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परकाय प्रवेश तथा अन्य कहानियाँ

मास्ति वेंकटेश अय्यंगार

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5595
आईएसबीएन :81-263-1101-0

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प्रस्तुत है मास्ति की प्रतिनिधि कहानियों का संकलन...

Parkaya Pravesh Tatha Anya Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मास्ति की प्रतिनिधि कहानियों का यह संकलन उन्नीसवें ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह के अवसर पर प्रकाशित किया गया था। इस बीच में भारतीय भाषाओं के शीर्षस्थ कहानीकारों के संकलन ज्ञानपीठ ने भारतीय कहानीकार श्रृंखला में प्रकाशित करने आरम्भ किये। कन्नड़ कहानी के जनक के संग्रह का यह नया संस्करण अब इस श्रृंखला में प्रकाशित किय़ा जा रहा है। लेकिन साथ ही इसमें कन्नड़ कहानी के विकास और मास्ति के लेखन पर कुछ सामग्री भी सम्मिलित की गयी है जो आशा है कि पाठकों को उपयोगी लगेगी।

भूमिका

कन्नड़ साहित्य में आधुनिक कहानी का आरम्भ भारत की अन्य भाषाओं की तरह ही 18वीं शती के अन्त और 19वीं शती के आरम्भ में हुआ। उसके विकास को स्थूल रूप से चार भागों में विभाजित किया जा सकता है—नवोदय युग (1900 से 1940), प्रगतिशील युग (1940-1950), नव्य युग (1950 से 1970-75) और दलित अथवा बण्डाय युग (1975-)। य़ह एक मोटा-सा विभाजन है। ऐसा नहीं कि एक युग की समाप्ति के बाद दूसरे का आरम्भ हुआ, एक के बाद दूसरा साथ-साथ भी चला है। 1900 में ‘सुवासिनी’ नाम की पत्रिका में अनेक कहानियाँ प्रकाशित हुईं। इनमें पंजे मंगेशराय लिखित ‘कमलपुर के होटल में’ विशेष उल्लेखनीय है। लगभग इसी समय मंगलूर की तरफ के एम. एन. कामत की ‘मल्लेशिय नल्लेपरु’ (मल्लेश की सहेलियाँ) को भी ख्याति मिली। केरूर वासुदेवाचार्य ने (1866-1922) स्वसम्पादित ‘सचित्र भारत’ पत्रिका में अपनी कहानियाँ प्रकाशित कीं जिसका कन्नड़ कहानी के विकास में ऐतिहासिक महत्व है। आधुनिक कहानी की तकनीक उन कहानियों में न भी रही हो हास्य-रेखाचित्रण और सम्वेदनशीलता की इन कहानियों में प्रधानता है। यह स्पष्ट है कि कहानी के इस आरम्भिक विकास में पत्र-पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा। वास्तव में कन्नड़ कहानी का जनक श्रीनिवास (मास्ति वेंकटेश अय्यंगार) (1891-1985) को ही माना जाता है। मास्ति का प्रभाव अपने समकालीन तथा बाद में आने वाली पीढ़ी के कहानीकारों पर पड़ना स्वाभाविक था। प्रसिद्ध कहानीकार आनन्द, के. गोपालकृष्ण राव, सी. के.वेंकटरामय्या, भारती प्रिय, अश्वत्थ, गोरूर, रामस्वामी अय्यंगार, एम. वी. सीतारामय्या मास्ति के प्रभाव से ही कहानी के क्षेत्र में आये थे। मास्ति जैसी जीवन-दृष्टि न होने पर भी इन लोगों ने उनके कहानी के लेखन के ढंग को अपनाया। उनमें सबसे प्रमुख कहानीकार आनन्द (अज्जमपुर सीताराम, 1902-1962) थे। इनकी ‘नानु कोन्द हुडुगी’ (लड़की जिसे मैंने मार डाला) बड़ी ही प्रसिद्ध कहानी है। इसमें देवदासी प्रथा और उनके करुणापूर्ण जीवन की झलक मिलती है। दूसरा प्रसिद्ध नाम है आनन्दकन्द (बेट्टगेरी कृष्णशर्मा, 1900 से 1982) का। उनकी कहानियों में मध्य वर्ग के जीवन के साथ-साथ ग्रामीण जीवन का भी चित्रण है। कुछ कहानियाँ ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर लिखी गयीं। ग्रामीण जीवन की समस्याएँ तथा उनके साहस का परिचय कराने वाले ये पहले कहानीकार हैं। ‘माल की हक’, ‘जाडर जानप्पा’ आदि कहानियों में प्रगतिशील कहानी की पुट मिलता है।
कन्नड़ में शुद्ध हास्य लिखने वाले पहले कहानीकार हैं। गोरूर रामस्वामी अय्यंगार (1904-) ‘कोर्टनल्लि गेद्द एत्तु’ (कोर्ट में जीता बैल) इनकी एक बड़ी प्रसिद्ध हास्य कथा है। इसका सार है कोर्ट में जाने वाले पक्षधर और विपक्षी दोनों में कोई भी नहीं जीतता बीच वाला बैल जीत जाता है। यानी कोर्ट में जाकर किसी को न्याय नहीं मिलता। कानून के बखेड़ों में न्याय कुछ और ही ढंग का मिलता है।

इसी युग में ए. आर. कृष्णशास्त्री, शंकर भट्ट द. रा. बेन्द्रे, कुवेंपु आदि प्रसिद्ध साहित्यकारों ने भी कहानियाँ लिखीं। कुवेंपु के दो संकलन निकले। पहला ‘संन्यासी तथा अन्य कहानियाँ’ और दूसरा ‘मेरे भगवान् और अन्य कहानियाँ’। इनमें ‘धन्वन्तरि की चिकित्सा’ तथा ‘बंधुवा मजदूर का बेटा’ विशेष उल्लेखनीय हैं। कुवेंपु में समाज के प्रति प्रतिबद्धता तथा दलित के प्रति सहानुभूति स्पष्टरूप से परिलक्षित हैं। ‘धन्वन्तरि की चिकित्सा’ में दरिद्र किसान छाती के दर्द से तड़पता है तो किसी का ध्यान उसकी ओर नहीं जाता। पर जब यह पता चलता है कि उसकी चिकित्सा करने वाले को सोने की अशर्फियाँ मिलती हैं तो बड़े-बड़े डॉक्टरों और वैद्यों का ताँता लग जाता है। ‘बंधुआ मजदूर का बेटा’ कहानी में मजदूर का आठ साल का लड़का घुप्प अँधेरी रात में बरसते पानी में मालिक का मछली वाला जाल लेने जाता है और साँप के डसने से मर जाता है। यह कहानी जैनेन्द्र कुमारजी की ‘अपना-अपना भाग्य’ की याद दिलाती है।
नवोदय युग के लेखकों के सामने कोई निश्चित सिद्धान्त नहीं था फिर भी उनके लेखन के कुछ प्रेरक तत्व साफ़ दिखाई देते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से वह हमारे देश का बड़ा महत्व का समय था। भारत का समाज अपने आप को पहचानने लगा था। महापुरुषों ने हमारे सामने बड़े आदर्श रखे थे। समाज में सुधार और जागृति की एक लहर चल रही थी। स्वतन्त्रता संग्राम पूरी तीव्रता पर था उस समय के साहित्यकारों में क्रान्ति की दृष्टि अधिक उजागर नहीं थी इसकी प्रतिक्रियास्वरूप एक प्रगतिशील लेखक समुदाय उभरा।
अपने आपको प्रगतिशील कहने वाले लेखकों के एक वर्ग ने अ. न. कृष्णराय के नेतृत्व में (1943) ई. में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की। यह प्रेमचन्द्र के नेतृत्व में स्थापित अखिल भारतीय लेखक संघ के साथ जुड़ा हुआ था। नवोदय लेखकों का कहना था कि सामाजिक विषमता और शोषण के विरोध में लेखकों को आवाज़ उठानी चाहिए। उन्होंने नवोदय साहित्य के लेखकों की सुशिक्षित मध्य वर्ग के दिवास्वप्नों को कलाभिव्यक्ति देने वाले कहकर अवहेलना की। ये सब लोग मार्क्स के साम्यवाद से प्रभावित थे। इन लोगों ने संस्कृति के नाम पर शोषित वर्ग को सुधारने के लिए सामाजिक क्रान्ति पर बल दिया।

अ. न. कृष्णराय (1908-1971) इस प्रगतिशील दल के नेता रहे। उन्होंने सैक्स के बारे में बहुत लिखा। साथ ही समाज में स्त्री के प्रति होने वाले अत्याचार और शोषण को भी चित्रित किया। अ. न. कृष्णराय की ‘अन्नद कून्गु’ (अन्न की पुकार) एक अत्यन्त मार्मिक कहानी है। अ. न. कृष्णराय ने प्रगतिशीलता के दायरे से हटकर कर्नाटक के प्रायः सभी लेखकों पर प्रभाव डाला। प्रगतिशीलता के सिद्धान्त को एक आदर्श बनाकर व और अधिक प्रतिबद्ध होकर अ. न. कृष्ण से भी एक कदम आगे आकर लिखने वाले कुछ लेखक हैं—को. चेन्नबसप्पा, बसवराज कट्टीमनी, निरंजन व त. रा. सु. प्रमुख हैं। चतुरंग और व्यासराय वल्लाल भी प्रगतिशील आन्दोलन से प्रभावित थे।
प्रगतिशील आन्दोलन को अपना आधार बनाकर कहानी लिखने वालों में बसवराज कट्टीमनी (1919 से 1989) प्रमुख थे। ये स्वतंत्रता सेनानी थे और इन्हें ग़रीबी का कटु अनुभव भी था। इसलिए तीखा-रुखा आक्रोश इनकी कहानियों में देखने को मिलता है। इनकी कहानियाँ ‘बन्दी’, ‘गिरिजा कण्ड सिनेमा’ (गिरिजा ने सिनेमा देखा), ‘जीवन कले’ (जीवन कला), ‘बूट पालिश’, ‘सेटेचिन्द होरगे’ (जेल से बाहर) बहुचर्चित हैं। निरंजन (1923-) प्रगतिशील लेखकों में एक और महत्वपूर्ण नाम है। ये साम्यवाद के सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण को लेकर प्रेमचन्द के समान समाज की बुराइयों पर बार-बार चोट करके समाज को झकझोरने वाले लेखक हैं। इन्होंने लगभग सौ कहानियाँ लिखी हैं। इनकी कहानी ‘अन्तिम ग्राहक’ बहुत ही सशक्त एवं मार्मिक है। यह प्रेमचन्द की कहानी ‘कफन’ की याद दिलाती है। इन्होंने भी क्रूरता का सांकेतिक रूप से वर्णन किया है। कामुकों के हाथों में पड़कर इस कथा की गूँगी नायिका शोषण का शिकार बनती है। उसका गूँगापन अर्थपूर्ण है। हमारे समाज के हजारों शोषित लोग गूँगे ही तो हैं। अन्त में शोषण के फल स्वरूप वह रोगिणी हो भूख से मर जाती है। उसके मरने के बाद उसके शव के रूप में पड़े बचे-खुचे शरीर को खाने को आकर मँडराता है गिद्ध—उसका अन्तिम ग्राहक मृत्यु के बाद भी शोषण खत्म नहीं होता। सारे शोषक गिद्ध के ही पर्याय रूप हैं। को. चेन्नबसप्पा (जन्म 1922) भी एक प्रसिद्ध प्रगतिशील कहानीकार हैं। उनमें ग्रामीण परिवेश का अच्छा अनुभव है। गाँव वालों में धरती की लालसा, परिश्रम, जानवरों के प्रति उनका प्रेम, बटाईदार की समस्या इन्हीं बातों को लेकर उन्होंने कई अच्छी कहानियाँ लिखी हैं।
डॉ. गिरड्डी गोविन्दराज का कहना है, ‘‘प्रगतिशील कहानीकारों में प्रचार का माद्दा ज्यादा होने से कलात्मकता कम हो गयी है ।’’ इसलिए दस-पन्द्रह वर्ष में ही नये लेखकों ने दूसरा ही रास्ता पकड़ा। पर यह बात तो निश्चित है कि कन्नड़ में एक पाठक वर्ग तैयार हो गया। इन लेखकों ने भूख मिटानेवालों के बारे में, आत्मगौरव बेचनेवाले इन्सानों के बारे में, शरीर बेचनेवाली स्त्रियों के बारे में इतना अधिक लिखा कि समाज की बेचैनी स्पष्ट उभर आयी।

नव्य युग कब आरम्भ हुआ, यह निश्चित रूप से कह पाना कुछ कठिन है। कुछ लोगों की मान्यता है कि 1950 में बम्बई में हुए कन्नड़ साहित्य सम्मेलन में डॉ. विनायक कृष्ण गोकाक ने नव्य युग की रूपरेखा स्पष्ट की । फिर भी आगे चलकर श्री अडिग के काव्य-क्षेत्र में पदार्पण करने तक उसका कोई स्पष्ट रूप सामने नहीं आया था। कन्नड़ आलोचकों की दृष्टि से नव्ययुग पहले काव्य में दृष्टिगोचर हुआ; बाद में कहानियों में आया। यह लेखकों की वैयक्तिक आवश्यकता और संवेदनशीलता का ही परिणाम है। शुरू में नव्य कहानियों में एक तकनीकी परिवर्तन दिखाई देता है। डॉ. गिरड्डी गोविन्दराज के अनुसार इन लेखकों के लिए जीवन निश्चित मूल्यों का अनुसरण नहीं है अपितु उनकी खोज है। उनका केन्द्र बिन्दु अपने आप को समझ पाने वाले एकांकी मनुष्य में हैं। तभी सामाजिक समस्याओं की अपेक्षा उन्होंने वैयक्तिक समस्याओं को तथा उसके आन्तरिक जीवन को अधिक महत्व दिया है। वे वैयक्तिक समस्यायें ही अपनी सहजता से तीव्र होकर सार्वभौमिक की अर्थपूर्णता को प्राप्त कर लेती हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि उन्होंने सामाजिक समस्याओं की ओर ध्यान नहीं दिया । उनके लेखन में मनुष्य का मनोवैज्ञानिक चित्रण अधिक हुआ जिसमें काम या सैक्स की प्रधानता है। यह भी कहा जा सकता है कि यदि प्रगतिशील कहानियों में सामाजिक चेतना प्रमुख है तो नव्य कहानियों में एक तात्विक अन्तर्मुखता अधिक है। इसलिए नव्य कहानियों में काव्यात्मकता और प्रतीकात्मकता अधिक है। कहानियाँ मानव-मन की गहराइयों में अधिक उतर आती हैं । ऐसा एक प्रयास बी. सी. रामचन्द्र शर्मा (जन्म 1925) की कहानी ’सेरेगिन कैण्डा‘ (आँचल की आग) में देखा जा सकता है। शर्मा नव्य कहानी के आरम्भिक कहानीकारों में से एक हैं। वे मूलतः कवि हैं और पेशे से मनोवैज्ञानिक। उन्होंने प्रयासपूर्वक प्रगतिशील परम्परा से अपने को अलग कर लिया है। धीरे-धीरे नव्य कहानी का रूप निखरने लगा। शान्तिनाथ देशाई (1929-) इस युग के सशक्त कहानीकार हैं। उन पर आगे विस्तार से कुछ कहूगाँ।
कालान्तर में प्रगतिशील लेखक भी नव्य मार्ग की ओर क़दम बढ़ाने लगे। साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता व्यास राव बल्लाल भी उनमें से एक हैं। उनकी अधिकाँश कहानियाँ मध्य वर्ग की समस्याओं को चित्रित करती हैं। ‘बिडुगड़े’ (मुक्ति) उनकी एक प्रसिद्ध कहानी है जो जीवन की वास्तविकता और कल्पना को उजागर करती है। सुशीला और मापुलकर दोनों वास्तविक दुःख से बचने के लिए एक कल्पना-लोक का निर्माण करते हैं। वह उन्हें जीवन-शक्ति प्रदान करता है। परन्तु मापुलकर के निधन से यह कल्पना-लोक पिनचुभे गुब्बारे की तरह सुशीला की जीवन-शक्ति को नष्ट कर देता है। बल्लाल की इस कहानी में अनुकम्पा और मानवीयता ही प्रधान हैं। इनसे नव्य कहानी को एक नया आयाम मिला है।
नव्य युग के एक और प्रमुख कहानीकार यशवन्त चित्ताल (1928-) हैं। उनके कहानी संकलन ’कथेयादलु‘ (लड़की कहानी बन गयी) को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है। इनके लिए कहा जाता है कि ये काफ्का के ढंग की फैण्टसी लिखते हैं और कहानियों को हठपूर्वक कलात्मकता का चोगा पहनाते हैं। विज्ञान के इस विद्यार्थी में अध्ययनशीलता के साथ-साथ जीवन के अनुभवों की गहरी दृष्टि है। ‘लड़की कहानी बन गयी’ एक बड़ी ही सशक्त कहानी है। एक तेरह वर्ष की लड़की कैंसर से पीड़ित होने पर भी मृत्यु का कितने साहस से मुकाबला करती है। यह चित्रित करने के साथ-साथ लेखक ने यह भी दर्शाने का प्रयास किया है कि कहानी की कथा वस्तु बनाने के लिए केवल उसकी मृत्यु पर्याप्त नहीं है। पाठक की संवेदना तीव्र करने के लिए और भी सामग्री की आवश्यकता पड़ती है इस प्रकार कहानी में समाज की क्रूरता पर भी व्यंग्य किया गया है। चित्ताल का कहना है कि कला और सिद्धान्तों की अपेक्षा जीवन अधिक बड़ा है।
नव्य कहानीकारों में पी. लंकेश, पी. जी. राघव, दिवंगत के सदाशिव, राघवेन्द्र खासनीस तथा यू. आर. अनन्तमूर्ति अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इन लोगों की कहानियों के बिना नव्य कहानी-साहित्य का अध्ययन अधूरा ही रहेगा। इन लोगों ने आधुनिक कन्नड़-कथा साहित्य को विशेष समृद्धि प्रदान की है।

नदी के स्रोत की भाँति एक विचारधारा किसी खास समय में उत्पन्न होकर नदी के समान एक रूप ग्रहण कर लेती है। बण्डाय अथवा दलित साहित्य की मूल धारा की उद्गम सम्भवतः ‘कुवेंपु’ से हुआ होगा परन्तु सातवें दशक में नव्य साहित्य का विरोध यत्र-तत्र मुखरित होने लगा। यह कहा जाने लगा कि नव्य साहित्य अन्तर्मुखी होकर अपने आस-पास के जीवन का स्पर्श ही खो चुका है और अपनी बौद्धिकता तथा तकनीकी कला-प्रदर्शन के कारण पाठकों को खोता जा रहा है। साहित्य अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुँचना चाहिए। भाषा जनसामान्य की समझ में आने वाली होनी चाहिए। इसी विचारधारा को लेकर बण्डाय या दलित साहित्य चल निकला। इनमें कुछ लेखक नव्य-साहित्य में भी अच्छा नाम कमा चुके थे लेकिन उन्होंने अपना ढर्रा बदल डाला।
के. पी. पूर्णचन्द्र तेजस्वी (1939-) ने ‘अबचूरिन पोस्ट ऑफिस’ (अबचूर का पोस्ट ऑफिस) नामक कहानी-संकलन के द्वारा दूसरी प्रकार की लेखन की ओर ध्यान आकर्षित किया। उनकी ‘तबरीन कथे’ बड़ी ही सशक्त कहानी है। इसमें लेखक ने नौकरशाही तथा उसकी अमानुषिकता का करूणाजनक चित्रण बड़ा मर्मिक व बड़ी कुशलता से किया। तबर एक चपरासी है। उसकी पत्नी का पाँव मधुमेह की बीमारी के कारण गलना शुरू हो जाता है। तबर अपने पूरे जीवन की कमाई पेन्शन की आशा में इस दफ़्तर से उस दफ़्तर तक भटकता फिरता है; पैसा मिले तो इलाज हो। इधर उसके पत्नी के पाँव की सूजन बड़ती जाती है उधर दफ़्तर में फाइल का गात्र बड़ता जाता है अन्त में तंग आकर तबर कसाई से जाकर कहता है, ‘‘भैया, मेरी पत्नी की टाँग घुटने तक काट डालो।’’ कसाई मज़ाक़ उड़ाता है , ‘‘क्या तू इस टाँग का सालन पकायेगा ’’ इतनी करूणा जनक कहानी कन्नड़ में शायद ही कोई और हो।
बेसगरहल्लि रामाण्णा (1938-) बण्डाय साहित्य के प्रमुख लेखक हैं। इनकी 75 कहानियों का एक संकलन प्रकाशित हो चुका है। ये पेशे से डॉक्टर हैं। गाँव से पूरी तरह जुड़े हैं। ग्रामीण जीवन की गरीबी और शोषण इनकी कहानियाँ की मुख्य कथावस्तु है। ‘गाँधी’ इनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी है। गाँधी एक सोलह साल का बच्चा है, विधवा माँ का बेटा है। उसका पालन पोषण नाना के घर होता है। उसे अपने घर का कटहल का पेड़ बड़ा प्यारा लगता है। बीमार गाँधी अपने नाना से कहता है, ‘‘बाबा, मेरे मरने पर मुझे इसी कटहल के नीचे दफना देना।’’ विधि की विडम्बना भी कितनी कठोर। बच्चे को अस्पताल में दाख़िल कराकर इलाज के पैसे जुटाने के लाख प्रयत्न करने पर भी नाना उसका इलाज नहीं करा पाता। अन्त में विवश होकर बूढ़े को वही कटहल का पेड़ बेचना पड़ता है पैसे लेकर बूढ़ा जब अस्पताल पहुँचता है तो बेटी रोती हुई अस्पताल के दरवाजे पर मिलती है। बूढ़ा ‘बच्चा कैसा है ?’ नहीं पूछता, बल्कि उसके मुँह से निकलता है, ‘साँस कब छूटी ?’ पर बाद में बेटी को सांत्वना देते हुए कहता है, ‘अरे पगली, मानुस नहीं मरेगा, तो पत्थर मरेगा क्या ’’

देवनूर महादेव (1949-) दलित साहित्य के अत्यन्त, सशक्त व प्रतिनिधि कथाकार हैं। इन्होंने अपने विद्यार्थी काल से ही कहानियाँ लिखनी शुरू कीं और जो लिखा जमकर लिखा। इनकी सात कहानियों का एक संकलन ‘देवनूर’ के नाम से निकला है। दलित वर्ग के जीवन को देवनूर ने बड़े समीप से देखा है। इन्होंने प्रतीकात्मक रूप से समाज का विरोध ही नहीं किया बल्कि दलितों को दबाने वाले उच्च तथा श्रीमत वर्ग को अपने दोषों को मिटाने के लिए इशारा भी किया। इनका प्रभाव अपने समय के इतर साहित्यकारों पर बहुत गहरा पड़ा है।
बण्डाय या दलित साहित्य में जिस हिसाब से काव्य-साहित्य का विकास हुआ उसी हिसाब से कहानी का नहीं हो पाया। लेकिन मात्रा में अधिक न होने पर भी नवयुवा पीढ़ी पर इसका प्रभाव जबरदस्त पड़ा है। अभी इस साहित्य का मूल्यांकन होना बाकी है। क. वें. राजगोपाल (1924) पुरानी पीढ़ी के होने पर बण्डाय साहित्य में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। वीरभद्रप्पा, बाटगूर रामचन्द्रप्पा व काले गौडा नागवार (जन्मः 1949) इस युग के अन्य प्रमुख कहानीकार हैं।
इस बण्डाय साहित्य के अतिरिक्त कुछ लोगों ने फेन्टसी भी लिखी है। सुमतीन्द्र नाडिग, ईश्वर चन्द्र, राघवेन्द्र पाटिल गिरड्डी गोविन्दराज तथा एस. सदाशिव ने भी आधुनिक कहानी साहित्य में योगदान किया है।
कन्नड़ कथा साहित्य में लेखिकाओं की देन भी कुछ कम नहीं है। प्रथम विश्व कन्नड़ सम्मेलन के अवसर पर कन्नड़ संस्कृति निदेशालय ने लेखिकाओं का एक कहानी-संकलन निकाला। जिसके छोटे-छोटे छह भागों में 73 कहानियाँ हैं। ये लेखिकाएँ सभी विचारधाराओं व कलात्मक प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व किया करती हैं। यह स्वाभाविक है कि ये समाज और स्त्रीजीवन की समस्याओं को अपनी कहानियों का अधिक महत्वपूर्ण विषय मानती हैं।
इस संक्षिप्त विश्लेषण से इतना तो स्पष्ट ही है कि साहित्य की यह विधा कथावस्तु, तकनीक व भाषा की दृष्टि से आज बहुत ही समृद्ध हो चुकी है और यह भारतीय साहित्य का महत्वपूर्ण अंग है।

मास्ति मूलतः कहानीकार हैं। इनकी काव्य-कृतियों से भी यही स्पष्ट है। उनकी पहली कहानी ‘रंगप्पा की शादी’ 1910 ई. में प्रकाशित हुई। बाद में सन् 1920 ई. में उनका प्रथम संकलन ‘केवलु सण्ण कथेगलु’ (कुछ छोटी कहानियाँ) के नाम से प्रकाशित हुआ। वे जीवन के अन्तिम दिनों तक लिखते रहे। उन्होंने 100 से भी ऊपर कहानियाँ लिखीं। उन्होंने आरम्भ से ही कहानी को एक नया रूप प्रदान किया जिसमें किसी प्रकार की अनिश्चितता नहीं है। कहानी की तकनीक और जीवन दृष्टि दोनों ही में प्रबुद्धता नजर आती है। आलोचकों के अनुसार मास्ति के जीवन की छाप ‘कहानी कही गौतमी ने’, ‘हेमकूट से लौटने पर’, ‘एक पुरानी कहानी’, ‘परकाय प्रवेश’, ‘वेंकट की पत्नी’, ‘दही वाली मंगम्मा’, ‘वेंकटशामी का प्रणय’, आदि कहानियों में स्पष्ट दिखायी देती है। कुछ लोगों का कहना है कि मास्ति रूढ़िवादी रहे। परन्तु यह संकुचित अन्याय के शिकार होने वालों से मास्ति को सहानुभूति थी। जीवन सुखी और स्वस्थ होना चाहिए। यही उनका आदर्श था, और यह उनकी कहानियों में स्पष्ट झलकता है। ‘वेंकट की पत्नी’ एक बड़ी ही क्रान्तिकारी कहानी है। वेंकट की पत्नी को वेंकट का मालिक रखैल के रूप में रख लेता है। कुछ समय बाद जब वेंकट की पत्नी बच्चा गोद में लेकर वापस लौट आती है तब यह संदेह उठता है कि बच्चा किसका है। पूछने पर वेंकट के मुँह से निकलता है, ‘‘बच्चा किसी का हो तो क्या ? वह तो बाल-गोपाल होता है। उसे पालने वाले भाग्यशाली होते हैं।

रंगप्पा की शादी

यह शीर्षक पढ़कर आप में से कोई यह पूछ सकते हैं क्यों भई, ‘रंगनाथ का विवाह’ अथवा ‘रंगनाथ की विजय’ न कहकर, यह क्या नाम रख दिया ! जी हाँ, जगन्नाथ की विजय’, ‘गिरिजा कल्याण’ की भाँति ‘श्री रंगनाथ की विजय जैसा एक भारी भरकम सा नाम रखा जा सकता था। यह बात नहीं, कि यह मेरे ध्यान में नहीं आया हो, पर देखिए यह जगन्नाथ की विजय भी नहीं है और गिरिजा कल्याण भी नहीं है, यह तो हमारे गाँव के रंगा की शादी हैं; इसलिए ऐसा नाम रखा।
हमारा गाँव होसहल्ली है। उसका नाम आप लोगों ने सुना होगा न ? नहीं ? ओह बेचारे ! यह आप का दोष नहीं। भूगोल की पुस्तक में उसका नाम नहीं है। इंग्लैंड में रहनेवाले अँग्रेज़ी में भूगोल लिखने वाले साहब को होस-हल्ली का पता कैसे होगा ? इसलिए उसने छोड़ दिया होगा। लेकिन असल में बात यह है कि जब हमारे लोग भूगोल लिखेंगे वे भी होसहल्ली भूल जायेंगे। खैर, यह तो भेड़ चाल है। सब एक के पीछे एक आँख खोल कर ही गिरते हैं। इंग्लैंड के साहब और हमारे ग्रंथकार यदि उसे भूल जायें तो बेचारा नक्शा बनाने वाला क्या उसे याद रखेगा ? नक्शे में तो उसका नाम-निशान भी नहीं।
अरे ! मैंने क्या शुरू किया था और क्या कहने लग गया। क्षमा कीजिए। भारत में मैसूर दावत में गुझिया की भाँति है। मैसूर में होसहल्ली गुझिया में भरे मसाले की भाँति है। ये दोनों बातें निःसंदेह सत्य हैं। आप सैकड़ों बातें कह सकते हैं, मैं मना नहीं करता। पर यह बात तो सच है कि होसहल्ली का मैं ही अकेला प्रशंसक नहीं। हमारे गाँव में एक वैद्य हैं। उनका नाम गुंडा भट्ट है। उनका भी यही कहना है। उन्होंने ज़रा दुनिया देखी है। इसका मतलब यह नहीं कि वे विलायत हो आये हैं। आजकल के लड़के अगर यह पूछते हैं कि ‘‘आपने विलायत देखा है ?’’ तो वे कहते हैं, ‘‘नहीं भइया ! वह तो मैंने तुम्हारे लिए छोड़ दिया है। एक जगह न रहकर सारी दुनिया में पागल कुत्ते की तरह चक्कर काटना तुम्हें ही मुबारक। हाँ, मैं थोड़ा बहुत अपने देश में घूम आया हूँ।’’ उन्होंने भी बहुत से गाँव देखे हैं।
हमारे गाँव के सामने ही एक अमराई है। एक दिन कृपाकर हमारे गाँव पधारिए। एक अमिया दूँगा, खा कर देखिए। अरे बाबा, खाने की ज़रूरत नहीं, तनिक सी चखकर देखिए। उसकी ख़टास कपाल तक चढ़ जायेगी। एक बार मैं वह अमिया ले आया। घर में उसकी चटनी बनी। सबने खायी। अरे भई ! सभी को खाँसी का शिकार हो जाना चाहिए था क्या ? दवा के लिए वैद्य के पास जाना पड़ा। तब उन्होंने यह बात कही।

यह अमिया जितनी बढ़िया है उतनी ही हमारे गाँव की और उसके पास की हर चीज़ बढ़िया है। हमारे गाँव की बावड़ी के पानी के स्वाद के क्या कहने ! उस बावड़ी में कमल की बेल है। देखने में फूल बड़े सुन्दर हैं। खाने को पत्तल न मिल पाये तो दोपहर में स्नान करने के बाद दो पत्ते तोड़कर ले आने से काम चल जाता है। इससे पत्तल बनाने का झंझट ही नहीं। आप सोचेंगे कि मैं कहाँ-कहाँ की बातें ले बैठा। क्या करूँ ! गाँव की बात उठते ही ऐसा होता है। ख़ैर जाने दीजिए। अब उस प्रसंग को यहीं बंद करता हूँ। अगर आपमें से किसी को हमारे गाँव आने की इच्छा हो तो मुझे एक पत्र लिख दीजिए। होसल्ली कहाँ है, कैसे पहुँचना है, यह सब लिख दूँगा। बाद में आप आसानी से आ सकते हैं। जो भी हो सुनने से देखना ही श्रेष्ठ है न ?
मैं अब से कोई दस साल पुरानी बात कह रहा हूँ। तब हमारे गाँव में अँग्रेज़ी पढे लिखे लोगों की संख्या उंगली पर गिनी जा सकती थी। करणीक महोदय ने ही पहली बार हिम्मत करके अपने बेटे को बंगलौर में अँग्रेज़ी पढ़ने के लिए भेजा था। अब क्या है, अब तो ऐसे बहुत हैं। छुट्टियों के दिनों में तो गली-गली में अँग्रेज़ी में गिटपिट करने वाले लोग मिल जाते हैं। पहले तो कहीं भी कोई गिटपिट करनेवाला नहीं मिलता था। लोग कन्नड़ बोलते समय भी अँग्रेज़ी के शब्द नहीं मिलाते थे। वह हास्यास्पद हो जाता था। आजकल तो ऐसा ही है। चार दिन पहले, रामराय के घर वालों ने एक लकड़ी का गट्ठा लिया। उनका लड़का पैसे देने आया। उसने लकड़ी वाली से पूछा, ‘‘कितने पैसे हुए ?’’ उस पर वह बोली, ‘‘चार आने दीजिए।’’ तब रामराय का बेटा ‘‘चज नहीं है। कल ले जाना,’’ कहकर भीतर चला गया। उस बेचारी को उसकी बात ही समझ में नहीं आयी। वह भुनभुनाती चली गयी। उस समय मैं वही खडा था, बात मेरी समझ में भी नहीं आयी। बाद में रंगा के घर जाकर रंगा से पूछा। उसने ‘चेंज’ माने चिल्लर बताया।

इस प्रकार की अमूल्य अँग्रेज़ी भाषा उन दिनों हमारे गाँव में प्रचलित नहीं थी। इसलिए रंगा के बंगलौर से गाँव लौटने पर सारे गाँव वाले—‘‘करणीक का लड़का गाँव आया है।’’ अरे बंगलौर से पढ़ लिखकर आया है।’’ ‘‘अरे रंगा आया है। चलो। देखने चलो। कहकर सब उसके दरवाजे पर जमा हो गये। लोगों की भीड़ का क्या कहूँ ! मैं भी उनके आँगन में जाकर खड़ा हो गया। लोगों की भीड़ देखकर मैंने पूछा, ‘‘ये सब यहाँ क्यों आये हैं। क्या यहाँ कोई बन्दर का नाच हो रहा है ?’’ वहाँ एक लड़का था जिसे ज़रा भी अक्ल नहीं थी। ‘‘तुम क्यों आये हो ?’’ कहकर उसने उन लोगों के सामने मुझसे पूछ ही डाला। वह एकदम छोकरा था। मान-मर्यादा की गंध तक न जानता था। मैं यह सोचकर चुप हो गया कि वह पुराने जमाने के रीति रिवाजों से एकदम अनभिज्ञ है।
इतने लोगों को देखते ही रंगा बाहर आया। यदि हम सब कमरे में घुस जाते तो कलकत्ता की काल कोठरी में जो हुआ था वह यहाँ भी हो जाता। भगवान् की कृपा से ऐसा होने से बच गया। रंगा के बाहर आते ही सबको अचरच हुआ। छः मास पूर्व हमारे गाँव से जाते समय वह जैसा था उस दिन भी वैसा ही था। एक बुढ़िया उसके पास ही आ खड़ी हुई थी। उसने उसकी छाती पर हाथ फेरकर ध्यान से देखा। ‘‘जनेउ अब भी है। जाति भिरस्ट नहीं हुआ,’’ कहकर चली गयी। रंगा हँस पड़ा।
रंगा के पास पहले की तरह ही हाथ, पैर, आँख, नाक थे। यह देखकर वहाँ से लोगों की भीड़ ऐसे विलीन हो गयी जैसे बच्चे के मुँह में मिश्री घुल जाती है। मैं खड़ा ही रहा। सबके चले जाने के बाद मैंने पूछा, ‘‘कहो भाई रंगप्पा, कैसे हो ?’’ तब रंगा का ध्यान मेरी ओर गया। पास आकर नमस्कार करके बोला, ‘‘आपके आर्शीवाद से सब ठीक है।’’
रंगा में और एक बड़ा गुण है। वह जानता है कि किससे बात करने से क्या लाभ होता है। लोगों की कीमत वह अच्छी तरह जानता है। नमस्कार भी उसने आजकल के लड़कों की भाँति मुँह आसमान की ओर करके, अकड़कर यों ही हाथ जोड़कर नहीं किया। बल्कि ज़मीन पर झुककर, मेरे पाँव छूकर, नमस्कार किया। मैं ‘‘शीघ्रमेव विवाहमस्तु’’ कहकर आर्शीवाद देकर घर चला आया।
दोपहर को जब मैं भोजन करके लेटा था तब रंगा हाथ में दो संतरे लिये हमारे घर आया। वह बड़ा ही परोपकारी, बड़ा उदार है। मैंने सोचा कि अगर उसकी शादी हो जाये तो वह एक अच्छा गृहस्थ बनेगा, चार लोगों के काम आयेगा।
ज़रा देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद मैंने पूछा, ‘‘रंगप्पा तुम शादी कब करोगे ?’’
रंगा : ‘‘मैं अभी शादी नहीं करूँगा।’’
‘‘क्यों भैया ?’’

रंगा : ‘‘मेरे लायक़ लड़की भी तो मिलनी चाहिए न ! हमारे एक साहब हैं। उन्होंने अभी छः महीने पहले शादी की है। वे करीब तीस साल के हैं। उनकी पत्नी शायद पच्चीस की है। मान लीजिए मैं एक छोटी लड़की से शादी कर लूँ और उससे मैं कोई प्रेम की बात करूँ तो वह उसे गाली ही समझेगी। बंगलौर की एक नाटक मंडली ने ‘शकुन्तला’ नाटक खेला। शकुन्तला आजकल की तरह शादी करने वाली लड़कियों के समान छोटी आयु की होती तो दुष्यन्त के प्रेम की बात समझ न पाती। कालिदास के नाटक का क्या मज़ा आता ? शादी करनी हो तो ज़रा बड़ी लड़की से ही करनी चाहिए। नहीं तो चुपचाप रह जाना चाहिए। इसीलिए मैं अभी शादी करना नहीं चाहता।
‘‘और कोई कारण है क्या ?’’
रंगा : ‘‘हमें अपने आप लड़की को चुनने का मौक़ा होना चाहिए। हम वैसा कर सकते हैं। बड़ों की बात पर यदि हम ‘हाँ’ कर दें और वे अँगूठा चूसने वाली लड़की लाकर सामने खड़ी कर दें तो भला कैसे मान लें ?
‘‘एक तो करेला दूसरे नीम चढ़ा ऐसा होगा न ?’’
रंगा : (हँसते हुए) ‘‘एग्ज़ेक़्टली ! हाँ एकदम।’’
मैंने सोचा था कि जल्दी से इस लड़के की शादी कर दी जाए तो अच्छा गृहस्थ बनेगा। पर यह तो आजीवन ब्रह्मचारी बना रहना चाहता है। यह देख कर मैं बहुत व्याकुल हो उठा। कुछ देर बात करने के बाद मैंने रंगा को भेज दिया। बाद में प्रतिज्ञा की, इस लड़के की जल्दी से शादी करा डालनी है।
हमारे रामराय के घर उनकी भाँजी आयी हुई थी। लड़की ग्यारह वर्ष की थी और सुन्दर थी। बड़े शहर में रहने के कारण थोड़ा हारमोनियम और वीणा बजा लेती थी। गला बहुत ही मधुर था। माता-पिता के गुज़र जाने के कारण मामा उसे अपने घर ले आया था। उसके योग्य वर रंगा ही था। वह भी रंगा के लिए उपयुक्त कन्या थी।
मैं अक्सर रामराय के घर आया-जाया करता था। वह बच्ची मुझसे हिली-मिली हुई थी। अरे उस लड़की का नाम बताना ही भूल गया। उसका नाम रत्ना था। अगले दिन प्रातः रामराय के घर जाकर मैंने उनकी पत्नी से कहा, ‘‘छाछ ले जाने के लिए ज़रा रत्ना को हमारे घर भेज दीजिए।’’

रत्ना आयी। शुक्रवार का दिन होने से उसने अच्छी सी साड़ी पहन रखी थी। उसे कमरे में बैठाकर मैंने कहा, ‘‘बहिन, अच्छा सा एक गाना तो सुना दे।’’ तब रंगा को भी बुला भेजा था। रत्ना जब अपने सुमधुर कण्ठ से ‘‘कान्ह बसो मोरे नैनन में’’ गा रही थी तो रंगा पहुँचा। दरवाजे पर पहुँचते ही उसे डर लगा कि दहलीज पर पाँव रखते ही गीत बंद हो जाएगा। पर उसने धीरे से दरवाजे से झाँककर देखा। उसकी छाया पड़ने से रत्ना ने दरवाज़े की ओर देखा। अपरिचित को देखते ही उसने गाना रोक दिया।
बढ़िया आम खरीदकर खाते समय तनिक सा भी बेकार न जाय; पैसे लगे हैं; सोचकर जब जरा छिलका चखकर स्वाद देखकर, बाक़ी का खाने का प्रयास करने में पूरा आम हाथ से फिसल कर धरती पर जा गिरे तो आप की जो मनस्थिति होगी वही स्थिति रंगा की हुई। ‘‘आपने बुलाया था ?’’ कहकर वह भीतर आकर कुर्सी पर बैठ गया।
रत्ना सिर झुकाए दूर जा खड़ी हुई। रंगा ने बार-बार उसकी ओर देखा। एक बार जब वह उसकी ओर देख रहा था तब उससे उसकी नज़र टकरा गयी। उसे बड़ा अपमान सा अनुभव हुआ होगा। काफ़ी देर तक कोई भी कुछ न बोला। बाद में रंगा ने ही पहल की और बोला ‘‘मेरे आते ही गाना बन्द हो गया। इसलिए मैं चलता हूँ।’’ उसने यह बात खाली मुँह से ही कही पर भलामानस कुर्सी छोड़कर हिला तक नहीं। कलियुग में त्रिकर्ण शुद्धि भला है ही कहाँ ?
रत्ना जाकर घर के भीतर भाग गयी।
थोड़ी देर मूक से बैठे रंगा ने पूछा, ‘‘वह लड़की कौन है भाई साहब ?’’
गुफा में घुसे बकरे की आहट सुनकर शेर ने बाहर से पूछा, ‘‘भीतर कौन है ?’’ बकरे ने भीतर से जवाब दिया ‘‘कोई भी हो तो क्या ? मैं एक ग़रीब जानवर हूँ। सिर्फ नौ नर शेर खा चुका हूँ, एक और चाहता हूँ। तुम नर हो या मादा ?’’ उसे सुन शेर भाग लिया। उसी बकरे की तरह मैंने कहा, कोई भी हो तो क्या ? तुम्हारे और मेरे लिए बेकार है। मेरी शादी हो चुकी है और तुम्हें शादी करनी नहीं है।’’
इस पर रंगा ने बड़ी लालसा से पूछा, ‘‘क्या अभी उस लड़की की शादी नहीं हुई ?’’ म

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