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प्रवाद पर्व

श्रीनरेश मेहता

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5600
आईएसबीएन :000000

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प्रस्तुत है कविताओं का संकलन....

Pravad Parva

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रत्येक रचना अपनी समकालीनता के दबावों से ही स्वरूपित एवं उद्भूत होती है परन्तु अपने तात्विक प्रयोजन में वह उस समकालीनता का भेदन करके उसके सनातनत्व को स्पष्ट करती चलती है। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है परन्तु यह घूमना ही प्रकारान्तर से सूर्य की परिक्रमा का कारण भी बनता है। पहले का प्रयोजन है दिन-रात सम्बन्धी तात्कालिकता की पूर्ति तो दूसरे के द्वारा वह काल के बृहत्तर सन्दर्भों को भी अभिव्यक्त करती है।

निरन्तर युद्ध की समस्या और राज्य-व्यवस्था के क्रमश: अकूत शक्ति-सपन्न होते जाने के आसन्न संकटों पर ‘संशय की एक रात’ तथा ‘महाप्रस्थान’ नामक काव्यों के प्रणयन के उपरान्त श्री नरेश मेहता ने अपने इस नये काव्य में व्यक्ति और प्रशासक या लोक बनाम राजतंत्र की समस्या पर प्रश्न-चिह्न लगाया है।

इसका प्रणयन संयोग से उन्हीं दिनों हुआ जिन दिनों भारतीय इतिहास का सबसे संकट-पूर्ण-समय-‘आपातकाल’ था। मुद्रण के बाद भी यह प्रकाश में उस समय आ ही नहीं सकता था। यह ठीक है कि वह घड़ी बीत गयी है परन्तु प्रश्न अभी भी ज्वलन्त है। काव्य या कोई भी रचना इससे अधिक कुछ नहीं करती क्योंकि वह अभिव्यक्ति होती है, आन्दोलन नहीं।

काव्यात्मकता और काव्य-भाषा की भूमिका


काव्य, मनुष्य और भाषा दोनों की ही उदात्ततम एवं विकसिततम अवस्था है। नर का नारायणत्व तथा भाषा का मंत्रत्व, प्रकारान्तर से काव्यात्मक उदात्तता के ही नाम है। एक में धर्मभूमि से मनुष्य के विराट होने का संकेत है तो दूसरे में भाषाभूमि से मनुष्य के ऋषिरूप हो जाने की प्रतीति है। भूमियों का अन्तर है, तत्त्व का नहीं। भूमियों के अन्तर से भाषा, भाव, मुद्रा एवं प्रक्रिया की प्रकृति में थोड़ा अन्तर हो सकता है परन्तु प्रयोजन वही उदात्त रहता है। धरती की पदार्थ-प्रधान स्थूलता जब सूर्य रश्मियों एवं ऋतुओं का सान्निध्य प्राप्त कर ऊर्ध्वमयी होने लगती है तब मनुष्य के चैतन्य स्वरूप की क्या बात है।

ज्ञात या अज्ञात रूप में ऐसा काव्यात्मक वैराट्य, मनुष्य मात्र में होता है। धरती मात्र में जिस प्रकार जल अनिवार्यत: होता ही है उसी प्रकार मनुष्य मात्र में यह काव्यात्मक अथवा वैचारिक ऊर्ध्वता होती ही है। जिस प्रकार भिन्न भूमियों में जल की गहराई, मात्रा भिन्न होती है लगभग यही नैसर्गिकता मानवीय भावदशा के सन्दर्भ में भी सत्य है कि एक के द्वारा अपनी काव्यात्मकता से साक्षात् कर लिया गया होता जबकि दूसरे के द्वारा नहीं। इस स्थिति के कारण दोनों के चैतन्य स्वरूप में निश्चय ही तात्विक गुणात्मक भेद आ जाता है। एक लपलपाती निर्धूम अग्नि है, वैश्वानर है तो दूसरा क्षाराच्छादित वह्नि। एक में अग्नि से और अधिक अग्नि होने की प्रक्रिया है दूसरे में अग्नि से अ-अग्नि होते जाने की प्रक्रिया है। अत: यह सर्वथा सम्भव है कि एक ही अक्षांश और देशान्तर पर होते हुए भी चैतन्य के स्तर पर दो व्यक्ति सर्वथा विपरीत हों।

सामान्यतः लोग अपनी काव्यात्मकता का साक्षात्कार नहीं कर पाते हैं। कविता करना और कवि होना, काव्यात्मकता के भिन्न स्तर हैं। सब कविता काव्यात्मकता नहीं हुआ करती। मात्र कविता करना बाह्य प्रक्रिया है परन्तु काव्यात्मकता का साक्षात्, कविता करने से भी अधिक महत्वपूर्ण है। बहुत संभव है कि मात्र कविता हमें एक विशिष्ट भाव-दशा तक ही ले जाए जबकि काव्यात्मकता भाव-दशा या विशिष्ट भाव-स्थिति नहीं हुआ करती। वह तो भाव-मुक्त या भावातीत या ‘अभाव’ की स्थिति है। कविता के लिए भावों के तनाव की आवश्यकता हो सकती है परन्तु काव्यात्मकता तो अपने ‘स्व’ के गुरुत्वाकर्षण की उल्लंघनता है। काव्य से मुक्त हो जाने का नाम ही काव्यात्मकता है। जब तक कविता काव्य का बोध करवाती है वह काव्यात्मकता की निर्द्वंन्द्वता का नहीं बल्कि भाव या लौकिक तनाव का परिमण्डल है। काव्य से मुक्त काव्यानन्द ही काव्यात्मकता है। साधारणत: तो हम भाव-दशा या विशिष्ट  भाव-दशा तक ही रुक जाते हैं, इसका कारण यह है कि काव्यात्मकता ऊर्ध्वता या काव्यात्मकता की मूल्यवत्ता से हमारा परिचय नहीं होता। वैसे भी ऊँचाई पर असुविधा होती ही है क्योंकि ऊंचाई हमें निरन्तर निपट अकेला बनाती है।

 शिखर होने का तात्पर्य ही है नितान्त अकेला होना। अत: काव्यातमकता ऊर्ध्वता पर पहुँच कर यदि वैचारिक या भावनात्मक अकेलेपन के कारण असुविधा होने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं। भौतिक ऊँचाई पर भी जब वायुमण्डलीय दबाव अधिक होता जाता है तब यदि काव्यात्मक ऊर्ध्वता पर भी समकालीन वैचारिक वायुण्डलीय दबाव उत्पन्न हो तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए। प्रायः लोग इस समकालीन दबाव के कारण ही समकालीन या दैनंदिन वाले मनोजगत, भाषा, मुद्रा, मुहावरे और अर्थ के लोक में लौट आते हैं। इसीलिए प्राय: हमें कविता में काव्यात्मक ऊर्ध्वता के स्थान पर भाव-दशा या विशिष्ट भाव-दशा ही मिलती है। समकालीनता से अकेले होते जाने के संकट का नाम ही काव्यात्मक ऊर्ध्वता है। हम यह संकट क्यों नहीं लेना चाहते ? इसलिए कि ऊर्ध्वता या वैराट्य के परम काव्यात्मक आस्वाद से पूर्ण एवं पूर्व परिचय न होने के कारण हमें काव्यात्मकता को यह पराभूमि या तो यथार्थिक लगती है या फिर काल्पनिक। इसीलिए सभी युगों में अधिकांश काव्य, काव्यात्मकता तो दूर, कविता की तलाश भर होते हैं।

प्राय: तो भाषा के स्तर पर ही अधिकांश कवि, काव्य-श्रोता एवं पाठक काव्यात्मकता की तलाश में रहते हैं। कितने जानते हैं कि काव्य, भाषा को शब्द और अर्थ से मुक्ति दिलाने की प्रक्रिया है। भाषा के बन्धन का नहीं, मुक्ति का नाम काव्य है। शब्द में निहित अर्थ और संस्कार को जब तक काव्य, जाग्रत नहीं करता तब तक वह भाषा या शब्द की ऊपरी सतह शब्दता पर ही टकराता रहेगा। कठिन भाषा या सरल भाषा शब्द की शब्दता के ही नाम है। काव्य में शब्द और अर्थ का प्रयोग उसके भोक्ता कवि और श्रोता दोनों को ही शब्द और अर्थ से मुक्त होने के लिए होता है। काव्य, भाषा और अर्थ इन तीनों से असंग मंत्रात्मकता ही शुद्ध काव्यात्मकता है। जिस प्रकार अग्नि, काष्ठ और हविष्य जन्मा होने पर भी वह न लकड़ी है और न हविष्य। उसी प्रकार काव्य शब्द और अर्थ जन्मा होने पर ही वह न शब्द है और न अर्थ। एक प्रक्रिया के कारण ही कारण, कार्य में परिणत होकर स्वतंत्र संज्ञा, शक्ति हो जाता है। वह कारणों का प्रयोग कर स्वयं कार्य-सत्ता बन जाता है। कार्यसत्ता बन जाने पर वह असंज्ञ हो जाता है। अग्नि बन जाने पर जिस प्रकार वह स्वतंत्र सत्ता हो जाती है उसी प्रकार काव्यात्मकता स्वतंत्र-सत्ता है,। धर्म की भाषा में नर का नारायणत्व दर्शन की भाषा में ‘अहं’ का सोऽहं’ होना काव्य की भाषा में शब्द की शब्दातीतता वाली अनन्त अर्थसत्ता वाली काव्यात्मकता के भिन्न नाम, गुण, तर्क और स्वरूप हैं। काव्य, धर्म और दर्शन की भाषा है तो धर्म और दर्शन काव्य के मात्र कारण हैं। असम्बोधित काव्य ही धर्म और दर्शन है जबकि सम्बोधित धर्म दर्शन ही काव्य। जिस प्रकार असम्बोधित अग्नि सामान्यरूपा होती है परन्तु सम्बोधित अग्नि यज्ञ-देवता हो जाती है उसी प्रकार काव्यात्मकता की स्थिति है।

व्यक्ति-मनस् को सृष्टि-मनस् बनाने की प्रक्रिया का नाम धर्म है, तथा ‘सोऽहं को ‘अहं’ में विलय कर लेना ही दर्शन है। धर्म में अपने से बाहर जाना होता है जबकि दर्शन में बाहर से स्व में लौटना होता है, काव्य इन दो भिन्न ध्रुवीय उदात्त यात्राओं की रम्य व्याख्या है। चूंकि, धर्म, प्रकृति है और दर्शन, स्व का चैतन्य है अतः ये दोनों अनव्याख्यायित रह सकते हैं। ये बिना काव्य के भी रह सकते हैं परन्तु काव्य नहीं। शब्द और अर्थ आदि के गुरुत्वाकर्षण का भेदन इनके बिना काव्य नहीं कर सकता है।

 उच्चाश्रयी होने के लिए ये अनिवार्य तत्त्व हैं अन्यथा काव्य, शब्द की जड़ता से ऊपर नहीं उठ पाएगा। काव्य का एकमात्र कार्य है व्यक्ति-मनस् और समष्टि-मनस् में समरसता स्थापित करना। यह समरसता जिस काव्य में जितनी ही उदात्त होगी उसमें उतनी ही अधिक काव्यात्मकता होगी। क्या इसमें मानवीय यथार्थ कहीं बाधक हैं ? है, यदि यथार्थ ही काव्य का यात्रा-इष्ट हो जाए। यथार्थ को उसके गुरुत्वाकर्षण से बाहर ले जाना ही काव्य का इष्ट होना चाहिए, यथार्थ जड़ता होती है और काव्य जब शब्द की जड़ता ही नहीं वहन कर सकता तब अतिरिक्त जड़ता कैसे वहन करेगा ? यथार्थ का भी परिशोध आवश्यक है। जिस दिन वृक्ष, ऊर्ध्व के आह्वान से विमुख हो जाता है, उस दिन उसका जीवन और सत्ता दोनों ही समाप्त हो जाते हैं। ऊर्ध्व का आह्वान ही वृक्ष को वृक्षत्व प्रदान करने वाला चैतन्य तत्त्व होता है। धरती की यथार्थिक जड़ता को भेदन करनवाला ही वृक्ष कहलाता है। काव्य भी अपनी सत्ता, पहचान, प्राणवत्ता और प्रयोजन सभी कुछ खो देता है जब वह केवल यथार्थमुखी ही रहता है। शुद्ध यथार्थ, मानवीय जड़ता ही तो है। जड़ता जब स्वयं उन्मुख नहीं हो पाती तब वह किसी अन्य को कैसे मुक्त या चैतन्य कर सकती है ? यथार्थ की इस जड़ता का शोध, धर्म और दर्शन की भूमि पर ही सम्भव है। यथार्थ को धर्म और दर्शन दो डैने प्रदान करके ही काव्य अपनी काव्यात्मक यात्रा आरम्भ कर सकता है।

मानवीय वाद्य का नाम भाषा है। भाषा, शब्द-वीणा है। मनुष्य ने अपने ‘स्व’ के अनभिव्यक्त अर्थ को भाषा के निर्माण के द्वारा अभिव्यक्त किया। जिसका जैसा ‘स्व’ था वैसी ही भाषा निर्मित हुई। भाषा में ही अस्मिता की गंध स्पष्ट होती है। भाषा, अर्थ को वहन करती है, न कि अर्थ, भाषा को। भाषा सार्वजनिक होती है परन्तु अर्थ वैयक्तिक। भाषा का चूँकि सार्वजनिक प्रयोग होता है अत: मुख्य रूप से भाषा सामान्यरूपा होती है परन्तु अर्थ के निजत्व पर सामजिकता का कोई ऐसा प्रतिबन्ध नहीं होता। एक ही प्रकार की भाषा का प्रयोग करने पर भी सबके अपने-अपने निजी अर्थ हो सकते हैं। काव्य-भाषा मुख्य रूप से निजत्ववाली भाषा हुआ करती है। जितना बड़ा काव्यात्मकता का दवाब होता है, सामाजिकरूपा भाषा में उतना ही निजत्व उभरता है।

सामाजिकता का सबसे कम दबाव वाला स्वरूप काव्य भाषा में ही होता है। भाषा में अर्थ का ऐसा निजत्व-उच्चारण, बलाघात शब्द-शक्ति आदि बातों से आया करता है। काव्य, चूँकि प्रस्तुत के तृतीय आयाम से लेकर अनन्त आयाम को दिखाने की चेष्टा होती है इसलिए काव्य भाषा को उसके दो आयामी वाले सामाजिक स्वरूप से भरसक अलग करता है। एक ही वाद्य और एक ही राग बजाये जाने पर भी विभिन्न वादकों को केवल सुनकर पहचाना जा सकता है। इसका कारण है उन वादकों का स्वरों के प्रति जो निजत्व है वही प्रमुख है। इसी प्रकार भाषा में भी यह निजत्व तथा अर्थ-भेद उसके प्रयोक्ता पर निर्भर करता है। साथ ही यह भी जान लेना जरूरी है कि किसी भी स्थिति में भाषा, शब्दातीत नहीं हो सकती। चूँकि अर्थ की कोई भाषा नहीं होती अत: अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए सम्पूर्ण सृष्टि भी भाषा हो सकती है। न बोलने या मौन की भाषा से हम परिचित ही हैं। मात्र देखना, अर्थ की दृष्टि से कितनी समर्थ भाषा है, इसका हम सबको अनुभव है। अत: भाषा या शब्द का कार्य है अर्थ का विस्तार और अर्थ का कार्य है व्यक्ति को मुक्त करना किन्तु यह तभी सम्भव है जब अर्थ का विस्तार करने के बाद भाषा अपनी सत्ता विलुप्त कर ले और व्यक्ति को मुक्त करके अर्थ भी समाप्त हो जाए। परन्तु शब्द चूंकि जड़ होते हैं इसलिए उनमें स्वयं अर्थ नहीं होते। वे तो प्रयोक्ता के अर्थ को ही वहन किया करते हैं। यदि भाषा और शब्दों में स्वयं अर्थ होते तो इतनी भिन्न भाषाओं की आवश्यकता भी नहीं होती। भाषा, चूंकि जड़ होती है इसीलिए वह देश और काल से प्रतिबद्ध होती है, जबकि अर्थ नहीं, क्योंकि अर्थ की कोई भाषा नहीं। इसीलिए अर्थ, शब्दातीत ही नहीं, देश-कालातीत भी होता है।

इस भाषा-वाद्य के साथ एक कठिनाई यह भी है कि इसका आविष्कार हुआ है जबकि अर्थ, इस आविष्कार के पूर्व भी विद्यमान था। प्रत्येक शब्द को आरम्भ में ही हमेशा के लिए कुछ अर्थ दे दिये गये हैं। भाषा या शब्द, संख्या की दृष्टि से भी अनन्त नहीं हो सकते। जबकि अर्थ, मनुष्य की ही भांति संख्यातीत भी हो सकता है और अनन्त आयामी तो वह है ही। इसीलिए एक स्थिति के बाद हमारी भाषा हमारे अर्थ को पूर्णरूप से वहन नहीं करती है। भाषा का प्रयोग हम अपने अर्थ के सम्प्रेषण के लिए ही तो करते हैं। परन्तु जब हमारा अर्थ, भाषा के स्वरूप और शब्दता का अतिक्रमण कर रहा होता है तब हमें भाषागत प्रयोगों की आवश्यकता होने लगती है। प्रयोग का तात्पर्य ही यह होता है कि भाषा और अर्थ में दूरी कम से कम रहे। लेकिन यदि ऐसा करते समय केवल हम ही दोनों छोरों पर होते तो कोई कठिनाई नहीं थी परन्तु दूसरे छोर पर जब हमसे भिन्न व्यक्ति सम्बोधित होते हैं, तब इसका क्या प्रमाण कि सम्प्रेषित भाषा का उन व्यक्तियों में भी वही भाषा-संस्कार और अर्थ विस्तार हो रहा है जिसकी हमें अपेक्षा है ? भाषा समस्त प्रयोग-क्रिया में से गुजरने के बाद भी एक निश्चित दायरे में रहने के लिए बाध्य है। उसकी सामान्य सामाजिकता को जिस प्रकार सम्पूर्ण रूप से दूर नहीं किया जा सकता उसी प्रकार शब्द को उसकी शब्दता से भी मुक्त नहीं किया जा सकता इसलिए काव्य का अर्थ वैसी ही भाषा में तदवत सम्प्रेषित नहीं किया जा सकता। यह ठीक है कि भाषा को शब्द-प्रधान नहीं अर्थ-प्रधान होना चाहिए परन्तु यह कैसे सम्भव है कि भाषा में शब्द-प्रधानता भी न हो और अर्थ प्रधानत्व भी आ जाए।

शब्द और अर्थ दोनों ही ध्वनि उत्पन्न करते हैं। शब्द की ध्वनि इन्द्रियगम्य है परन्तु अर्थ की अनुभवगम्य। शब्द की ध्वनि को सामान्य स्तर पर गहा जा सकता है, परन्तु अर्थ की ध्वनि के लिए व्यक्ति-मनस् का उन्नत एवं संस्कारवान होना आवश्यक है। यह वैज्ञानिक प्रक्रिया है कि एक साथ दो ध्वनियाँ एक ही स्तर पर ग्रहण नहीं की जा सकतीं। शब्द की ध्वनि की परिसमाप्ति के बाद ही अर्थ की ध्वनि ग्रहण की जा सकती है। तब शब्द की शब्दता और ध्वनि को किस प्रकार अर्थमय किया जाना चाहिए।

शब्द को ब्रह्म कहा गया है। शब्द का यह ब्रह्म क्या है ? शब्द का यह ब्रह्मरूप वर्णों का संयोजन है जो ध्वनि का परिमण्डल इसलिए विस्तृत करता है ताकि वह अपने वृत्त से बाहर जाए। अपने वृत्त का निर्माण तथा उसका भेदन करने के कारण ही शब्द को ब्रह्म कहा गया है। इसीलिए सवर्णी-ध्वनियों से निर्मित शब्द को किसी भिन्नवर्णी या ध्वनि-संयोजन वाले शब्द से बदला नहीं जा सकता है। किसी भी सत्ता को किसी दूसरी सत्ता से नहीं बदला जा सकता है। भाषा में कलम नहीं लगायी जाती। भाषा, वर्णसंकरत्व नहीं वहन कर सकती है। भाषा के प्रति यह दृष्टिकोण रचनात्मकता का है। शब्द को यदि अपने तात्विक रूप में ही रहने दिया जाए और तब उसका रचना में प्रयोग हो तो निश्चय ही वह अपनी शब्दता का वल्कल उतारकर अर्थमय हो जाएगा। सही भाषा का तात्पर्य ही यह है। शब्द से अर्थ की ओर जाने की यह शब्द यात्रा किसी पर्याय के द्वारा सम्भव नहीं। पर्यायवाची शब्द के द्वारा काव्य सम्भव नहीं शब्द का पर्याय स्वयं वही शब्द हुआ करता है। शब्द के अतिरिक्त पर्याय की तलाश का तात्पर्य है काम चलाना। काव्य में कामचलाऊ भाषा या शब्द नहीं, सही भाषा और शब्द की आवश्यकता होती है।

भाषा, भाषा होती है। भाषा न कठिन होती है, न सरल। जिस प्रकार कमल को कठिन फूल कहना और गेंदें को सरल कहना, जो कहा जाएगा वही इस  सम्बन्ध में भी कहा जाना चाहिए। प्रश्न यह है कि हम किस रूप में–और किस स्थान पर तथा किस प्रयोजन के लिए भाषा को साक्षात करते हैं यह महत्वपूर्ण है और भाषा का स्वरूप भी इसी से निर्धारित होगा। भाषा में अर्थ, गरिमा संस्कार आदि प्रयोक्ता के होते हैं। हमें भाषा या शब्दों तक जाना होता है। जिस सामान्य रूप में भाषा या शब्द हम तक आते हैं उनसे काव्यात्मकता की निष्पति या सन्तुष्टि सम्भव नहीं।

अन्त में प्रस्तुत काव्य के बारे में यही कहना है कि यह जून 1975 में लिखी गयी और उसके तत्काल बाद आपात-स्थिति की घोषणा के कारण मुद्रित हो जाने के बाद भी प्रकाशित न हो सकी। एक समय तो यह भी लगा कि यदि ‘राज्यकृपा’ को इसके मुद्रण की गन्ध भी मिल गयी तो सम्भव है कि यह कभी प्रकाशित रूप में सामने ही न आए। इतिहास ने करवट ली और इसके प्रकाशित होने पर प्रकाशक एवं लेखक दोनों ही मुक्ति का अनुभव करें तो क्या आश्चर्य है ! हाँ, ऐसा करने के पीछे इस रचना के वास्तविक प्रयोजन को थोड़े ही रूप में सही, उस भीषण-स्थिति का आभास दे सकने का मुझे सन्तोष है।
इति नमस्कारान्ते

नरेश मेहता

इतिहास और प्रतिइतिहास


अयोध्या के राजभवन का एक कक्ष। शारदीया रात्रि का प्रथम प्रहर है। बड़े-बड़े दीप-पात्र आलोकित हैं। राम उद्वग्नि भाव से कुछ देर टहलते हैं, उपरान्त गवाक्ष की रेलिंग थाम बाहर देखने लगते हैं। अकलंक चाँदनी की अमृत-वर्षा में प्रकृति रम्या लग रही है। कक्ष की एकान्तता में राम का प्रश्नाकुल व्यक्तित्व प्रत्यंचवत उभर आया है।


राम : क्या यही है मनुष्य का प्रारब्ध ? कि
कर्म
निर्मम कर्म
केवल असंग कर्म करता ही चला जाए ?
भले ही वह कर्म
धारदार अस्त्र की भांति
न केवल देह
बल्कि
उसके व्यकित्व को
रागात्मिकताओं को भी काट कर रख दे।
क्या यही है मनुष्य का प्रारब्ध ??

क्या इसीलिए मनुष्य
देश और काल की विपरीत चुम्बताओं में
जीवन भर
एक प्रत्यंचा सा तना हुआ
कर्म के बाणों को वहन करने के लिए
पात्र या अपात्र
दिशा या अदिशा में सन्धान करने के लिए
केवल साधन है ?
मनुष्य
क्या केवल साधन है ?
क्या केवल माध्मय है ??

लेकिन किसका ?
कौन है वह
अपौरुषेय
जो समस्त पुरुषार्थता के अश्वों को
अपने रथ में सन्नद्ध किये हैं ?
कौन है ?
वह कौन है ??

मनुष्य की इस आदिम जिज्ञासा का उत्तर-
किसी भी दिशा पर
कभी भी दस्तक देकर देखो,
किसी भी प्रहर के
क्षितिज अवरोध को हटाकर देखो
कोई उत्तर नहीं मिलता राम !
दस्तकों की कोई प्रतिध्वनि तक नहीं आती
शून्य से किसी का देखना नहीं लौटता।

दिशा
चाहे वह यम की हो
या इन्द्र की-
जिसे प्राप्त करने के लिए
अनन्तकाल से सप्तर्षि
यात्रा-तपस्या में लीन है,
परन्तु
दिशाएँ-
उत्तर की प्रतीक्षा में
स्वयं प्रश्न बनींषय्गन।


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