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पाँवों का सनीचर

अखिलेश मिश्र

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5592
आईएसबीएन :8126711639

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इसमें तत्कालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति-नियति का संवेदनापूर्ण ढंग से चित्रण हुआ है

paon ka sanichar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘तो क्या तुम विवाह के खिलाफ हो ?’ एक गोरे लड़के ने पूछा। उत्तर मिला-‘खिलाफ होने से भी क्या फायदा जब तक उस अवसर पर किए गए वादों का कुछ मतलब सिर्फ स्त्री के लिए होता है, पुरुष के लिए वह वादे कुछ माने में नहीं रखते। यह एकतरफा गाड़ी नहीं चलेगी। गरज दोनों को हो, सहारे की जरूरत दोनों को हो।’ एक और गोरी लड़की बोल उठी-‘प्रेम विवाह में तो दोनों बराबर के दर्जें पर रहते हैं।’ वह लड़की तपाक से बोली-‘मुझसे प्रेम की बात न करो। इस शब्द के भी पुरुष-स्त्री के लिए दो अलग अर्थ होते हैं। स्त्री के लिए प्रेम है पूरा समर्पण। उसकी सब इच्छाएँ, रुचियाँ प्रेम करने पर बदल जाएँगी। केश और पहनावा भी प्रेमी या पति की इच्छा का होगा। शुरू से वह अपने को इसी लायक बनाती हैं कि किसी को लुभाए, लुभाए रहे और ऐसा हो जाए तो वह समझेगी कि प्रेमी मिल गया।

पुरुष के लिए प्रेम का अर्थ क्या है ? हर पुरुष में स्त्री के लिए एक   कमजोर क्षण आता है। इस कमजोर क्षण में वह स्त्री को कुछ उपहार देता है। इन्हीं उपहारों में से एक प्रेम है। वह एक बार नहीं दस बार, एक को नहीं दस को दिया जाता है। इस उपहार के बदले वह स्त्री को सजे-धजे पालतू जानवर या दोस्तों को दिखाने लायक कलापूर्ण तस्वीर की हैसियत, जब तक उसकी पसन्द गवाही दे, देता है, देता रहता है। विवाहित स्त्री अपने पैरों पर खड़ी होकर भी निहायत निकम्मे झगड़ालू पति के मुकाबले हीन ही रह जाती है।’

 

इसी पुस्तक से

 

अपने समय के चर्चित पत्रकार और लेखक अखिलेश मिश्र के इस पहले उपन्यास में आजादी से पूर्व के उत्तर भारत के ग्रामीण परिवेश के सौहार्दपूर्ण सामाजिक जीवन का जीवन्त चित्रण हुआ है।
बटोहियों की बतकही के अद्भुद कथारस से आप्लावित यह आख्यान ग्रामीण जीवन के कई अनछुए पहलुओं से साक्षात्कार कराता है।

इसमें एक बच्चे के युवा होने तक जीवनानुभव की कथा के माध्यम से देश-काल के हरेक छोटे-बड़े विडम्बनापूर्ण क्रिया-व्यवहारों, रूढ़ियों और अन्धविश्वासों पर मारक व्यंग्य किया गया है। पूरा उपन्यास इस विद्रोही ‘जनमदागी’ नायक की शरारतों (और शरारतें भी कैसी-कैसी-नुसरत की नानी की अँगनई में बैठकर चोटाइया काट डालने, छुआछूत नहीं मानने की जिद में नीच जाति से रोटी लेकर खाने, उसी की गगरी में पानी पीने, गुलेल से निशाना साधने, तालाब में तैरने आदि की पूरी कथा) से भरा पड़ा है। यही विद्रोही मानसिकता आगे चलकर धार्मिक कर्मकांडों की सत्ता के विरुद्घ संघर्ष में तब्दील हो जाती है।

इसमें तत्कालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति-नियति का जिस संवेदनापूर्ण ढ़ंग से चित्रण हुआ है और उस स्थिति के खिलाफ लेखकीय व्यंग्य की त्वरा जिस रूप में उभरकर सामने आई है वह भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
इस उपन्यास को विरल तथ्य के साथ-साथ शैली लाघव और कहन की भंगिमा के लिए भी लम्बे समय तक याद रखा जाएगा।

 

बाज सुराग न गांडर तांती

 

 

यह क्या लिख डाला ! बहुत लोग इसे सठियाई अकल का परपंच कहेंगे। क्या गलत कहेंगे ! उसके अलावा यह है भी क्या ?
इसे साहित्य कहनेवाले सरासर झूठ बोलेंगे। साहित्य से इस लिखनेवाले का जिन्दगी में कब कोई वास्ता रहा है ? उसकी किसी तरह के साहित्य से दूरी कितनी है, कैसे बताया जाए ? लोग बताते हैं कि हेली के पुच्छल तारे की मीलों में दूरी कितनी है ?  यही तीन लाख पर पाँच सुन्न और रखने पर जो संख्या बने। इस कलम से साहित्य की दूरी जानने के लिए इस संख्या पर और आगे आठ-दस सुन्न रखने होंगे। कभी साहित्य देखा नहीं, सुना नहीं, पहचानने का मौका कभी मिला नहीं। साहित्य रचनेवाला भी कभी नज़र आया नहीं।

बटोहियों की बतकहीं में अकसर मन लगा है। वही तर्ज मन को भाया है। लेकिन बात तो तब बनेगी जब बटोहियों की बतकही को यह तर्ज भा जाए। नहीं तो जैसे बहुत-सी लिखा-पढ़ी अकारथ जाती है, वैसी ही यह भी सही।
उपन्यास यह एकदम नहीं है। आत्मकथा तो है ही नहीं-इसमें कोई कुछ खोजने के लिए बेकार डूबे उतराएगा। सच उतना ही है जितना बतकही में बचा रह जाए।
जमाने का दस्तूर है कि ‘कौन हो’ के जवाब में जाति बतानी पड़ती है। इन सतरों में कोई जाति नहीं है। आज के बाजार में हर माल लेबल देखकर बिकता है। इस पर कोई लेबल भी नहीं है। इसलिए घूर पर फेंकने लायक माना जाए, तो भी ठीक है।

इन सतरों का लेखक मुझे मानना भी एक फरेब है। कोई झूठा, ठग, जालसाज ही ऐसा कहेगा। इसमें एक तरफ भी अपना नहीं है। जो कुछ है, वह दूसरों के लिए है।
जो सही हो वह उन्हीं का है जो गलत हो बस वही, उतना ही, अपना है। सही काम सभी करते हैं। कोई एक गलत करने वाला भी तो रहे।
इसीलिए कोई उसकी निन्दा करने में सकुचाए नहीं, कोई इसे नोचकर फेंकने, जलाकर राख करने में लिहाज न करें। जिन्दा करनेवाला सच ही तो  कहेगा, फेंकनेवाला उचित करेगा।
इसके बाद भी कोई पढ़ डाले, पढ़कर दूसरों से चर्चा करे तो उसके पाँव की धूरि मेरे सिर माथे। उससे उद्धार होने की मुझमें ताब नहीं। कोई ज्यादा उम्मीद करेगा भी क्यों ? उस लायक मैं कब था ! जैसा बन पाया वैसा हूं, जैसा बन पड़ा जो काम, वैसा है। और अब लल्लू का लल्लूपन छापक के हवाले।

 

लखनऊ

 

-अखिलेश मिश्र

 

दो शब्द 

 

 

श्री अखिलेश मिश्र का मरणोपरांत प्रकाशित होनेवाला यह उपन्यास पाँवों का सनीचर कई अर्थों में विशिष्ट है। प्रस्तावना से ही पाठक जिस भाषा और अभिव्यक्ति शैली की जिस अद्भुद भंगिमा से परिचय होता है, वह निश्चय ही उसके लिए विशिष्ट और उत्तेजक अनुभव होगा।
यह बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध और दूसरे महायुद्ध के भी पहले की कथा है। एक ओर इसमें जहाँ हमें गाँवों का ऐसा घोर यथार्थ मिलता है जो हमारे साहित्य के लिए सर्वथा नवीन है, वहीं दूसरी ओर ढाका और उसके निकटवर्ती कस्बों और गाँवों के जमीन की ऐसी दुर्लभ छवियाँ भी दीख पड़ेंगी जिसमें परम्पराओं और रूढियों के बावजूद जातिवाद और साम्प्रदायिकता आदि का जहर लगभग अछूता है। अनेक बैचेनी भरे प्रसंगों में वे छवियाँ सौहार्द्र और मानवीयता की विजय की ध्वजवाहक बनती हैं।

यहाँ किशोरों की कथाओं जैसे सहज घुमक्ड़ी के प्रसंग कई बार हमें जीवन की भयानक स्थितियों ये रू-ब-रू  करते हैं और तब हम पाते हैं कि जिसे हम किशोरों का आख्यान समझ रहे थे, वह मूलतः उन पौढ़ों की संघर्ष-गाथा है जो अपने मूल्यों के प्रति असीम प्रतिबद्धता के साथ विषय स्थितियों का मुकाबला कर रहे हैं।
एक जटिल, सामाजिक संरचना को यह अपेक्षाकृत छोटे आकार का उपन्यास जिस सहजता और उसी परिवेश में प्रचलित बोली और मुहावरा के माध्यम से खोलता है वह एक साथ हिन्दी साहित्य के प्राचीनतम और नवीनतम कथा-प्रयोगों से हमारा साक्षात्कार कराते हैं। एक अत्यंत सचेत, सजग और जुझारू प्रकृति के पत्रकार का यह कथा-प्रयोग निश्चय ही सम्पूर्ण साहित्य जगत के लिए एक स्फूर्तिदायक अनुभव सिद्ध होगा।

 

-श्रीलाल शुक्ल

 

उपक्रम

 

 

‘धर्म का मर्म’ और ‘पत्रकारिताः मिशन से मीडिया तक’ के बाद इस बार हम अखिलेश मिश्र के लेखन का एक अब तक अज्ञान रहा पहलू पाठकों के सम्मुख ला रहे हैं- ‘पाँवों का सनीचर’ के रूप में।
अखिलेश जी हरफनमौला थे, कुछ विषयों के पंडित भी थे, पत्रकार थे, लेखक थे, आन्दोलनकारी थे। अपने छात्र जीवन में उन्होंने कविताएँ भी लिखीं और मंच पर काव्यपाठ भी किया, साक्षरता अभियान के तहत अनेक लम्बी कहानियाँ लिखीं लेकिन उन्होंने कोई उपन्यास भी लिखा है इसकी थोड़ी-बहुत जानकारी उनके कुछ आत्मीयजनों को ही थी। उनका कहना है शायद इसकी कुछ किस्तें किसी पत्रिका में छपी भी थीं।

‘पाँवों का सनीचर’ कब लिखा गया इसका भी तो कुछ पता नहीं है। उपन्यास की भूमिका ‘बाज सुराग न गांडर तांती’ में अखिलेश जी ने शास्त्रीय परम्परा का अनुसरण किया है जिसमें कवि-लेखक अपने बारे में कोई जानकारी देने से कतराता है, अपने को अकिंचन बताता है। फिर भी, चूँकि बांग्लादेश का जिक्र उपन्यास में एकाधिक स्थलों पर हुआ है इससे यह निश्चित है कि यह 1971 के बाद ही लिखा गया।
 
‘पाँवों का सनीचर’ कई अर्थों में एक विशिष्ट, अनूठा उपन्यास है। इसका नायक है किशोर गरीब नेवाज उर्फ ‘लल्लू’-निघंस पहलवान, महासवालिया। उसे अपने हर सवाल का जवाब चाहिए। आजादी के पहले का यह किशोर जवान हुआ, बूढ़ा हुआ, गुजर गया। उसे अपने सवालों के जवाब मिले या नहीं, कौन जाने ! लेकिन उसके सवाल हमारे सामने आज भी जस के तस खड़े हुए हैं, एक चुनौती बनकर।
इस उपन्यास में स्त्रियों की भूमिका ध्यान आकृष्ट कराती है। पंडिताइन, ललुआ की बुआ, शुभ्रा, शेफाली सब अपनी-अपनी जगह बहुत मजबूती से खड़ी हैं और उपन्यास के साथ आगे बढ़ती हैं- अपने बूते, अपनी समझदारी से। इनमें से कोई तेज-तर्रार है तो कोई खामोशी से फैसले लेनेवाली, कोई किशोरी है तो कोई उम्रदराज वृद्धा। सब बडे़ सहज ढंग से अपना व्यक्तित्व विकसित करती हैं, अपनी जगह बनाती हैं। इस दृष्टि से नारी विमर्श का उपन्यास भी कहा जा सकता है। अखिलेश जी के अनुसार यह उनकी आत्मकथा नहीं है। उनकी बात पर एतबार न करने की कोई वजह नहीं लेकिन लल्लू में उसका चेहरा तो झलकता ही है।

‘पाँवों  का सनीचर’ के लिए ‘दो शब्द’ आदरणीय श्रीलाल शुक्ल जी ने बहुत मनोयोगपूर्वक लिखा है। उनके प्रति अपनी कृतज्ञता को शब्द देने में मैं असमर्थ हूँ।
अखिलेश जी के जन्मदिन पर ‘पाँवों का सनीचर’ पाठकों तक पहुँचा देने का पूरा श्रेय श्री अशोक महेश्वरी और उनके राजकमल प्रकाशन को है। उनके प्रति मैं हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ।

 

22 अक्टूबर, 2005
लखनऊ

 

- वंदना मिश्र

 

जनम दागी

 

 

उसे अपने बालपन की बहुत-सी घटनाएँ रह-रहकर याद आती हैं। हर याद से एक हूक उठती है, एक टीस उभरती है, एक पीर जगती है।
यों तो वह कनौजिया बांभन परिवार की पूरी बीघा भर मरजाद लड़के के डील में लेकर पैदा हुआ था।, इसलिए लाड़-प्यार तो बहुत हुआ ही रहा होगा। फिर भी उसके लच्छन शुरू से ही कुछ ऐसे थे कि पूत के पाँव पालने में परखनेवाले शुभ मानने को तैयार न होते थे।  
इसका भला वह क्या करता कि उसके जन्मदाग था ? सुना तो यह जाता है कि सबके होता है। लेकिन सबके क्या ऐसी जगह होता है सबकी नज़र पड़े और अगर ऐसी जगह भी हो तो क्या ऐसा बेजगह, बेशकुन, बेतुका होता है। जरूर भगवान ने इस जन्मदाग से किसी अनिष्ट की चेतावनी दी है।

उसका जन्मदाग बाएं हाथ की तर्जनी की जड़ पर है- एक पान जैसा, काले रंग का-नोक उँगली के नाखून की ओर। पंडित का कहना था कि यह जन्मदाग पूरे जन्म को दागी बना देगा। लड़का हर तरह से नालायक होगा। उसके बाद किसी भली पौद को उगने न देगा। सो तो दिखाई ही देने लगा था। उसके बाद कई भाई-बहन आए पर कोई भी साल पूरा न कर पाया। बहुत बाद में दो भाई बचे। उसका जस घर में आई बहुरिया को दिया गया। अपने भाग्य से उसे दो-दो देवर मिल गए। वरना लड़के के भाग्य में भाई कहाँ था !  

बुढ़ापे तक उसे अपनी बुआ की याद है। पिता से बड़े ताऊ जी थे, उनसे भी बड़ी थी बुआ। ताऊ जी निस्सन्तान विधुर थे। बुआ बाल विधवा। भतीजे को वही अकसर कोरवा में बैठाकर खिलाती थीं। उनके मुँह से निकलता था अकसर-‘एक बिया तौनो छिया।’’ उँगली पर का जन्मदाग वह गौर से देखतीं और देखकर उदास हो जाती थीं।-‘‘लच्छन एक, कुलच्छन चार।’’
कुलच्छन और लच्छन में चार पीछे एक का मीजान उसी उम्र से मन में कुछ ऐसा बैठा कि औघट घाट नहाने, बेराह चलने, बेसलीका जीने, बेलौस बैपरने और बेढंग बनने की आदत उसने घुट्टी के साथ गले के नीचे उतार ली थी। बाद में। कभी न उसकी चाल सुधरी, न चलन ठीक रहा, न जाने क्या-क्या आया, इसका किसी के पास कोई हद हिसाब नहीं।
उसकी कुछ आदतें बचपन से ही बेहद लटी थीं। करगदा बार-बार नया पहनाया जाता, रीति जो थी और वह था जो करगदा का दुश्मन, तोड़कर फेंक देता। लोग कहते, ‘‘करगदौ ते नंगा’’ तो चिढ़ता भी था। कठुला ताबीज भी वह न जाने कहाँ फेंक आता था। कनछेदन हुआ तो उसके कान में बाली शाम को तक न टिकी। बुआ बड़ी चिन्तित-अगर कान के छेद बन्द हो गए तो क्या होगा ? विवाह में बजुल्ला पहनेगा ? मगर वह किसी की मानता ही कब था !
बुआ बड़े प्यार से दूधभात खोरवा में लेकर पीछे-पीछे भागती तो वह मुट्ठी भर धूल उसमें डाल देता। दूध से उसे चिढ़ थी। घी छू जाए तो वह उपासा रह लेता।

एक दिन तो परलय हो गई। न जाने कहाँ से उसने अम्मा की कैंची खोज ली थी और चुपके से अपनी चोटइया काट डाली थी। राम राम ! कैसा चांडाल था। ब्राह्मण घर में राक्षस पैदा हुआ। पूरे घर में ही नहीं पूरी जवारि में तहलका मच गया।
अगले दिन पड़ोस का लड़का लोकनाथ दौड़ाया गया। दो कोस दूर पुरवा से शास्त्री जी बुलाए गए। उन्हीं ने जन्मपत्री बनाई थी। उनसे कहा गया कि फल-वल विचारें, विचार कर निदान बताएँ। उन्होंने हाथ की रेखाएँ बड़े गौर से देखीं। जन्मपत्री को ध्यान से देखकर मीन, मेख, वृख, मिथुन किया और लगे कुछ मन्त्र जैसा बुदबुदाने। पूरा परिवार उन्हें घेरे बैठा था।
इधर लल्लू को मौका मिल गया। वह चुपके से घर के बाहर हो गया।

यह तो उसकी आदत ही थी। आधी रात को या दुपहरी-जब मौका पाता तो चुपके से घर के बाहर निकल जाता और घंटों खोजे न मिलता। लूक जलाक से वह कभी डरा नहीं। जाड़ा पाला की उसे परवाह न थी। आँधी में निकल जाता और धूल-धूसर होकर लौटता। पत्थर पड़ते में, घोर बरखा में वह बाहर रहता और बुरी तरह भीगकर, अकसर चोट खाकर लौटता। टोला के लड़कों से उसकी मानो अनबन थी। उसके बीच रहता खेलता क्या जब बैठता न था। जब भी लोग ढ़ूँढ़ने गए, तीन-चार कोस से कम फासले पर कभी वह मिला नहीं। खोजकर लानेवाले उसे रास्ते में दो-चार हाथ मारते हुए लाते और घर में उसे हेरान गदहा की तरह पीटने की सलाह देते जाते। यह सलाह अकसर मानी भी जाती। बुआ कहती थी- मार ते देह औरउ पोढ़ाय गय है, निघंस होइगा है ऊपर से।
मौलवी के घर में पढ़ने भेजा जाता था जहाँ वह अकसर नागा करता था। और बागों, खेतों, खलियानों में वक्त कटता था। बच्चों के बारे में मौलवी साहब का फार्मूला था, ‘‘मकान की मरम्मत सालाना, लड़के की मरम्मत रोजाना’’। लेकिन इस मरम्मत से भी इस इमारत की दुरुस्तगी नहीं होती थी कभी-कभी इस लड़के को निघंस पहलवान कहते थे। उसे यह सब आज तक याद है।

लेकिन उस दिन बाहर हो जाना तो हर तरह से गैर कानूनी हो गया। शास्त्री जी अभी घर पर ही थे। कुछ पूजा-पाठ बता चुके थे। अपना सीधा सामान बाँध रहे थे।
बुआ पहले ही कहा करती थी कि इस लड़के की खोपड़ी में साक्षात सनीचर का वास है। बच्चे की एक आदत बुआ को ही नहीं दूसरे बड़े-बूढ़ों को भी खास नागावार गुजरती थी।

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