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कविता बचपन

सीताकान्त महापात्र

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :43
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5536
आईएसबीएन :81-237-3760-2

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दनिया के सभी बच्चों और हर आदमी में बचे बचपने के लिए

Kavita Bachpan

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका नहीं

कभी-कभी मुझे यह लगा है कि हर कवि में उसका बचपन बचा हुआ है। बचपन के निष्पाप कुतूहल, विस्मय, अहंकारहीनता और वस्तु से एकात्म होने को पुलकित वह बचपन सारी दुनिया का बचपन है, हर इंसान का बचपन है। कविता उसी बचपन का स्वर है, काव्य-पुरुष की आत्मा है। और कविता ने हर काल में छुआ है इंसान के भीतर के उस बचपन को, कविता ने पढ़ा है, समझा है हर इंसान के भीतर के उसी सरल बचपन को। उसकी मौत होने पर काव्य-पुरुष मर जाता है, रक्त प्रवाह में। वह बचपन असमय मर भी सकता है पचीस साल के युवक के भीतर। प्रिय कवि-बंधु इज़ेत साराज्लिक कहते हैं, ‘‘सारे पापा कवि बन जायें।’’ मैंने पूछा, ‘‘इज़ेत, क्या यह नहीं कहा जा सकता कि सारे पापा बच्चे बन जायें ?’’ मुझसे सहमत होते हुए उन्होंने सचमुच मुझे बच्चे की तरह कंधों तक उठा लिया था। यह थी अख़िद झील के किनारे सन् 1975 की एक मनोरम शाम। ‘स्तृगा कवि सम्मेलन’ के अवसर पर हम सभी इकट्ठे हुए थे, 53 देशों के 110 कवि, अविभाज्य युगोस्लाविया के स्तृगा में।
इससे कोई यह न मान बैठे कि मैं कह रहा हूं कि आदमी हमेशा बच्चा बना रहे, बड़ा न हो; उसके अनुभव परिपक्व न हों। जीवन के सुख-दुख, हंसी-रुलाई के स्वर्ग-नरक से होकर आदमी न गुजरे। बिना अनुभव के कविता कहां ? इस संसार के धूल-धूसरित स्वर्ग के, यंत्रणा-आनंद के, अमृत-विष के आस्वादन बिना कविता कहां ? किंतु अनुभव क्या है ? कौन है सीधे-सीधे अनुभव के तीखे, धारदार, ताजे, शुभ्र, दीप्त अनुभव का जनक ? कौन रखता है ताजा अनुभव की ताजगी को ? कौन उसे मुरझा देता है, मार डालता है ? कौन है जो अनुभव को प्रखर करता है, सरल और तीव्र करता है, गतिशील बनाता है, प्राण को स्पंदित करता है, आत्मा को झकझोरता है ? यह वही बचपन है जो लुक-छिपकर हमारे जीवन के रास्ते किनारे-किनारे चलता रहता है।
वही बचपन वर्ड्सवर्थ की कविता में तितली से बातें करता है, उसे बगीचे में आने का निमंत्रण देता है। वही बचपन किसी एस्किमो पिता के मुंह से तेज बर्फीली आंधी से अनुरोध करता है-नन्हे इग्लू में गहरी नींद में निश्चित सोए बच्चों को बख्शने के लिए !
वही बचपन जो झड़े हुए पत्ते से गालों को सहलाते हुए समझ लेता है मनुष्य का समग्र इतिहास। वही बचपन जो हमारे जीने और मरने से रू-ब-रू होने का असली साहस और वजह है। एक बच्चा ही नंगे राजा को उंगली दिखाकर पूछ सकता है, ‘‘राजा, तुम्हारे कपड़े कहां हैं ?’’ यह प्रश्न चौंकाता है अनगिनत गुणगान करने वालों को, खुशामदीदों को और उनकी तालियों को। वही बचपन जो अमृत के स्वाद जैसा है, पहली बारिश की माटी की सोंधी-सोंधी महक-सा है। जीवन के गूढ़ अर्थों और मृत्यु की सुगंध-सा है। उसी बचपन ने कविताएं लिखी हैं, सपने लिखे हैं-हर शताब्दी में, हर देश में।
कविता महज भाषा तक ही सीमित नहीं है। वह मनुष्य की आत्मा का सूक्ष्मतम, पवित्रतम, सरलतम स्वर है, संस्कृति की सबसे मूल्यवान दलील है। उसके बिना मनुष्य का इतिहास नहीं, मनुष्य की संस्कृति नहीं। हर युग में, हर देश में कविता ने कहनी चाही हैं, मनुष्य की आत्मा की उन्हीं ताजे अनुभवों की बातें, उन्हीं अमलिन सपनों की बातें, उन्हीं अमर स्मृतियों की बातें। मंगोलिया के पशुपालक, नियमगिरि पर्व के कंध, अमेरिका के ओमाहा इंडियन, सभी की उसी बचपन की बातें हैं, आत्मा की भाषा है। वह भाषा रवींद्रनाथ टैगोर की है, मायकोवस्की की है, लोर्का की है। वह स्वर इज़ेत का है, वर्ड्सवर्थ का है, हम सबके भीतर के बचपन का है। वही भाषा हाथ बढ़ाती है छूने के लिए हर इंसान के बचपन को। तारों की रोशनी में, निर्लिप्त आकाश के नीचे, चांद-सूरज की इस दुनिया के आंगनों में आवाजाही करते, हर्ष-क्लेश, हंसी-रुलाई, कष्ट और उत्सव के विविध सोपानों में भाग रहे आशा-स्वप्न से भरे असंख्य लोगों को छूने की उसकी गहरी पिपासा है।

यही बातें मन में कई बार आने पर मैंने सोचा कि कुछ अच्छी कविताएं, कम से कम जो मुझे अच्छी लगी हैं वैसी कुछ कविताएं इकट्ठी करके पाठकों को, खासकर किशोर और युवा पाठकों को, उपहार दूंगा। अच्छी कविता की परिभाषा सरल और जटिल दोनों है। पर आइए, हम लेते हैं एक सरल परिभाषा: जो अच्छी लगे, वह अच्छी कविता। बहुत सी कविताएं मुझे अच्छी लगी हैं। अब तक पढ़ी कविताओं में जो अच्छी लगीं उनकी संख्या तो बहुत है। लेकिन इस संग्रह में उनमें से कतिपय कविताएं ही मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। इसीलिए अपेक्षाकृत सरल और आसानी से समझ आने वाली कविताएं मैंने चुनी हैं, क्योंकि मेरा उद्देश्य संक्षिप्त और सीमित है। कविता जो हमारे जीवन की बात है, कविता जो हमारे जीवन में है, हमारे जीवन को हमें समझने में कुछ हद तक वह सहायक भी हो सकती है, यह बात सभी समझें। कविता इतनी महत्वपूर्ण होती है कि हमें उसे आलोचकों (यहां तक कि अति विद्वान और हृदयवान आलोचकों (यहां तक कि अति विद्वान और हृदयवान आलोचकों तक) पर नहीं छोड़ना चाहिए। दूसरी ओर कविता पढ़कर आनंद पाना इतना सरल और सहज है कि उसके लिए ताक़ के ताक़ किताबी ज्ञान, पुस्तकालय या आलोचकों की राय अनिवार्य नहीं है। कोयल का गीत सुनने के लिए तो हमें आलोचकों की मदद की जरूरत नहीं पड़ती ! कोई भजन, बिस्मिला खां की शहनाई या दीवार पर बनी अल्पनाओं को देखकर आनंद पाने के लिए तो आलोचकों की जरूरत नहीं पड़ती ! तो फिर कविता ने क्या कसूर किया है कि हम उसे पढ़कर सीधे-सीधे आनंद नहीं उठा सकते ? कविता आनंद देती है, हमें अंत:मुखी करती है, अंदर झांककर सोचने को मजबूर करती है, सबसे बढ़कर खुद को, दूसरों को पहचानने में सहायक होती है। और अच्छी कविताएं रची गयी हैं, हर युग में, हर देश में। उन कविताओं की लिपि हो सकती है, नहीं भी हो सकती है। उनके सही सर्जक हो सकते हैं, वे आम जनता के मुख से भी बनी हो सकती हैं। वे चलती चली आ रही होंगी-एक से दूसरे तक सैकड़ों वर्षों से मौखिक लोक कविता बनकर।

संग्रह में कुल 32 कविताएं हैं। इनमें अलग-अलग रंग, स्वर, गंध है। अलग-अलग समय की बातें ये बताती हैं, बहुत से विविध समाजों की, रहन-सहन की, हालांकि सब में सरल रूप से मनुष्य होने का अर्थ क्या है, ये ही बातें हैं।
ग्रीक कवि-बंधु यानिस रित्सो की प्रिय कविता से कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं (अपने ‘चित्रनदी’ संग्रह में भी मैंने इन्हें उद्धृत किया है) जो कि मेरे मन की बात और इस संग्रह का अंतिम उद्देश्य है। इसलिए उन पंक्तियों को उद्धृत करते हुए अपनी यह भूमिका नहीं समाप्त करूंगा।
उसके बाद मित्र हमने सीख लिया
कैसे एक-दूसरे से बात की जाती है
आहिस्ता-आहिस्ता, सरल भाव से।
अब हम समझते हैं एक-दूसरे को
किंतु उसके जितना नहीं
कल हम और सरल होंगे
हम ढूंढ़ लेंगे वे तमाम शब्द
जो हर दिल में स्पंदन पैदा करते हैं
और सबके होठों पर होते हैं;
जो कह सकें सीधे-सीधे
जो भी कुछ हम अनुभव करते हैं।
शायद लोग हंसेंगे, कहेंगे
‘‘यही है कविता, ऐसी होती है कविता तब तो
हम हर घंटे सौ रचते हैं।’’
अच्छी बात है। हम भी यही चाहते हैं,
क्योंकि हम गीत गाते हैं इस दुनिया से
खुद को अलग करने के लिए नहीं, बंधु
हम गाते हैं इससे जुड़ने के लिए।
नयी सहस्राब्दि में नये लोगों का जन्म सभी चाहते हैं। खासकर सभी सृजनशील कलाकार। वे सपना देखते हैं, एक ऐसे मानव-समाज का, जहां व्यक्ति-जीवन में सपने जीवित हैं, व्यक्ति, समाज और वृहत्तर कुटुंब के साथ, चारों ओर की प्रकृति के साथ एक सूत्र में पिरोये हुए। प्रकृति हमारे बहुत करीब है। उसकी एक-एक सृष्टि जीवन और रहस्य के एकीभूत अंग हैं।
इन कुछ कविताओं में वे सपने, वे अंगीकार, वे प्रतिश्रुतियां पूरी गहराई से प्रतिध्वनित हुई हैं। आशा है, अपने जीवन को नया स्वरूप प्रदान करने की प्रक्रिया में हमारे तरुण पाठकों के लिए ये सहायक होंगी।
-सीताकांत महापात्र


बच्चे
इज़ेत साराज्लिक (युगोस्लाविया-सर्वियन)



बच्चो, मैं हैमलेट नहीं
या फ्लोरेंस के ऊपर बहता बादल नहीं,
तुम मुझे जानते हो
बायीं ओर वाली पहली गली में घर है मेरा।

पढ़ाई खत्म कर जिस दिन तुम
नोट्स और किताबों का गट्ठर जला दोगे
युद्ध-समाप्ति के बाद सीमा से तुम लौट रहे होगे
या घूमते-फिरते इजिप्ट या कहीं और से लौट रहे होगे;
प्रथम प्यार की अग्नि-ज्वाला से
जले बिना जब तुम
उससे अधिक निखरकर उभरोगे;
प्रमोशन पा-पाकर जब तुम उद्योग-देवता
बन जाओगे
और जब, मेरी ही तरह
तुम्हारे सिर के बाल सफेद हो जायें,
बच्चो, जब जीवन का आधा वक्त खत्म हो जाये,
अपनी माताओं से कहना
कि तुम दुबारा जन्म लेना चाहते हो।


यदि इस तारे का दीप
व्लादिमिर मायकोवस्की (रूस)



सुनो, जब इस तारे का दीप
आकाश में जल उठा-
कोई न कोई ताके बैठा था उसे ही
उत्कंठा से, आकांक्षा से,
कोई न कोई चाहता था
वह नन्हा-सा दीप आकाश में जगमगाए
कोई न कोई उसी नन्हे प्रकाश-बिंदु को
अणिमादि अष्टनिधि से बड़ा समझता था।

गर्मी के दिनों की धूल भरी आंधी से ढंकी
आंखों से आंसू पोंछते और
सुबक-सुबककर रोते हुए,
खूब देर हो गयी सोचकर
भगवान की लंबी हथेली को
किसी ने चूमा
और कहा :
नहीं, ताराहीन भाग्य मैं नहीं सह सकता, प्रभु
जरूर रहेगा एक तारा आकाश में
एक तारा-हाँ एक तारा !

उसके बाद चुपचाप
इससे-उससे पूछता फिरता;
तुम्हें अच्छा लगता है न !
डर तो नहीं लगता ?
तुम ठीक को हो ?

सुनो, आकाश में तारे झिलमिलाते हैं
इसीलिए कि कोई न कोई
उसे ताके बैठा है;
बैठा ताक रहा है
काश ! टिमटिमाने लग जाये कम से कम एक तारा
नील-गगन में।

तितली
विलियम वर्ड्सवर्थ (बिट्रेन)



आधे घंटे से तुझे निहार रहा हूँ-
उसी पीले फूल पर बैठी है तू।

नन्ही तितली, नन्ही तितली
क्या तू वहां सो गयी है
या फूल से कुछ खा रही है ?

कितनी थिर, निश्चल बैठी है तू
बर्फ बना समुद्र भी
इतना स्थिर, शान्त नहीं होता !
उसके बाद टहनी पर-
जब तुझे फिर से मिली हवा
न जाने किस खुशी से
उसके पुकारते ही चुपचाप उड़ गयी तू !

देख, यह हमारा बगीचा है
यहां मेरा पेड़ है
मेरी छोटी बहन का लगाया फूल का पौधा भी है।

जब भी तू थक जाये
यहां आ जाना
थके पत्तों को आराम देना
समझ ले, तेरे लिए यह अभयारण्य है !

हमेशा यहीं आ जाना
हमसे तुझे कोई खतरा नहीं
किसी भी फूल पर
हमारे हाथ की पहुँच में बैठ सकती है तू।

तू बैठना और हम अनंत बातें करेंगे
सूर्यकिरण की बातें, गीतों की बातें
बसंती ऋतु की बातें, अपने बचपन की बातें।

वे तमाम मधुर बचपन
जब एक-एक दिन था
आज के बीस-बीस दिन के बराबर !

आपके बच्चे
ख़लील ज़िब्रान (लेबनान)



आपके बच्चे
सिर्फ आपके बच्चे नहीं।

जिंदगी ने खुद ही को चाहा है
खुद इंतजार करती बैठी है :
वे बच्चे उसी कामना
उसी इंतजार की ही संताने हैं।

आपके जरिये वे इस धरती पर
आये जरूर हैं
पर आपके अंग नहीं हैं वे
सच है कि आपके साथ वे एकत्र हैं, सगोत्र हैं;
पर पूरे के पूरे आपके नहीं।

आप उन्हें प्यार दे सकते हैं
पर उनके विचारों को
नियंत्रित नहीं कर सकते
उनके रक्त-मांस के शरीर को
पाल-पोसकर इत्ते-से इत्ता बना सकते हैं
पर उनकी आत्मा को बांध नहीं सकते।

क्योंकि उनकी आत्मा का घोंसला तो आगामी कल में है
और आप तो वहां कभी पहुंच भी नहीं सकते,
यहां तक कि सपने में भी।

इसलिए उन्हें अपने सांचे में
ढालने की कोशिश कभी न करें;
बल्कि चाहें तो कोशिश करें
खुद उनकी तरह बनने की।

जिंदगी पीछे कभी नहीं लौटती
थमी नहीं रहती बीते कल में।

मुंह में दूध की बिटकिनी* डाले तामारा** क्या कहता है ?
इज़ेत साराज्लिक (युगोस्लाविया-सर्वियन)



सिर्फ इतना :
बिल्ली के बच्चों को कोई परेशान न करे
भालू के बच्चों को जंगल में कोई गोली न मारे
गोले-बारूद से बार्च के पेड़ मुरझा न जायें
दुनिया के सारे लोग दोस्त बनकर रहें
मौत जिनको ले गयी है
फिर से लौटा दे उन्हें
भू-कंप न हो
सारे विमान सुरक्षित उतरें
मेरे पापा अपनी कविता खत्म कर लें
सारे पापा कवि बन जायें।

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दूध की बोतल का निप्पल, ** बच्चा।

बेटे को
ऑर्थर कुड्नर (डेनमार्क)



सुनो बेटे,
बड़े-बड़े शब्दों से कभी घबराना मत
बहुत बड़ा शब्द
बहुत छोटी-सी चीज का नाम होता है।

और जो सचमुच विशाल हैं, बड़े हैं
उनके नाम छोटे-छोटे होते हैं :
जैसे जीवन, मृत्यु, युद्ध, शांति,
आशा, प्रेम, घर, रात, दिन।

छोटे-छोटे शब्दों का कैसे
बड़े रूप में, सुंदर ढंग से
इस्तेमाल करोगे, वह सीख लो
यह है बहुत मुश्किल पर तुम
जो कुछ कहना चाहोगे
बखूबी कह सकोगे।

जब तुम क्या कहना चाहते हो
तुम्हें खुद ही मालूम न हो
तब खूब बड़े-ब़ड़े शब्दों का इस्तेमाल करना
वे शब्द छोटे लोगों को
अकसर बुद्धू बनाते हैं।


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