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बुढ़ापे की लाठी

भास्कर कुमार मिश्र

प्रकाशक : सुन्दर साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5628
आईएसबीएन :81-88463-19-1

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सामाजिक कहानियाँ

Budape Ki Lathi a hindi book by Bhaskar Kumar Mishra- बुढ़ापे की लाठी - भास्कर कुमार मिश्र

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक दिन शाम का समय था। प्रियंवद और स्नेह अपने किसी दोस्त के यहाँ गये हुए थे। पं. राधारमण अपनी पत्नी के साथ बैठक में बैठे थे। गर्मी का मौसम था। दिन तपने के बाद सूर्य भगवान अस्त हो गये थे। हवा में कुछ शीतलता होने लगी थी। आज कई दिनों के बाद पण्डित जी अपने कमरे से बाहर आए थे वह भी तब जब प्रियंवद घर पर नहीं था। स्नेह ने अपने ससुर की सूरत अभी तक नहीं देखी थी। माँ का हृदय तो सुकोमल और क्षमावान होता है। मीरा ने अपने बेटे को उसकी घृष्टता पर माफ कर दिया था और स्नेह को अपनी बहू मान लिया था; परन्तु पं. राधारमण जी अभी समाज के ताने सहन करने के लिए अपने को तैयार नहीं कर पाये थे। वह अभी भी स्नेह को अपनी पुत्रवधू स्वीकार नहीं करते थे। कभी-कभी उनके मन में यह भी आता था कि स्नेह की क्या गलती है। सारा कसूर तो अपने बेटे प्रियवंद का है। परन्तु वह अपने बेटे से कुछ भी कहने का साहस नहीं जुटा पाते थे।

प्राक्कथन


जीवन के कटु अनुभवों की हृदय से निकली सच्चाई कहानी कहलाती है। मैं अपने जीवन में बचपन से लेकर आज तक हजारों खट्टे-मीठे अनुभव किए हैं। उन्हीं में से कुछ अनुभवों को सच्चाई के धरालत पर परखकर उनमें समयानुसार परिवर्तन कर कहानी के रूप में बयान करने का प्रयास किया है। मेरी हर कहानी में एक सीख छिपी है, समाज को सुधारने की, स्वयं का अवगाहन, परीक्षण एवं मूल्यांकन करने की, स्वयं की बुराइयों को दूर फेंक निकालने की तथा अच्छाइयों को आत्मसात करने की, बस जरूरत है तो उस सीख को समझने, उसे खोज निकालने के लिए खोजी बुद्धि की, विवेक की। आरम्भ से ही हमारा यह प्रयास रहा है कि भारतीय समाज उत्कृष्ट समाज हो, जहां, गरीबी शराब, वैधव्य, वैश्यावृत्ति, अवारागर्दी, रुग्णता, मजदूरी आदि शब्दों को कम से कम स्थान हो परन्तु जिस देश का समाज जहाँ आज इतना विकृत हो गया हो कि वास्तविकता कल्पना से परे हो गयी हो, जहाँ बात-बात पर बहुओं को जलाया जाता हो, जहाँ एक-एक पैसे के लिए भाई-भाई का बाप-बेटे का दुश्मन बन जाता हो, जहाँ पूज्य बेटियों को भी गन्दी नजर से देखा जाता हो, जहाँ लड़कियाँ रमिया बनाई जाती हों, जहाँ वृद्ध पुरुषों को तिरस्कृत किया जाता हो, जहाँ शराब को सभ्यता माना जाता हो, जहाँ निर्दोश को दोषी ठहराया जाता हो, जहाँ मानवता को फाँसी लगायी जाती हो, जहाँ पशुता का महिमामण्डन होता हो, कैसे सुधरेगा वह समाज ! अभी और कितनी विकृति आएगी उस समाज में क्या हाल होगा हमारा ? यह हमें, आपको, सबको मिलकर सोंचना होगा। इस कहानी संग्रह की सभी कहानियों में इनमें से किसी न किसी सवाल को उठाया गया है, उनके दुष्परिणामों की ओर इशारा किया गया है, यह संग्रह समाज में थोड़ी-सी भी जाग्रति लाने, समाज की विकृतियों को धो-डालने में सफल रहता है तो मैं अपने को कृतकृत्य मानूंगा।
मैं आभारी हूँ किड्स कान्वेंट की प्रधानाचार्य श्रीमती ममता मिश्र का जिनके अथक प्रयास एवं सहयोग से वह कहानी संग्रह अपने इस रूप तक पहुंचा। श्रीमती मिश्रा के सहयोग के बिना इस कहानी संग्रह की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी।
अन्त में मैं आभारी हूँ सुन्दर साहित्य सदन, दिल्ली के श्री पंकज गुप्ता का जिनकी लगन से यह कहानी संग्रह पुस्तकाकार रूप में आप तक पहुंच रहा है। मुझे प्रतीक्षा रहेगी सुधी पाठकों के आलोचना एवं प्रशंसा-पत्रों की जिनसे मुझे और आगे बढ़ने, कुछ कर दिखाने की प्रेरणा मिलेगी, प्रोत्साहन मिलेगा, सहयोग मिलेगा एवं कमियों को दूर करने का अवसर मिलेगा।

शाहाजहांपुर (उ.प्र.)

भास्कर कुमार मिश्र


बहू

"सात घोड़ों के रथ पे सवार हो के आएगा मेरी बिटिया रानी का राजकुमार।" लतिका को कहानी सुनाने के बीच में माँ ने कहा। पति की कल्पना कर के नन्हीं-सी गुड़िया लतिका उस समय भी लजा जाती थी जब उसकी अवस्था मात्र छह साल की थी। उन दिनों उसकी अम्मा उसे परीलोक की सैर कराया करतीं थीं।
लतिका ने भी अपनी कल्पना में एक सुन्दर से हृष्ट-पुष्ट राजकुमार का सपना संजोया था। उसके सपनों का वह राजकुमार आज उसकी आँखों के सामने था।

पण्डित रामदीन एक निहायत सीधे-सादे एवं सरल स्वभाव के व्यक्ति थे। पेशे से अध्यापक। बोलचाल में मृदुभाषी, पण्डित जी अपने पैतृक गाँव के ही पुश्तौनी मकान में रहते थे। उनकी अपनी थोड़ी-सी मौरुसी जमीन थी। पण्डित-जी उसी जमीन पर खेतीबाड़ी करते थे। इण्टर पास करके पण्डित जी ने बी.टी.सी. कर ली थी। बी.टी.सी. करने के तेरह साल बाद सरकार ने पण्डित रामदीन को उनके अपने ही गाँव के प्राथमिक पाठशाला में सहायक अध्यापक की नौकरी दे दी थी।

अध्यापन कार्य की लालसा एवं रुचि पण्डित जी को बाल्यकाल से ही थी। इण्टर करने के बाद पण्डित जी ने अपने गाँव के बड़े-बुजुर्गों एवं छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए अपनी चौपाल पर एक पाठशाला खोल ली थी। सुबह को नन्हे-मुन्नों की शिक्षा के उपरान्त पण्डित जी रात को प्रौढ़-शिक्षा की कक्षाएं चलाते थे। गाँव में सभी पण्डित जी के प्रशंसक थे।

पण्डित जी के केवल एक ही सन्तान थी। उनकी पुत्री। नाम था तलिका। पुत्री के जन्म के पश्चात् पण्डित जी ने न तो कभी पुत्र की कामना की और न ही उसके बाद पण्डित जी के कोई अन्य सन्तान हुई। लतिका को भगवान की कृपा का प्रसाद समझ पण्डित जी अपनी बेटी को लक्ष्मी जैसा आदर देते थे; उसे पूज्यनीय समझते थे।
पण्डित जी की इच्छा थी कि उनकी बेटी खूब पढ़े, लिखे, होनहार बने, परन्तु पण्डित जी लड़कियों को नौकरी कराने के पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि लड़कियां गृहलक्ष्मी होती हैं। उनसे घर स्वर्ग बनता है। पढ़ी-लिखी नारी से ही घर में प्रेम एवं सम्पन्नता का पौधा उगता है, पनपता है और फलता-फूलता है।

घर की दीवारें सोने की बनीं हों, उन पर सोने का प्लास्टर किया गया हो परन्तु यदि घर के रहने वालों में प्रेम नहीं है, परस्पर सौहार्द एवं त्याग की भावना नहीं है तो वह घर धरती पर साक्षात नरक के समान होता है। इसके विपरीत मिट्टी एवं घास-फूस की बनी कुटिया में प्रेम से रहने वाले परिवार को ही स्वर्ग का पर्याय हमारे धर्मग्रन्थ बताते हैं।
पण्डित रामदीन का घर भी ईंट गारे का बना था, परन्तु उसकी हर ईंट के साथ प्रेम, सौहार्द कर्त्तव्य एवं त्याग की चुनाई की गयी थी जिससे पण्डित जी का घर स्वर्ग जैसा बन गया था और उसे घर में रहने वाले देवता।

बेटी ने एम.ए. कर लिया। अंग्रेजी से। अंग्रेजी से एम.ए. करके लतिका की इच्छा हुई कि वह भी अध्यापन करे। अपने कार्यों से, अपने गुणों से दूसरों का भविष्य उज्ज्वल बनाए। घर का माहौल भी शिक्षण कार्य के पक्ष में था। इसलिए उपयुक्त अवसर पर लतिका ने एक कन्या इण्टर कालेज में प्रवक्ता पद हेतु अपना आवेदन पत्र प्रेषित कर दिया। उस समय पण्डित रामदीन को अपनी बेटी लतिका की यह पहल अच्छी नहीं लगी थी।

जब बेटी जवान हो जाती है तो हर माँ-बाप को एक स्वाभाविक चिन्ता होती है, अपनी बेटी के हाथ पीले करने की, उसके लिए एक सुयोग्य वर ढूंढ़ने और उसका ब्याह कर उसे उसके पति के घर भेजने की। अब पण्डित रामदीन ने भी अपनी बेटी के लिए वर एवं घर तलाशना शुरू कर दिया था। हर माता-पिता का एक सपना होता है कि उनकी बेटी जिस घर में जाए उसे वहाँ सारी सुख-सुविधा मिले। किसी कष्ट या मुश्किल की उस घर पर परछाई भी न पड़े।

काफी सोच-विचार करने के बाद पण्डित रामदीन ने अपनी बेटी का रिश्ता अपने गाँव के नजदीक के एक छोटे से कस्बे तिलहर के पण्डित गजानन प्रसाद के बेटे ब्रजनन्दन से तय कर दिया था। पण्डित गजानन प्रसाद ने पण्डित रामदीन को बताया, "मुन्ना की अपनी शुगर फैक्टरी है। व्यवसाय अभी हाल ही में शुरु किया है इसलिए गाँव की सारी जमीन और शहर का अपना मकान बेंच दिया है। पैसे जुटाने के लिए। अभी फिलहाल यहाँ दातागंज में किराए के इस छोटे-से घर में गुजर बसर कर रहे हैं। जैसे ही काम में बरकत होगी शहर में एक कोठी बनवाएंगे और फिर उसमें शिफ्ट हो जाएंगे।"

"बहुत नेक विचार हैं पण्डित जी, आपके। कुछ उद्यम करने से ही लक्ष्मी का शुभागमन होता है। पण्डित जी, मेरी बेटी लतिका; साक्षात लक्ष्मी है। इस घर में मेरी बेटी के पांव पड़ने से यहाँ भी लक्ष्मी की वर्षा होने लगेगी। ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। मेरा विश्वास सदा सत्य होता है। वह मेरी आत्मा की आवाज होती है।"

पण्डित रामदीन के स्वाभाव से प्रभावित होकर गजानन जी ने विवाह के समय पण्डित जी से दहेज की कोई मांग नहीं की। दहेज के विषय में गजानन ने उस समय पण्डित जी से केवल यही कहा था, "दहेज लेना मैं पाप समझता हूँ, रामदीन भाई !...और मैं पाप की भागी नहीं बनना चाहता। जीवन भर पापकर्म से बचते आए हैं। अब बुढ़ापे में बेटे की शादी में दहेज की मांग करके क्यों पाप की गठरी अपने सिर लादूं। बहू तो सुख की अजस्रधारा होती है।"
"धन्य हैं आप, गजानन जी !...और कितने उत्तम हैं आपके विचार। गजानन जी, आज के हर व्यक्ति के विचार आपके विचारों जैसे हो जाएं तो यह देश बहुत तरक्की करने लगे।" पण्डित रामदीन ने गजानन जी के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की।
....और फिर रामदीन जी ने एक दिन पूर्ण विधि-विधान से अपनी बेटी का विवाह संस्कार ब्रजनन्दन जी के साथ सम्पन्न कर दिया। गजानन जी ने दहेज की कोई मांग नहीं की थी इसलिए पण्डित जी ने अपनी बेटी को अपनी हैसियत से अधिक दान-दहेज दिया। बेटी को विदा करते समय रामदीन जी ने अपनी पगड़ी गजानन जी के पैरों पर रखते हुए कहा था, "पण्डित जी, बड़े नाजों से पाला है मैंने अपनी इस इकलौती बेटी को। फूलों-सी नाजुक माँ की दुलारी, मेरी यह नन्हीं

गुडियाँ हाथों-हाथ पली है, बढ़ी है। इस पर मैंने दुःख की कभी कोई परछाई तक नहीं पड़ने दी। इसे पता भी नहीं है कि दुःख क्या होता है। इसी लाड़-प्यार के कारण इसका बचपना अभी भी नहीं गया है। नादान है अभी तक यह। संसार और सांसारिकता से पूरी तरह अनभिज्ञ है यह। अगर नादानी में कोई भूल कर बैठे या इससे कोई गलती हो जाए तो आप इसे बच्चा समझकर माफ कर देना।"

"अरे ! यह क्या कह रहे हैं, पण्डित जी आप। बहू तो बेटी के समान होती है। जैसी आपकी बेटी, वैसी मेरी। रामदीन जी ! लतिका अब मेरे घर की लक्ष्मी बन गयी है और कोई अपनी लक्ष्मी को नाराज थोड़े ही करता है। लक्ष्मी को खुश रखने में ही परिवार की खुशी है।" गजानन जी ने अपने समधी को सान्त्वना दी।

"पण्डित जी, आपने दहेज की कोई मांग नहीं की। यह आपका बड़प्पन है। फिर भी मेरा कर्त्तव्य है कि बेटी को कुछ न कुछ दान करें। इसी से प्रेरित हो मैंने अपनी हैसियत के मुताबिक मुझसे जो भी जुड़ा बना, दहेज का सामान दान स्वरूप दिया है। आप इसे स्वीकार करना। हाँ, अगर कोई कमी रह गयी हो तो हमें जरूर बताना, हम सिर पर पैर रखकर आपके समक्ष उपस्थित हो जाएँगे।"
"रामदीन जी ! आप नाहक चिन्ता करते हैं। आपने जो हमें दिया हमने स्वीकार किया। आपकी बेटी को भी। आगे का क्या भरोसा कब क्या हो जाए। और फिर सब कुछ तो यहीं छूट जाना है। लोभ-लालच किसके लिए किया जाएँ ? हम आपसे रिश्ता करके धन्य हुए। पण्डित जी, लतिका आपकी इकलौती बेटी है; इस नाते आपका जो कुछ भी है वह सब लतिका का ही तो है।"
बेटी को डोली में बिठाते समय पण्डित जी की दोनों आँखें गंगा यमुना की तरह अपने तटबंध तोड़कर बहने लगीं थी। हृदय के मोती; आँखों के रास्ते टपकने लगे थे। गला अवरूद्ध हो गया था। मुख से शब्द नहीं निकल पा रहे थे। बड़ी मुश्किल से वह केवल इतना कह पाए थे, "बेटी, सुखी रहो।"
कभी-कभी ऊँची मीनारों पर चढ़कर नीचे देखने से डर लगने लगता है। बार-बार मन यही प्रश्न करता है कि मैं यहाँ क्यों आया। क्यों ऊपर चढ़ा मैं ? इसी तरह बड़े घर में अपनी बेटी का ब्याह करके रामदीन का मन कभी-कभी आशंकित एवं दुःखी होने लगता था। मन में रह-रहकर यही विचार आता था
कि बैर प्रीति और सम्बन्ध हमेशा अपने से बराबर वाले के साथ ही करना उचित होता है। मुझे भी अपनी बेटी का ब्याह समतुल्य घराने में ही करना चाहिए था। फिर..कभी-कभी मन में आता था कि यह सब व्यर्थ की बाते हैं। ईश्वर की यही मंशा थी। कहते हैं विवाह सम्बन्ध ऊपर से बनकर आते हैं, हम सांसारिक लोग तो केवल निमित्तमात्र हैं। जिसकी जहाँ शिष्टा होती है, उसका ब्याह वहीं होता है।
पण्डित रामदीन जी इन्हीं विचारों में खोए हुए थे कि सामने से पोस्टमैन ने आकार रजिस्ट्री का एक लिफाफा पण्डित जी को पकड़ाते हुए कहा, "लो रिसीव करो, रजिस्ट्री है। यहाँ पर साइन कर दो।"
पण्डित जी ने वह लिफाफा डाकिए से ले लिया। निश्चित स्थान पर दस्तखत कर दिए। पत्र उनकी बेटी लतिका ने लिखा था। अपने पति के घर से लतिका का यह पहला पत्र था। अपनी बेटी की कुशलक्षेम जानने की रामदीन की उत्कट अभिलाषा थी। रामदीन ने पास की टेबल पर रखी ऐनक उठायी। उसे आँखों पर लगा के पत्र पढ़ने लगे।

आदरणीय पापा जी
सादर करबद्ध प्रणाम,

पापा जी, मैंने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मुझे इतना अच्छा घर परिवार मिलेगा। सास-ससुर देवता हैं। दोनों मुझे अपनी बेटी की तरह समझते हैं। पति; परमेश्वर से भी बढ़कर हैं। यह मेरे पिछले जन्म के पुण्यों का प्रताप है जो मेरा इतना अच्छा संजोग हुआ।
पापा जी, इस समय ब्रजनन्दन का काम कुछ ठीक नहीं चल रहा है। काम को स्टैण्ड करने के लिए इन्हें कुछ पैसों की सख्त जरूरत है। आप कृपया अगले सोमवार तक साठ हजार रुपयों की व्यवस्था करके भिजवा दें। अन्यथा....।"

आपकी बेटी लतिका

पत्र पढ़कर रामदीन के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। गजानन के प्रति रामदीन के मन में सच्चे, ईमानदारी और नेक दिल इन्सान की जो मूर्ति बनी थी, वह टूटकर चकनाचूर हो गयी। विश्वास पर बज्रपात हो गया था। मन दुःखी था, आहत था और तन था किकर्त्तव्यविमूढ़।
अभी तो मेंहदी का रंग भी फीका नहीं पड़ा। मंड़खुंदनी तक नहीं हुई और गजानन बाबू ने अभी से ही रंग बदलना शुरू कर दिया। मैंने अपनी हैसियत से अधिक नकदी और सामान अपने समधी जी को दिया। क्या कुछ नहीं दिया उन्हें ! स्कूटर, टी.वी., फ्रिज, बेड सभी कुछ तो दिया था मैंने। अब क्या ब्रजनन्दन इस लायक भी नहीं रहा कि वह कमाकर अपना पेट भर सके। मेरे जी.पी.एफ. में जो भी पैसा था सारा निकाल लिया। अब क्या करें ? कैसे व्यवस्था हो साठ हजार रुपयों की ?

यही सोंचते-सोंचते एक सप्ताह बीत गया। धीरे-धीरे वह सोमवार भी आ गया जिस दिन तक लतिका ने पैसा भिजवाने के लिए कहा था; परन्तु पैसे की कोई व्यवस्था न हो सकी। किसी से उधार मांगना; रामदीन की प्रतिष्ठा के विपरीत था। मांगने पर समाज के ताने का डर था। सभी यही कहते कि बेटी की शादी करते ही रामदीन पर इतनी गरीबी आ गई कि मांग-मांग कर गुजारा करना पड़ रहा है। फिर कोई गुजारे के लिए इतना पैसा थोड़े ही दे देगा।

"किस्मत की माया भी अजब है। क्या सोचा था क्या हो गया ? सोचा था कि भरापुरा सम्पन्न परिवार है। बेटी राज करेगी। अकेला बेटा है, लेकिन...अभी विवाह हुए एक महीना भी नहीं हुआ और बेटी से यह पत्र भिजवाया गजानन ने।"
खूब सोच-विचारकर रामदीन जी ने निश्चय किया कि वह स्वयं तिलहर जाएंगे और गजानन जी से बात करेंगे; परन्तु कब जाएं इसका निश्चय नहीं हो पा रहा था। अनिश्चय की इसी स्थिति में एक महीनें से अधिक समय बीत गया।
"नमस्ते, माँ जी"। लतिका ने हाथ जोड़कर माँ को नमस्ते किया।

"अरे तलिका, तुम ! क्या ब्रजनन्दन भी आए हैं ?" माँ ने अपनी बेटी को अपनी छाती से चिपकाते हुए कहा।
"नहीं, माँ जी ! मैं अकेली ही आयी हूँ।"
"अकेली ! अकेली क्यों ? क्या ब्रजनन्दन नहीं आ सकते थे ?"
"आ क्यों नहीं सकते थे; परन्तु उन्होंने आने की जरूरत नहीं समझी।"
"खैर, तिलहर में सब ठीक तो हैं ?"
"हाँ, अम्मा, सब ठीक हैं।"
"गजानन जी कैसे हैं ?"
"ठीक हैं।"
"...और बृजनन्दन जी का काम कैसा चल रहा है ?"
"काम ?....कौन सा काम ?" लतिका ने आश्चर्य मिश्रित प्रश्नभाव से पूछा।
"वही चीनी मिल..."
"चीनी मिल ! कैसी चीनी मिल ? माँ जी, पापा जी बहुत सीधे हैं। वह गजानन जी की चालाकी भांप नहीं पाए। अम्मा ! पापा जी को धोखा दिया गया है। अम्मा, ब्रजनन्दन जी कुछ भी नहीं करते हैं। वह चीनी मिल की बात मात्र एक छलावा थी।...अच्छा, यह सब छोड़ो माँ। क्या पैसों की व्यवस्था हुयी ?

"प ऽऽ पैसों की व्यवस्था...?" यह क्या कह रही हो, बेटी ? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है।"
"अम्मा ऽऽ ! मैंने पापा जी को चिट्ठी लिखकर बता दिया है कि साठ हजार रुपये ब्रजनन्दन को चाहिए। वह पैसे जल्दी भिजवा दें और अम्मा पैसे नहीं भिजवाए गए तो वह लोग मुझे मार डालेंगे।"
"बेटी ! यह क्या कह रही हो ?"

"मैं सच कह रही हूँ, अम्मा। मेरी शरीर उसके अत्याचार की कहानी नहीं कह रहा है क्या ? यह देखो...।"
इतना कहते-कहते लतिका ने अपनी पीठ से साड़ी और ब्लाउज हटा दिया। लतिका की पीठ पर पड़े नीले रंग के निशान गजानन और ब्रजनन्दन की सच्चाई ब्यान कर रहे थे।
"क्या बातें हो रही हैं, माँ बेटी में ?" कमरे का द्वार खटखटाकर रामदीन ने कमरे में प्रवेश करने की अनुमति मांगी। अपने पापा को देखते ही लतिका ने अपनी साड़ी ब्लाउज फिर सही स्थिति में कर ली।
"पापा जी, नमस्ते" लतिका ने हाथ जोड़कर अपने पापा को नमस्ते किया।

"नमस्ते, बेटी ! सुखी तो हो अपने नए घर में ? ब्रजनन्दनबाबू कैसे हैं ? गजानन जी के क्या हाल हैं ? सब ठीक तो हैं ? रामदीन ने एक सांस में कई प्रश्न कर डाले।

"पापा जी, आपने पैसों का इंतजाम किया ?" लतिका ने अपने पापा के किसी प्रश्न का जवाब दिए बगैर उनसे प्रश्न पूछा।
"बेटे...वो, पैसों का...बेटे, मैंने....किसी ने...।"

"बस, बस पापा जी ! मैं समझ गयी। अब आगे कहने की कोई जरूरत नहीं है। माँ-बाप की नजरों में बेटी तो एक बोझ होती है। उसका ब्याह किया और समझ लेते हैं कि अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गये। अब आपको क्या ? बेटी मरे या जिए। आपने ब्याह कर ही दिया।" इतना कहते-कहते लतिका सिसक-सिसक कर रोने लगी।
"नहीं बेटी, ऐसा मत कहो। मैंने तुम्हारे लिए ही जीता हूँ। यह धन-दौलत सब कुछ तुम्हारे लिए ही तो है।....पर अभी कुछ मजबूरी है।"

"पापा जी, आपकी यह मजबूरी मेरे लिए जानलेवा साबित हो सकती है।"
"ऐसा कैसे हो सकता है ? मैं कल ही जाकर गजानन जी से बात करूंगा। आप भी मेरे साथ चलोगी, बबली" रामदीन अपनी बेटी को प्यार से बबली कहकर पुकारते थे।
"नहीं, पिताजी। अब मैं उस घर में कभी नहीं जाऊंगी। वह लोग नराधम हैं। गजानन और ब्रजनन्दन दोनों मुझे मार डालने की साजिश रच रहे हैं। पापा, अब मैं यहीं रहूंगी। आपके साथ...अपने घर में। यह ब्याह उन्होंने दहेज के लिए ही किया था।"

"ऐसा नहीं कहते, बेटी, विवाह के बाद पति का घर ही लड़की का घर होता है। मायका; तब पराया हो जाता है। बेटी, शादी के बाद मायके में रहे, सभ्य परिवार में यह शोभा नहीं देता है। सामाजिक रीति-रिवाज भी इसकी अनुमति नहीं देते। बेटी, एक बहुत पुरानी कहावत है "पति के घर बहू की डोली जाती है और फिर पति के घर से उसकी अर्थी ही निकलती है।"


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