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कितनी नावों में कितनी बार

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5540
आईएसबीएन :81-263-1077-4

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प्रस्तुत है अज्ञेय की कविताओं का संकलन

Kitni Navon Mein Kitni Baar

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

ज्ञानपीठ पुरस्कार (1978) से सम्मानित ‘कितनी नावों में कितनी बार’ ‘अज्ञेय’ की 1962 से 1966 के बीच रचित कविताओं का संकलन है। यों तो ‘अज्ञेय’ की कविताओं के किसी भी संग्रह के लिए कहा जा सकता है कि वह उनकी जीवन-दृष्टि का परिचायक है, किन्तु प्रस्तुत संग्रह इस रूप में विशिष्ट है कि अज्ञेय की सतत सत्य-सन्धानी दृष्टि की अटूट, खरी अनुभूति की टंकार इस में मुख्य रूप से गूँजती है।

‘कितनी नावों में कितनी बार’ में कवि ने एक बार फिर अपनी अखण्ड मानव-आस्था को भारतीयता के नाम से प्रचलित अवाक् रहस्यवादिता से वैसे ही दूर रखा है जैसे प्रगल्भ आधुनिक अनास्था के साँचे से उसे हमेशा दूर रखता रहा है। मनुष्य की गति और उसकी नियति की ऐसी पकड़ समकालीन कविता में अन्यत्र दुर्लभ है।
पाठकों को समर्पित है इस कृति का यह नया संस्करण।

भूमिका

(द्वितीय संस्करण से)
प्रस्तुत संकलन का यह दूसरा संस्करण है।
कविताओं के किसी भी संग्रह का पुनर्मुद्रण सुखद विस्मय का कारण होता है, और कवि के लिए तो और भी अधिक। मेरी तो यही धारणा थी कि कितनी नावों में कितनी बार के लोकप्रिय होने की सम्भावना बहुत कम है, यद्यपि उस में कुछ कविताएँ ऐसी अवश्य हैं जिन्हें मैं अपनी जीवन-दृष्टि के मूल स्वर के अत्यन्त निकट पाता हूँ। इस बात को यों भी कहा जा सकता है-और कदाचित् इसी तरह कहना ज्यादा सही होगा-कि उस जीवन-दृष्टि के ही लोकप्रिय होने की सम्भावना बहुत कम है ! यह इसलिए नहीं कि उस में सच्चाई या गहराई की कमी है, बल्कि इसलिए कि हमारे समाज की अद्यतन प्रवृत्तियाँ उन मूल्यों को महत्त्व नहीं देती हैं जो इस दृष्टि का आधार हैं। जो मूल्य-दृष्टि भौतिक जीवन की बाहरी सुख-सुविधाओं को गौण स्थान देती हुई लगातार एक सूक्ष्मतर कसौटी पर बल देना आवश्यक समझे, जो इस से भी न घबराये कि जीवन की प्रवृत्तियों और महत्त्वाकांक्षाओं के प्रति ऐसा परीक्षणभाव सफलता की खोज को ही जोखम में डाल सकता है, वह ‘लोकप्रिय’ नहीं हो सकती, भले ही थोड़े से लोग उसे महत्त्व देते रहें, बल्कि उस से प्रेरणा भी पाते रहें।

यों यह मैं जानता हूँ कि इस संग्रह का दूसरा संस्करण लोकप्रियता का मानदण्ड नहीं है। काफ़ी लम्बे अन्तराल के बाद दूसरे संस्करण की नौबत आयी है, यहाँ तक कि उस के लिए पाण्डुलिपि तैयार करते हुए मुझे मानो नये सिरे से उस की रचनाओं से परिचय प्राप्त करना पड़ा है ! और यह तो है ही कि इस संग्रह पर ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने की घोषणा से लोगों का ध्यान इस की ओर आकृष्ट हुआ है जो यों शायद कविता में भी विशेष रुचि न रखते हों। सच कहूँ तो स्वयं मुझे पुरस्कार की घोषणा से आश्चर्य हुआ और मैंने एक बार पुस्तक उलट-पुलट कर देखी-इस कुतूहल से कि इस में कौन-सी बात हो सकती है जो पुरस्कार के निर्णायकों को प्रभावित करे !

इस बात को स्वीकार करने का आशय यह नहीं है कि पाठक कविताओं को उन के आत्यन्तिक मूल्य की दृष्टि से न देखें-मैं ऊपर कह ही चुका कि इन में से कई कविताएँ उस जीवन-दृष्टि को अभिव्यक्त करती हैं जो आज भी मेरे कर्म-जीवन की प्रेरणा है। पाठक से मेरा यही अनुरोध होगा कि वे इन कविताओं को पढ़ें, उन का आस्वादन करें और उन के मूल्यांकन की ओर प्रवृत्त हों, तो यही बात ध्यान में रखें। पुस्तक पुरस्कृत हुई, इस से एक हद तक-लेकिन एक हद तक ही-यह परिणाम निकाला जा सकता है कि शायद उस जीवन-दृष्टि को भी कुछ अधिकारी अथवा पारखी समीक्षकों का अनुमोदन मिला है और यह कौन नहीं चाहेगा-कवि अथवा काव्य-रसिक-कि जो उसे अच्छा लगता है उसे ऐसे व्यक्तियों का अनुमोदन प्राप्त हो !
कविताएँ आप के सामने हैं। इस से आगे वे ही प्रासंगिक हैं,.-कवि नहीं।

उधार

सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गयी थी
और एक चिड़िया अभी-अभी गा गयी थी।
मैंने धूप से कहाः मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार ?
चिड़िया से कहाः थोड़ी मिठास उधार दोगी ?
मैंने घास की पत्ती से पूछाः तनिक हरियाली दोगी-तिनके की नोक-भर ?
शंखपुष्पी से पूछाः उजास दोगी-
किरण की ओक-भर ?
मैंने हवा से माँगाः थोड़ा खुलापन-
बस एक प्रश्वास,
लहर सेः एक रोम की सिहरन-भर उल्लास।
मैंने आकाश से माँगी
आँख की झपकी-भर असीमता उधार।

सब से उधार माँगा, सब ने दिया।
यों मैं जिया और जीता हूँ
क्योंकि यही सब तो है जीवन-
गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला, गन्धवाही मुक्त खुलापन
लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह,
और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम काः
ये सब उधार पाये हुए द्रव्य।

रात के अकेले अन्धकार में सपने से जागा जिस में
एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर मुझ से पूछा था, ‘‘क्यों जी,
तुम्हारे इस जीवन के
इतने विविध अनुभव हैं
इतने तुम धनी हो,
तो मुझे थोडा प्यार दोगे-उधार-जिसे मैं
सौ-गुने सूद के साथ लौटाऊँगा-
और वह भी सौ-सौ बार गिन के-
जब-जब मैं आऊँगा ?

मैंने कहाः प्यार ? उधार ?
स्वर अचकचाया था, क्योकि मेरे
अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार।
उस अनदेखे अरूप ने कहाः ‘‘हाँ,
क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं-
यह अकेलापन, यह अकुलाहट, यह असमंजस, अचकचाहट
आर्त अननुभव,
यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय
विरह-व्यथा,
यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना
कि जो मेरा है वही ममेतर है।
यह सब तुम्हारे पास है
तो थोड़ा मुझे दे दो-उधार-इस एक बार-
मुझे जो चरम आवश्यकता है।

उस ने यह कहा,
पर रात के घुप अँधेरे में
मैं सहमा हुआ चुप रहा; अभी तक मौन हूँ:
अनदेखें अरूप को
उधार देते मैं डरता हूँ
क्या जाने
यह याचक कौन है !

सन्ध्या-संकल्प

यह सूरज का जपा-फूल
नैवेद्य चढ़ चला
सागर-हाथों
अम्बा तिमिरमयी को :
रुको साँस-भर,
फिर मैं यह पूजा-क्षण
तुम को दे दूँगा।

क्षण अमोघ है, इतना मैंने
पहले भी पहचाना है
इस लिए साँझ को नश्वरता से नहीं बाँधता।
किन्तु दान भी है अमोघ, अनिवार्य,
धर्म :
यह लोकालय मैं
धीरे-धीरे जान रहा हूँ
(अनुभव के सोपान !)
और
दान वह मेरा एक तुम्हीं को है।
यह एकोन्मुख तिरोभाव—
इतना-भर मेरा एकान्त निजी है—
मेरा अर्जित :
वही दे रहा हूँ
ओ मेरे राग सत्य !
मैं
तुम्हें।

ऐसे तो हैं अनेक
जिन के द्वारा
मैं जिया गया;
ऐसा है बहुत
जिसे मैं दिया गया।
यह इतना
मैंने दिया।
अल्प यह लय-क्षण
मैंने जिया।

आह, यह विस्मय !
उसे तुम्हें दे सकता हूँ मैं।
उसे दिया।
इस पूजा-क्षण में
सहज, स्वतः प्रेरित
मैंने संकल्प किया।

6 मार्च 1963

प्रातःसंकल्प

ओ आस्था के अरुण !
हाँक ला
उस ज्वलन्त के घोड़े।
खूँद डालने दे
तीखी आलोक-कशा के तले तिलमिलाते पैरों को
नभ का कच्चा आँगन !

बढ़ आ, जयी !
सँभाल चक्रमण्डल यह अपना।

मैं कहीं दूर :
मैं बँधा नहीं हूँ
झुकूँ, डरूँ,
दूर्वा की पत्ती-सा
नतमस्तक करूँ प्रतीक्षा
झंझा सिर पर से निकल जाय !
मैं अनवरुद्ध, अप्रतिहत, शुचस्नात हूँ :
तेरे आवाहन से पहले ही
मैं अपने को लुटा चुका हूँ :
अपना नहीं रहा मैं
और नहीं रहने की यह बोधभूमि
तेरी सत्ता से, सार्वभौम ! है परे,
सर्वदा परे रहेगी।
‘एक मैं नहीं हूँ,--
अस्ति दूसरी इससे बड़ी नहीं है कोई।

इस मर्यादातीत
अधर के अन्तरीप पर खड़ा हुआ मैं
आवाहन करता हूँ :
आओ, भाई !
राजा जिस के होगे, होगे :
मैं तो नित्य उसी का हूँ जिस को
स्वेच्छा से दिया जा चुका !

7 मार्च 1963

कितनी नावों में कितनी बार

कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति !
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मण्डल।
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लान्त—
ओ मेरे अनबुझे सत्य ! कितनी बार...

और कितनी बार कितने जगमग जहाज
मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर
किन पराये देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अँधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश—
जिस में कोई प्रभा-मण्डल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं तथ्य—तथ्य—
सत्य नहीं, अन्तहीन सच्चाइयाँ....
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, सन्त्रस्त—कितनी बार !

यह इतनी बड़ी अनजानी दुनिया

यह इतनी बड़ी अनजानी दुनिया है
कि होती जाती है,
यह छोटा-सा जाना हुआ क्षण है
कि हो कर नहीं देता;
यह मैं हूँ
कि जिस में अविराम भीड़ें रूप लेती
उमड़ती आती हैं,
यह भीड़ है
कि उस में मैं बराबर मिटता हुआ
डूबता जाता हूँ;
ये पहचानें हैं
जिन से मैं अपने को जोड़ नहीं पाता
ये अजनबीयतें हैं
जिन्हें मैं छोड़ नहीं पाता।

मेरे भीतर एक सपना है
जिसे मैं देखता हूँ कि जो मुझे देखता है, मैं नहीं जान पाता।
यानी कि सपना मेरा है या मैं सपने का
इतना भी नहीं पहचान पाता।

और यह बाहर जो ठोस है
(जो मेरे बाहर है या कि जिस के मैं बाहर हूँ ?)
मुझे ऐसा निश्चय है कि वह है, है;
जिसे कहने लगूँ तो
यह कह आता है
कि ऐसा है कि मुझे निश्चय है !

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