लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> एक मामूली आदमी

एक मामूली आदमी

अशोक लाल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5530
आईएसबीएन :81-267-0936-7

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

144 पाठक हैं

प्रस्तुत है नाटक एक मामूली आदमी

Ek Mamuli Adami

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

मेरे घर के पास एक मन्दिर है। उन दिनों वहाँ के जागरुक पंडित इस बात पर अमादा थे कि आसपास के मोहल्ले के लोगों में ‘धर्म’ का जागरण किया जाना चाहिए। लिहाजा, सूरज के अंगड़ाइयाँ लेने से बहुत पहले से, लाउडस्पीकर पर फिल्मी गीतों पर आधारित घिसे-पिटे भजनों के कैसेट ज़ोर-ज़ोर से बजाए जाते। वैसे भी बाबरी मस्जिद को ढहाने की बर्बर वीरता का कारनामे के बाद, ‘हिन्दुस्तान’ की धर्म-सेनाओं की करतल ध्वनियाँ वातावरण पर छाई हुई थीं।

इसी बीच मेरी बीवी कुमकुम की तंदरुस्ती ख़राब चल रही थी, और ‘इंसोमानिया’ यानी नींद न आने की शिकायत भी थी। मैंने पहले तो मन्दिर के पंडितों को और फिर अपनी कॉलोनी वालों को अपनी व्यथा सुनाई। भगवान के नक़्क़ारख़ाने में दुखियों की क्या सुनवाई होती। फिर मैंने पास के पुलिस थाने का सहारा लिया। अब हफ़्तों तक ये सिलसिला सुचारु रूप से चला : रात के आख़िरी पहर में मन्दिर के लाउडस्पीकरों से भजन उगलते, बेरोज़गार मुर्गे और चिड़ियाएँ कहीं और उड़ जाते, कुमकुम की अधकचरी नींद में ख़लल पड़ता, मैं पहले पहल तो तमतमाए चेहरा लिए पुलिस स्टेशन जाता था, फिर फ़ोन पर ही कॉन्स्टेबिल साहब से दुखड़ कहता और वो जाके लाउडस्पीकर को कुछ राहत देते। इस बीच नींद से जागरण तो हो ही जाता। इसी ‘सिस्टम’ की एक और कड़ी भी सामने आई। एक रात क़रीब तीन बजे, मन्दिर से उभरते बैकग्राउण्ड जागरण संगीत के साथ, पुलिस थाने में ड्यूटी ऑफ़िसर को अपनी राम कहानी सुना रहा था। तब उन्होंने मुझे अहसास दिलाया के वो और मैं काफ़ी जोखिम उठा रहे थे। पास के गाँव के चौधरी साहब को जब ये पता चला कि एक अदना से इंसान की नींद के कारण समाज के जागरण पर रोक लगाये जाने का दुस्साहस किया जा रहा है, विधि के विधान के खिलाफ़ देश का क़ानून जाग रहा है, तो उन्होंने एक संदेसा भिजवाया मेरे नाम जो जंग के बिगुल की धुन में था।

रोज़ाना की तरह, रात के आख़िरी पहर में एक बार पुलिस थाने फ़ोन लगाया तो वहाँ के ड्यूटी कॉन्स्टेबल ने बँधे-बँधाए ‘रुटीन’ को तोड़ा। मेरे कई बार दुहाइयाँ देने के बावजूद, उसने साफ़-साफ़ मना कर दिया कि कम-से-कम वो तो मन्दिर से उगलती हुई आवाज़ को धीमा नहीं करवाएगा। मुझमें ज़मींदाराना गुस्सा जागा—आख़िरकार मेरी बात ख़ुद ड्यूटी अफ़सर से हो चुकी थी। मैंने उसकी गुस्ताख़ी की वजह पूछी तो बोला, ‘‘जी, मेरा नाम जोज़फ़ है।’’ मैं ठंडा पड़ गया ! जोज़फ़ नाम के आदमी को ये हक़ नहीं पहुँचता था कि वो हिन्दुस्तान क़ानून के तहत अपने फ़र्ज़ को ‘हिन्दुस्तान’ के धर्म-वीरों पर लागू करे।

‘नाम गुप्त रखा जाएगा’—ये उस नाटक का नाम है जो मैंने इस घटना से प्रभावित होकर 1994 में लिखा। ज़ाहिर है कि इस नाटक का हीरो मैं था जो सिस्टम के ख़िलाफ़ जिहाद छेड़ता है। पुलिस अधिकारियों से लेकर समाचार-पत्रों के सम्पादक तक उसकी मदद करने का वायदा करते हैं। साथ-साथ, बिन माँगे, ये आश्वासन भी देते हैं कि हीरो पर आँच न आए इसलिए उसका नाम गुप्त रखा जाएगा। लेकिन हमारा हीरो अपना नाम शहीदों में लिखवाना चाहता है। बहरहाल नाम भी गुप्त रहता है और हीरो भी कहीं लुप्त हो जाता है। ‘सिस्टम’ जस का तस रहता है।

मेरे मित्र, मशहूर लेखक और रंगकर्मी, रंजीत कपूर, उन्हीं दिनों एक नाटक की तलाश में थे। दिल्ली साहित्य कला परिषद् के पुरस्कृत निर्देशकों के नाटक-समारोह में उन्हें नाटक खेलना था। 1974 में रंजीत कपूर से मेरी जान-पहचान और दोस्ती साथ-साथ हुई। निर्देशक, और ख़ासतौर से, लेखक के रूप में उन्होंने मुझ पर गहरा प्रभाव छोड़ा। उनसे मैंने कहा था कि एक दिन मैं ऐसा नाटक लिखूँगा जिसे वो हूबहू वैसा करेंगे जैसा मैं लिखूँगा ! ख़ैर रंजीत को ‘नाम गुप्त रखा जाएगा’ पसन्द आया और तय हुआ कि वो नाटक खेला जाएगा। बाक़ायदा नाटक पढ़े जाने, एक्टर इत्यादि चुने जाने में हमेशा ही वक़्त लगता है। रंजीत साहब के यहाँ ये प्रक्रिया बहुत ही लम्बी होती है जो अक्सर ‘शो’ होने के दिन तक चलती रहती है !!

इसी दौरान अचानक मुझे कुरुसावा की फ़िल्म ‘इकिरू’ के ग़ैर-हीरो नुमा हीरो की याद आई। ये फ़िल्म मैंने कोई दस बरस पहले टोक्यो फ़िल्म फ़ेस्टिवल (1984) में बिना पलक झपकाए देखी थी। फ़िल्म ने मेरे ऊपर गहरा असर छोड़ा था ! मन में ख़्याल आया कि अगर मेरे नाटक में मुझ जैसे महान हीरो के बजाय ‘इकिरू’ का मामूली आदमी होता तो क्या होता ? मैंने अगले दो-तीन दिनों में ‘नाम गुप्त रखा जाएगा’ के शहीद हीरो को नाटक से गुम कर दिया, और उसकी जगह ली ‘एक मामूली आदमी’ ने ! ज़ाहिर है कि जहाँ शहादत पसन्द महान हीरो नाकायामब रहा, ‘एक मामूली आदमी’ कामयाब हुआ।
बहरहाल अगली दफ़ा रंजीत कपूर से मिला तो नया नाटक, ‘एक मामूली आदमी’ लेकर। रंजीत साहब की भी फ़िल्म ‘इकिरू’ जानी-पहचानी और पसंदीदा निकली। फ़ैसला हुआ कि वे ‘एक मामूली आदमी’ ही मंचित करेंगे। उसके बाद जो प्रक्रिया शुरू हुई उससे खीज भी पैदा हुई, मगर बहुत कुछ सीखने को मिला। लिखने के स्तर पर, रंजीत साहब से जो मैंने सबसे बड़ी बात सीखी थी वो थी दृश्यों का विस्तार। मुझे ‘महान’ संवाद सूझते तो बहुत थे, मगर उनका इस्तेमाल करने में झिझक महसूस होती थी—कहीं लोग ये न समझें कि ऐंवई ‘स्मार्ट वनस’ लगा रहा हूँ। उन्होंने दृश्यों को विस्तार करते वक़्त पहले कुछ शब्दों और जुमलों के बीज डाले और फिर सटीक संवादों की फ़सल काटी। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है खरे और अवस्थी के बीच शराब पीने का दृश्य चार। दृश्य तीन में जिस ख़ूबी से उन्होंने झोपड़पट्टी की औरतों के जुमलों में खुरदुरी ज़बान से विस्तार किया, वो देखते ही बनता है। किरदार रामनारायण बग्गा का नामकरण भी उन्होंने ही किया। उन्होंने दृश्य चार के विस्तार में एक-दो-तीन मिनट का नया सीन लिखा और उसे अपने शो में शामिल भी किया। ये सीन बहुत ही भावनात्मक था जिसमें अवस्थी याद करता है कि किस तरह सुबह के धुँधलके में रेल की पटरियाँ पार करते वक्त उनकी बीवी कट कर मर गयी थी। हालाँकि सीन का ‘विजुअल’ बहुत मार्मिक और कामयाब था, मगर मुझे लगा कि वो अवस्थी के संग बहुत ज़्यादा सहानुभूति पैदा करता है उसे शहीदनुमा बनाता है। इसलिए मैंने दुबारा लिखते वक़्त उस सीन को नहीं रखा।

रिहर्सलों के दौरान, निर्देशक के रूप में रंजीत ज़्यादा कुछ करते हुए नज़र नहीं आते। अन्ततः पहला ‘शो’ पहला ‘रन थ्रू’ भी था। ‘शो’ के पहले और ‘शो’ के दौरान भी, मैं उनकी लापरवाही से बहुत नाराज़ रहा। मगर पहले शो का मेरे अलावा सब पर ऐसा जादू छाया रहा कि खचाखच भरे हॉल में जहाँ लोग खड़े हुए थे, वहीं खड़े रहे। प्रकाश संयोजक ने ढींगरा साहब से कहा कि ये रंजीत का सबसे अच्छा नाटक रहा। शायद रंजीत साहब का ‘स्क्रिप्ट’ पर काम, चरित्रों का चयन और नाटक की संरचना और गति की निराली सूझबूझ और भाषा का ज्ञान—ये सब ऐसे गुण हैं कि जो उन्हें बहुत संवेदनशील और बेहतरीन निर्देशक का दर्जा देते हैं। ‘लापरवाही’ शायद बस एक अंदाज़ है। उस दिन की अपनी नाराज़गी पर हँसी भी आती है और शर्म भी।

उस मंचन के कुछ बरसों तक नाटक ठंडा रहा मगर फिर अरविन्द गौड़, सुशीला वेडेकर, अनिल कौशिक और रमन कुमार सहित कुछ अन्य निर्देशकों की देख-रेख में नाटक के सौ से ऊपर पूरे देश में कामयाब मंचन हुए। मैं उन सबका बहुत शुक्रगुज़ार हूँ। ‘एक मामूली आदमी’ के बहाने, मुझे नाटककार गिना जाने लगा। नाटक लिखने के दौरान बहुत से सचों से आमना-सामना हुआ। पहली बात तो ये पता चली कि समाज के लिए ‘महान’ या ‘तेजस्वी’ आदमी उतना उपयोगी नहीं होता, जितना कि एक मामूली। दूसरी बात ये कि ‘आम’ आदमी मूल्यारोपण है। अगर मेरी आपकी बात हो रही है, तो हमारे सिवाय हर आदमी आम आदमी है। जानवर बड़ी आसानी से प्राकृतिक रूप से ही जानवर हो पाता है, मगर आदमी के लिए आदमी बन पाना इतना आसान नहीं जान पड़ता। अपने और एक दूसरे के ‘मामूलीपन’ को न पहचान पाना खाइयाँ पैदा करता है। मेरे लिए नाटक का विषय पारिवारिक और सामाजिक संवाद-विहीनता है, जो हम सबको व्यक्तिगत और सामुदायिक रूप से अपनी मामूली संवेदनशीलता से दूर ले जाकर कुछ ख़ास होने की क़ैद में डाल देती है। सिस्टम की आलोचना से क्या फ़ायदा, जब हम खुद ही सिस्टम हैं !

नाटक का खुद मुझ पर ये असर हुआ कि मैं ख़ासा मार्केटिंग का व्यवसाय छोड़कर लेखक बन गया। उम्र की उस मंजिल में जहाँ सब भविष्य और बुढ़ापे के लिए जुगाड़ करते हैं, मैंने ईंट और रोड़ों वाला रास्ता अपना लिया। इस तरह का क़दम उठाने के बावजूद, मेरी पत्नी कुमकुम ने जिस तरह से मेरा साथ निभाया, उसका शुक्रिया अदा करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। कुमकुम ने कहा कि अब तक मेरा कलाकार एक मैनेजर के पिंजरे में बन्द था। उन्हें लेखक के मेरे चढ़ते उतरते मूड्स का भी शिकार बनना पड़ता है। मूड्स की चपेट में और सुनाने के लिए ‘गिनी पिग्ज़’ बने कुमकुम सहित सारे शिकारों से माफ़ी चाहता हूँ और उनका शुक्रिया अदा करता हूँ।

सबसे बड़ा शुक्रिया दर्शकों के नाम है जिन्होंने इस नाटक को स्क्रिप्ट के स्तर पर पहचाना और सराहा। लेखक के रूप में मेरे सबसे विनम्र और भावविभोर करने वाले अनुभव वे थे जब अलग-अलग मंचनों के कुछ ख़ालिस और अनजान दर्शकों ने मेरा टेलीफ़ोन नम्बर पता लगा के मुझे फ़ोन किया और मेरे मामूली आदमी को सराहा। सभी रंगकर्मियों और आलोचकों ने भी मुझ पर काफ़ी मेहरबानी दिखाई—उसका भी बहुत बहुत शुक्रिया। नाटककार मैं शादी के बाद ही बना। अक्सर लगता है जैसे कुमकुम के पिताजी, हिन्दी के विद्वान लेखक और नाटककार के स्वर्गीय श्री जगदीशचन्द्र माथुर ने थोड़ा बहुत हुनर मुझे भी दे दिया हो।

ये किताबें मैं बहुत मुहब्बत और अदब से कुमकुम और रंजीत कपूर के नाम समर्पित हूँ।


दृश्य एक



दिन। उमेश, पंडित राधेश्याम और गोस्वामी का वार्त्तालाप।
उमेश: (हतप्रभ होकर) ये क्या कह रहे हैं आप, राधेश्यामजी ?
राधेश्याम: गोस्वामी जी, अब तुम्हीं समझाओ इसे।
गोस्वामी: बेटे उमेश। तुमने जो सुना वो ठीक ही सुना। हममें से कोई भी व्यक्ति स्वर्गवासी...मतलब तुम्हारे पिता की तेरहवीं पर जीमने नहीं आएगा। बस।

उमेश: लेकिन क्यों ? आखिर कोई वजह भी तो होगी ?
राधेश्याम: वो हमसे न पूछो। बस हम नहीं आएँगे, ये बात पक्की है।
उमेश: मुझे विश्वास नहीं हो रहा है !...आप लोग कैसे कर सकते हैं ऐसा ? पंडितों के बिना तेरहवीं कैसे मनेगी ?...खैर ! कुछ पंडितों को ही भेज दीजिए।
राधेश्याम: वाह ! यानी हम छोटे को ओछा समझकर उन्हें अधर्म मार्ग पर धकेल दें ? जी नहीं। हममें से कोई नहीं आएगा।
गोस्वामी: बिल्कुल। धर्म की रक्षा का सवाल है। समाज में ब्राह्मण का स्थान सर्वोच्च है। कोई उसके स्थान को नकारे, विशेषकर एक ब्राह्मण, और वो भी जान-बूझकर, तो इसे कैसे सहन किया जा सकता है।
उमेश: लेकिन मैं तो ब्राह्मण हूँ। फिर मेरे साथ ऐसा अन्याय क्यों ?
गोस्वामी: अन्याय तुम्हारे पिता ने किया था। घोर अन्याय।

राधेश्याम: ईश्वर बहुत विराट हृदयी और क्षमाशील है। नराधम पापी भी यदि अंतिम क्षणों में नारायण का नाम ले ले तो सीधे बैकुंठ जाता है। लेकिन तुम्हारे पिता की तो अंतिम दिनों में बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई थी जैसे।
गोस्वामी: ठीक कहा, राधेश्याम जी, आपने। सत्य वचन। इसी कारण भगवान ने हमें प्रेरित किया कि धर्म की रक्षा हेतु हम कुछ उद्यम करें। सो हम कर रहे हैं। समझे आप ?
उमेश: जी नहीं, गोस्वामी जी, मैं कुछ नहीं समझा (हाथ जोड़कर) मैं हाथ जोड़कर विनती करता हूँ कि मुझे पूरी बात, बताइए। आपका संकेत किस ओर है, मुझे बिल्कुल नहीं पता।
राधेश्याम: (व्यंग्य से) अच्छा !! आप इतने भोले हैं या हमें मूर्ख बनाने की चेष्टा कर रहे हैं ? या फिर अपनी दिनचर्या में इतने व्यस्त रहते हैं कि आपको अपने पिता की गतिविधियों का कोई ज्ञान ही नहीं रहा !
उमेश: ये बात सच है, पंडित जी, विश्वास कीजिए। मैं सचमुच इतना व्यस्त रहता हूँ कि मुझे समय ही नहीं मिलता। अन्तिम कुछ महीनों में तो हालत और भी बुरी थी। और अगर मैं तभी जल्दी घर लौट भी आता था तो बाबूजी घर पर नहीं मिलते थे। आपको पता है न...उनकी मृत्यु भी घर में नहीं हुई थी।

गोस्वामी: पता है। ये दण्ड भी भगवान का ही दिया था। अपनों के बीच मृत्यु तो पुण्य करनेवालों को ही प्राप्त होती है।
उमेश: लेकिन मैंने ऐसा क्या किया है जिसका दंड आप मुझे दे रहे हैं ?
राधेश्याम: माता-पिता के पापों का दंड सन्तान को भुगतना पड़ता है। लेकिन विश्वास करो, ये दंड तुम्हारे लिए नहीं है।
गोस्वामी: जब तुम अपनी तेरहवीं के लिए आओगे तो हम कभी मना नहीं करेंगे। अवश्य आएँगे।
राधेश्याम: केवल तुम ही नहीं, और कोई भी सदस्य हो तुम्हारे परिवार का, चाचा-ताऊ, पत्नी, बच्चे किसी की भी तेरहवीं हो, तुम तुरन्त चले आना, निःसंकोच। हम तुम्हें कभी निराश नहीं करेंगे। ये हमारा वचन है।
गोस्वामी: और ये भी हमारा वचन है कि तुम्हारे ख़ातिर हम तुम्हारे पिता के लिए प्रार्थना भी करेंगे कि ईश्वर उन्हें क्षमा करे, उनकी भ्रष्ट और दूषित आत्मा को शुद्ध करे और शान्ति दे। लेकिन इस समय समाज और बिरादरी के सामने हम कोई अनुचित उदाहरण प्रस्तुत नहीं कर सकते।

उमेश: बहुत परेशानी में डाल दिया है आपने मुझे। कम-से-कम वो कारण तो बताइए जिसके चलते आप मेरे पिताजी से इतना रुष्ट हो गए हैं, और उनका बहिष्कार कर रहे हैं ?
गोस्वामी: हम से अधर्म की चर्चा क्यों करवाते हो, उमेश ? दुनिया से पूछ लो...उनके दफ़्तर में जाकर उनके सहयोगियों से पूछ लो...तुम्हें कारण पता चल जाएगा।
राधेश्याम: अच्छा, भैया...अब हमारे पास समय नहीं है। एक नए मन्दिर की स्थापना के लिए जाना है। इसलिए क्षमा करना ! चलो, पंडित जी।

दोनों चले जाते हैं। उमेश हतप्रभ खड़ा उनकी दिशा में देखता रहता है।
उमेश: (अचानक दर्शकों से) मेरी परेशानी समझ रहे हैं न आप ? इतने साधारण...इतने मामूली आदमी थे मेरे बाबूजी कि उनकी किसी को परवाह ही नहीं है...वो तो ख़ैर, जीते जी भी नहीं थी किसी को, तो उनके मरने के बाद क्या होगी ?...तीस साल तक एक मामूली-सी नौकरी में लगे रहे। क़लम घिसते-घिसते हैडक्लर्क बन गए म्युनिसिपल कार्पोरेशन में। न कोई एम्बीशन, न कोई इनिशिएटिव और न कोई इंट्रेस्ट...यहाँ तक कि कोई ख़ास शौक़ भी नहीं रहा...पान-सिगरेट, दारू-वारू कुछ भी नहीं...एकदम सपाट ज़िन्दगी। इसलिए मौत भी इतनी सपाट...सिवाय एक स्पीडब्रेकर के कि पंडितों को नाराज कर गए....अब उनकी तेरहवीं पर कोई आएगा या नहीं, पता नहीं। शवयात्रा में तो झोपड़पट्टी के कुछ लोग शामिल हो गए थे। पता नहीं क्यों ?...शायद यूँ ही तमाशा देखने। लेकिन अब ?...सबसे झुँझलानेवाली बात तो यह है कि यह भी नहीं पता कि इतने मामूली आदमी के ख़िलाफ़ इन पंडितों के पास क्या बात हो सकती है। बचपन में जैसे मुझे होमवर्क दे देते थे बाबूजी...मेरे खेलने-कूदने पर बैन लगाकर ! ऐसा लगता है कि होमवर्क ही दे गए हैं वो। होमवर्क। हुँ !
(अंधकार)

दृश्य दो



रात। उमेश घर के द्वार पर दस्तक दे रहा है। उसकी पत्नी रमा द्वार खोलती है।
रमा: (दरवाज़ा, खोलते-खोलते)...बहुत देर कर दी ?
उमेश: बहुत थक गया हूँ रमा। ज़रा चाय बना दो प्लीज़।
रमा: अभी लाई। (अन्दर चली जाती है।)

उमेश निढाल होकर बैठ जाता है। उसकी नज़र पिता की तस्वीर पर पड़ती है जिस पर फूलों की माला है। बगल में धूप, अगरबत्ती और जलता हुआ दीया है। कुछ पल देखने के बाद।
उमेश: (दर्शकों से) यह बाबूजी के मेडिकल कार्ड के फ़ोटो का एनलार्जमेंट है। मैं यह तस्वीर देखता हूँ तो याद नहीं पड़ता कि बाबूजी कब ऐसे लगने लगे थे ? उनके शरीर को, पुत्र होने के नाते, मैंने ही चिता जलाई थी। लेकिन याद नहीं पड़ता कि उस वक़्त मैंने उनका चेहरा देखा हो...मुझे तो बस दो-तीन पुरानेवाले चेहरे याद आते हैं उनके। बचपन में मेरी माँ गुज़री थी, तब का। फिर उसके थोड़े दिनों बाद जब मैं स्ट्रैचर पर लेटा हुआ था। एपेंडिसाइटिस के ऑपरेशन के लिए और बाबूजी उसे धकेल रहे थे। और हाँ, जब मैं पहली दफ़ा हॉस्टल के लिए निकला था घर से...ट्रेन में बिठाकर टा-टा कर रहे थे बाबूजी। साथ में घड़ी भी देखते जा रहे थे बार-बार...क्योंकि ऑफिस पहुँचना था उन्हें।
रमा चाय लेकर आती है।

रमा: हो गया सब इन्तज़ाम ?
उमेश: (चाय का घूँट लेकर) वाक़ई चाय की ज़रूरत थी मुझे...अच्छी बनी है...हाँ, सॉरी। क्या कह रही थी तुम ?
रमा: मैं कह रही थी, सारे इन्तज़ाम हो गए न तेरहरवीं के ?
उमेश: नहीं...राधेश्याम जी और गोस्वामी जी ने मना कर दिया है आने से।
रमा: (हैरत से) अरे ! क्यों ?
उमेश: पता नहीं...बस नहीं आएँगे।
रमा: अच्छा !...खै़र। छोटे-मोटे ब्राह्मणों को ही बुला लो। हमारा काम तो उन्हीं से चल जाएगा।
उमेश: चल जाता। उन्होंने छोटे-मोटों को भी मना कर दिया है आने से।
रमा: हैं ! लेकिन क्यों ?

उमेश: पता नहीं ! पूछा तो टाल गए। बाबूजी की किसी बात से नाराज़ हो गए लगते हैं।
रमा: वैरी सरप्राइजिंग। हम लोग तो इतने ऊँचे गोत्रवाले हैं....लेकिन अब क्या होगा ? बिना पंडितों को जिमाए तेरहवीं कैसे मनेगी ?
उमेश: कल सुबह जाऊँगा बाबूजी के ऑफ़िस ! शायद वहीं कुछ पंडित निकल आएँ...उन्हीं से रिक्वेस्ट करूँगा। बाबूजी कुलीग रहे हैं, मान तो जाएँगे ही।
रमा: और अगर न माने तो ?

उमेश: मानेंगे क्यों नहीं स्साले...खाना खिला रहे हैं हम उन्हें। माँग थोड़े ही रहे हैं उनसे कुछ।
रमा: तो फिर राधेश्याम और गोस्वामी जी ने क्यों मना कर दिया ?
उमेश: कहा पता नहीं।...हो सकता है खुन्दक रही हो कोई।
रमा: खुन्दक ? खुन्दक क्यों रही होगी ? दोनों इतने चक्कर लगाया करते थे बाबूजी के। यह अचानक क्या हो गया ?
उमेश: (चिढ़कर) मुझे क्या पता, क्या हो गया ?...कोई बात बताते भी थे बाबूजी हमें ?...कुछ भी शेयर करते थे हमारे साथ ?
रमा: अब छोटी-छोटी बातें कोई क्या शेयर करे ?
उमेश: तो बड़ी-बड़ी बातें क्या थीं उनकी लाइफ़ में ? रंग-भेद नीति ?...इकोलोजिकल इमबैलेन्स ?...अगर होती तो भी वो हमसे शेयर नहीं करते, यू.एन.ओ. में जाते।
रमा: इतने चिड़चिड़े क्यों रहे हो ?
उमेश: तुम बात ही ऐसी कर रही हो। ‘छोटी-छोटी बातें।’ मामूली ज़िन्दगियों में कोई बड़ी बात नहीं हुआ करती है, मैडम ?

रमा: सिवाय मौत के।
उमेश: ना। मौत भी कोई बड़ी और एक्स्ट्राऑर्डिनरी चीज़ नहीं होती है। बाबूजी जैसे लोग जितने चुपके से जीते हैं उतने ही चुपके से मर जाते हैं।
रमा: लेकिन मुसीबत छोड़ जाते हैं...उनके लिए जो पीछे ज़िन्दा बच गए हैं। खाना खिला रहे हैं और कोई आने को तैयार नहीं। हमारे लिए उनकी मौत एक्स्ट्राऑर्डिनरी हुई या नहीं ? दुनिया क्या सोचेगी ? तुम्हारे बाप अछूत थे या आतंकवादी ?
उमेश: ओह, शट अप : क्या बक रही हो उल्टा-सीधा ?
रमा: चलो फिर तुम भी सीधा-सादा जवाब दो। पंडितजी नहीं होंगे तो तेरहवीं कैसे मनेगी ? पास-पड़ोसवाले क्या सोचेंगे।
   

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book