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कृष्ण जिज्ञासा, खोज, उपलब्धि

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5537
आईएसबीएन :81-288-0493-6

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कृष्ण के बहुआयामी व्यक्तित्व पर ओशो द्वारा दिए गए बाईस प्रवचनों में से चार

Krishna Jigyasa, Khoj, Uplabdhi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कृष्ण की चर्चा मेरे लिए इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि आप उनका अनुकरण करने जाएँ, इसलिए महत्वपूर्ण है कि ऐसा व्यक्ति, इतना ‘मल्टीडायमेंशनल’ व्यक्ति पृथ्वी पर नहीं हुआ। इस बहुआयामी व्यक्तित्व के अगर सारे ख़ज़ाने आपके सामने खुल जाएँ तो आपको अपने ख़ज़ाने खोलने का ख़याल आ सकता है। बस इससे ज्यादा नहीं। आपके ख़ज़ाने आपके होंगे, और कोई नहीं कह सकता कि आपके ख़ज़ाने कृष्ण से ज़्यादा गहरे और ज़्यादा समृद्ध नहीं होंगे। वह कोई सवाल नहीं है।

लेकिन जो कृष्ण के भीतर घटित हुआ, वह किसी और के भीतर भी घटित हो सकता है, इसका स्मरण ही काफ़ी है। उस स्मरण के लिए ही सारी चर्चा है।

अकर्म के पूर्ण प्रतीक कृष्ण

आपने कहा है कि श्री कृष्ण के मार्ग में कोई साधना नहीं है। केवल ‘सेल्फ रिमेंबरिंग’ पुनर्आत्म-स्मरण है। लेकिन, आप सात शरीरों की साधना की बात करते हैं। तो सात शरीरों के संदर्भ में कृष्ण की साधना की रूपरेखा क्या होगी, कृपया इसे स्पष्ट करें।

कृष्ण के विचार-दर्शन में साधना की कोई जगह ही नहीं है। इसलिए सात शरीरों का भी कोई उपाय नहीं है। साधना के मार्ग पर जो मील के पत्थर मिलते हैं, वह उपासना के मार्ग पर नहीं मिलते हैं। साधना मनुष्य को जिस भांति विभाजित करती है, उस तरह उपासना नहीं करती। साधना सीढ़ियाँ बनाती है, इसलिए आदमी के व्यक्तित्व को सात हिस्सों में तोड़ती है। फिर एक-एक सीढ़ी चढ़ने की व्यवस्था करती है। लेकिन उपासना आदमी के व्यक्तित्व को तोड़ती ही नहीं। कोई खंड नहीं बनाती। मनुष्य का जैसा अखंड व्यक्तित्व है, उस पूरे को ही उपासना में लीन कर देती है।

इसलिए साधकों ने तो बहुत सी सीढ़ियाँ बनाई हैं, बहुत से मील के पत्थर लगाए हैं, बहुत-बहुत विभाजन किए हैं-सप्त-शरीरों में विभाजन किया है, मनुष्य के व्यक्तित्व का, सात चक्रों में विभाजन किया है मनुष्य के व्यक्तित्व का, अलग-अलग साधना की है, लेकिन उपासना के जगत् में कोई विभाजन नहीं है। वहाँ मनुष्य जैसा है, उस पूरे ही मनुष्य को सिर्फ़ स्मरण करना है। स्मरण खंड-खंड नहीं होता, साधना खंड-खंड हो सकती है। किसी आदमी को स्मरण ऐसा नहीं आता कि मैं थोड़ा परमात्मा हूँ और थोड़ा नहीं हूँ। जब आता है तो पूरा आता है, अन्यथा नहीं आता है।

स्मरण की प्रक्रिया ही अलग है। स्मरण की प्रक्रिया ‘सडेन’ है ‘ग्रेजुअल’ नहीं है। स्मरण पूरा-का-पूरा एक ही छलाँग में घटित होता है स्मरण एक विस्फोट है। साधना का एक क्रम है, स्मरण का कोई क्रम नहीं है। जैसे उदाहरण के लिए ऐसा समझें-आपको किसी का नाम पक्की तरह मालूम है। वक्त पड़ा है और याद नहीं आ रहा है। और आप कहते हैं ओंठ पर रखा है, जीभ पर रखा है। बड़े मजे की बात आप कहते हैं। कहते हैं, जीभ पर रखा है याद नहीं आ रहा है। असल में दोनों बातें आपको याद आ रही हैं कि मुझे याद भी है और याद नहीं भी आ रहा है। बड़ी असमंजस की स्थिति है। आपको मालूम है कि मालूम है, आपको भलीभाँति पता है कि पता है, लेकिन याद नहीं आ रहा है।

विस्मरण का मतलब ही यही है कि जो याद है और याद नहीं आ रहा है। मन के किसी गहरे तल को पता है कि याद है लेकिन मन के ऊपरी तल तक खबर नहीं पहुँच पा रही। बीच में सेतु नहीं बन पा रहा। गहरा मन कहता है कि मालूम है, लेकिन उथला मन कहता है कि मुझ तक ख़बर नहीं आ रही । इसलिए हम कहते हैं कि जीभ पर रखा है लेकिन याद नहीं आ रहा है। दोनों बातें एक साथ याद आ रही हैं। मालूम है यह भी याद आ रहा है, याद नहीं आ रहा है, यह भी मालूम हो रहा है।
फिर आप क्या करते हैं ?

फिर आप बड़ी कोशिश करते हैं। फिर हज़ार उपाय करते हैं।  सिर पर बल देते हैं, मुट्ठियाँ कस लेते हैं, सब तरह से खोजते हैं, बीनते हैं। और जितना खोजते हैं उतना ही पातें हैं कि याद नहीं आ रहा है। जितना खोजते हैं, उतना ही पाते हैं कि याद आना मुश्किल हुआ जा रहा है। क्यों, क्योंकि जितना आप खोजते हैं उतने आप ‘टेंस’ और तनाव से भर जाते हैं और जितने तनाव से भर जाते हैं उतना ही आपके गहरे मन और आपका संबंध टूट जाता है। तनाव से भरा हुआ मन खंडित हो जाता है, शांत मन इकट्ठा हो जाता है।

जितना आप कोशिश करते हैं कि याद करूँ, याद करूँ, याद करूँ, उतना आप मुश्किल में पड़ते हैं। क्योंकि जो आदमी यह कह रहा है कि मैं याद करूँ, वह साथ ही यह भी स्मरण रखे हुए है कि मुझे याद नहीं आ रहा है। ये दोहरे सुझाव उसको एक-साथ मिल रहे हैं। बार-बार कह रहा है कि याद करूँ और बार-बार जान रहा है कि याद नहीं आ रहा है, तो उसका आत्मविश्वास कम होता जा रहा है। और मन तनता जा रहा है। वह याद नहीं कर पाएगा। फिर उस आदमी ने कहा कि जाने दो। नहीं आता याद तो जाने दो। वह आदमी बैठकर सिगरेट पीने लगा है, या बगिया में काम करने लगा है, या रेडियो सुनने लगा है, या अख़बार पढ़ने लगा, और अचानक याद आ गया है। और जब ऐसा याद आता है, तो कभी आधा याद आता है ? बस पूरा याद आ जाता है।

क्यों ? इस आकस्मिक अ-तनाव की हालत में ‘रिलेक्सेशन’ की हालत में क्यों याद आ गया ? तनाव मिट गया है, आपने याद करने की बात छोड़ दी, दोनों मन जो टूटे थे-करनेवाला और जिसे याद था, वे दोनों लड़ रहे थे, याद करनेवाला कहता था, याद आना चाहिए और तना हुआ था, वही बाधा थी, वही तनाव था। वह छूट गया। आप बगिया में काम कर रहे हैं, या अख़बार पढ़ रहे हैं, या रेडियो सुनने लगे हैं और अचानक याद आ गया है। जो कोशिश से याद नहीं आया था, वह अचानक याद आ गया। जो प्रयास से नहीं खोजा जा सका था, वह अप्रयास में उपलब्ध हो गया है। लेकिन जब यह याद आती है तो अधूरी नहीं आती, बस पूरी ही आ जाती है। क्योंकि पूरा ही आपको मालूम है।

यह मैंने उदाहरण के लिए कहा। यह हमारी सामान्य स्मृति की बात है। इस स्मृति में मन के दो हिस्से काम करते हैं। जिसको हम ‘कांसॅस माइंड’ कहते हैं। वह जिसको हम ‘अनकांसॅस माइंड’ कहते हैं, वह हमारा चेतन मन और हमारा अचेतन मन। इसे हम ऐसा समझ ले सकते हैं कि चेतन मन हमारा वह हिस्सा है मन का, जिससे हम चौबीस घंटे काम लेते हैं। अचेतन मन हमारे मन का वह हिस्सा है, जिसमें हमें कभी-कभी काम लेना पड़ता है, चौबीस घंटे काम नहीं लेते।

चेतन मन हमारा प्रकाशित मन है, अचेतन मन हमारा अंधकार में डूबा मन है। यह जो स्मृति का मैंने उदाहरण लिया, यह अचेतन में दबी है और चेतन याद करने की कोशिश कर रहा है। चेतन अचेतन के ख़िलाफ़ लड़ रहा है। जब तक लड़ेगा, तब तक याद नहीं आएगा। जैसे ही लड़ाई छोड़ेगा, दोनों मिल जाएँगे और याद आ जाएगा। और जो अचेतन के द्वार पर खड़ा था, बिल्कुल चेतन में प्रवेश करने को, उसी को आप कह रहे थे कि जीभ पर रखा है।

परमात्मा की स्मृति, या आत्मस्मृति या ‘सेल्फ रिमेंबरिंग’ और गहरी बात है। वह अचेतन में नहीं दबा है। उसके नीचे एक और अचेतन मन है जिसको हम ‘कलैक्टिव अनकांशॅस’ कहें-हम सबका सामूहिक अचेतन मन इसे ऐसा समझें कि चेतन मन है हमारा ऊपर का प्रकाशित हिस्सा, उसके नीचे हम सबका समूह मन है, वह भी अँधेरे में दबा है। और उसके भी नीचे ‘कॉज़्मिक अनकांशॅस’ हैं, जो समस्त जगत् समस्त जीवन, समस्तता का अंधकार में दबा हुआ मन है। परमात्मा की स्मृति उस ‘कॉज़्मिक अनकांशॅस में, समष्टि अचेतन में दबी पड़ी है। तो स्मरण का कुल मतलब इतना ही है कि हम अपने भीतर इतने एक हो जाएँ कि न केवल अपने अचेतन से जुड जाएँ, समूह अचेतन से जुड़ जाएँ, बल्कि उसके नीचे समष्टि अचेतन से जुड़ जाएँ।

अब जैसे उदाहरण के लिए, जब आप ध्यान में बैठते हैं, तो जब ध्यान की गहराई आती है, तो पहले तो आप व्यक्ति अचेतन में उतरते हैं। आप रोने लगते हैं, हँसने लगते हैं, कोई रोता हैं, कोई हँसता है, कोई नाचता है, कोई डोलता है, यह आपके व्यक्ति-अचेतन में दबी हुई प्रक्रियाएँ प्रकट होती है, लेकिन दस मिनट पूरे होते-होते आप व्यक्ति नहीं रह जाते, आप एक ‘कलैक्टिविटी’ हो जाते हैं। आप अलग-अलग नहीं रह जाते हैं। जो गहरे उतर जाते हैं, वे समूह अचेतन में उतर जाते हैं। फिर उस क्षण में ऐसा नहीं लगता कि मैं नाच रहा हूँ।

उस वक़्त ऐसा ही लगता है कि नाच चल रहा है और मैं एक हिस्सा हो गया हूँ। उस वक़्त उन्हें ऐसा नहीं लगता कि मैं हँस रहा हूँ, उस वक़्त ऐसा ही लगता है कि हँसी फूट रही है और मैं भी भागीदार हूँ। उस वक़्त ऐसा नहीं लगता है कि मैं हूँ, बल्कि ऐसा लगता है कि सब कुछ नाच रहा है, सारा जगत् नाच रहा है। चाँद-तारे नाच रहे हैं, पौधे-पक्षी नाच रहे हैं, आसमान जो भी है कण-कण, वह सभी नाच रहा है। उस नाचने के हम एक हिस्से हो गए हैं। तब आप ‘कलैक्टिव अनकांशॅस’ में उतर गए। तब आप समूह अचेतन में उतर गए।

उसके भी नीचे दबा हुआ ‘कॉज्म़िक अनकांशॅस’ है। उसमें जिस दिन आप उतर जाएँगे-यह‘कलैक्टिव’ से ही उतरेंगे, यह समूह-चित्त जब और-और गहरा होता जाएगा, तब आपको यह भी पता नहीं चलेगा कि सब नाच रहे हैं और मैं एक हिस्सा हूँ, आपको यह भी पता नहीं चलेगा कि मैं हिस्सा हूँ, आपको यही पता चलेगा कि सब और मैं एक ही हूँ। हिस्सा भी नहीं हूँ। ‘टोटल’ का मैं एक भाग नहीं हूँ, मैं ही ‘टोटल’ हूँ। जिस क्षण ऐसी प्रतीति होगी, उसी क्षण, ‘काज्म़िक अनकांशॅस’ से तीर की तरह कोई स्मरण आपके चेतन मन तक उठकर आ जाता है।

उस वक़्त आपको स्मरण होता है कि मैंने जो जाना जो मुझे पता ही था कि मैं कौन हूँ। मैं ब्रह्म हूँ, अहं ब्रह्मास्मि का बोध उस क्षण में आपके चेतन तक फैल जाता है। यह तो स्मरण की प्रक्रिया है, यह मैंने चार हिस्सों में बाँटी, आपको समझाने के लिए। कृष्ण इसको बाँटते ही नहीं। यह समझाने के लिए बाँटा कि आपको कठिन होगा। ये अलग-अलग चार चीजें नहीं है, यह एक ही चीज का फैलाव है, गहरे, और गहरे, और गहरे। और जितना गहरा होता है, उतना हम खंड को अलग नाम दे रहे हैं।

हमारे बहुत गहरे में हमें पता ही है कि हम परमात्मा हैं। हमें परमात्मा होना नहीं है, सिर्फ़ ‘डिसकॅवर’ करना है, सिर्फ़ आविष्कार करना है, उघाड़ना है। ऋषि कहते हैं उपनिषद् में कि स्वर्ण-पात्र से ढँका है जो सत्य, तू उसे उघाड़ दे। वह जो ढँका है उसे तू उघाड़ दे। परमात्मा होना हमारी उपलब्धि नहीं है, सिर्फ उघड़ना है, ‘अनकॅवर’ होना है। कुछ जो ढँका है वह उघड़ जाए। किससे ढँका है ? हमारी ही विस्मृति से ढँका है। हम अपने मन के बिल्कुल अग्रिम भाग में जी रहे हैं, जैसे कोई बड़े भवन में रहता हो और अपनी दहलान में जीता हो। और धीरे-धीरे दहलान में ही पैदा हुआ हो, दहलान में खड़ा हुआ हो, दहलान में जिया हो और भूल ही गया हो, उसे पता ही न हो कि उसका बड़ा भवन भी है।

उसे पता ही न हो, वह दहलान में जी लेता हो, सो जाता हो, काम करता हो, खाता हो, पीता हो और उसे याद ही न हो कि एक बड़ा भवन भी है उस दहलान से जुड़ा हुआ। असल में कोई दहलान अकेली नहीं होती। कभी देखी है कोई दहलान अकेली ? दहलान किसी बड़े भवन का हिस्सा ही होती है। उस बड़े भवन का हमें कोई पता नहीं है। हम अपने चेतन मन में ही जी रहे हैं, वह हमारी दहलान है। वह हमारा सिर्फ बाहर का हिस्सा है, जहाँ छपरी पड़ती है। इससे ज़्यादा नहीं है। लेकिन हमें कोई पता नहीं है भीतर का। उस भीतर का भी हमारे बहुत गहरे में स्मरण है पर उस भीतर की अपनी गहराई में भी हम नहीं उतरे हैं इस भीतर की गहराई में उतर जाना खंड में नहीं होगा। चर्चा और समझाना खंड में होगा।

साधना के मार्ग से जो चलते हैं, वह एक-एक खंड को साधने की कोशिश करते हैं। कृष्ण कहते ही इतना हैं कि तुम परमात्मा हो, इसे स्मरण करना है। इसलिए उपनिषद् बार-बार कहते हैं, स्मरण करो, स्मरण करो। सिर्फ ‘रिमेंबर’ करना है कि कौन हैं हम। यह हम भूल गए हैं, यह हमने खो नहीं दिया है। यह कुछ ऐसा भी नहीं है कि हमारा कोई भविष्य है, जो हमें होना है। सिर्फ विस्मरण है। बहुत बात बदल जाती है। साधना में सिर्फ विस्मरण नहीं है, साधना के ख़याल में कोई चीज़ खोयी गई है। या कोई चीज़ अभी हुई ही नहीं है, जो होनेवाली है। या साधना के क्रम में कुछ चीज़ गलत जुड़ गई है, जिसे काटना होगा, अलग करना होगा। स्मरण की प्रक्रिया में न कुछ काटना है, न कुछ अलग करना है, न कुछ ग़लत जुड़ गया है, न हमें कुछ होना है, न हम अन्यथा हो गए हैं, हम जो हैं वह हैं, सिर्फ़ विस्मरण है। बस विस्मरण के अतिरिक्त और कोई पर्दा नहीं है।

कृष्ण का सारा-का-सारा आधार उपासना का है और उपासना का सारा आधार स्मरण का है। लेकिन भूल गए उपासक स्मरण को। उसकी जगह उन्होंने सुमिरन शुरु कर दिया। स्मरण को भूल गए, अब वह सुमिरन कर रहे हैं। बैठे हैं और राम-राम जप रहे हैं। राम-राम जपने से याद न आएगा कि मैं राम हूँ। स्मरण शब्द धीरे-धीरे सुमिरन बन गया। स्मृति शब्द धीरे-धीरे सुरति बन गया। और उस शब्द के दूसरे ही ‘कनोटेशन’ और दूसरे ही अर्थ हो गए। एक आदमी बैठकर अगर यह भी दोहराता रहे कि मैं परमात्मा हूँ, मैं परमात्मा हूँ, तो भी कोई हल न होगा। यह दोहराने से हल न होगा। इसके दोहराने से ‘रिपिटीशन’ से कोई वास्ता नहीं है। इससे भ्रम भी पैदा हो सकता है कि वह आदमी नीचे तो उतर ही न पाए और चेतन मन में ही समझने लगे कि मैं परमात्मा हूँ और भीतर के तलों का उसे कोई बोध ही न हो।

इसलिए स्मरण की क्या होगी प्रक्रिया ? क्या होगा मार्ग ? क्या होगा द्वार ? मेरे देखे अगर आप शांत और शून्य सिर्फ़ बैठ जाएँ, कुछ न करें-आपका कुछ भी करना बाधा बनेगा। असल में करने से हम वह पा सकते हैं, जो हम नहीं है। करने से वह मिल सकता है। जो हमारे पास नहीं है। इसलिए स्मरण का बहुत गहरा अर्थ तो ‘टोटल इनएक्टिविटी’ है, अकर्म है। इसलिए कृष्ण बहुत ज़ोर देते हैं अकर्म पर। वह निरंतर कहे जाते हैं, अकर्म। गहरे में अकर्म, ‘नो एक्टिविटी’। जैसा मैंने आपसे कहा कि छोटी-सी चीज़ भी भूल जाते हैं, तो जब तक आप ‘एक्टिवली’ उसको याद करने की कोशिश करते हैं, नहीं कर पाते हैं।

लेकिन जब आप उस हिस्से को छोड़ देते हैं और उस हिस्से में ‘इनएक्टिव’ हो जाते हैं, अकर्म में हो जाते हैं, तब वह स्मरण आ जाता है। अगर हम ‘टोटल इनएक्टिविटी’ में हो जाएँ तो वह जो ‘कॉज़्मिक अनकांशॅस’ में है, वह जो ब्रह्माण्ड-अचेतन में पड़ा है, वह एक़दम तीर की तरह उठता है। जैसे बीज फूटता है अंकुर उठकर हमारे चेतन मन के प्रकाश तक आ जाता है, और हम जानते हैं कि हम कौन हैं। अकर्म है सूत्र। साधना में सदा क्रिया है मार्ग। उपासना में सदा अक्रिया है द्वार, अकर्म है मार्ग।

कृष्ण के इस अकर्म को थोड़ा ठीक से समझ लेना अच्छा होगा। क्योंकि मैं मानता हूँ कि इसे ठीक से नहीं समझा जा सका। इसे समझना बहुत मुश्किल था। क्योंकि जिन लोगों ने कृष्ण पर टीकाएँ लिखी हैं और जिन लोगों ने कृष्ण की व्याख्या की है, उनकी किसी भी पकड़ में अकर्म नहीं बैठ सका। या तो अकर्म का मतलब उन्होंने समझा कि संसार छोड़कर भाग जाओ; लेकिन छोड़कर भागना एक कर्म है। छोड़ना एक कर्म है, एक कृत्य है। अकर्म का निरंतर यही मतलब समझा गया है कि तुम कुछ भी मत करो। दुकान मत करो, काम मत करो, गृहस्थी मत करो, प्रेम मत करो, भाग जाओ सब छोड़कर।

सिर्फ़ भागना करो। सिर्फ़ त्यागना करो। लेकिन त्याग उतना ही कर्म है, जितना भोग कर्म है। तो कृष्ण को नहीं समझा जा सका। अकर्म का मतलब छोड़ना, भागना, त्यागना हो गया। हिंदुस्तान की लंबी परम्परा त्याग की रही है, छोड़ रही है, भाग रही है। और कोई गौर से नहीं देखता कि कृष्ण बिल्कुल भागे हुए नहीं हैं। कभी-कभी हैरानी होती है कि एक लंबी परंपरा भी अंधी हो सकती है। कोई यह नहीं देख रहा है कि जो आदमी अकर्म की बात कर रहा है, वह गहन कर्म में खड़ा हुआ है। इसलिए भागना उसका अर्थ हो नहीं सकता।

कृष्ण तीन शब्दों का प्रयोग करते हैं-अकर्म, कर्म और विकर्म। कर्म वे उसे कहते हैं, सिर्फ़ करने को ही कर्म नहीं कहते। अगर करने को ही कर्म कहें, तब तो अकर्म में कोई जा ही नहीं सकता। फिर तो अकर्म हो ही नहीं सकता। करने को कृष्ण ऐसा कर्म करते हैं जिसमें कर्ता का भाव है। जिसमें करने वाले को यह ख़याल है कि मैं कर रहा हूँ। मैं कर्ता हूँ। ‘इगोसेंट्रिक’ कर्म को वे कर्म कहते हैं। ऐसे कर्म को, जिसमें कर्त्ता मौजूद है। जिसमें कर्त्ता यह ख़याल करके ही कर रहा है कि करनेवाला मैं हूँ, जब तक मैं करनेवाला हूँ तब तक हम जो भी करेंगे, वह कर्म है। अगर मैं संन्यास ले रहा हूँ, तो संन्यास एक कर्म हो गया। अगर मैं त्याग कर रहा हूँ, तो त्याग एक कर्म हो गया।

अकर्म का मतलब ठीक उलटा है। अकर्म का मतलब है ऐसा कर्म जिसमें कर्ता नहीं है। अकर्म का अर्थ, ऐसा कर्म, जिसमें कर्त्ता नहीं है।  जिसमें मैं कर रहा हूँ, ऐसा कोई बिंदु नहीं है। ऐसा कोई केंद्र नहीं है, जहाँ से यह भाव उठता है कि मैं कर रहा हूँ। अगर मैं कर रहा हूँ, यह खो जाए, तो सभी कर्म अकर्म है। कर्त्ता खो जाए तो सभी कर्म अकर्म है। इसलिए कृष्ण का कोई कर्म कर्म नहीं है, सभी कर्म अकर्म हैं।

कर्म और अकर्म के बीच में विकर्म की जगह है। विकर्म का अर्थ है, विशेष कर्म। अकर्म तो कर्म ही नहीं है, कर्म कर्म है, विकर्म का अर्थ है, विशेष कर्म। इस शब्द को भी ठीक से समझ लेना चाहिए, दोनों के बीच में खड़ा है।
विशेष कर्म किसे कहते हैं कृष्ण ? जहाँ न कर्त्ता है और न कर्म है। फिर भी चीज़ें तो होंगी। आदमी श्वास तो लेगा ही। न कर्म है, न कर्त्ता है। श्वास तो लेगा ही। श्वास कर्म तो है ही। खून तो गति करेगा ही शरीर में। भोजन तो पचेगा ही। यह कहाँ पड़ेंगे ? यह विकर्म है। यह मध्य में हैं। यहाँ न कर्त्ता, न कर्म है। साधारण मनुष्य कर्म में है, संन्यासी अकर्म में है, परमात्मा विकर्म में है। वहाँ न कोई कर्त्ता है, न कोई कर्म है। वहाँ चीज़ें ऐसी ही हो रही हैं, जैसे श्वास चलती है। वहाँ चीज़ें बस हो रही हैं। ‘जस्ट हैपनिंग।’

आदमी के जीवन में भी ऐसा थोड़ा-कुछ है। वह सब विकर्म है। लेकिन वह परमात्मा के द्वारा ही किया जा रहा है। आप श्वास ले रहे हैं ? आप श्वास लेते होंगे, फिर कभी मर न सकेंगे। मौत खड़ी हो जाएगी और आप श्वास लिए चले जाएँगे ! या जरा श्वास को रोककर देखें तो पता चलेगा कि नहीं रुकती है। होकर रहेगी। जरा श्वास को बाहर ठहरा दें तो पता चलेगा नहीं मानती है, भीतर जाकर रहेगी। न हम कर रहे हैं, न हम कर्त्ता हैं, श्वास के मामले में। जीवन की बहुत क्रियाएँ ऐसी ही हैं। अकर्म में वह आदमी प्रवेश कर जाता है, जो विकर्म के इस रहस्य को समझ लेता है। फिर वह कहता है, फिर नाहक मैं क्यों कर्त्ता बनूँ ! जब जीवन का सभी महत्वपूर्ण हो रहा है, तो मैं क्यों बोझ लूँ ? वह बड़ा होशियार आदमी है, वह ‘वाइज़ मैन’ है।

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