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अंदाज अपना अपना

रमेश चन्द्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5550
आईएसबीएन :81-263-1040-5

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अंदाज़ अपना अपना में श्री रमेश चन्द्र ने उर्दू शायरी के सदियों के सरमाये से ऐसे हीरे-मोती चुने हैं जिनकी आब-ओ-ताब कभी कम न होगी और जिनकी कशिश हमेशा दिल को खींचती रहेगी

Andaz Apana Apana a hindi book by Ramesh Chandra - अंदाज अपना अपन -

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘अंदाज़ अपना अपना’ में श्री रमेश चन्द्र ने उर्दू शायरी के सदियों के सरमाये से ऐसे हीरे-मोती चुने हैं जिनकी आब-ओ-ताब कभी न खत्म होगी और जिनकी कशिश हमेशा दिल को खींचती रहेगी।

ये चुनिंदा अशआर श्री रमेश चन्द्र के सुथरे मज़ाक़ और ज़िंदगी भर के तजरबे का निचोड़ हैं। इस आइना-ख़ाने में मीर व ग़ालिब, मुसहफ़ी व मोमिन और दाग़ व फ़ानी से लेकर फ़ैज व फ़िराक़, शहरयार व बशीर ‘बद्र’ तक सबके लहजों की गूँज सुनाई देगी। इंतिख़ाब निहायत उम्दा और भरपूर है जिसमें ज़िंदगी की हर झलक मिलेगी और पढ़नेवालों के लिए लुफ़्तो-मज़े का बहुत सामान है। रमेश चन्द्र जी के ज़ौक़ो-शौक़ के पेशे-नज़र लगता है कि उनकी नज़र पूरी उर्दू शायरी पर रही है, और ज़िंदगी के हर मोड़ पर चुभते हुए शेरों को वह जमा करते गये हैं। यूँ यह किताब एक जामे-जहां-नुमा बन गयी है। ज़िंदगी, इंसानियत, रूहानियत सौंदर्य, प्रेम, तसव्वुर, वतनपरस्ती, आत्म-विश्वास, मज़हब, दुनियादारी, व्यंग्य, मयकदा हर मौजूं पर अच्छे शेरों का ऐसा ज़ख़ीरा है कि ज़िंदगी की हर करवट एक खुली किताब की तरह सामने आ जाती है। फूल तो बेशक बाग़ में खिलते हैं, लेकिन उनसे गुलस्ता बनाना बाग़बान का कमाल है।


निवेदन


इस प्रकाशन को उर्दू शायरी का प्रतिनिधि संकलन नहीं कहा जा सकता। यह मक़सद भी नहीं था। उर्दू शायरी के विशाल समुद्र से मोती चुनने का काम मेरे लिए मुश्किल होता, क्योंकि इसके लिए शौक़ और ज़ौक़ दोनों की ज़रूरत है। शौक़ तो हमेशा से रहा है लेकिन ज़ौक़ के लिए तो उर्दू भाषा-साहित्य का ज्ञान आवश्यक था। और मैं तो उर्दू कम ही जानता हूँ। यह संग्रह तो इसलिए मुमकिन हो सका कि अदबी महफिलों मुशायरों या रोजाना की ज़िंदगी में जो शेर पढ़ने-सुनने में आये, वो या तो याददाश्त में कहीं महफ़ूज़ रहे या मैंने उन्हें कहीं लिख लिया। इस तरह बूँद-बूँद से घड़ा भर गया।
यों तो मेरी राय में हिन्दी उर्दू एक ही माँ की संतान है। शौरसेनी प्राकृत से ब्रजभाषा और फिर खड़ी बोली की ही विरासत उर्दू के रूप में विकसित हुई। उसकी परवरिश दिल्ली में हुई। रुहेलखंड इलाक़े में भी इसका बड़ा प्रभाव था।

रुहेलखंड का एक क़स्बा नजीराबाद मेरा जन्म स्थान है जहाँ हमारा परिवार शायद तभी से आबाद है जब से मुगल सेनापति नजीबुद्दौला ने शहर बसाया था। अगर फ़ारसी मिश्रित हिन्दी को एक अलग जबान का दर्जा दिया जा सके तो वहाँ की बोलचाल की जबान उर्दू ही कही जा सकती है। मैं स्वयं तो स्कूल में हिन्दी का विद्यार्थी था, लेकिन परिवार में सब बड़े उर्दू पढ़े थे। शहर में तथा कभी घर में भी मुशायरे अक्सर होते रहते थे, जिनको हम बड़े चाव से सुनते और आगे बैठकर दाद देते थे। हमारे शहर से संभ्रांत परिवारों में दिल्ली की भाषा, तहज़ीब व नज़ाकत-नफ़ासत का स्पष्ट असर था।
उन दिनों अपनी बात करते वक़्त या तकरीर में शेर उदृधृत करने का रिवाज़ था, जो किसी हद तक आज भी है। उर्दू शेरो-शायरी में एक रवानी और चुटीलापन है जो वातावरण को सजीव बना देते हैं। दरअसल एक शेर के जरिये हम उस विचार का सारांश प्रस्तुत कर सकते हैं जिसके लिए दस वाक्य बोलने पड़ते। इस तरह अगर मैं ये कहूँ कि यह शौक़ क्षेत्र तथा परिवेश की देन है तो ग़लत न होगा।

इस संकलन में अमीर ख़ुसरो, ‘मीर’ से लेकर बशीर ‘बद्र’ दुष्यंत कुमार तक के शेर शामिल हैं। पुराने अधिक हैं नये कम, क्योंकि अरसे से मुशायरों में आना-जाना छूट गया है। हर शायर का अपना-अपना ख़ूबसूरत अंदाज़ है जो दिल को छू लेता है। वक़ौल ‘हसरत’ मोहानी के-


शेर दरअसल वही है ‘हसरत’,
सुनते ही दिल में जो उतर जाए।


इसमें बहुत से शेर ऐसे हैं जिनके लेखक का नाम मुझे मालूम न होने के कारण ‘अज्ञात’ लिख दिया गया है। मशहूर शुअरा के मशहूर अशआर के साथ यह न्याय नहीं है। अगले संस्करण से पहले कोशिश करूँगा कि यह कमी दूर हो सके। पाठकों की सहूलियत के लिए शेर विषयवार प्रस्तुत करने की कोशिश की है, लेकिन यह काम ज़ाहिरा ही मुश्किल था। हर शेर भाव की दृष्टि से कई जगह स्थान पा सकता था।

संकलन के प्रकाशन का विचार मिला डॉ. वेदप्रताप वैदिक से। बिखरी हुई सामग्री में से इंतिख़ाब के काम में गुलज़ार ने मदद की। ज्ञानपीठ के साथियों में श्री दिनेश मिश्र और श्री पद्मधर त्रिपाठी ने तरतीब दी व सम्पादन किया। परिवारजन में सुरेश ने मदद की। उनका एक शेर भी इस संग्रह में शामिल है। प्रसिद्ध विद्वान डॉ. गोपी चंद नारंग ने आख़िरी मुहर लगायी और प्रस्तावना लिखी। इन सबके प्रति मैं आभार प्रकट करता हूँ।
अगर आप प्रस्तुत संकलन को कहीं अपने इर्द-गिर्द पाते हैं महसूस करते हैं तो अपना प्रयास सफल मानूँगा।


प्रस्तावना



शेरों की पसंद का अजीब मुआमला है। इनसे ज़िंदगी को आपने किन शर्तों पर जीया है या आपको ज़िंदगी ने किस तरह झेला और बरता है उसका हाल तो मालूम हो ही जाता है, सच तो यह है कि शेरों से दिल का चोर भी खुलकर सामने आ जाता हैः,


खुलता किसी पे क्यूं मेरे दिल का मुआमला,
शेरों के इंतिख़ाब ने रुस्वा किया मुझे।


फिर पसंद-नापसंद भी तो अलग-अलग हो सकती है, अपने अपने तजरबे, ज़ौक़ और ज़र्फ़ की वजह से। तभी तो कहा जाता है ‘पसंद अपनी अपनी ख़्याल अपना अपना’। लेकिन कुछ चीज़ें ऐसी भी होती हैं कि सबकी निगाह ठहर जाती है, जैसे कुछ चेहरे ऐसे होते हैं कि जी में खुब जाते हैं। इसी तरह कुछ शेर भी ऐसे होते हैं कि जबान पर बेसाख्ता चढ़ जाते हैं। वैसे तो सौंदर्य एक रहस्य है जिसको खोलना आसान नहीं। दिलवालों का कथन है कि ‘अपना माशूक़ तो वो है जो अदा रखता है’, या जैसा फ़ारसी में कहा जाता है कि ‘करिश्मा दामन-ए-दिल मी कशद कि जा ईं जा अस्त’। यह ‘अदा’ या ‘करिश्मा’ क्या है जो दिल के दामन को अपनी ओर खींचता है। इसका कोई आसान जवाब नहीं।

सौंदर्य की तरह शायरी भी बस वो ही है जिसका जादू सर चढ़कर बोले। जेरे नज़र किताब ‘अंदाज अपना अपना’ में भी श्री रमेश चन्द्र ने उर्दू शायरी के सदियों के सरमाये से ऐसे हीरे-मोती चुने हैं जिनकी आब-ओ-ताब कभी कम न होगी जिनकी कशिश हमेशा दिल को खींचती रहेगी।

ये चुनिंदा अशआर श्री रमेश चन्द्र के सुथरे मज़ाक़ और ज़िंदगी भर के तजरबे का निचोड़ हैं। इस आइना-ख़ाने में मीर व ग़ालिब, मुसहफ़ी व मोमिन और दाग़ व फ़ानी से लेकर फ़ैज व फ़िराक़, शहरयार व बशीर ‘बद्र’ तक सबके लहजों की गूँज सुनाई देगी। इंतिख़ाब निहायत उम्दा और भरपूर है जिसमें ज़िंदगी की हर झलक मिलेगी और पढ़नेवालों के लिए लुफ़्तो-मज़े का बहुत सामान है। रमेश चन्द्र जी के ज़ौक़ो-शौक़ के पेशे-नज़र लगता है कि उनकी नज़र पूरी उर्दू शायरी पर रही है, और ज़िंदगी के हर मोड़ पर चुभते हुए शेरों को वह जमा करते गये हैं। यूँ यह किताब एक जामे-जहां-नुमा बन गयी है। ज़िंदगी, इंसानियत, रूहानियत सौंदर्य, प्रेम, तसव्वुर, वतनपरस्ती, आत्म-विश्वास, मज़हब, दुनियादारी, व्यंग्य, मयकदा हर मौजूं पर अच्छे शेरों का ऐसा ज़ख़ीरा है कि ज़िंदगी की हर करवट एक खुली किताब की तरह सामने आ जाती है। फूल तो बेशक बाग़ में खिलते हैं, लेकिन उनसे गुलस्ता बनाना बाग़बान का कमाल है। आशा है शेरों के इस गुलदस्ते की महक सदा बाकी रहेगी और इसका हुस्न हमेशा अपने बाग़बान की याद दिलाता रहेगा।
नयी दिल्ली

9 अगस्त, 2000

-गोपी चंद नारंग



ज़िंदगी


ग़रज़ कि काट दिये ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त,
वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में।

–‘फ़िराक़’ गोरखपुरी


है ख़बर गर्म उनके आने की,
आज ही घर में बोरिया न हुआ।


-‘ग़ालिब’


दुनिया ने तजरबातो-हवादिस की शक्ल में,
जो कुछ मुझे दिया है, वो लौटा रहा हूँ मैं।


साहिर’ लुधियानवी


इस दौर में ज़िंदगी बशर की,
बीमार की रात हो गयी है।

-‘फ़िराक़’ गोरखपुरी।

जिसमें बचपन का मेरा क़िस्सा है,
उम्र का बेहतरीन हिस्सा है।

-‘जोश’ मलीहाबादी


मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा,
या यूं कहो कि बर्क़ की दहशत नहीं रही।


-दुष्यंत कुमार


कुछ ऐसे सिलसिले भी चले ज़िंदगी के साथ,
कड़ियां मिलीं जो उनकी तो ज़ंजीर बन गये।


-यूसुफ ‘बहजाद’

मौत से डर हौसला न हार,
ज़िंदगी को ढूँढ़ हादसात में।

अज़ीज़’ नहटौरी

मुख़ालफ़त से मेरी शख़्सियत संवरती है,
मैं दुश्मनों का बड़ा एहतेराम करता हूँ।

-बशीर ‘बद्र’

कोई आज तक न समझा कि शबाब है तो क्या है,
यही उम्र जागने की, यही नींद का ज़माना।

-नुसुर वाहिदी

ज़माना बड़े शौक़ से सुन रहा था,
हमीं सो गये दास्तां कहते-कहते।

-‘साक़िब’ लखनवी

किस्मत की खूबी देखिए टूटी कहां कमंद,
दो-चार हाथ जब कि लबे-बाम रह गया।

-शेख़ क़यामउद्दीन ‘क़ायम’

तर दामनी पे शेख़ हमारी न जाइयो,
दामन निचोड़ दें तो फ़रिश्ते वज़ू करें।

-मीर ‘दर्द’

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाले-यार होता,
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता।

गालिब’

कोई उम्मीद बर नहीं आती,
कोई सूरत नज़र नहीं आती।

ग़ालिब’

हज़ारों ख़्वाहिशें कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।


-‘ग़ालिब’

वो आये हैं पशेमां लाश पर अब,
तुझे अय ज़िंदगी लाऊं कहां से।

-‘मोमिन’

उम्र सारी तो कटी इश्के-बुतां में ‘मोमिन‘,
आख़री वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमां होंगे।
-‘मोमिन’

लायी हयात आये, क़ज़ा ले चली चले,
अपनी ख़ुशी से आये, न अपनी ख़ुशी चले।

-‘ज़ौक़’

ऐ ‘ज़ौक़’ तकल्लुफ़ में है तकलीफ़ सरासर,
आराम से वो हैं जो तकल्लुफ़ नहीं करते।

-‘ज़ौक़’

रोशनी जिनसे हुई दुनिया में, उनकी क़ब्र पर,
आज तक इतना भी नहीं जाकर कोई रख दे चिराग़

-हाफ़िज


जब मैं चलूं तो साया भी अपना न साथ दे,
जब तुम चलो, ज़मीन चले, आस्मां चले।

-‘जलील’ मानकपुरी

हम तुम मिले न थे तो जुदाई का था मलाल,
अब ये मलाल है कि तमन्ना निकल गयी।

-‘जलील’ मानकपुरी

कोई दम का मेहमां हूं ऐ अहले-महफ़िल,
चिराग़े-सहर हूं, बुझा चाहता हूं।

-इक़बाल

ज़बां को बन्द करें या मुझे असीर करें,
मिरे ख़याल को बेड़ी पिन्हा नहीं सकते।

-‘चकबस्त’

आदत के बाद दर्द भी देने लगा है लुत्फ़,
हंस हंस के आह आह किये जा रहा हूं मैं।

-‘आरजू’ लखनवी

इन्हीं पत्थरों पे चलकर अगर आ सको तो आओ,
मेरे घर के रास्ते में कोई कहकशां नहीं है।

-मुस्तफ़ा ज़ैदी।

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नये मिज़ाज़ का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो।

-बशीर ‘बद्र’

जी बहुत चाहता है सच बोलें,
क्या करें, हौसला नहीं होता।

-बशीर ‘बद्र’

मुझको उस वैद्य की विद्या पे तरस आता है,
भूखे लोगों को जो सेहत की दवा देता है।

-‘नीरज’

तनज़्ज़ुल की हद देखना चाहता हूं,
कि शायद वहीं हो तरक्की का जीना।

-अज्ञात

होता नहीं है कोई बुरे वक्त में शरीक,
पत्ते भी भागते हैं खिंजा में शजर से दूर।

-अज्ञात

ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है,
तड़प ऐ दिल तड़पने से ज़रा तस्कीन होती है।

-अज्ञात

भलाई इसलिए चाही कि हों भले मशहूर,
ग़रज़ कि अपने ही मतलब के आश्ना थे हम।
-अज्ञात

बहुत कुछ पांव फैलाकर भी देखा ‘शाद’ दुनिया में,
मगर आख़िर जगह हमने न दो गज़ के सिवा पायी।

-‘शाद’ अज़ीमाबादी

ज़िन्दगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री ‘ग़ालिब’,
हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे।

-‘ग़ालिब’

जमा करते हो क्यों रकीबों को,
एक तमाशा हुआ गिला न हुआ।

-‘ग़ालिब’

हमने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन,
खाक हो जाएंगे हम तुमको ख़बर होने तक।

-‘ग़ालिब’

हम पर तिरी निगाह जो पहले थी अब नहीं,
सो भी न कुछ दिनों में रहे तो अजब नहीं।

-‘हसरत’ मोहानी

या रब ! तेरी रहमत से मायूस नहीं ‘फानी’,
लेकिन तेरी रहमत की ताख़ीर को क्या कहिए।

,
-‘फ़ानी’

तिनकों से खेलते ही रहे आशियां में हम,
आया भी और गया भी ज़माना बहार का।

-अज्ञात

किस तरफ जाऊं, किधर देखूं, किसे आवाज़ दूं ?
ऐ हुजूमे-नामुरादी जी बहुत घबराये है।
-अज्ञात

होशो-हवास, ताबो-तबां ‘दाग’ जा चुके,
अब हम भी जाने वाले हैं सामान तो गया।

-‘दाग’

मौत ही इंसान की दुश्मन नहीं,
ज़िंदगी भी जान लेकर जाएगी।

-‘जोश’ मलसियानी

‘सौदा’ की जो बाली पे गया शोरे-क़यामत,
खुद्दामे-अदब बोले-अभी आँख लगी है।

-‘सौदा’

न पूछो मुझसे गुलशन की हक़ीक़त,
बरस गुज़रे कि मैं हूं और क़फ़स है।

-अज्ञात

वो हैं अमीर, निज़ामे-जहां बनाते हैं,
मैं हूं फ़क़ीर मिज़ाज़े-जहां बदलता हूं।

-अज्ञात

अब इससे क्या ग़रज़ ये हरम है कि दैर है,
बैठे हैं हम तो साया-ए-दीवार देखकर।

-अज्ञात

ज़िंदगी से तो क्या शिकायत हो,
मौत ने भी भुला दिया है हमें।

;- अज्ञात

सिर्फ़ अफ़सुर्दा दिली को क्या कहें,
हमको जीने का हुनर आता न था।

- अज्ञात

जिस दिन से चला हूं मेरी मंजिल पे नज़र है,
आंखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा।

- अज्ञात

ज़िंदगी एक फ़क़ीर की चादर,
जब ढके पांव हमने, सर निकला।

- अज्ञात

हमराह चलो मेरे या राह से हट जाओ,
दीवार के रोके से दरिया कहीं रूकता है

- अज्ञात

सहारा मौत ने आकर दिया तो कब दिया हमको,
हमारी ज़िन्दगी जब दिन मुसीबत के गुज़ार आयी।

- अज्ञात

मौसमे-गुल में सितम हाय ख़िज़ां याद न कर,
चन्द घड़ियाँ हैं खुशी की, इन्हें बरबाद न कर।

- अज्ञात

बदशाहों की मोअत्तर ख़्वाब-गाहों में कहां ?
वो मज़ा जो भीगी-भीगी घास पर सोने में है।

- अज्ञात

जब डूब ही जाने का यक़ीं है तो न जाने,
ये लोग सफ़ीनों से उतर क्यों नहीं जाते।

-अमीर क़ज़लबाश

मुसीबत और लम्बी जिंदगानी,
बुजुर्गों की दुआ ने मार डाला।

मुज़्तर’ ख़ैराबादी

क्या देखता है हाथ मेरा छोड़ ऐ तबीब,
यां जान ही बदन में नहीं, नब्ज़ क्या चले।

-‘ज़ौक़’

दिल टूटने से थोड़ी सी तकलीफ़ तो हुई,
लेकिन तमाम उम्र को आराम हो गया।

-‘सफ़ी’ लखनवी

मैं जिसके हाथ में एक फूल दे के आया था,
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है।

-‘वसीम’ बरेलवी

मौत से बदतर बुढ़ापा आएगा,
जान से अच्छी जवानी जाएगी।

-‘दाग़’

बवक़्ते कत्ल मक़तल में कोई हमदम न था अपना,
निगाह कुछ देर तक लड़ती रही शमशीरे कातिल से।

-‘हफीज’ जालंधरी

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन,
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।

-‘ग़ालिब’

हो गया अब इश्क़ हम-आग़ोश तूफ़ान-ए-शबाब,
अक़्ल बैठी रह गयी साहिल पे शरमायी हुई।
-‘हफ़ीज़’ जालंधरी

ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिसमें,
हर घड़ी दर्द के पेबन्द लगे जाते हैं।
फ़ैज़’

लाग़िर हूं इस कदर मुझे पहचानती नहीं,
रह रह के देखती है क़ज़ा सर से पांव तक।

अमीर’ मीनाई

जनाज़े वालो, न चुपके क़दम बढ़ाये चलो,
उसी का कूचा है, टुक करते हाय-हाय चलो।

-‘सोज’

ग़ज़ल उसने छेड़ी मुझे साज़ देना,
ज़रा उम्रे-रफ़्ता को आवाज़ देना।

-‘सफ़ी’ लखनवी
सुबह को राजे-गुलो शबनम खुला,
हंसने वाले रात भर रोया किये।

-‘साकिब’ लखनवी

क़ैदे-हयात, बंदे-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं,
मौत से पहले आदमी गम से निजात पाये क्यों ?

-‘ग़ालिब’

मुट्ठियों में खाक़ लेकर दोस्त आये बवक़्ते-दफ़्न,
ज़िंदगी भर की मुहब्बत का सिला देने लगे।

-‘साक़िब’ लखनवी

नतीजा एक ही निकला कि थी क़िस्मत में नाकामी,
कभी कुछ कह के पछताये, कभी चुप रह के पछताये।
आरज़ू’ लखनवी

तेरे सवाल पर चुप है, इसे ग़नीमत जान,
कहीं जवाब न दे दे कि मैं नहीं सुनता।

-‘शाद’ अज़ीमाबादी

नातवां बीमारे-ग़म, उस पर थपेड़े मौत के,
बुझ गया आख़िर चिराग़े-सुबह लहराने के बाद।

-‘आरजू’ लखनवी

कुछ तो लतीफ होती घड़ियां मुसीबतों की,
तुम एक दिन तो मिलते, दो दिन की ज़िंदगी में।
-‘सागर’ निजामी

उम्रे-दराज मांग कर लाये थे चार दिन,
दो आरजू में कट गये, दो इंतज़ार में।

-‘जफर’

नींद भी मौत बन गयी है ‘अदम’,
बेवफ़ा रात भर नहीं आती।

-‘अदम’

मौत का एक दिन मौअय्यन है,
नींद क्यों रात भर नहीं आती।
-ग़ालिब

बहुत दूर तुझसे कभी मैं न था,
मगर दिन लगे थे सफर में बहुत।
-शहरयार

सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान सा क्यों है,
इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है।
-शहरयार

क्या पूछता है तू मेरी बरबादियों का हाल,
थोड़ी सी खाक़ लेके हवा में उड़ा के देख।
-‘जलील’ मानिकपुरी

चला जाता हूं हंसता खेलता मौजे हवादिस से,
अगर आसानियां हों, ज़िंदगी दुश्वार हो जाए।
-‘असगर’ गोंडवी

मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो,
मैं जमीन के रिश्तों से कट गया यारो।
-‘वसीम’ बरेलवी

हर शख़्श दौड़ता है यहां भीड़ की तरफ,
फिर ये भी चाहता है उसे रास्ता मिले।

-‘वसीम’ बरेलवी
जिनके आंगन में अमीरी का शजर लगता है,
उनका हर ऐब ज़माने को हुनर लगता है।
-अंजुम रहबर

सच बात मान लीजिए चेहरे पे धूल है,
इल्जाम आइनों पे लगाना फ़िज़ूल है।
-अंजुम रहबर

इसी फरेब में सदियां गुजार दीं हमने,
गुजिश्ता साल से शायद ये साल बेहतर हो।

-‘मेराज’ फैजाबादी

तुम गये तो कभी सहर न हुई,
रात ही आयी रोज रात के बाद।

-‘माजिद’ देवबदी

बे-सरो-सामां ही बेहतर कट रही है ज़िंदगी,
घर बना तो रोज़ घर लुटने का डर हो जाएगा।

-अरुण साहिबाबादी

ख़्वाब कैसे होते हैं, पूछते हो क्या उनसे,
भूख जिन गरीबों को रात भर सताती है।

-अरुण साहिबाबादी

साथ भी छोड़ा तो कब, जब सब बुरे दिन कटे गये,
ज़िंदगी तूने यहां आकर दिया धोखा मुझे।

-‘नातिक’ गुलावठी

वो ज़िंदगी के कड़े कोस याद आते हैं,
तेरी निगाहे-करम का घना-घना साया।

‘फ़िराक़’ गोरखपुरी

मकाम ‘फ़ैज़’ कोई राह में जंचा ही नहीं,
जो कूए-यार से निकले तो सूए-दार चले।

‘फ़ैज़’

झोंपड़ी क़तरा-ए-शबनम को तरस जाती है,
जो घटा आती है महलों पे बरस जाती है।

- अज्ञात

जंगल में सांप, शहर में बसते हैं आदमी,
सांपों से बच के आये तो डसते हैं आदमी।

-
‘फ़ैज़’

शाम से ही बुझा सा रहता है,
दिल हुआ है चिराग़ मुफ़लिस का।

-‘मीर’

गोरी सोये सेज पर मुख पर डारे केस,
चल ‘खुसरो’ घर आपने भई रैन चहुं देस।

-अमीर ‘ख़ुसरो’




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