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तपते दिन लंबी रातें

नादेज्दा ओब्राडोविक

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :290
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5564
आईएसबीएन :81-237-4110-3

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अफ्रीका के विभिन्न देशों की छब्बीस कहानियों का संकलन...

tapte din lambi raten

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

तपते दिन लंबी रातें अफ्रीका के विभिन्न देशों की छब्बीस कहानियों का संकलन है। इन कहानियों में जीवन की दैनिक गतिविधि, संस्कृति परंपरा, अंधविश्वास, धर्म, वैवाहिक रीति, रणनीति, अंतर-वैयक्तिक एवं अंतर –पारिवारिक संबंध और युद्ध जैसी कठिन घड़ियों में स्त्रियों एवं पुरुषों का व्यवहार रचा-बसा है। इनके कथानक औपनिवेशिक काल से लेकर वाइफ्रान युद्ध के विषम वर्षों तक तथा धार्मिक उन्मादों में भी फैले हुए हैं। यह वैविध्यपूर्ण संकलन अफ्रीकी मिट्टी से आई रचनाओं की प्रचुरता, उनके वर्तमान भविष्य में उनके विकास को रेखांकित करता है। इसके संकलन की कहानियां अफ्रीका महादेश के बारे में प्रचारित पाखंड को तोड़कर अफ्रीकियों के जुझारू मगर नैतिकतापूर्ण जीवन का परिचय देती है। असंख्य लोगों, धर्मों भाषाओं और रिवाजों के वाले इस विशाल एवं विसंगति पूर्ण महादेश में रचित ये रचनाएं नवयुग के द्वंद्व, अतीत के संघर्ष, द्वंद्व की साझा परिस्थितियों में पलता बचपन और बढ़ती उम्र, ग्राम्य के शहरी वातावरण में पलायन, विदेशी या पाश्चात्य संस्कृतियों से परिचय एवं विद्रोह, औपनिवेशिक दोहन के विरुद्ध बगावत आदि को मुखरित करती है।

प्राक्कथन

साहित्य के इतिहासकार हमें बताते हैं कि अंग्रेजी साहित्य में कहानियों से सौ या तकरीबन उतने ही वर्षों पहले उपन्यास आया। पर आधुनिक अफ्रीकी साहित्य में घटनाएँ भिन्न रूप में हुईं। कहानियां पहले आईं। यदि मुनासिब समझे, तो कोई इसे कहीं ज्यादा तर्कसंगत विकास कह सकता है। और फिर हमारे पास अफ्रीकी साहित्य में उधेड़बुन के लिए शताब्दियां नहीं बल्कि दशक ही तो हैं।

सन् 1951 में एफ.जेड.पेडलर. एक सम्मानित ब्रिटिश सिविल सर्वेंट, जिन्हें पश्चिमी अफ्रीकी मामलों का खासा अनुभव था, ने एक छोटी सी किताब वेस्ट अफ्रीका’ नाम से प्रकाशित की। यह किताब ‘‘होम स्टडी बुक’’ की सुविख्यात श्रृंखला में प्रकाशित हुई। इस श्रृंखला में विज्ञान, कला और सार्वजनिक मामलों में ब्रिटेन के अगुआ लोगों के अनुभवों को सुस्पष्ट तथा तकनीकी जटिलताओं से वंचित भाषा शैली में सूचीबद्ध किया गया। ज्ञान के विविध क्षेत्रों में हुईं हाल की प्रगतियों को लिखा गया। मैं मानता हूँ कि अपनी औपनिवेशक परतंत्रता से स्वशासन की ओर त्वरित गति से होते परिवर्तन के बूते पर पश्चिमी अफ्रीका ने रूसी साहित्य, आधुनिक मनोविज्ञान और जैविक रसायन सरीखे विषयों के बीच अपनी एक जगह बना ली थी। परिवर्तन की इस प्रक्रिया के एक छोटे दशक में पूरे महादेश का नक्शा बदल दिया। और प्रधान मंत्री हेराल्ड मैकमिलन तक को, लोगों को ‘परिवर्तन की आंधी’ के बारे में बताने के लिए प्रेरित किया-वह भी खासकर दक्षिण अफ्रीकियों को।’

यद्यपि पेडलर की किताब यूरोपीय औपनिवेशिकसाहित्य की घिसी-पिटी बातों से पूरी तरह मुक्त नहीं थी, यह कुछ मायनों में अपने समय से खासा आगे थी। उदाहरण के लिए, उसने अपने पाठकों को चौंकाने वाली यह खबर दी कि अफ्रीकी मर्द अपनी बीवियां खरीदते नहीं। उन्होंने लिखा, ‘‘यूरोप के लोग अफ्रीकियों द्वारा बीवियां खरीदे जाने की बात करते हैं, जो भ्रामक है।’’* इस तरह उन्होंने एक दिमागी फितूर पर वार किया जिसे यूरोपवासियों ने गढ़ा था, पाला था और लोकप्रिय एवं
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* एफ.जे. पेडलर, बेस्ट अफ्रीका (लंदन : मेथ्युन एंड कं. लिमिटेड, 1951), पृष्ठ 32
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गंभीर साहित्य में बार बार उछाला था। इसी फितूर को कुछ वर्षों पहले प्रसिद्ध ब्रिटिश लेखक ज्वायस केरी ने बहुत भद्दे ढंग से ‘मिस्टर जान्सन’ नामक उपन्यास में उछाला था। अफ्रीकियों को नीचा दिखाने वाले उपन्यासों में यह एक ‘महान्’ कृति थी।
 
मैं, हालांकि दूसरी वजह से, पेडलर की किताब का जिक्र करता हूं। इन्होंने गाहे-बगाहे एक साहित्यिक टिप्पणी पेश की जिसे मैं असामन्य ढंग से सूक्ष्म और यहां तक कि भविष्यसूचक पाता हूं :
उपन्यास किसी देश की सामाजिक दशा का चित्रण करता है। पश्चिमी अफ्रीका के पास पूरा-पूरा उपन्यास नहीं है, किंतु कुछ कहानियां इस उद्देश्य की पूर्ति कर सकती हैं। हम हाल के दो प्रशाशनों का उल्लेख करते हैं जो दिखाते हैं कि किस तरह शिक्षित पश्चिमी अफ्रीका अपने देश के सामाजिक जीवन के कुछ पहलुओं का वर्णन करते हैं।
उसके बाद पेडलर सन् 1945 में ‘गोल्ड कोस्ट’ में छपी कहानियों को उद्धृत करते हैं तथा उनका सार देते हैं। इस मामले को परखने के लिए करीब तीन पृष्ठों पर गौर करने के बाद उन्होंने निष्कर्ष यूं निकाला :

समकालीन सामाजिक परिघटना का यह नाटकीय निरूपण जो लोगों में उम्मीद जगाता है कि और पश्चिम अफ्रीकी लोग लेखन के क्षेत्र में आ सकते हैं और अपने लोगों की जिंदगियों की यथार्थ कहानियां हमें दे सकते हैं।*
पेडलर की ये सूक्ष्म उक्तियां लोगों तथा उनकी कहानियों के मुद्दे पर बहुत कुछ कहती हैं। उनके वाक्यांशों पर ध्यान दें: पश्चिमी अफ्रीका स्वयं; उनका अपना देश; अपने लोगों की यथार्थ कहानियां। एक देश के लोगों की कहानियों के दूसरे द्वारा औपनिवेशीकरण की युगों पुरानी प्रथा के विरुद्ध यह लगातार चलने वाली दलील थी जिसमें पेडलर अनकहे ढंग से व्यस्त दिखते। वह भी इतने कम शब्दों में।

यह हरगिज मानने वाली बात नहीं है कि पेडलर ज्वायस कैरी के ‘मिस्टर जान्सन’ से बेखबर थे। ‘मिस्टर जान्सन’ ने उन दिनों आज भी, इंगलैंड और अमेरिका में भी धूम मचाई। अफ्रीका में रह रहे प्रवासी ब्रिटिश हलकों का कहना ही क्या ? कैरी के पहले के तीन उपन्यासों से भी वे जरूर परिचित रहे होंगे। फिर भी वे उन्हें और उनकी तरह की अन्य कई रचनाओं को दरकिनार कर, दो सहज कहानियों की ओर बढ़ गए। उनके रचयिता दो एकदम अपरिचित पश्चिमी अफ्रीकी थे जिनके नाम न तो गूंजते हैं, न कभी गूंजे। पेडलर ने ‘‘अपने लोगों की जिंदगियों की’’ यथार्थता के लिए इन मामूल गवाहों को ढूंढ निकाला।
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* वही पेज 51

पेडलर निश्चित रूप से अपने समय से आगे थे, और संभवत: हमारे समय से भी। पर जो भी हो, उनकी किताब के एक वर्ष बाद, आमोस टुटोला ने ‘पाम वाइन ड्रंकार्ड’ नाम के एक अद्भुत उपन्यास से साहित्य की दुनिया के चौंका दिया। उस उपन्यास ने डायलन टॉमस को हर्षोन्माद में डुबो दिया। उसके दो वर्ष बाद साइप्रियन एकेवेंसी ने ‘पीपुल ऑफ द सिटी’ प्रकाशित किया। तब सन् 1956 में कैमारा ले की रचनाएं ‘ला इन्फाण्ट न्वायर’ तथा सन् 1958 में ‘मेरी थिंग्स फॉल अपार्ट’ आईं। उसके बाद कोई निंदा में या प्रशंसा में, यह नहीं कह सका कि पश्चिमी अफ्रीका के पास एक भी पूरा-पूरा उपन्यास नहीं। सचमुच बीसवीं सदी का एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक विकास अपनी प्रगति पर था।

कहानियों ने हमें मौखिक से लिखित साहित्य को जोड़नेवाला एक सुविधाजनक सेतु दिया। आमोस, टुटोला के उपाख्यानात्मक उपन्यास इसकी पुष्टि करते हैं। साइप्रियन एकेवेंसी ने भी अपने उपन्यास से पहले पारंपरिक परिदृश्यों में कहानियां लिखी। यह तथ्य भी इस बात को प्रमाणित करते हैं। लेकिन कहानियां नुक्ताचीं नहीं करतीं कि उन्हें किसने या कैसे लिखा। वे चंचल हैं और हर तरीके के लोगों के साथ मेल जोल रखेंगी-खासकर उनलोगों के साथ जो तनावपूर्ण और विकल परिस्थितियों में जकड़े रहते हैं तथा खुद को बोझमुक्त करने के इच्छुक होते हैं। मुझे दक्षिण अफ्रीका के एक साथी याद आते हैं जिन्होंने साठ के दशक में कभी कहा था कि उनकी राजनीतिक परिस्थितियों ने उन्हें पश्चिमी अफ्रीकियों की तरह उपन्यासों का मजा लेने की इजाजत नहीं दी। बल्कि छापामारी कहानी को मारो और भागो (हिट एंड रन) प्रथा, में धकेल दिया। उस वक्त मैंने मन ही मन सोचा : ठीक, एकदम ठीक ! बाद में, जब मैं बाइफ्राम की विपत्ति में उलझ गया था, तब धीरे धीरे उस दुःस्थिति को समझने लगा, जिसके बारे में मैं उतना आत्मसंतुष्ट था। मेरे दूसरे उपन्यास को आने में बीस वर्ष लगे। और हम तब भी संकट से मुक्त नहीं हुए।

अस्सी के दशक में अफ्रीका की आरंभिक आशाओं, जिनकी नींव सन्-1957 में क्रुमा के घाना ने रखी थी, का गला घोंट दिया गया सैन्य सरकार, भ्रष्ट नेतृत्व पश्चिमी तटों की बंधुआ मजदूरी, सूखा और अकाल-इन सब के भयंकर घालमेल ने यह कर दिखाया। हम यदि इन सबके द्वारा गर्त में नहीं ढकेल दिए जाते तो कहानियों की एक फसल हमने उगा ली होती।

पिछले वर्ष ब्रिटिश समाचार पत्र ‘द गार्डियन’ ने अफ्रीकन राइटर्स सीरीज’ की तीसरी वर्षगांठ पर अपने सहयोग के रूप में एक हजार पाउंड पुरस्कार वाली एक कथा प्रतियोगिता की घोषणा की। उनके पास पूरी दुनिया से कहानियों की बरसात हो गई। मोटे तौर पर चीन में भी अफ्रीकी नागरिक अंग्रेजी में ही कहानियां लिखेंगे। इस तथ्य ने मुझे उस भारी प्रतिक्रिया का स्मरण करा दिया जो मुझे बाइफ्रान के युद्ध के अंत में तब मिली जब मैंने युद्ध से ध्वस्त क्षेत्रों में ‘ओकीक’ नाम को एक साहित्यिक पत्रिका का संपादन एवं प्रकाशन करने का निर्णय लिया। कहानियों के आकर्षण केंद्र के रूप में उस जर्नल की सफलता इस कथा (मूल) से आंकी जा सकती है, जिसमें पच्चीस में से पूरी छह कहानियां मूल रूप से ओकीक में प्रकाशित हुई थीं। मैं यह देखकर मुग्ध रह गया था। हमारे पास ये छह कहानियां न सिर्फ नाइजीरिया बल्कि तंजानिया, जिम्बाब्बे और फ्रेंचभाषी बेनिन गणतंत्र से भी आईं। स्पष्टतया अफ्रीकी लेखक कहानी को बहुत आकर्षक पाते हैं। इस आकर्षण के कई कारण हो सकते हैं। लेकिन उनमें से एक निश्चिय ही इसके द्वारा दिए गए पुनर्संरचना की सुविधा है जो मौखिक परंपराओं में पाए जाने वाले कथा-वाचन के नाना प्रकारों को गतिमान बनाती है।

 मुझे लगता है एक दशक से कुछ ही पहले एक इग्बो महाकाव्य पाठ के शिल्प में मैंने वस्तुतः इस प्रक्रिया को घटते हुए देखा। सांस्कृतिक रूप से उर्वर अनम्बरा नदी घाटी से आए महाकाव्य के एक पचहत्तर वर्षीय कवि ‘ओकीक’ पत्रिका तथा इससे जुड़े इग्बो जर्नल उबा न्डी इग्बो’ के आमंत्रण पर, नाइजीरिया विश्वविद्यालय के प्रांगण में प्रदर्शन कर रहे थे। एक प्राचीन महाकाव्य के पाठ में ‘एमेका ओकोय’ कवि ने जो तब्दीली की वह निश्चय ही अत्याचार की प्राचीन कथा बाचने में एक नया आयाम रहा होगा। इस पाठांतर में आकाशचर अत्याचारी, इनुनिलिम्बा नीचे की दुनिया पर कागज के उड़ते पन्नों पर लिखे गए एक आदेश बरसाता है जिसकी घोषणा में आकाश में भोज और नीचे की दुनिया में अट्ठाइस दिनों तक दाना पानी तक वर्जित रहता है।

कवि अपने कथानक के साथ जो मनमानी करता है वह वस्तुतः पारंपरिक धर्मग्रंथों के अतिक्रमण से कुछ कम नहीं है। शुद्धिवाद के प्रबल पक्षधर रुढ़ियोंवादियों के लिए हताशा ही हो सकते हैं। लेकिन अफ्रीका में कलाकारों ने जरूरत से ज्यादा इन बातों का प्रभाव नहीं लिया है। इसे समझने के लिए हमें ‘म्बारी’ प्रदर्शन की सिर्फ एक झलक पानी होगी। इग्बो लोगों द्वारा क्रुद्ध देवता को शांत करने के लिए बनी इस प्रदर्शनी में अमर हो गए मूलभाव, जैसे विशाल, अजगर को पाइप पीते गोरे जिलाधिकारी (एक नई मूर्ति) के साथ जगह के लिए धींगा-मुश्ती करते देखा जा सकता है। आप अमाडिया, स्वयं बज्र के देवता, को टाई और टोपी लगाए देख सकते हैं। समुदाय की पूरी दुनिया संभव और बेतुकी का प्रदर्शन करती हुई-यही तो कला है। बूढ़े, अनपढ़ कवि ने जो हमारे विश्वविद्यालय प्रांगण में किया, वह कागज एवं साक्षरता की उपस्थिति को हमारी नई दुनिया में पहचानने एवं स्वीकार करने के सिवा और क्या था। और ऐसा करके उन्होंने हमें यह भी चुनौती दी कि हम अपनी नई उपलब्धियों और प्रतिभाओं का इस्तेमाल अपने प्राचीन समारोहों को उन्नत बनाने के लिए करें।

यहां एकत्र हुईं कहानियां ‘म्बारी’ प्रदर्शन की कला से मेल खाती हैं। दोनों अपनी शैली एवं चलन में ढेर सारी विविधताएं एवं ऊर्जा लिए हुई हैं। हमसे यह उम्मीद नहीं की जाती, या सचमुच ऐसा दिख पड़ता है कि हम प्रत्येक देन को तटस्थ और निष्पक्ष उत्साह के साथ अनुभव करें। लेकिन अफ्रीका भूभाग और सांस्कृतिक परिदृश्य की जिस यात्रा पर ये कहानियां हमें ले जाने का वादा करती हैं उसमें बेहतर यही है होगा कि हम अपने दिमागी फितूर और घिसी-पिटी धारणाओं का बोझ घर पर ही छोड़कर चलें। हमें नए प्रकार, नई विषय-वस्तु और उनके बीच नए संबंधों से पाला पड़ेगा। यदि हम अपनी यात्रा करने से मुकर जाएं, यात्रा पर अतिरिक्त बोझ ढोते हुए ही निकलें, तो हम उस युवक की तरह हैं, जिसके संबंध में इग्बो कहता है कि उसने कभी घर छोड़ा ही नहीं और यही सोचता रहा कि उसी की मां दुनिया में सबसे अच्छा रसोई पकाती है।

ऐसा लगता है, हमें अपरिचित विषयवस्तु ग्रहण करने से कठिन, अपरिचित संरचना स्वीकार करना लगता है। इसकी वजह शायद यह है कि मानवीय अनुभव का खालिस तत्व उतना नहीं बदला, जबकि हमारी कला, इसे जो संरचनाएँ दे सकती हैं वे अनंत हैं। हमें खुश होना चाहिए, पर ऐसा लगता नहीं है। मैंने जब प्राक्कथन के बारे में सोचना प्रारंभ किया तो मेरा मन कथा लेखन के साथ मेरे पहले रोमांस पर चला गया। यह पचास के सुखद दशक में हुआ, जब पश्चिमी अफ्रीका में एफ.जे.पेडलर, उपन्यासों एवं कहानियों के संबंध में अपनी सोच और उम्मीदें व्यक्त कर रहे थे। मैं नव स्थापित यूनिवार्सिटी कॉलेज का छात्र था। लंदन यूनिवर्सिटी की कला की डिग्री के लिए तैयारी कर रहा था। अंग्रेजी विभाग ने हाल में ही एक कथा प्रतियोगिता और पुरस्कार की घोषणा की थी। हमें इस पर सोचने के लिए पूरी लंबी छुट्टी मिली थी। मैंने कथा लिखने की ठान ली। समय आने पर विभाग के सूचना-पट पर परिणामों को प्रकाशित किया गया। अफसोस, एक भी कहानी विभागीय पुरस्कार के लिए स्तरीय नहीं पाई गई थी। पर इतना जरूर हुआ कि, मेरी कहानी का प्रशंसात्मक उल्लेख हुआ। और एक लाभदायक सूचना यह थी कि कमजोरी उसकी संरचना में थी।

मैं अपनी आंशिक सफलता से बेहद उत्साहित था। इबादन का अंग्रेजी विभाग एक निर्दयी एवं सख्त जगह था जो व्यक्ति को भाग्य पर अधिक विश्वास करने के लिए कतई उत्साहित नहीं करता। हमारे एक सहपाठी ने विभाग का एक बार मुआयना किया और भागकर लैटिन एवं ग्रीक की गर्म आगोश में जा पहुँचा। वह बाद में एक ख्यातिप्राप्त उपन्यासकार हो गया। हमारा अंग्रेजी विभाग कोई ऐसी जगह नहीं था जैसा कि हमारे लोग कह सकते हैं, जहाँ कोई एक हाथ में नसवार लेकर नाचते हुए आ जाएं। इसलिए समाचारों में चर्चित होकर मैं फूला न समाया। और उसके बाद भविष्य के लिए संरचना के बारे में सीखने की संभावनाएं बनी।

मैं उस व्याख्याता के पास पहुंचा जिनका नाम सूचना में था, और पूछा कि क्या वे मुझे संरचना पर मार्गदर्शन देंगी। उन्होंने कहा, ‘हां निस्संदेह पर आज नहीं। कभी और।’ और वे टेनिस खेलने चली गई। मैं दो चार बार और उनके पास गया, पर कोई खास फायदा नहीं हुआ। और तब एक दिन, एक पूरा सत्र बीत जाने के बाद, वे मुझसे बोलीं : मैंने तुम्हारी उस कहानी को दुबारा देखा, वस्तुतः मुझे नहीं लगता कि उसकी संरचना में कोई खास कमी है।
और इस तरह कथाओं की संरचना के रहस्यों को मैं कभी नहीं सीख पाया, जो आज मैं किसी को दूं। उतना ही समझा जो ड्यूक एलिंगटन ने हमें सिखाया : यदि यह कर्णप्रिय है, तो यह अच्छा होगा !

आज अफ्रीका जितना सुखी महादेश है, यह संग्रह उससे कोई ज्यादा सुखद प्रस्तुति नहीं सन् 1952 में ‘मिस्टर जान्सन’ के नए अंक के लिए ज्वायस कैसी ने जो आरंभिक लेख लिखा उसमें वे ‘एक अफ्रीकी की सहृदयता’, ‘छोटे से छोटाशह पाकर दोस्ती करने में उसकी तत्परता’ की बात करते हैं और तुरंत बाद में जोर देते हैं : ‘‘मैं उनकी खींसें निपोड़ने की आदत नहीं भूल सकता (और उनकी हंसी-एक अफ्रीकी किसी भी अचरज की बात पर खुशी से ठठाकर हंस पड़ेगा)।’’
दकियानूसी बातें निश्चित तौर पर घृणास्पद नहीं होती हैं। यह सार्थक ही नहीं उपकारक भी हो सकती हैं। लेकिन हर हाल में यह एक लापरवाही या आलस्य या व्यावहारिक उदासीनता दर्शाती हैं जो स्पष्ट करती है कि वर्गीकरण का उद्देश्य इस लायक नहीं है कि निजी तौर पर मूल्यांकन की जहमत की जाए।

किसी भी सूरत में पाठक इनमें वह प्रसिद्ध अफ्रीकी ठहाका नहीं सुनेंगे। एक छत के नीचे एकत्र पचीस लेखकों ने पहले ही कोई मिली भगत कर अपनी-अपनी प्रस्तुतियों से ठहाके को तो नहीं निकाल भगाया। वे अपनी जिंदगी की जबरदस्त सचाई से रू-ब-रू हैं। बल्कि वे तो एक साथ हमें यह कहते हुए दीख पड़ते हैं कि जो इंसान ठहाका लगा रहा है वह एकदम ‘बेखबर’ है।

कहानियों को जीवन से मृत्यु के क्रम में रखने का संपादक का निर्णय अच्छा है। यह एक दर्दनाक पैनापन से इसका रहस्योद्घाटन करती हैं कि हम कितनी कम उम्र में खबरदार हो जाते हैं। कांगो के हेनरी लोपेज द्वारा रचित ‘द एंडवांस’ (उधार) एक छोटे बच्चे की हृदयविदारक कहानी है जो अपनी मां की झोपड़ी में फंसा बीमारी, भूख अनदेखी से मर जाता है, जबकि उस औरत को पूरा दिन दूर किसी नगर परिसर में खाते-पीते घर वालों के बच्चों की देखभाल करनी होती है। उन्हें ठूंस-ठूंस कर खिलाना होता है और गा-गाकर सुलाना भी होता है।
तैयब सलीह एक सुविख्यात सूडानी लेखक हैं। उनकी कहानी ‘ए हैंडफुल ऑफ डेट्स’ (मुट्ठी भर खजूर) एक महारथी सर्जक की रचना है-किसी बतंगड़ और औजार द्वारा ठोक-पीट के धब्बे से एकदम परे।

उन दिनों मैं निश्चय ही बहुत कम उम्र का रहा होऊंगा। वैसे तो अपनी उम्र का सही अंदाजा नहीं बता सकता पर इतना जरूर याद है कि जब भी लोग मुझे अपने दादाजी के साथ देखते, प्यार से मेरे सर पर हाथ फेरते और गाल पर चिकोटी काटते। मेरे दादाजी के साथ कोई इस तरह पेश नहीं आता। मेरे लिए यह अचरज की बात थी कि मैं अपने पिताजी के साथ कभी बाहर नहीं जाता। मात्र दादाजी ही मुझे बाहर कहीं अपने साथ ले जाते थे। सुबह में जिन दिनों मुझे कुरान सीखने मस्जिद जाना होता, उन दिनों वे मुझे कहीं नहीं ले जाते। इलाके की मस्जिद, नदी एवं खेत-हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण थे।
इस सुस्पष्ट और सुगढ़ कहानी में हम देखते हैं कि किस तरह एक संवेदनशील लड़के का अपने प्रभावशाली दादाजी के प्रति प्यार और आदर उस वक्त चूर-चूर होकर घृणा में बदल जाता है जब वह बूढ़ा आदमी अपना निष्ठुर दंभ और अमानवीय प्रवृत्ति उजागर करता था।

यह संग्रह कई हस्तियों को एक साथ लाता है, जिनकी पहचान पहले ही फैली हुई है-जैसे कि सेनेगल के फिल्मकार और लेखक सेम्बेन उस्मेन और  न्जाबुलो न्देबेले, चार्ल्स मंगोशी, अलीफा रिफात, लुइ होनवाना और ब्लोक मोडिसन। कुछ अन्य हैं जिनकी ख्याति उतनी नहीं है। और कुछ तो नई खोज हैं, खासकर उत्तरी अफ्रीका के लेखक, जिनकी अरबी रचनाओं का अनुवाद विशेषकर इस किताब के लिए हुआ।

नई आवाजों में से एक आवाज सिंडवे मैगोना की है। महज चौदह वर्ष की बच्ची की अभिशप्त जिंदगी पर लिखी गई उनकी कहानी झकझोर कर रख देने वाली है। यह कहानी रंगभेद की क्रूरता की शिकार उस बच्ची की है जो ‘काली’ और ‘औरत’ है। रिश्तेदार द्वारा व्याभिचार की दहशत में उसका पलना हमें अंदर तक सालता है।
इस संग्रह में कई अच्छी चीजें हैं। निष्कपटों के साथ विश्वासघात बार बार भिन्न भिन्न विन्यासों एवं परिस्थितियों में उभरते हैं। ओसे एनेकवे की द ‘लास्ट बैटल’ (अंतिम युद्ध) बाइफ्रान युद्ध की कहानी, सीधे वाक्यों में पेश करती है कि किस तरह एक नायक उसी उद्देश्य द्वारा छला जाता है जिसके लिए वह लड़ता है और अंततः देशद्रोही घोषित हो जाता है।

एक बात सभी कहानियों में विद्यमान है, वह है दर्द और जीवन के अन्याय का सर्वत्र माहौल। एक इतना शक्तिशाली माहौल कि चार्ल्स मंगोशी की जिम्बाब्वे वाली कहानी ‘‘द ब्रदर’’ (भाई) के पात्र जब दारू ताश और सेक्स में डूबे यह सोचते हैं कि वे जीवन का आनंद ले रहे हैं, ठीक उसी वक्त उसी मनोदशा में वे मैयत में शरीक हो सकते हैं।



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