बलिदान करने को तैयार है, तभी तो निर्भीकता के साथ स्वाभिमान को जागरण-स्वर प्रदान करते हुए संकल्प लेता है---

‘‘रत्न गर्भा भारती माँ,
राष्ट्र-जन की आरती माँ !
ज्योति जागृति की उठायें,
ज्ञान का दीपक जलायें !!
एक माला में पिरोकर,
धर्म पर कटने न देंगे !
राष्ट्र की माटी न देंगे !!’’


राष्ट्र की सम्पन्नता के लिए एकता सूत्र में जन-मन को पिरोए रखना वह अपना पहला कर्तव्य समझता है। इसीलिए गा उठता है---


‘‘एकता यदि दिलों में समाई नहीं,
प्रश्नचिन्हों से इतिहास भर जाएगा ।’’ (पृष्ठ-3)


हम एक रहे, हम नेक रहें। तभी हमारा देश प्रगति-पथ पर अनूदिन बढ़ता रहेगा। मातृ भाषा, मातृ संस्कृति एवं मातृभूमि के प्रति समर्पित भावना ही कवि के काव्य की साधना का मूल्य ध्येय है। वह सर्वहित की कल्पना को साकार रूप देना चाहता है, पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं—

‘‘हर पौधे को प्रिय है माटी,
रंग-रंग के फूल खिलाओ !
पत्ता-पत्ता हंसे-खिले मिल,
ऐसा उपवन एक बनाओ !! (पृष्ठ-4)

कवि का विश्वास वर्तमान में है। जीवन नश्वर है। कब, क्या हो ? कुछ भी कहा नहीं जा सकता। अस्तु, कवि आज ही राष्ट्र-निर्माण के लिए ‘संकल्प’ लेने की बात प्रभावी ढंग से कहता है-<

‘‘आज संकल्प लो राष्ट्र-निर्माण का;
कल के जीवन का कोई भरोसा नहीं।।’’ (पृष्ठ-18)


क्रान्तिदर्शी सन्त कवि कबीर ने भी जीवन को उद्बोधित करते हुए स्पष्ट दो टूक बात कही थी-समसन्दर्भ में पंक्तियाँ उल्लेख्य हैं—


‘‘कालि करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब।
पल में परलय होइगी, बहुरि करैगो कब्ब ?’’

आज के घुटन, संत्रास, विद्रोह, प्रपीड़न, शोषण युक्त एवम् अराजक वातावरण अविश्वास का गति-रथ तेजी से आगे और आगे बढ़ता चला जा रहा है। युग-दृष्टा कवि मौन कैसे रहे ? वह युग को सचेत करता है—


‘‘राह के हम सफर अब नहीं ठीक हैं।
इन मशालों के तेवर अब नहीं ठीक हैं।।’’ (पृष्ठ-22)


उसका तो अपना विश्वस है ‘‘हर भारतीय के तन की मिट्टी हिन्दुस्तान की। जय भारत जय भारती।।’’ (पृष्ठ-25)

इतना ही नहीं सदाचण पर ही उसकी पूरी आस्था है। प्रेम सहयोग की भाषा उसकी सृजनात्मक शक्ति की संवाहिका है। कवि के शब्दों में---


‘‘बीज विकृत विचारों के बोए अगर,
क्रान्ति का मार्ग भी कुछ बदल जाएगा।
प्रीति-विश्वास का घर झुलस जाएगा।।’’ (पृष्ठ-26)


विविधता में एकता की भावना हमारे देश की पुरानी धरोहर है। जब-जब देश पर संकट के बादल घिरे हैं- तब-तब समूचा देश एक स्वर में बोल उठा है—


‘‘हैं अनेक बोली भाषा, मूल भावना एक है।
हम भारत के भारत अपना, सपना सुन्दर एक है।।’’ (पृष्ठ-27)


एकता में नेकता के गुण का समावेश है। अपने देश की सभ्यता-संस्कृति के वट वृक्ष को हरा-भरा रखने की लिए कवि पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति में न ढलने की बात कहता है—


‘‘पश्चिमी सभ्यता में न ढालो हमें,
पश्चिमी आस्था में न पालो हमें।
अपनी संस्कृति की पहचान कर लो वरन्
जन का चेतन –अवचेतन भटक जाएगा।
मन के भीतर का दर्पण चटक जाएगा।। (पृष्ठ-39)


निज हितों में व्यस्त, समाज की विद्रूयता के संवाहकों के प्रति कवि मन छटपटा उठा है तथा दिन-प्रतिदिन के आचरण में लगे ग्रहण की ओर कातर दृष्टि से पुकारता है—

‘‘आचरण में सभी के लगा क्यों ग्रहण;
हम शहीदों की गाथा भुलने लगे।
क्षेत्र अलगाव वादों में हम पड़ गए
वर्ग-धर्मों की झंझा में हम फंस गए
व्यक्तिगत स्वार्थ-धारा में हम बह रहे
अपने भाई को भाई नहीं कह रहे।।
गृह-कलह को पनपने का अवसर दिया
मां की दुखती रगों को दुःखाने लगे। (पृष्ठ-40)


‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवता’ की बात कवि मन को ऊर्जा देती है। आज के समाज में नारी की असमिता को सुरक्षित रखने के लिए वह नारी को ही अंध विश्वासों रूढ़ियों एवं शोषण के दमन चक्र से बचने के लिए आह्वान करता है-

‘‘तोड़ दो बेड़ियाँ अंध विश्वास की,
नव्य इतिहास रचने के दिन आ गए।
बन के दुर्गा जियो, सिंह पर चढ़ सको,
बन के लक्ष्मी जियो, देश-हित लड़ सको।
कोकिला नायडू बन, स्वरों में जियो;
मां टेरेसा बनो, विश्व हित में जियो।।
राष्ट्र-हित में जियो धाय पन्ना बनो;
देशहित प्राण देने के दिन आ गए।। (पृष्ठ 30)


इसी अवधारमा को कवि और आगे बढ़ाता है तथा मानव के संघर्ष को सृजनोन्मुखी दृष्टि प्रदान कर कह उठता है—

‘‘बुलबुलों के बाग में
पहचान की कोयल बना दो !
ध्वंस को संदेश दो
अब लौटने का;
फिर यहां विश्वास की जागृति भरो !
इस शस्य-श्यामला भूमि पर
कुछ दृष्टि डालो—
आस्था के फूल मुरझाने लगे हैं।।  (पृष्ठ- 62)


किन्तु कवि का दृढ़ आत्म विश्वास उसे सदैव प्रेरणा व बल प्रदान करता रहता है। पंक्तियां दृष्टव्य हैं—


एक रहे हैं, एक रहेंगे,
यह विश्वास हमारा है।
आर्यावर्त हमारा है,
पावन कैलाश हमारा है।।’’


साथ ही स्व संस्कृति उसमें आस्थांकुर उगाकर आह्लाद प्रदान करती है तथा सत्पथ को आलोकित कर मंगल-दिशा-बोध जगाकर मानवता के केतन को ऊँचा उठाती है। संस्कृति ही हमारे जीवन की संजीवनी है----

‘‘त्याग-तप-संयम सिखाती है, हमारी, संस्कृति,
मनुजता के गीत गाती है, हमारी संस्कृति।
आत्मा का सर्व व्यापक रूप है परमात्मा...
सत-पथ में आस्था की धुन हमारी संस्कृति।।’
(पृष्ठ 43)


वस्तुतः कवि सत्य-पथ में आस्था की धुन-सुन रहा है। तभी तो अदम्य साहस के साथ वह गा उठता है..

‘‘एकता में मूल्य-जीवन के छिपे हैं।’’ (पृष्ठ-46)

सचमुच कृतिकार वर्गों-धर्मों से ऊपर उठकर मानवता के आदर्शों की ज्योति-जगाते। कवि के ही शब्दों में दृष्टव्य है----

‘‘वर्गों-धर्मों से कुछ ऊपर, कृतिकार जिया करते हैं।
हिन्दी तेरे आंचल में, रसखान मिला करते हैं।।’’ (पृ-47)


इन कविताओं में सर्वत्र जागरण संदेश है। कवि का संवेदनशील मन समाज की विकृतियों से क्षुब्द हो उठा है किन्तु निराश नहीं.....। उसमें अपूर्व साहस है। चेतना के स्वरों में वह आस्था के फूलों को मुरझाने नहीं देना चाहता है। वह पारस्परिक सहयोग-सद्भावना से राष्ट्र को गति प्रदान करने में अटूट विश्वास रखता है। यह कार्य नव युवक ही कर सकते हैं। नव युवकों की शक्ति को सृजन भूमि प्रदान करना ही कवि की अभिव्यक्ति का अभीष्ट है। अतः वह उन्हें ही उद्बोधित करता है—

‘‘नौजवानों उठो ! राष्ट्र हित में जागो !
इन हवाओं का रुख मोड़ना है तुम्हें।।’’ (पृष्ठ -51)

 क्योंकि कवि की अन्तश्चेतना का विश्वास है..

‘‘सत्य सुनने का साहस नहीं जुटा सका;
नीति को रौंदना भी नहीं रुक सका। 
स्वार्थ की भूख से, आग यदि लग गयी;
राष्ट्र की अस्मिता भी झुलस जाएगी।।
आस्थाओं को तेवर दिखाओ नहीं,
हमसफर की भी नीयत बदल जाएगी।।’’ (पृष्ठ-55)

इस प्रकार कवि के इस संग्रह में समस्त कविताएं जागरण के चेतना अभियान को आगे बढ़ाती हैं। सम सामयिक दृष्टि से राष्ट्र-निर्माण के पावन लक्ष्य को प्रेरणा-शक्ति प्रदान करती है जो आज की महती आवश्कता है। आस्था के फूल मुरझाने न पायें। सद्भावना उनमें-गंध-और जोश भरे। देश भक्ति कवि नित नूतन रचनाओं से मां भारती का भंडार भरे। राष्ट्र-निर्माण की इस वेला में इन कविताओं का सर्वत्र स्वागत होगा। ऐसे मेरा विश्वास है। जय हिन्दी ! जय भारती !!





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