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प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :704
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5610
आईएसबीएन :9788180313448

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‘छायावादी काव्य आंदोलन’ के जनक, प्रवत्ता और उन्नायक जयशंकर प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य।

Prasad ka sampurnya kavaya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कवि जयशंकर प्रसाद

श्री जयशंकर प्रसाद आधुनिक हिन्दी कविता में ‘छायावादी काव्य आंदोलन’ के जनक, प्रवत्ता और उन्नायक हैं। उन्होंने खड़ी बोली को काव्य-भाषा के रूप में अनिर्णय के प्रथम दौर से मुक्त करके उसे अद्भुत रूप से समृद्ध और अभिव्यक्ति सम्पन्न बनाया। उसकी काव्य-भाषा में गहरी अनुभूति सम्पन्नता और रोमांसलता का एक सांस्कारिक तेवर विद्यमान है। गोस्वामी तुलसीदास की तरह प्रसाद भाषिक संक्षिप्तता और विम्बात्मक क्षमता का मर्म पहचानने वाले कवि हैं।

‘गीति तत्त्व’ प्रसाद की कविता का दूसरा प्रमुख गुण है। अनुभूतियों की भीतर झुनझुनाहट उनके गीतों से लेकर उनके महाकाव्य ‘क़ामायनी’ तक में समान रूप से विद्यमान है। प्रसाद अपनी कविता के माध्यम से मनुष्य जाति की उन्ही अनुभूतियों को चित्रित करते हैं जिनमें एक भीतरी करुणा का आवेश हो और जो शब्द का स्पर्श पाते ही संगीत की प्राणवत्ता से झंकृत हो उठें। ‘झरना’, ‘आसू’ और ‘लहर’ के गीत इसका प्रमाण तो हैं ही, ‘कामायनी’ की संपूर्ण अर्थवत्ता इसी गीत्यात्मक अनुगूँज से भरी हुई है।

प्रसाद का काव्य अपने सारे ऐतिहासिक, दार्शनिक और ‘मिथकीय’ आवरण के बावजूद अपने वर्तमान में ही प्रामाणिक है। इतिहास, दर्शन और पुराण-कथाओं का उपयोग प्रसाद जी ने अपनी सांस्कृतिक धरोहर को पुनरुज्जीवित करने के लिए तो किया ही है, उसके माध्यम से अपने समय के भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के मुख्य तेवर को पहचानने का काम भी गहरा सरोकार विद्यमान है।

प्राक्कथन


जयशंकर प्रसाद को प्रारम्भ में कविता लिखने के लिए जो ढाँचा मिला वह चली आती हुई ब्रजभाषा काव्य-परंपरा का रीति परक ढाँचा था, जिसमें विषय और विषय की अभिव्यक्ति का ढंग प्राय: निश्चित था। रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि ‘‘कुछ नूतन परंपराओं के समावेश के अतिरिक्त काव्य की परंपरागत पद्धति में किसी प्रकार का परिवर्तन भारतेन्दु काल में न हुआ। भाषा ब्रजभाषा की रहने ही गई और उसकी अभिव्यंजना शक्ति का कुछ प्रसार न हुआ। काव्य की बँधी हुई प्रणालियों से बाहर निकलकर जगत और जीवन के विविध पक्षों की मार्मिकता झलकाने वाली धाराओं में प्रवाहित करने की प्रवृत्ति न दिखाई पड़ी। द्वितीय उत्थान में कुछ दिन ब्रजभाषा के साथ साथ चलकर खड़ी बोली क्रमश: अग्रसर होने लगी, यहाँ तक कि नई पीढ़ी के कवियों को उसी का समय दिखाई पड़ा। स्वदेश गौरव और स्वदेश प्रेम की जो भावना प्रथम उत्थान में जगाई गई थी उसका अधिक प्रसार द्वितीय उत्थान में हुआ और ‘भारत भारती’ पुस्तक निकली। इस भावना का प्रसार तो हुआ पर उसकी अभिव्यंजना से प्रातिभ प्रगल्भता न दिखाई पड़ी। शैली में प्रगल्भता और विचित्रता चाहे न आई हो पर काव्य भूमि का प्रसार अवश्य हुआ।’’

(हिन्दी सा. का इतिहास 21 वाँ सं., पृ. 436) प्रसाद के लेखन का प्रारम्भ इसी पृष्ठभूमि में होता है। उस समय हिन्दी में खड़ी बोली पद्य प्रवाह के तीन रास्ते खोले गये थे – उर्दू या फारसी की बाहरों का, संस्कृत वृत्तों का और हिन्दी के छन्दों का। प्रसाद के प्रारम्भिक काव्य पर इन सबका प्रभाव दिखाई पड़ता है।

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में हिन्दी में कवि ब्रज और खड़ी बोली दोनों में लिखते थे। कविता के बदलाव की न केवल आवश्यकता महसूस हो रही थी बल्कि पुराने विषयों और रीतियों को छोड़कर नये विषयों पर कविता लिखने की व्यापक बहस हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में छिड़ी हुई थी। भाषा और कविता की यह बहस 20 वी शताब्दी के प्रारम्भ में एक प्रकार के पुराने और नये के संघर्ष का परिणाम था। देश वत्सलता के बजाय स्वदेशभिमानी और पराधीनता से मुक्ति का भाव धीरे-धीरे लोगों की मानसिकता को मथ रहा था। वर्तमान के संदर्भ में अतीत का उत्तेजक और उन्मादक उपयोग बंगला के प्रभाव और स्वानुभाव से हिन्दी में भी हो रहा था। 1909 ई. में ‘इन्दु’ की प्रस्तावना में जयशंकर प्रसाद जातीय उन्नति के लिए साहित्यिक की उन्नति और साहित्यिक की उन्नति के लिए भाषा सेवकों की उन्नति की प्रार्थना कर रहे थे। उनके लिए उस समय ‘‘जो कुछ मनुष्य को प्रार्थनीय, उन्नति में सहाय, धर्म साधक, तथा उपकारी, सो केवल साहित्य है।

साहित्य का कोई लक्ष्य-विशेष नहीं होता है और उसके लिए कोई विधि का निबंधन नहीं है, क्योंकि साहित्य स्वतंत्र प्रकृति सर्वतो-गामिनी प्रतिभा के प्रकाश का परिणाम है वह किसी प्रकार की परतंत्रता है वह किसी की परतंत्रता को सहन नहीं कर सकता, संसार में जो कुछ सत्य और सौन्दर्य की चर्चा करके सत्य को प्रतिष्ठित और सौन्दर्य को पूर्ण रूप से विकसित करता है।’’ (प्रसाद ग्रंथावली भाग 4, पृ. 431) प्रसाद जी जिस प्रकार की भावमयी उन्मादकारिणी, आपे से बाहर कर देनेवाली, जातीय संगीतमयी, वृत्तस्फुरणकारिणी, आलस्य को भंग करने वाली, आनन्द बरसाने वाली, धीर-गंभीर पद विक्षेपकारिणी, शान्तिमयी कविता की आवश्यकता (दे. कवि और कविता प्रसाद ग्रंथावली, पृ. 446) तीव्रता ने महसूस कर रहे थे वह उनके समय की तीव्रतर माँग थी। श्रीधर पाठक, मिश्रबन्धु, महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचन्द्र शुक्ल नायिकाओं को केन्द्र में रखकर लिखी गई श्रृङारपरक या अलंकारों से लदी हुई कविताओं की परम्परागत पद्धति को छोड़ देने का आग्रह कर रहे थे।

सबको लग रहा था कि पाश्चात्य शिक्षा, स्वाधीनता की बढ़ती हुई आकांक्षा, सुधार की पुकार, अनुभवों को व्यक्त करने की इच्छा, दुनिया भर से सामंतवाद और साम्राज्यवाद के विरोध और परिवर्तन की पुकार से समाज की सोच-समझ और संवेदना बदल रही है। भट्ट-भड़न्त, भक्ति और श्रृङार आदि इस नये भाव के सामने अरुचिकर लग रहे थे। लोग बंगला और अँगरेजी कविताओं के समान कविताएं चाहते थे। वे कविताओं में स्वदेश तो देखना चाहते हैं। नये विषय के अनुकूल नयी भाषा और नया अभिव्यक्ति विधान चाहते थे। उर्दू, अंग्रेजी और बंगला की टकराहट से हिन्दी में भो अनेक स्तरीय जातीयता के साथ ही साथ पश्चिम की टकराहट के कारण भावना और बौद्धिकता के समन्वय की आवश्यकता के हृदय और बुद्धि के साथ-साथ रहने या रखने के नाम पर महसूस की जी रही थी। पुराने मिथकों और कथानकों पर मोहाविष्टता के बावजूद वर्तमान की छाया पड़ने लगी थी।

कण कण में भगवान की जगह अब मनुष्य को सर्वत्र अपनी ही छाया दिखायी पड़ने लगी थी। राधा लोक सेविका ही नहीं हुई थी, कुटी में भगवान आये ही नही थे बल्कि प्रकृति का कण कण प्राणवान और फिर मानवीय हो गया था। पहले सब कुछ ईश्वरीकृत था फिर ईश्वरमय हुआ और छायावाद में मानवीकृत हो गया। परिवर्तन के इस युग में जब हम देश के रूप में ही नहीं बल्कि एक राष्ट के रूप में भी जग रहे थे तभी प्रसाद ने, जो एक सामंती संस्कृति के श्रेष्ठि परिवार से आये थे, जिनके पूर्वजों को लोग सम्मान से जय महादेव कहकर सम्मान देते थे, जिनके यहाँ वर्ष में एक बार घर के सामने के शिवालय में नर्तकियों का नृत्य होता था, जिनके वंश की कलाविलासिता और मर्मज्ञता को देखकर कामसूत्र के नागरक प्रकरण की याद आती थी – लिखना प्रारम्भ किया। कवि और कविता निबंध में उन्होंने ऐसे ही नहीं शेक्सपियर, कालिदास और आलम को स्मरण किया है।

‘सरस्वती’ के द्वारा प्रवर्तित अभिरूचि और काव्य शैली से भिन्न कविता की आवश्यकता महसूस करते हुए वे लिखते हैं कि ‘‘सरस्वती हिन्दी में एक बहुमूल्य पत्रिका है, और उसका आदर भी है। पर क्या उसके सब अंश सबके मनोनीत होते हैं। कोई उसके गद्य लेखों पर प्रसन्न है, तो कोई चित्रों पर, कोई उसके रूप पर प्रसन्न है तो कोई उसकी छपाई पर। अधिकांश महाशय ऐसे हैं जो चित्र और गल्प तक ही रह जाते हैं, उसकी कविता का मर्म समझने की बात को दूर उस पर ध्यान भी नहीं देते। यह क्यों, छन्द विषयक अरूचि है ?’’ ‘‘इसका कारण यह है कि सामयिक पाश्चात्य शिक्षा का अनुकरण करके जो समाज के भाव बदल रहे हैं उनके अनुकूल कविताएँ नहीं मिलती और पुरानी कविता को पढ़ना तो महादोष सा प्रतीत होता है क्योंकि उस ढंग की कविता बहुतायत से हो रही है।’’ संवेदना के परिवर्तन और उसके कारण का संकेत करे हुए प्रसाद नये प्रकार की कविता की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं। ऐसी कविता जो खड़ी बोली काव्य में तो हो ही ‘सरस्वती कलम’ से भिन्न भी हो। इस भिन्नता के लिये उनकी कविता को जितनी व्यापक मात्रा करनी पड़ी है उसके पदचिह्न उनकी कविताओं में हैं।

‘अभ्युदयशील जनतावाद’ के उस युग के वातावरण को आचार्य नन्दुदुलारे वाजपेयी ने सामूहिक पवित्रतावादी सोत्साह पूर्ण वातावरण मानते हुए लिखा है कि ‘‘ब्रजभाषा में उस श्रृङ्रार के अतिरिक्त सब कुछ अस्पृश्य समझ लिया था और उसे कोरे शारीरिक वर्णनों तक ही सीमित रखा। उधर इन लोगों ने श्रृंङ्रार को ही अस्पृश्य समझ लिया और उसका या तो त्याग ही कर दिया या उसे उपदेशात्मक काव्य का विषय बना डाला। ये लोग प्राचीनतावादी हो गए और वे लोग नवीनतावादी। उन लोगों को यह शऊर नहीं था कि श्रृङ्रार का संस्कार करते। इन लोगों को श्रृंगार नाम से ही इतनी चिढ़ हो गयी थी कि उसके संस्कार की कल्पना भी न कर सके। एक प्रकार का द्वन्द्व युद्ध चल रहा था जिसमें विवेक का प्राय: दोनों ओर से अभाव था।’’ (हिन्दी साहित्य बीसवीं शताब्दी, पृ. 132)। इसी संदर्भ में आचार्य शुक्ल का और महावीर प्रसाद द्विवेदी का उद्धरण भी दे रहा हूँ जिनसे प्रसाद और छायावाद का परिप्रेक्ष्य भी स्पष्ट हो जाएगा और उस नवीनता या परिवर्तन का भी स्वरूप स्पष्ट होगा जो न केवल छायावाद में बल्कि प्रगतिवाद में भी घटित हुआ। छायावाद के जन्म के समय जिन शुभ ग्रहों की दृष्टि थी उसमें किसानों और मजदूरों के प्रति विकसित होता हुआ नया दृष्टिकोण भी था और विदेशी पूँजी के परिणामस्वरूप पड़ता हुआ वह अशुभ प्रभाव भी था जिसका प्रमाण ‘स्वदेशी’ और ‘हिन्द स्वराज्य’ में मिलता है।

‘‘द्वितीय उत्थान में काव्य की नूतन परंपरा का अनेक विषयस्पर्शी प्रसार अवश्य हुआ पर द्विवेदी जी के प्रभाव से एक और उसमें भाषा की सफाई आई, दूसरी ओर उसका स्वरूप गद्यवत रूखा, इतिवृत्तात्मक और अधिकतर बाह्मार्थ निरूपक हो गया अत: इस तृतीय उत्थान में जो परिवर्तन हुआ और पीछे ‘छायावाद’ कहलाया उसी द्वितीय उत्थान की कविता को कहा जा सकता है।’’ आगे शुक्लजी ने लिखा है और ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि ‘‘द्वितीय उत्थान की कविता में काव्य का स्वरूप खड़ा करने वाली दोनों बातों की कमी दिखाई पड़ती थी – कल्पना का रंग भी बहुत कम या फीका रहता था और हृदय का वेग भी खूब खुलकर नहीं व्यंजित होता था। इन बातों की कमी परंपरागत ब्रजभाषा काव्य का आन्नद लेने वालों को भी। अत: खड़ी बोली की कविता में पदलालित्य, कल्पना की उड़ान, भाव की वेगवती व्यंजना वेदना की विवृत्ति, शब्द प्रयोग की विचित्रता इत्यादि अनेक बाते देखने की आकांक्षा बढ़ती गई।’’ -हिन्दी साहित्य का इतिहास, 12 वाँ संस्करण, पृ. 439

‘‘भावों के आविष्करण को कला कहते हैं ....ज्ञान के विकास से भावों का विकास होता है। ज्ञान की ऊर्जितावस्था में ही कला का सबसे अच्छा विकास होता है।....बाह्य प्रकृति के बाद मनुष्य अपने अन्तर्जगत की ओर दृष्टिपात करता है तब साहित्य में कविता का रूप परिवर्तित हो जाता है कविता का लक्ष्य मनुष्य हो जाता है। संसार से दृष्टि हटाकर कवि व्यक्ति पर ध्यान देता है। तब उसे आत्मा का रहस्य ज्ञात होता है। वह शान्त में अनन्त का दर्शन करता है। भौतिक पिंड में असीम ज्याति का आभास पाता है। भविष्य के कवि का लक्ष्य इधर ही होगा। अभी तक वह मिट्टी के सने हुए किसानों और कारखानों से निकले हुए मैले मजदूरों को अपने काव्यों का नायक बनाना नहीं चाहता था। वह राजस्तुति, वीरगाथा अथवा प्रकृति वर्णन में ही लीन रहता था। परन्तु अब वह क्षूद्रों की भी महत्ता देखेगा और तभी जगत का रहस्य सबको विदित होगा। जगत का रहस्य क्या है इस पर एक ने कहा है कि असाधारणता में यह रहस्य नहीं है। जो साधारण है वही रहस्यमय है, वही अनन्त सौंदर्य से युक्त है। इस सौंदर्य को स्पष्ट कर देना भविष्य कवियों का काम होगा।’’
- कविता का भविष्य—1920 ई., महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली भाग 2।

प्रसाद जी ने जब लिखना शुरू किया उस समय भारतेन्दु युगीन और द्विवेदी युगीन काव्य परंपराओं के अलावा श्रीधर पाठक की ‘नयी चाल की कविताएँ’ भी थी। उनके द्वारा किए गए अनुवादों ‘एकान्तवासी योगी’ और ‘ऊजड़ग्राम’ का नवशिक्षितों और पढ़े लिखे प्रभुवर्ग में काफी मान था। प्रसाद के चित्राधार में संकलित रचनाओं में इसके प्रभाव खोजे भी गए हैं और प्रमाणित भी किये जा सकते है। अनन्त: कविशय: प्रार्थी प्रदत्त और प्रचलित परंपराओं से प्रारंभ करके ही उन्हें तोड़ता मरोड़ता और पदविन्यास में नया पानी चढ़ाता है। प्रसाद ने कब लिखना शुरू किया इस पर विवाद है। परन्तु उपलब्ध स्रोत्रों के आधार पर उनकी पहली रचना, कलाधीर छाप से लिखी पहली प्रकाशित रचना और खड़ी बोली की पहली प्रकाशित रचनाएं निम्नलिखित हैं-
1- पुत्र रत्नशंकर के अनुसार आदि छन्द है-

हारे सुरसे, रमेस घनेस, गनेसहू शेष न पावत पारे
पारे हैं कोटिक पातकी पंजु ‘कलाधार’ ताहि छिनो लिखि तारे
तारेन की गिनती सम नाहि सुजेते तरे प्रभु पापी विचारे
चारे चले न विरंचिह्न के जो दयालु ह्नै शंकर नेकु निहारे

-1901 ई.

2- डॉ. प्रेमशंकर के अनुसार पहली प्रकाशित रचना है-

सावन आए वियोगिन को तन
आली अनंग लगे अति तावन।
तापन हीय लगी अबला
तड़पै जब बिज्जु छटा छवि छावन।।
छावन कैसे कहूँ मैं विदेस
लगे जुगनू हिय आग लगावन
गावन लागे मयूर ‘कलाधर’
झाँपि कै मेघ लगे बरसावन।।

- ‘भारतेन्दु’ जुलाई 1906

3-डॉ. प्रेमशंकर के अनुसार खड़ी बोली की प्रथम रचना-

आशा तटिनी का कूल नहीं मिलता है।
स्वच्छन्द पवन बिन कुसुम नहीं खिलता।
कमला कर में अति चतुर भूल जाता है।
फूले फूलों पर फिरता टकराता है
मन को अथाह गंभीर समुद्र बनाओ।
चंचल तरंग को चित्त से वेग हटाओ
शैवाल तरंगों में ऊपर बहता है
मुक्ता समूह थिर जल भीतर रहता है।

-इंदुकला ‘किरण’ 1910 ई.

प्रसाद की कविताओं में प्रारंभिक कुछ कविताओं को छोड़कर जो ‘चित्राधार’ के पहले संस्करण में ही संकलित थीं और कलाधर नाम से ब्रजभाषा में लिखी गयी हैं ‘स्वानुभूति’ का प्रसार, रूपकात्मकता, सामाजिक धार्मिक रूढ़ियों के प्रति विद्रोह, व्यापक उदारतावादी मूल्य परक आग्रह, वैयक्तित्व प्रेम की अकुंठ अभिव्यक्ति और आत्मनुभव को अभिव्यक्त करने तथा दूसरे तक पहुँचाने के लिये आवश्यक शब्द चयन के प्रति सजगता मिलती है। प्रारंभिक कुछ कविताओं में रम्यताके प्रति चाहे वह प्रकृति की हो या शरीर की, भावुक आकर्षण है, पागल कर देने वाली आपे से बाहर कर देने वाली आवेगमयता और मिलने की शारीरिक आतुरता है जो कहीं-कहीं प्रकृति में भी चैतन्य के संचार के रूप में व्यक्ति हुई है। वैसे तो उस दौर में श्रीधर पाठक के ‘एकान्तवासी योगी’ के प्रभाव से रामनरेश त्रिपाठी, रूपनारायण पांडे, मैथिलीशरण गुप्त आदि अनेक कवि प्रेम पर हो सिख रहे थे परन्तु प्रसाद की प्रेम पथिक के पहले की कविताओं में प्रेम की अभिव्यक्ति द्विवेदीयुगीन मर्यादित आदर्शवादित, से नितांत भिन्न हैं। ‘कानन कुसुम’ में संकलित ‘गंगा सागर’, ‘प्रियतम’, ‘मिल जाओ गले’, ‘नहीं डरते’, ‘हाँ सारथे रथ रोक दो’, ‘दलित कुमुदिनी’, ‘मलिना’ कविताएँ प्रमाण हैं। ‘कानन कुसुम’ के प्रारंभ में ही प्रसाद जी का निवेदन केवल नया है बल्कि कानन कुसुम को कविताओं के बारे में कवि का क्या दृष्टिकोण है इस पर प्रकाश डालता है।

प्रियतम,
जो उद्यान से चुन-चुनकर हाथ बनाकर पहनते हैं उन्हें ‘कानन कुसुम’ क्या देंगे। यह तुम्हारे लिए हैं। इसमें रंगीन और सादे सुगन्ध वाले और निर्गन्ध मकरन्द से भरे हुए पराग में लिपटे हुए सभी तरह के कुसुम हैं। असंयत भाव से एकत्र किए गये हैं भला ऐसी वस्तु को तुम नहीं ग्रहण करोगे, तो कौन करेगा।

भवदीय प्रसाद

इन कविताओं में शारीरिक आकर्षण, आमंत्रण, उपालम्भ आदि का अभिव्यक्ति विधान या भाषिक विधान, न केवल नया है बल्कि इस बात का संकेत है कि युग बदल गया है अपना निजी अनुभव भी भले ही वह रूपासक्ति हो काव्य का विषय हो सकता है। इन कविताओं की कुछ पंक्तियाँ इस स्थापना के प्रमाण के रूप में उद्धृत कर रहा हूँ-

अब से भी तो अच्छा है अब और न मुझे करो बदनाम
क्रीड़ी तो हो चुकी तुम्हारी, मेरा क्या होता है काम
स्मृति को लिए हुए अन्तर में, जीवन कर देंगे नि:शेष
छोड़ो अब भी दिखलाओं मत, मिल जाने का लोभ विशेष।।

- प्रियतम

उसे न कहो कि वह कुरवक-रस लुब्ध है
हृदय कुचलने वालों से, अभिमान के
नीच घमण्डी जीवों से बस कुछ नहीं
उन्हें घृणा भी कहती सदा नगण्य है
वह दब सकती नहीं, न उनसे मिल सके
जिसमें तेरी अविकल छवि हो छा रही
तुमसे कहता हूँ प्रियतम ! देखो इधर
अब न और भटकाओ, फिर मिल जाओ गले
सबको था दे चुका, बचे थे उलाहने से तुम मेरे
वह भी अवसर मिला, कहूँगा हृदय खोलकर गुण तेरे
कहो न कब बनती थी मेरी सच कहना कि ‘मुझे चाहो’
मेरे खौल रहे हृत्सर में तुम भी आकर अवगाहो
फिर भी कब चाहा था तुमने हमको यह तो सत्य कहो
हम विनोद भी सामग्री थे केवल इससे मिले रहो
रूखे ही तुम रहो, बूँद रस की झरें
हम तुम जब हैं एक, लोग बकतें फिरें

- मर्मकथा

जिसक मुग्ध विकास हृदय को अहो मुग्ध कर देता था
सरन पीत केसर भी खिलकर भव्य भाव भर देता था
किसी स्वार्थी मतवाले हाथी से हा ! पद दलित हुई
वही कुमुदिनी, ग्रीष्म ताप तापित रंज में पद दलित हुई

-दलित कुमुदिनी

प्रारंभिक प्रकृति वर्णनों में सौंदर्य मात्र के प्रति आकर्षण के भाव तो कुछ द्विवेदी युगीन सपाट बयानी शैली में भी हैं, परन्तु वे नाम परिगणनात्मक न होकर एक विशेष कोम से चुने हुए दृश्यों के वर्णन हैं। जैसे ‘शरद पूर्णिमा’ में दृश्य के साथ-साथ उसका प्रभाव भी संकेतिक है जबकि ‘संध्यातारा’ में मुख्य वर्णन के भीतर से ही एक अमुख्य वर्णन भी झाँक रहा है, जो तारा को चिन्मयीकृत कर रहा है, ‘संध्या सुकुमारि’, ‘आशासम’, ‘तरणि सुमिरि’ प्रभात मिलन आशा, संसार तरंग लखि भीत आदि प्रयोगों के द्वारा अनेक अर्थों का संकेत भी कर रहा है। अर्थ का यह अन्तरण वयंजना के द्वारा ‘संध्यातारा’ में अर्थग्राम का निर्माण करता है मसलन, संयोग, प्रेम, मिलन, निराशा से मुक्ति; काले वालों से धिरे चिकुर जाल के भीतर मणि के समान देदीप्यमान मुख आदि के हारा अनेक स्मृतियों और वेदनाओं का सन्निवेश करके उसे आधुनिक अर्थ में एक विम्बमयता प्रदान की गयी है। द्विवेदी युगीन प्रकृति वर्णन ‘शरद् पूर्णिमा’ से भिन्न यह नवीन संकेतनात्मकता ही प्रसाद को अपने समय का नया कवि बनाती है। उसे ‘छायावाद’ कहना चाहें तो कहा जा सकता है परंतु चित्राधार में संकलित यह कविता परंपरा में प्रयोग की कविता नहीं है परंपरा के प्रयोग की कविता है, जो परंपरा को नया अर्थ देती हैं। उसे अपने समय के अनुभव के संदर्भ में प्रयुक्त करती है।

वह परम्परा प्रदत्त संसाधनों को वर्तमान आवश्यकताओं के अनुकूल इस्तेमाल करती है। सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है कि ‘‘छायावाद से पहले खड़ी बोली का काव्य भाव तथा भाषा की दृष्टि से बिलकुल दरिद्र था। छायावाद ने उसमें अँगड़ाई लेकर जागते हुए भारतीय चैतन्य का भाव भरा। विश्वबोध के व्यापक आयाम, लोक मानव की नवीन आकांक्षाएं जीवन प्रेम से प्रेरित परिष्कृत अहंता का मांसल सौंदर्य परिधान पहले पहल उसी ने हिन्दी कविता को प्रदान किया।’’ (सुमित्रानंदन पंत ग्रंथावली भाग 6, पृ.196, द्वि, सं.) ‘जीवन प्रेम से प्रेरित परिष्कृत अहंत का यह मांसल सौंदर्य परिधान’ पहले पहल प्रसाद के कानन कुसुम की कुछ कविताओं में मिलता है। यह सही है कि ‘चित्राधार’ में संकलित ‘मकरन्द बिन्दु’ के अन्तर्गत संकलित घनाक्षरी और पदों में भारतेन्दु, रत्नाकर, आलम की ध्वनियाँ हैं परंतु अधिकांश ध्वनियों में समय की सहृदयता और विचार विमर्श की प्रतिध्वनिया भी हैं; जिनका विकास बाद में उपन्यासों और कहानियों में अधिक विस्तर से तथा ‘कामायनी’ से अधिक गहरे स्तर पर ‘संकेत’ की तरह हुआ है। इस प्रकार के प्रयोगों में द्विवेदी युगीन ‘मानवतावादी’ धारणा के साथ भक्ति कालीन समदर्शिता, अनुभवैक गम्यता और प्रेम मात्रता, समानता आदि को रहस्यात्मक आध्यात्मिकता भी है – जैसे-

छिपि के झगड़ा क्यों फैलायो
मन्दिर मस्जिद गिरिजा सब में खोजत सब भरमायो।।
अंबर अवनि अनिल अनलादिक कौन भूमि नहिं भायो।।
कढ़ि पाहन हूँ ते पुकार बस सबसों भेद छिपायों।।
कूवाँ ही से प्यास बुझात जो सागर खोजन जावैं।।
ऐसे को है याते सबही निज-निज मनि गुन गावैं।।
लीला मय सब ठौर अहो तुम, हमकौ यहै प्रतीत।।
अहो प्राण धन, मीत हमारे, देहु चरण में प्रीत।।
ऐसो ब्रह्म लेइ का करिहौं ?
जो नहिं करत, सुनत नहिं ओ कुछ, जो जन पीर न हरिहैं।।
होय जो ऐसो ध्यान तुम्हारौ ताहि दिखायौ मुनि को।
हमरी मति तो, इन झगड़न को समुझि सकत नहिं तनिकौ।।
परम स्वारथी तिनको अपनो आनंद रूप दिखाओ।।
उसको दु:ख अपनो आश्वासन, मनते सुनौ सुनाओ।।


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