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डॉलर बहू

सुधा मूर्ति

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5557
आईएसबीएन :81-7315-350-7

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यह उपन्यास समकालीन समस्या पर आधारित है

Dollar Bahu

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्रीमती सुधामूर्ति जी कन्नड़ भाषा की लोकप्रिय और प्रतिष्ठित लेखिका हैं। हिन्दी में प्रकाशित आपका पहला उपन्यास ‘महाश्वेता’ काफी लोकप्रिय सिद्ध हुआ है। दूसरा उपन्यास ‘डॉलर बहू’ भी इसी प्रकार हिंदी का कंठाभरण बनेगा, ऐसी आशा है।
शामण्णा जी शिक्षक हैं, जो साधारण परिवार के हैं। गौरम्मा उनकी धर्मप्राण धर्मपत्नी हैं। इनके दो पुत्र हुए—चंद्रशेखर और गिरीश। एक पुत्री भी है सुरभि। चंद्रशेखर को विनुता से प्रेम हो गया, पर उसे अमेरिका जाना पड़ा। इसी बीच छोटे भाई गिरीश से विनुता का विवाह हो जाता है। चंद्रशेखर का विवाह धनाढ्य घर की बेटी जमुना से हुआ। वे दोनों अमेरिका में ही रहने लगे। जमुना को डॉलर से प्रेम था। गौरम्मा भी सर्वगुण-सम्पन्न विनुता की अपेक्षा जमुना को डॉलर के कारण अधिक चाहती थी।

फिर गौरम्मा अपने बेटे और बहू के पास अमेरिका चली जाती है। बहुत दिनों तक वहाँ रहने पर गौरम्मा की अपनी डॉलर बहू और डॉलर-प्रेम से नफरत हो जाती है और वह भारत लौट आती है। अब वह विनुता को महत्व देना चाहती है, पर गिरीश और विनुता, दोनों घर छोड़कर अलग शहर में रहने लगे थे। इस प्रकार गौरम्मा के लिए यह कहावत चरितार्थ होती है—‘माया मिली, न राम।’
भारत लौटकर गौरम्मा कहती है, ‘मुझे न वह स्वर्ग चाहिए, न वह सुख! हमारा वतन सुंदर है; हमारा गाँव है अच्छा!....मुझे तो विनुता की याद सता रही है।’
इस उपन्यास में भारतीय अस्मिता और स्वाभिमान का पुनरुत्थान है। अमेरिका और डॉलर के चाकचिक्य से निभ्रांति इस उपन्यास का केन्द्रीय बिन्दु है। चरित्रांकण की मार्मिकता और शिल्प का सौष्ठव इस उपन्यास के अतिरिक्त आकर्षण हैं।

अमेरिका में वर्षों से रहकर भी
‘डॉलर बहू’ नहीं बनी, साथ ही,
भारतीय मनोभाव को अपनाए
रखनेवाली ऐसी अपनी बहन
जयश्री देशपांडेय को सस्नेह।

प्राक्कथन

यह उपन्यास समकालीन समस्या पर आधारित है। कन्नड़ की मासिक पत्रिका ‘मयूर’ में इसका धारावाहिक प्रकाशन हुआ था और इस रूप में यह उपन्यास काफी लोकप्रिय भी सिद्ध हुआ था।

नदी की दूसरी तरफ का तटबंध बहुत ही हरा-भरा प्रतीत होता है। यह वाग्धारा बिलकुल सत्य है। उपन्यास के सहृदय पाठक-वर्ग और मैसूर की सहेली स्त्री-रोग विशेषज्ञा डॉक्टर विजय लक्ष्मी जी के प्रति मैं अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ।

सुधा मूर्ति


डॉलर बहू

बंगलोर से मीरज जानेवाली कित्तूर चेन्नम्मा एक्सप्रेस रेलगाड़ी की प्रतीक्षा करते हुए चंद्रु रेलवे स्टेशन पर खड़ा था। वह बेचैनी से उसकी प्रतीक्षा कर रहा था।

रेल अभी प्लेटफॉर्म पर नहीं आई थी। चंद्रु के भाई गिरीश ने कहा, ‘अभी मिनट भर में एकाध मैगजीन ले आऊँगा।’ आधा घंटा गुजर गया था। मगर यों कहकर जाने वाला वह अभी लौटा नहीं था। छटपटाते हुए चंद्रु ने फिर अपनी घड़ी की ओर नजर दौड़ाई।

उधर धीरे-धीरे रेलगाड़ी प्लेफॉर्म पर आ रही थी। भले ही मन की खलबली कम हुई थी, फिर भी मन के किसी कोने में यह झिझक अवश्य थी, ‘धारवाड़ के बारे में सुना तो है, मगर उसको देखा नहीं है। जाने वह शहर कैसा है ?’
पहली बार अपने प्यारे और भलीभाँति परिचित मायके को छोड़कर अपने पति के पीछे चलनेवाली नववधू के जैसे चंद्रु का मन भी हर्ष से भरा हुआ था; मगर थोड़ा-सा सहमा हुआ भी था।

अब तक बंगलोर, गंड्या, मैसूर और शिवमोग्गा जैसी जगहों को छोड़कर चंद्रु अभी बाहर नहीं गया था। मगर अब तो नई नौकरी में भर्ती होने के लिए उसे धारवाड़ जैसी नई जगह जाना पड़ा था।
नौकरी मिली थी धारवाड़ में। वह भी पहली नौकरी ! उसको छोड़ा नहीं सकता था। धन का मोह बढ़कर है या अपने प्यारे गाँव का मोह ? राष्ट्रीयकृत बैंक में उसे टैक्निकल अफसर का काम मिला था। बहुत ही अच्छा काम था। इसलिए और कोई चारा भी नहीं था। वहाँ जाने के लिए वह तैयार हुआ था।

कहीं से, जादूगर के जैसा अचानक आ पहुँचने वाले गिरीश ने सोच-विचार में डूबे चंद्रु को जगाया, ‘‘अरे भैया ! रेल तो आ गई है न ? सामान मुझे दे दो। मैं ठीक तरह से रख दूँगा।’
गिरीश का स्वभाव ही कुछ ऐसा था। पलभर के लिए भी वह चैन से नहीं बैठनेवाला था; आराम से साँस भी लेनेवाला नहीं था। हमेशा किसी-न-किसी काम में लगा रहता था।
रेल के डिब्बे में बैठकर चंद्रु ने अपने भाई की ओर हाथ हिलाया। धीरे-धीरे रेलगाड़ी चल पड़ी और इतना आगे बढ़ गई कि प्लेटफॉर्म पर खड़ा गिरीश चंद्रु की आँखों से ओझल हो गया।
आसपास बैठे यात्रियों ने अपने सामान को ठीक तरह से व्यवस्थित कर लिया और वे आपस में बातचीत करने लगे।
‘इस साल की बारिश जाने कैसी होगी ? पिछले साल तो इतनी बारिश हुई थी कि एम्मिकेरि-तालाब भर गया था और पानी तालाब से बाहर बह निकला था।’ किसी ने कहा।

‘वह बात और रही, काका। उससे एक साल पहले इतनी बारिश हुई थी कि घटप्रभा का जल-प्रपात पूरे जोर-शोर से झरने लगा था और उसकी सुंदरता देखते ही बनती थी।’
नास के रंग का कोट पहनकर, काली टोपी सर पर रखकर बैठे हुए एक बुजुर्ग अपनी हथेली में तंबाकू मल रहे थे। पगड़ी बाँधकर उनके पास बैठे रहने वाले एक और व्यक्ति ने कहा, ‘कुछ भी कहो। मुझे तो हुक्केरी बालप्पाजी का गाना बहुत अच्छा लगता है।’’

पगड़ी और धोती पहनकर बैठे हुए बुजुर्ग ने कहा, ‘‘मुझे तो बालेखान जी का सितार बहुत अच्छा लगता है।’’
चुपचाप बैठा चंद्रु उनकी बातें सुनता रहा। उसको भी अपनी बातचीत के सिलसिले में खींच लेने की कोशिश करते हुए, पगड़ी पहने हुए बुजुर्ग ने उससे पूछा—
‘‘तुम कहाँ के लिए चले हो, भाई ?’
‘धारवाड़।’
‘वहाँ किसके घर जा रहे हो ?’
चंद्रु को ऐसा लगा, यह क्या बात है ? यह बुजुर्ग तो यों पूछ रहे हैं कि धारवाड़ में उनका हर किसी से सुपरिचय है।
‘यों तो किसी के घर नहीं जा रहा हूँ।’
‘नौकरी के लिए निकले हो क्या ?’
‘हाँ, जी।’
चंद्रु ने निरुत्साह-भरी आवाज में उन्हें जवाब दिया।
चंद्रु के दूर का रिश्तेदार कृष्णमूर्ति धारवाड़ में था। उसको सभी नातेदार ‘किशन’ कहकर पुकारते थे। यद्यपि वह बंगलोर का ही रहने वाला था, फिर भी कई सालों से धारवाड़ में बसा हुआ था। किशन के पिता ने वहीं घर बनवा लिया था। किशन को भी उसी शहर में नौकरी मिल गई थी। उसकी उम्र भी चंद्रू के उम्र के करीब थी। उसकी बोली में भी धारवाड़ की बोली की खूबियाँ थीं।

किशन ने उसे खबर दी थी कि उसे लेने के लिए वह स्टेशन पर आ जाएगा। ज्यादा-से-ज्यादा उसके घर एक हफ्ते तक रहा जा सकता है। ऐसा सोचकर उससे विनती की थी कि उसके लिए एक अलग-सा घर या कमरे का इंतजाम कर दे। कौन जाने, किशन ने क्या इंतजाम किया है !
इतने में तुमकूर आ गया। काली टोपीवाले बुजुर्ग ने उनसे कहा, ‘‘मेरे साथ खाना खाओगे ? ‘चपाती’ ले आया हूँ।’ उनकी उदारता से चंद्रु दंग रह गया। कितने लोगों में ऐसी उदारता होगी कि वे किसी अपरिचित युवक को अपने साथ खाने का न्योता दें ?

‘नहीं। आपके इस निमंत्रण के लिए धन्यवाद। खाना खाकर ही घर से निकला हूँ। ‘चंद्रु ने विनय के साथ उनके न्योते को अस्वीकार कर दिया। सहयात्री ने खाने की अपनी गठरी खोल दी। चंद्रु अपने सोच-विचार में डूब गया, मानो खिड़की से बाहर व्याप्त अंधकार में वह कल के अपने भविष्य को पहचानने की कोशिश कर रहा हो।
सुंदर और सुमधुर आवाज ! किसी के मन को मोह लेने की शक्ति थी उस गीत में। अपने मन की सारी दुविधाओं को उखाड़ फेंकते हुए, रसिक चंद्रु ने उधर ध्यान दिया।
डब्बे के अगले पार्श्व में वह गीत सुनाई दे रहा था—
‘वसंत के वन में कूकती है कोयल,
चाहती नहीं है पद कभी राजा का !’

वह युवती भी कोयल-जैसी मधुर आवाज में गा रही थी। बहुत ही स्वाभाविक रूप में और बिना किसी वाद्य के सहारे, मानो संगीत की धारा ही अबाधित रूप में बह चली हो।
उसके गंधर्व-गायन की श्रुति-पेशलता सारे डब्बे में फैल गई थी। वे बुजुर्ग भी चुप्पी साधे हुए खाना खा रहे थे।
इधर चंद्रु उस गंधर्व–लोक में और गंधर्व गायन की श्रुति-मधुरिमा में अपने को खोया हुआ-सा महसूस कर रहा था। जब उसका गायन समाप्त हुआ, लड़कियों ने किलकिलाने की जो आवाज मचाई, उससे चंद्रु फिर से धरातल पर आ पहुँचा, जिसने उसको यह स्मरण दिलाया कि वह कित्तूर एक्सप्रेस से सफर कर रहा है।
‘विनू वंस मोर, विनू वंस मोर !’ अनुरोध की आवाजें सुनाई देने लगीं।

चंद्रु को तब मालूम हुआ कि इस अभिनव लता मंगेशकर का नाम ‘विनू’ है। ‘विनू’ का पूरा नाम क्या होगा—वंदना या वनिता है ? उस मधुर आवाज की मालकिन को देखने की इच्छा तब चंद्रु के मन में पैदा हुई।
‘नहीं, नहीं। गाना-वाना अब बंद। साढ़े दस बज चुके हैं। अभी नहीं सोएँगे तो धारवाड़ में उतरने के बजाय शायद लोंडा में उतरना पड़ेगा।’ यों कहकर, फिर से गाने के या दूसरा गाना गाने के उनके अनुरोध को टालने की कोशिश कर रही थी ‘विनू’। इससे चंद्रु इस नतीजे पर पहुँचा कि वह और उसकी सहेलियाँ धारवाड़ में उतरने वाली हैं। इस बात से वह आनंदित और उत्साहित भी हो उठा।
‘विनू, तुमको ‘गान-गंधर्वा’ की उपाधि से सम्मानित करना बहुत ही उचित लगता है। हम सबको यह मालूम था कि कल की प्रतियोगिता में तुम्हें ही प्रथम पुरस्कार मिलेन वाला है।’
तब तो इसका मतलब यह है कि किसी गायन-प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए ये सब सहेलियां बंगलोर आई थीं, और उस प्रतियोगिता में ‘विनू’ को प्रथम पुरस्कार मिला है। चंद्रु को ऐसा लगा कि इसमें अचरज की कोई बात नहीं है।
‘कल जब तुम ‘तुंगा तीर विराजौ’ गीत गाने लगी थीं, तब जज साहब भी प्रशंसा में सर हिला रहे थे।’

‘ये सारी बातें रहीं एक ओर। अब गाना-वाना बन्द। कल जब फिर से ‘लेडीज रूम’ में दोपहर को मिलेंगे तब गाना गाऊँगी।’ विनू के उठकर खड़ी हो जाने की तथा चूड़ियों की खनकने की आवाज सुनाई पड़ी। चंद्रु को अब मालूम हुआ कि यह कोई कॉलेज जाने वाली लड़की है।
‘माफ कीजिए मिस्टर...। मेरी जगह छोड़ दीजिए।’ चंद्रु ने सर उठाकर देखा। यह विनू की आवाज थी।

उसका रंग गोरा था। बड़ी-बड़ी काली-काली आँखें थीं। लंबी नाक। किसी अपरिचित युवक से बात करने की जो नौबत आ पड़ी थी, उससे वह थोड़ा घबरा गई थी और सकुचा भी गई थी, जिसका प्रतिबिंब उसके मुखड़े पर दिखाई दे रहा था। उसके घने काले-काले बाल थे। साँप की जैसी लंबी चोटी थी उसकी। एक हाथ में उसने बेड शीट और तकिया पकड़ रखा था। उसके दूसरे हाथ में उसका टिकट था।
क्षणभर के लिए चंद्रु अपने आपको और उस जगह को भूल गया था। सामने खड़ी उस सुंदरी को टकटकी लगी नजर से देख रहा था। उसने इलकल (धारवाड़ जिले के गाँव में बुनी, मशहूर किस्म) की साड़ी पहन रखी थी; लाल-लाल काँच की चूड़ियाँ हाथ की शोभा बढ़ा रही थी; उस आभूषणविहीन सुंदरी को उसने बार-बार देखा।
‘आप जरा उठेंगे ? यह मेरा ‘बर्थ’ है।’
शर्मिंदगी से चंद्रु ने अपने आपको जगा लिया। उसने कहा, ‘नहीं। यह बर्थ मेरा है, जनाब ! जि. 28।’
‘नहीं। देखिए, यह जि. 28 मेरा बर्थ है।’
वसंत के वन की कोयल कुलकुला गई। ऐसा कोई नियम तो नहीं कि सुमधुर कंठ की मालकिन सुंदरी ही हो। लेकिन विनू सचमुच सुंदरी थी।

खैर, दोनों को एक ही बर्थ दिया गया था। दोनों को अब समझ में आया कि क्या गलती हुई। लेकिन गलती करनेवाला वह बाबू तो बंगलोर में आराम की नींद सो रहा होगा !
चंद्रु उठकर ‘टी.सी.’ को बुलाने गया। विनुता जि. 28 नंबरवाले बर्थ पर धँसकर बैठ गई।
चंद्रु के साथ आए टी.सी. को यह बहुत साधारण सी घटना लग रही थी। उसने कहा, ‘हाँ, विनुता एफ्-19, जि.-28 इस तरह इसमें छपा है।
चंद्रशेखर एम्-24, जि,-28 भी इसमें लिखा है। फिलहाल किसी तरह ऐडजस्ट कर लीजिए। देखूँगा कि अगले स्टेशन पर कुछ कर पाऊँगा कि नहीं।’ यों, दीवार पर दीये को रख देने के जैसे, कुछ कहकर अक्षुब्ध मनोभाव से वह वहाँ से चला गया।
इस मोहिनी विनुता के साथ ऐडजस्ट कर लेना भी कैसे संभव था ? और कोई चारा न रहा तो चंद्रु ने कहा, ‘आप ही बर्थ ले लीजिए। फिलहाल, मैं अपना ‘होल्डाल’ बिछाकर फर्श पर सो जाऊँगा।’
‘आपको तकलीफ दे रही हूँ।’

‘कोई बात नहीं।’
विनुता ने कुछ और कहा नहीं। दीवार की तरफ मुंह करके वह सो गई।
फर्श पर होल्डाल बिछाकर, कोयल-जैसी मधुर आवाज की उस ललना का स्मरण करते हुए चंद्रु लेट गया।
रेल का हिलना उसके लिए लोरी-जैसा लग रहा था। थोड़ी ही देर में वह गहरी नींद में डूब गया।
जल्दीबाजी में लुंगी को भी बदले बिना, एक हाथ में होल्डाल और दूसरे हाथ में सूटकेस लेकर रेल से जब उतरा तो चंद्रु को ऐसा लगा कि कोई उसको देखकर ठहाका मारकर हँस रहा है। वह चुप्पी साधे खड़ा था।

शौकीन मिजाजवाले चंद्रू के लिए यह बहुत ही बेइज्जती का मामला था। उसको लेने के लिए आ पहुँचने वाले किशन को मद्देनजर रखकर उसने कैसी तैयारियाँ की थीं ! उसने सोचा था कि ठाटबाट से कपड़े पहनकर खुशबूदार ‘सेंट’ छिड़कर, नए युवा अफसर की तरह शानो-शौकत के साथ रेल से उतरेगा। लेकिन हुआ उसके ठीक विपरीत !
चंद्रु के विचारों की ओर ध्यान दिए बिना, निर्लिप्त संन्यासी के जैसी वह रेल आगे बढ़ गई।
चंद्रु ‘खुली आँखों से’ धारवाड़ के इस ‘प्रथम स्वागत’ को देखता रहा। वह तो बहुत छोटा ही स्टेशन था—मलेश्वरम् के जैसा। वह साफ-सुथरा भी था। दो-चार व्यक्ति इधर-उधर खड़े थे। रेल से बिदा लेने के बाद, वहाँ का निश्शब्द पर्यावरण चंद्रु को खटकने लगा। अपने साथ आनेवाली सहयात्री को ढूँढ़ने की दृष्टि से चंद्रु ने इधर-उधर आँखें दौड़ाईं, लेकिन कहीं उसका पता नहीं था। वह चली गई थी।

हाथों में जो सामान था, उनको नीचे रखकर, सर उठाकर देखा तो उसको दिखाई दिया किशन, न कि विनू !
‘अरे, यह क्या है भाई ? रेल से आए हो या पैदल ही चले आए ?’
किशन ने अपने पुराने परिचय की स्वतंत्रता से, आत्मीयता से, उसकी पीठ पर एक घूँसा जमाया। आत्मीयता की ‘मात्रा’ इतनी थी कि उसे ऐसा लगा कि उसकी रीढ़ की हड्डी टूट गई।
‘सॉरी किशन ! क्या करूँ ? गहरी नींद में डूबा हुआ था। टी.सी. ने आकर कहा, ‘धारवाड़ आ गया है।’ तब नींद खुली।’
‘यदि टी.सी. आकर तुम्हें जगा न देता तो बेलगाँव या मीरज ही पहुँच जाते।’ किशन ने चंद्रु के असबाब को हाथ लगाया।
‘किशन, इस भेस में तो मैं चल नहीं सकता। पाँच मिनट में कपड़े बदलकर आता हूँ।’ यों कहते हुए चंद्रु प्रतीक्षालय की ओर बढ़ा।
उसके बाहर निकल आने तक ‘सिटी बस’ निकल चुकी थी। रिक्सावालों के साथ किशन खींचातानी कर रहा था।
दुबले घोड़े के ताँगे की ओर देखकर चंद्रु ने सुझाया, ‘किशन, क्यों न हम आपके शहर के इस रथ से चलें ?’ चंद्रु और किशन ताँगे पर चढ़ गए। सवेरे से बिदाई लेकर, नींद की जड़ता से मुक्त होकर, मुस्कराते हुए धारवाड़ को चंद्रु अचरज-भरी निगाहों से देखने लगा।
ऊँचे चढ़ाव पर न चढ़ पाने के कारण हाँफते हुए उस घोड़े की ओर देखकर चंद्रु ने कहा, ‘भाई, स्वर्ग की तो कल्पना मैं कर नहीं सकता ! मगर नरक की जिस यातना का अनुभव यह घोड़ा कर रहा है, उसे मैं देख नहीं सकता !’ ऐसा कहते हुए वह ताँगे से उतर गया।

फिर जब उतार आया, वह उस पर चढ़ा। किशन मुस्करा रहा था, मानो ये सब रोजमर्रा की आम घटनाएँ हैं। घर के बाहर जब ताँगे के रुकने की आवाज सुनाई पड़ी तो शांतम्मा जी बाहर निकल आईं।
‘आओ, चंद्रु ! आओ। सफर कैसा रहा ?’
‘अच्छा था, मामी !’ (अच्छा क्यों न हो, जब मधुर आवाज की, मनोहर रूप की सहयात्री मिली हो !)
‘चंद्रु, आज मैंने दफ्तर से छुट्टी ले ली है। तुम्हारे साथ चलकर तुम्हें धारवाड़ दिखाऊँगा।’ इडली खाते-खाते किशन ने कहा।
‘नहीं किशन। आज ही कमरा ढूँढ़ेंगे।’

‘यह क्या बोल रहे हो ? हमारे यहाँ क्यों नहीं रह सकते ?’
‘किशन यह दो-एक दिन की बात नहीं है। जब तक मुझे काम यहाँ करना है, मेरे लिए कमरे की जरूरत पड़ेगी।’
‘यहाँ से आने से पहले ही इस जगह को छोड़ जाने की बात क्यों उठा रहे हो ?’
‘यह बात नहीं है, किशन ! यह मेरा गाँव नहीं है। मेरे लिए यहाँ और कोई रिश्तेदार भी नहीं है। पहली बार यह जो काम मिला है, उसे छोड़ना नहीं चाहिए—यों सोचकर यहाँ आया हूँ। अलावा इसके, हाल में दो इंटरव्यू भी दे चुका हूँ। कुछ भी हो, आखिर मैं बंगलोर लौटने वाला हूँ।’
‘ठीक है। दो-चार लोगों से कह देंगे। यहाँ तो आसानी से घर मिल जाते हैं। आखिर तुम ठहरे ब्रह्मचारी। छोटा-सा घर या कोई कमरा ही तुम्हारे लिए काफी होगा।’
एक ही दिन में धारवाड़ के दर्शन भी हुए। विश्वविद्यालय के क्षेत्र तथा अत्तिकोषळ के सोमेश्वर जी के दर्शन भी हुए।
‘चंद्रु, धारवाड़ से मेरा नाता जुड़ गया है। यहीं मेरी पढ़ाई-लिखाई हुई है। दोस्त भी हैं। कहीं और जाऊँ तो ऐसा लगता है कि साँस रुक जाती है।’

‘हाँ ! अपने-अपने गाँव तो सबके लिए स्वर्ग के समान लगते हैं।’
बरसात के मौसम में तो हर कहीं हरियाली का त्योहार ही लग जाता जाता है। सैकड़ों तरह के फूलों का ढेर लगा रहता है। धारवाड़ की लाल मिट्टी चप्पलों से नाता जोड़ने की कोशिश करती है। चंपक, सुगंधराज और जूही जैसे फूलों का मेला ही लग जाता है। यह पर्यावरण ही किसी अरसिक को रसिक बना देता है। धारवाड़ का सावन तो बहुत ही खूबसूरत लगता है।
किशन का यह स्वर्ग भले ही अतीव सुंदर क्यों न हो, बंगलोर के प्रति चंद्रु का व्यामोह छूटनेवाला नहीं था। बंगलोर नगरी जहाँ उसके लिए छैल-छबीली ललना बनी थी, धारवाड़ नगरी मुग्ध एवं बालिग लड़की-जैसी थी।

उसके यहाँ पहुँचने के तीसरे दिन ही शांतम्मा ने किशन से कहा, ‘चंद्रु के कमरा ढूँढ़ने की बात तुमने कही थी न ! तुम्हारा दोस्त शानभाग आया था। उसने बताया कि मालमड्डि में भीमण्णा देसाई जी का घर खाली है। जाकर देख आओ !’
चंद्रु और किशन मालमड्डि की ओर चले, जो ऊँचाई पर बसा हुआ विस्तरण था और उतार चढ़ाव से भरा था।
सुविशाल जगह में, जिसके चारों ओर बाड़ा लगा हुआ था, एक पुराना मकान बना था। लाल खपरैल का मकान था। घर के चारों ओर सुविशाल एवं समृद्ध बगीचा था। उसमें क्या था और क्या नहीं था ! कई प्रकार के पेड़ पौधे वहाँ उगाए गए थे। कतारों में उगाए गए आम, कटहल आदि के समूह; केले के पौधे, कई प्रकार के फूलों की तलाएँ और पौधे भी वहाँ उगाए गए थे—चंपक, पारिजात आदि के पौधे; चमेली की लता; विरले ही देखने में आनेवाला बकुल का पेड़। डेलिया के रंग-बिरंगे फूल भी वहाँ थे। घर के आँगन को उपवन कहने के बजाय उसको बगीचे के बीच में बनाया घर कहना ही ठीक जँचता है।

यों कई तरह के पेड़-पौधों से घिरे मकान को बंगलोर में उसने देखा तक नहीं था। 30×40 फुट वाले ‘साइट’ में बने तिमंजले घरों से भरे ‘किष्किंधात्मक संसार’ यानी तंग घरों की दुनिया से ही वह परिचित था। गमलों में उगाए गए पौधे ही उनके लिए बाग-बगीचे बनते थे। क्षय रोगियों के जैसे लगते मानव-समुदाय से भरा बंगलोर कहाँ ? हट्टी-कट्टी और आभूषणों से विहीन होकर भी सुंदर ललना-जैसी लगनेवाली, स्वास्थ्यदायी यह धारवाड़ की नगरी कहाँ ?
घर के ऊपर एक तल बना था। शायद उसी को किराए पर देनेवाले थे।
दस्तक की आवाज सुनकर जिसने दरवाजा खोला, उसको देखकर चंद्रु हैरान रह गया। उतनी ही हैरानी से विनुता भी उसको देखती रह गई। उनकी इस हैरानगी से एकदम अनबूझ किशन ने विनुता से पूछा, ‘भीमण्णा जी घर पर हैं ?’




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