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कमलेश्वर की श्रेष्ठ कहानियाँ

कमलेश्वर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :243
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5538
आईएसबीएन :81-237-4365-3

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प्रस्तुत पुस्तक में संकलित कहानियों का चयन कथाकार कमलेश्वर ने स्वयं किया है

Kamleswar Ki Shestha Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

‘कमलेश्वर की श्रेष्ठ कहानियां’ कमलेश्वर की दृष्टि में श्रेष्ठ हैं, या मेरी, यानी एक पाठक या आलोचक की दृष्टि में—यह एक विचारणीय मुद्दा है। जब कोई लेखक अपनी तमाम कहानियों में कुछ कहानियों को ‘श्रेष्ठ’ घोषित कर रहा होता है तो इसमें अप्रत्यक्ष रूप से पाठक की भी उपस्थिति रहती है, कमलेश्वर की कथा-यात्रा में उनका पाठकवर्ग भी सदैव उनके साथ रहा है। ऐसे में पाठकों की पसंदगी और नापसंदगी का खयाल रखना भी जरूरी लगता है। मेरा विश्वास है कि कमलेश्वर की कुछ कहानियां और भी हैं, जिन्हें श्रेष्ठता की परिधि में रखा जा सकता है।

बहरहाल, यह एक पाठक, लेखक और आलोचक का आग्रह है, पर मेरा मानना है कि इस संग्रह में संकलित कहानियों के चयन में लेखक के साथ पाठकों का मापदंड भी शामिल है।
कमलेश्वर की कहानियों की प्रविधि और संरचना को समझने के लिए उनके जीवन और संघर्ष को समझना होगा। ऐसा किए बिना उनकी कहानियों की तह तक नहीं पहुंचा जा सकता।

कमलेश्वर शुरू से ही बहुत संघर्षशील और मेहनती लेखक रहे हैं। बचपन से उन्होंने पढ़ाई की अपनी अदम्य इच्छा को दबाकर रखा, क्योंकि औरों की तरह उन्हें पढ़ाई की सुविधाएं नहीं मिल सकीं। फिर भी अपनी लगन से उन्होंने गांव की पढ़ाई पूरी की और उच्च शिक्षा के लिए सन् 1945 के आसपास मैनपुरी से इलाहाबाद पहुंचे। उन्होंने पैसेंजर ट्रेन की इस यात्रा के दरम्यान जीवन की इबारत लिखनी शुरू की थी। अपने कस्बे मैनपुरी में बैठकर उन्होंने अपनी पहली कहानी लिखी और कानपुर के एक दैनिक पत्र में प्रकाशार्थ भेज दी। संयोग से वह कहानी छपी और उसकी चर्चा हुई।

इलाहाबाद से प्रकाशित पत्रिका ‘कहानी’ और ‘नई कहानी’ में कमलेश्वर के लेखन को उर्वरा कथा-भूमि दी। उन्होंने इस अवसर को एक चुनौती की तरह स्वीकार भी किया। इलाहाबाद में उन दिनों साहित्यिक एवं सांस्कृतिक वातावरण देश के अन्य शहरों से बेहतर और अग्रणी था। उस समय हिन्दी की उद्भट प्रतिभाएं साहित्य के क्षितिज को आलोकित कर रही थीं। कमलेश्वर इनके बीच एक सर्वहारा और मजदूरवर्ग के लेखक के रूप में जाने और पहचाने गए, मगर उनके व्यक्तित्व का लोगों पर इतना गहरा प्रभाव था कि उन्हें किसी के आगे झुकना नहीं पड़ा। मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, शिवप्रसाद सिंह और मार्कण्डेय आदि कथाकार उनके समकालीन थे। कवि दुष्यंत कुमार उनके सबसे करीबी मित्रों में रहे और आज भी हैं।
इस संग्रह की पहली कहानी है—‘‘गर्मियों के दिन’। यह कहानी सन् 1954 के आसपास लिखी गई, जब कमलेश्वरजी का एक पैर इलाहाबाद में रहता था और दूसरा मैनपुरी में। सन् 1954 से लेकर सन् 1959 का कालखंड कमलेश्वर के लेखन के लिए अत्यन्त उपयोगी और सार्थक रहा। उन्होंने कई कहानियों की पृष्ठभूमि कस्बे और शहर के बीच की यातनाओं के मध्य तैयार की। ‘गर्मियों के दिन’ कहानी में आजादी के बाद के गांवों की बदलती स्थितियों का जिक्र बड़ी तल्खी से आया है। इसमें निरर्थकता बोध, पाखंड के साथ दमन और पीड़ा के देश की चेतना-संपन्न अभिव्यक्ति दिखाई देती है।

इस कहानी में कोई विचार नहीं है, मगर सामाजिक जीवन का यथार्थ अवश्य है। नई कहानी का जन्म इसी द्वंद्व से ही शुरू होता है। कि कहानी को विचार प्रधान होना चाहिए या घटना-प्रधान ? विचार जीवन का वायवीय आधार है, मगर उसका ठोस रूप जीवन की घटनाओं तथा परिघटनाओं से निर्मित होता है। इस विषय पर खुद कमलेश्वर लिखते हैं, ‘विचार को स्वयं अपने यथार्थ से उभरना चाहिए, यदि किसी यथार्थवादी सांचे में विचार या सरोकार को फिट किया जाएगा तो कहानी प्राणहीन हो जाएगी।’ यशपाल और जैनेन्द्र दो ऐसे कथाकार हैं, जो विचार को आधार बनाकर कहानी लिखते रहे। समाज और जीवन में क्या घट रहा है, वह उनके ‘विचार’ को प्रभावित नहीं करता था। तब तक हिन्दी साहित्य में रेणु, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर परसाई की धमाकेदार उपस्थिति दर्ज हो चुकी थी। इनकी नई सर्जनात्मक शक्ति ने नए यथार्थ को जन्म दिया। ‘राजा निरबंसिया’ और ‘देवा की मां’ कमलेश्वर की दो ऐसी कहानियां हैं, जहां विचार का पायंचा अपनी सर्वांग कथा-चुस्ती के साथ एक नई सामाजिक यथार्थ के कलेवर में बुना दिखाई देता है। ‘राजा निरबंसिया’ कहानी ने कमलेश्वर को नए कथाकार की अग्रम पंक्ति में ला खड़ा किया। इसके शिल्प और इसकी भाषा ने लोगों पर जादू-का-सा असर किया और यहां से कमलेश्वर की कथा में नए जादुई यथार्थ का सूत्रपात हुआ। ये दोनों कहानियां कमलेश्वर के जीवनानुभवों की कहानियां हैं। दुष्यंत कुमार लिखते हैं, ‘एक ओर जहां कमलेश्वर अपने समय के उलझावों, विरोधाभासों और यंत्रणाओं को अपने भीतर उतारकर समझने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं उनसे निस्संग होकर उन्हें निरंतरता में देखने की कोशिश भी जारी रख रहे होते हैं।

दोनों स्थितियों में उनका दृष्टिकोण पराजयवादी नहीं, आस्थावादी होता है।’ तो क्या ‘राजा निरबंसिया’ और ‘देवा की मां’ को आस्थावादी कहानियां कहना ज्यादा उपयुक्त होगा ? हालांकि दोनों की कथाभूमि कस्बे और गांव की नागरिकता से आती है। दोनों कहानियां विसंगतिपूर्ण जीवन की उपज हैं, मगर इनमें लेखक ने स्त्री-स्वातंत्र्य के वैचारिक पक्ष को पूरी ताकत के साथ सामने रखा है। दोनों में भावात्मक आवेग है, पर ‘देवा की मां’ कहानी में नारी का स्वाभिमान, जिस तरह पुरुष अहं से मुक्ति पाने के लिए छटपटाता है, वह देखने योग्य है। इनका रचनाकाल क्रमशः सन् 1954 और 1955 है। इन कहानियों में कमलेश्वर को एक प्रभावशाली कथाकार की जगह दी है। इसके अगले वर्ष ही भैरवप्रसाद गुप्त के संपादन में कहानी का वर्षांक प्रकाशित हुआ, जिसमें पहली बार स्पष्टताः प्रश्न के रूप में ‘नई कहानी’ की बात उठाई गई। ‘(नई कहानी : संदर्भ और प्रकृति/पृष्ठ-334)

कमलेश्वर की कहानियों में समय की उपस्थिति अपने पूरे आकार में दिखाई देती है। ‘कस्बे का आदमी’ कहानी लेखक की अवधारणा और पक्षधरता का एक अच्छा उदाहरण है। इस कहानी में सामाजिक सत्य का उद्घाटन है। यह कहानी भले ही सर्वस्वीकृत काल-सापेक्ष न हो, मगर व्यक्ति-सापेक्ष तो है ही। इस कहानी के प्रमुख पात्र छोटे महाराज और शिवराज का सत्य, उनकी सामाजिक विषमताओं और जन्म लेने के व्यर्थता-बोध में अंतर्निहित है। यही जीवन का सत्य है, जिसे कमलेश्वर अपने ढंग से लोगों के सामने रखते हैं। जटिल सामाजिक स्थितियों के बीच आदमी अपने बने-बनाए जाल में उलझकर रह जाता है। यह जीवन की सचाई है और कहानी की भी।

सामाजिक सत्य के सूत्र को कमलेश्वर बड़ी बारीकी से पकड़ते हैं। कभी-कभी वे कुशल गोताखोर की तरह समाज के अंतस्तल में डूबकर किसी मोती की तलाश करते हैं।’ ‘बदनाम बस्ती’ कहानी इसी खोज का परिणाम है। ऐतिहासिक संदर्भ और सामाजिक उथल-पुथल की घटनाओं का जितना बेहतरीन उपयोग कमलेश्वर ने इस कहानी में किया है, वह कम ही देखने को मिलता है। कहानी की थीम दिल्ली की अनजान बस्ती से उठकर पूरे समाज और इतिहास की धूल साफ कर देती है। ऐसे अविस्मरणीय कथानक कमलेश्वर ही रच पाते हैं, जिसमें समानांतर घटनाक्रमों का खास महत्त्व होता है। अंग्रेजों की गुलामी, समाज के तिरस्कार से त्रस्त कथानायक सरुपा को अचानक जब संतों के प्रेम का संसर्ग मिलता है तो वह क्रांतिकारी बन जाता है। ‘पागल प्रेमी’ ही ‘क्रांति’ कर सकता है—यह कोई सूत्र नहीं है, मगर कमलेश्वर इसे एक सूत्र की तरह पिरो देते हैं और सरुपा की अनाम कुर्बानी अंग्रेजी शासन को हिला देती है। जुल्म, अत्याचार और बलात्कार इस कहानी का यथार्थ नहीं है, यथार्थ है—एक साधारण आदमी का जुल्म से टकराना। इसलिए इस कहानी की महत्ता बढ़ जाती है। यह सन् साठ के आस-पास की लिखी कहानी है, मगर यह सौ वर्ष पुराने इतिहास को अपने भीतर रखकर उसकी पड़ताल करती है।

जहां तक सन् साठ के बाद, एक वैचारिक व्यामोह में फंसी भारतीय राजनीति का चेहरा गडमड हो रहा था। स्वप्नभंग की स्थिति में भारतीय निम्न मध्यवर्ग भयानक ऊहापोह में था। समाज में उसकी सामूहिक सहभागिता की गुंजाइश खत्म होती जा रही थी। ऐसे वातावरण में ही कमलेशवर की कहानी ‘तलाश’ का जन्म हुआ। यह एक परिवार की तलाश थी। समाज और परिवार में नारी के प्रति बदलते नजरिए और नारी के अंदर हो रहे बदलाव को यह कहानी सशक्त ढंग से पेश करती है। प्रौढ़ मां और जवान बेटी एक ही घर में रहकर अजनबी हैं। अपने अतीत से मुक्त होने की मां की छटपटाहट और स्मृतियों के बीच बेटी द्वारा वर्तमान को पढ़ने की कोशिश, दो ऐसे दृष्टिबिन्दु हैं जिन पर यह कहानी नारी के एकांतिक होने की पीड़ा को व्यक्त करती है।

सन् 1980 में कमलेश्वर दूरदर्शन के महानिदेशक बनकर दिल्ली आ चुके थे। हिंदी कथा साहित्य में उनका कद ऊंचाइयां छू रहा था, पर वे अपने सरल और ईमानदार लेखन से अपने को अलग नहीं कर पा रहे थे। सरकारी नौकरी के बीच सामाजिक एवं राजनीतिक जिम्मेदारियां उन पर हावी थीं। अजीब द्वंद्व में फंसा हुआ था कमलेश्वर का कथाकार।
मगर सच के उद्घाटन में कमलेश्वर ने कभी अपने कदमों को पलटने की कोशिश नहीं की। सरकारी नौकरी में रहकर भी वे सच को नहीं छिपा पाए। ‘जार्जपंचम की नाक’ ने कहानी सरकारी सच के उद्घाटन की सबसे बेहतर कहानी है। ‘जार्जपंचम की नाक’ ने सरकार की नाकों में दम कर दिया था, मगर कमलेश्वर ने कथा-साहित्य की नाक में नहीं जाने दी। सरकारी नौकरी से उन्हें हाथ धोना पड़ा, फिर भी कोई रंजोगम नहीं। यह उनके लिए सर्जनात्मक चुनौती थी।

‘मास का दरिया’ कहानी कमलेश्वर ने मुंबई में लिखी या दिल्ली में—यह भ्रम हो सकता है, मगर इस कहानी ने देह-व्यापार में लिप्त सैकड़ों औरतों और लड़कियों की पीड़ा को व्यक्त कर दिया था। इस कहानी में कमलेश्वर का यथार्थ-बोध नई ऊंचाइयां ग्रहण करता है। कुछ भी ऊपर से ओढ़ा हुआ नहीं लगता इसमें।

इस कहानी पर कई लेखकों ने अश्लील होने का दोष मढ़ा है। यहां यह कहना वाजिब लगता है कि किसी वेश्या के कोठे का चित्रण करते समय कमरे में उखड़ रहे पलस्तर पर ही नहीं, उसकी ‘फोड़े वाली जांघ’ पर भी नजर रखनी होगी। इस कहानी में कमलेश्वर ने देह व्यापार में फंसी जुगनू जैसी सैकड़ों लड़कियों की व्यथा-कथा को जो शब्द दिए हैं, उन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। मुक्त बाजार व्यवस्था और भूमंडलीकरण ने इस मांस के दरिया के सबाब को कोठों से लेकर बंगलों तथा फार्महाउसों तक सजाकर रख दिया है। वेश्यावृत्ति, नारी की असहायावस्था और बेबसी का नरककुंड है। कौन नारी यह नहीं चाहती कि वह एक ही ठौर-ठिकाने की बनकर रहे, मगर उसका ठेकेदार कहलाने वाला पुरुष ही उसे नारकीय जीवन जीने को विवश कर देता है।

‘नीली झील’ का नाम लेते ही दिमाग में एक चित्र खिंच जाता है। दूर तक पसरा नीला जल और उस जल पर तैरते पक्षी तथा आसपास का प्रकृति आच्छादित वातावरण...‘नीली झील’ में यह सब कुछ मिलेगा, पर इन सबके साथ उसमें ऐसी कहानी मौजूद है, जो जीवन के कई अर्थ रखती है। कहानी का भूगोल पहले गंवई से कस्बाई होता है और फिर कस्बाई से शहरी हो जाता है। एक मजदूर जो गांव से आकर कस्बे में मजदूरी करता है, मगर उसका सौंदर्य-बोध उसे मजदूरी करने से अलग कर देता है। प्रकृति और व्यक्ति के सौंदर्य पर रीझनेवाले मजदूर युवक महेसा को अचानक यह लगने लगा कि वह मजदूरी करने के लिए नहीं बना है। एक विधवा ब्राह्मणी से शादी कर एक तीर से दो शिकार करता है। एक तो नीली झील में पक्षियों पर होनेवाली ज्यादातियों के खिलाफ खड़ा होकर पर्यावरण को उसके मूल अस्तित्व में बनाए रखने के लिए संघर्ष करता है, दूसरे, वह जीवन की वास्तविकता की तलाश में लग जाता है। इस कहानी में भाव प्रधान ट्रेजडी है। इस कहानी को पाठकों ने काफी पसंद किया। इसकी गंवई चेतना कहानी को महत्त्पूर्ण बनाती है। इस कहानी के बाद कमलेश्वर गंवई पात्रों की तरफ से अचानक शहर और कस्बे के सुसंस्कृत पात्रों की तरफ मुड़ जाते हैं।

कहानी ‘दिल्ली की एक मौत’ में महानगर की व्यस्त एवं आत्मकेंद्रित जिंदगी का सजीव चित्रण दिखाई देता है। किसी की मौत में भी शामिल होना है तो एक औपचारिकतावश। किसी के पास शोक-संवेदना प्रगट करने का भी वक्त नहीं।
‘खोई हुई दिशाएं’ और ‘अपने देश के लोग’ कहानियां भी शहरी जीवन के अभिशप्त समय को व्यक्त करती हैं। आधुनिकता के बेगानेपन को और उससे उत्पन्न गहरे अवसाद को उकेरती हुई ये कहानियां आज के मनुष्य को अकेला बना देने की व्यथा को परिभाषित करती हैं।

‘बयान’ की कथा-नायिका अपने अनुभवों को तर्कसंगत ढंग से बयान करती है, मगर कहानी की सांगोपांग स्थितियां और परिस्थितियां जीवन के व्यवहारजगत के अंतर्विरोधों और विसंगतियों को पूरी ताकत के साथ उभारती है, और फिर एक रूपक में तब्दील हो जाती है। यह रूपक एक टूटते और बिखरते परिवार का है। यह व्यवस्था के अति विगलित इतिहास को भी बयान करती है। यह कहानी जिंदगी के सच को उद्घाटित करते हुए कमलेश्वर के लेखन के कई आयाम का खुलासा करती है। हालांकि इस कहानी में उनकी पत्रकारिता वाली दृष्टि मौजूद है और वह कथा को नए शिल्प की ओर ले जाती है, फिर भी इसमें ‘मीडिया’ की अंदरूनी दुनिया का यथार्थ इस तरह सामने आता है कि इसके कथा-रस में कहीं व्यतिक्रम नहीं आता। यहां मीडिया के खौफनाक चेहरे उद्घाटित होते हैं, ‘सच’ के लिए कोई जगह नहीं होती, और सच बयान करने वाले को निर्मम तरीके से कुचल दिया जाता है।

‘रातें’ कहानी एक साथ कई रातों का बयान है। शब्द एक है, मगर इसका ध्वन्यार्थ काल-सापेक्ष है। ये रातें कभी खत्म नहीं होतीं। सदियों से इसी तरह चली आ रही हैं, उनका रूप बदलता है, मगर उनके अर्थ नहीं बदलते। नाचना-गाना एक जाति विशेष का परम्परागत व्यवसाय रहा है। कहीं-कहीं यह आज भी फल-फूल रहा है। यह कुनबा वेश्यावृत्ति का परिपोषक नहीं है, मगर परंपरा ऐसी है कि घर-परिवार में पैदा हुई जवान लड़की को एक न एक दिन ‘नथ उतरवानी’ ही पड़ती है। ‘नथ उतारना’ पुराने अमीर-उमरावों का शगल हुआ करता था, संयोग से शारदाबाई और फिर उसकी बेटी की नथ एक ही सेठ उतारता है—जिसका नाम है, मगनलाल छगनलाल दारूवाला। कमलेश्वर ने जिंदगी के ऐसे दारुण और अथाह करुणा से आप्लावित विषयों पर अपनी कथादृष्टि का परिचायक है, जो व्यापक से व्यापक होती चली जाती है। ‘रातें’ कहानी में इतिहास एक क्षेपक की तरह और वर्तमान एक वास्तविक के रूप में मौजूद है।
कमलेश्वर की कहानियों में फैंटेसी कथा-तत्व की तरह आती है। यह विचलित जरूर करती है, मगर पाठक के अवचेतन को डिस्टर्ब नहीं करती।

विदेशी पृष्ठभूमि को लेकर हिंदी में कई कहानियां हैं। रंगभेद और क्षरित होते जा रहे सांस्कृतिक अभिमत पर केंद्रित कमलेश्वर की ही तीन-चार कहानियां हैं। ‘इंतजार’ ऐसी ही एक कहानी है। इसकी संरचना अफ्रीकी देश की गुलामी और विदेशी उपनिवेश के काले कानून के खिलाफ है। सन् 1989 में लिखी गई कहानी का स्तोम्बी, सिर्फ तेरह-चौदह साल की उम्र का एक बालक है। अपनी आजादी के लिए संघर्ष कर रहे इस बालक के विप्लवी तेवर देखते ही बनते हैं। किसी अरण्य द्वीप के परिवेश में रची इस कथा में एक क्रांतिकारी बालक की मनःस्थिति का बहुत प्रभावशाली और कलात्मक तरीके से वर्णन किया गया है। वैसे तो रमाकांत की कहानी ‘कार्लो हब्शी का संदूक’ में भी एक हब्सी का आत्मसंघर्ष अपनी आजादी के मद्देनजर बड़े विलक्षण ढंग से खुलता है। निर्मल वर्मा की कहानी ‘पिछली गर्मियों में’ के नायक की मनः स्थिति का भी सुंदर चित्रण है, मगर ‘इंतजार’ कहानी में पूरे अफ्रीकी देशों की गुलामी के विरोध का स्वर अंकित हुआ। चित्रकार रामकुमार ने भी विदेशी पृष्ठभूमि पर कहानियां लिखी हैं। इन सबके बीच कमलेश्वर की ‘इंतजार’ कहानी का फलक बड़ा है। व्यक्ति की आकांक्षा, उसकी जिजीविषा और उसका जनव्यापी संघर्ष—तीनों चीजें कहानी को अंतर्राष्ट्रीय स्वर प्रदान करती हैं। यहां लेखक की दृष्टि, विचार और उद्देश्य की मूल भावना को पहचाना जा सकता है। कमलेश्वर की कहानियां मनुष्य को बृहत्तर समाज के अंतः एवं बाह्म संघर्ष की कथाएं हैं। संग्रह की अगली कहानियां ‘चप्पल’, ‘सफेद सड़क’ और ‘अपने देश के लोग’ भी मनुष्य और समाज के निजी और सार्वजनिक संघर्ष और व्यथा को पूरी ईमानदारी के साथ व्यक्त करती हैं। ‘चप्पल’ की कहानी जहां अस्पताल की व्यवस्था और इलाज के तौर-तरीकों पर देश की अमीरी और गरीबी को व्याख्यायित करती है, वहीं वह मनुष्य की संवेदना की भीतरी परत को भी उधेड़ती है। ‘चप्पल’—इस महादेश के विकलांग होते जा रहे बच्चों और उनकी असहायावस्था का एक रूपक है। इस कहानी में वर्ग संघर्ष का एक छोटा-सा, मगर पूरी तरह से व्यवस्था से आहत और पीड़ित मनुष्य का चित्र उभरकर सामने आता है।

‘सफेद सड़क’ यूरोपीय देश के वातावरण पर लिखी गई है। यह कहानी विदेश गए एक युवक के प्रेमोन्माद का सुंदर-सा कोलाज है—इस कहानी का परिवेश यूरोपीय है, मगर चेतना का स्वर एकदम अपने देश से उत्पन्न स्थितियों से आता है। इस कहानी में समानांतर चेतना का सहज स्वर—यूरोपीय समाज के ईगो और ईगो की भावनाओं से आया है। यह उस देश की वास्तविकता है, जहां का सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश अपनी पहचान खोता जा रहा है। वान यूनिवर्सिटी की इमारत हो या बाबरी मस्जिद—स्थितियां ज्यादा भिन्न नहीं हैं। ‘बर्बरता की तरह इंसाफ भी कभी-कभी बहुत बर्बर होता है।’ दोहरे मापदंडों के कारण मनुष्य की मूल प्रवृत्ति से दूर होते जा रहे यूरोपीय समाज की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। कभी-कभी अपनी भाषा और क्षेत्रीय सवालों के कारण यहां इंसान बेगाना और अकेला होता जा रहा है। जून (महिला पात्र) और नैरेटर के बीच पनपते प्रेम में दुविधा और अविश्वास का तीक्ष्ण भाव उभरता है; अतिसभ्य समाज के संत्रास और जकड़न से ऊबी स्थितियों में जीवन, अपनी सभ्यताओं और संस्कृतियों से आक्रांत दिखाई देता है।

विदेश के परिवेश पर केंद्रित होने के बावजूद यह कहानी अपने सोच में भारतीय ही लगती है। कमलेश्वर ने कुछ इसी तरह की कहानियों के जरिए ‘समांतर कहानी आंदोलन’ की पृष्ठभूमि तैयार की थी। यह सन् 1990 के बाद का समय है। देश के अंदर की स्थितियां जितनी जटिल थीं, बाहर उतनी ही खौफनाक और दुरूह। आजादी का अर्थ बदल चुका था। बेरोजगारी, भूखमरी, अत्याचार और स्वेच्छाचार से पीड़ित जनता आर्थिक पिछड़ेपन के डंडे से हांकी जा रही थी। एक विराट-शून्य-कच्छ के रेगिस्तान की तरह पसरता जा रहा था। ‘रावल की मेल’ इस शून्य और निराशा में भटकते एक दरवेश की कथा है, जो भारतीय महादेश की दोरंगी सचाई को व्यक्त करती है।

हिन्दी में बंटवारे को लेकर गिनी-चुनी कहानियां ही हैं। इस संदर्भ में ‘मलबे का मालिक’ (मोहन राकेश) और ‘टोबाटेक सिंह’ (मंटो) और ‘अमृतसर आ गया’ (भीष्म साहनी) आदि कहानियों को हम बार-बार याद करते हैं। कमलेश्वर की कहानी ‘इतिहास कथा’ हिंदू, मुस्लिम और ईसाई परिवार के विभाजित मानसिकता की कहानी है। इस कहानी में भी इतिहास एक बड़े संदर्भों के साथ मौजूद है। कमलेश्वर का रचनाकार अपने समाज और समाज में रह रहे व्यक्ति के प्रति हमेशा संवेदित रहता है, इसलिए वह इतिहास का पर्यवेक्षण भी करता है। वर्तमान की भयावहता इतिहास में की गई गलतियां हैं। ‘इतिहास कथा’ में नारी-स्वातंत्र्य व्यक्तिवाची संज्ञा की तरह नहीं, एक सतत् जुल्म से जूझते तथा संघर्ष करते समय का दस्तावेज है। कमलेश्वर की नजर में समाज और जीवनगत अंतर्विरोधों पर बहुत गहरे जाकर टिकती है, इसलिए वे पूरे अतीत को उलट-पलटकर देखते हैं।

‘आजादी मुबारक’ में कमलेश्वर ने आजादी के बाद के विडंबनाबोध को बड़ी कुशलता से चित्रित किया है। जाहिर है कि यह कहानी परंपरागत शैली में नहीं लिखी गई है। विलक्षण कला-कौशल से विडंबनाबोध का खाका है।
इस कहानी के बाद कमलेश्वर के जादुई यथार्थ की चर्चा तेजी से चल पड़ी थी। कहानी के रचनात्मक-स्वभाव, विषय-वस्तु और काल-खंड के अनुसार लेखक ने इस उपकरण का इस्तेमाल किया है। अपनी धार बनाने के लिए लेखक यथार्थ की सीमाओं से आगे जाकर रचना में फैंटेसी रचता ही है।

‘लाश’ कहानी उन्होंने मुंबई प्रवास के दौरान सन् 1968 में लिखी। इस कहानी के दृश्य किसी फिल्म के छोटे-छोटे शॉट्स-से लगते हैं। ‘लाश’ कहानी उनके इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अनुभवों की कहानी भी हो सकती है या फिर यह कहानी उनके इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जाने की घोषणा करती है। राजनीतिक मुखौटों और प्रपंचों में सांस लेते समाज और इंसाफ की दोतरफा जिंदगी, जैसे ‘लाश’ में ही तब्दील होती जा रही है।



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