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इक्कीसवीं सदी में अध्यात्म

श्रीओम

प्रकाशक : अमृत बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :91
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5653
आईएसबीएन :00000

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विज्ञान हमें विकास की ओर ले जा रहा है लेकिन सुख, शांति और आनंद की कुंजी केवल अध्यात्म के पास है.....

Ikkeesvin sadi mein adhyatm

प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश


इक्कीसवीं सदी, जिसमें अंतरिक्ष को जीता जा चुका है और प्रौद्योगिक ने अपनी जड़े गहरे तक जमा ली हैं, अध्यात्म का प्रश्न अभी भी अपनी केन्द्रीयता में बना हुआ है और पूरे विश्व का रूझान अपनी ओर जुटा रहा है। वैभव और समृद्धि ने मनुष्य की शांति छीनी है और उनका कारण आज के आदमी की अपनी ही विचलित मनोदशा है। इस क्रम में मनुष्य यह समझ पा रहा है कि उसका खोया हुआ मन का आनन्द उसे अध्यात्म ही वापस दिला सकता है।

श्री ओम की यह पुस्तक ‘इक्कीसवीं सदी में अध्यात्म’ आठ अध्यायों के माध्यम से अध्यात्म में प्रवेश कराती है और अंततः उसे अध्यात्म की अंतिम मंजिल तक ले जाती है। इस क्रम में पाठक का साक्षात्कार धर्म, ईश्वर और आत्मा से तो होता ही है, मूल भंग भीतर ही वह समझता है कि ‘मैं’ को जानना ही वस्तुतः सत्य को जानना है....पर कैसे ? इस तरह के अनेकों प्रश्नों का उद्भव और समाधान सरल और पठनीय भाषा में लेकर यह महत्त्वपूर्ण पुस्तक आई है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिये। सृष्टि ने जितना संसार हमारे बाहर रचा है उतना ही हमारी भीतर भी रचा बसा है, भले ही हम उसे जाने या न जाने।

सृष्टि ने हमें इन दो संसारों के बीच रख कर एक अदम्य जिज्ञासा भी दी है जो हम इनसे परिचित होने का उपक्रम स्वयं शुरू करें। बाहर करें। बाहर के संसार को जानने की प्रक्रिया विज्ञान से जुड़ी है, भौतिकी, रसायन, जीव, वनस्पति, भूगर्भ, खगोल और गणित इन सबसे संबंधित विज्ञान की शाखाएं है, जिन्हें औपचारिक रूप से हमें आंख खुलने के साथ ही सिखाया जाने लगता है।

भीतर के संसार को जानना किंचित कठिन है। मन और आत्मा से जुड़ा बंधा और इस सबके बीच एक ध्रुव सत्य की तरह परमात्मा भी है। इस सबको जो संसार समेटे है, उसे जानने की कोई औपचारिक परिपाटी नहीं है लेकिन एक विधा है जरुर जो इस दिशा में आदिकाल से अपना काम कर रही है। वह विधा है अध्यात्म।
विज्ञान हमें विकास की ओर ले जाता है लेकिन सुख, शांति और आनंद कि कुंजी अध्यात्म के पास है और यही अंतिम सच है।


अध्यात्म में प्रवेश



अध्यात्म और विज्ञान जानने की दो समानान्तर कलाएँ हैं। विज्ञान बाहर जानना है अध्यात्म भीतर जानना है। विज्ञान यंत्र के द्वारा जानना है, अध्यात्म चेतना के द्वारा जानना है। जब सूक्ष्मदर्शी या दूरदर्शी यंत्र के द्वारा परमाणु या नीहारिकाएँ देखी जाती हैं तो हैरानी होती है, विराट व सूक्ष्म चमत्कार से लगते हैं। परमाणु तो हमेशा से मौजूद रहा है, जानबूझ कर अदृश्य नहीं था पर इसका देखने का यंत्र विकसित नहीं हो पाया था। इसी तरह परमात्मा भी नित्य व सर्वत्र है पर मनुष्य के अंदर ध्यान समाधि जब तक फलित नहीं होते तब तक हम उसे जान नहीं पाते।

ध्यान व समाधि कैसे संभव हो सकती है इनकी भी विधि है। इनमें अवरोध क्या आता है, कठिनाई क्या आती है ? जीव की प्राथमिक अवस्था में ज्ञान तंत्र नहीं होता। लेकिन अनुभूति होती है, यह एक प्रकार समाधि होती है। वृक्षों की तरफ देखें तो उनमें गहरी शान्ति व समाधि की झलक मिलती है। उनमें ज्ञान नहीं होता मगर उनमें अज्ञान भी नहीं होता। उनके लिए कोई परिचित नहीं पर अपरिचित भी नहीं है। इसी तरह छोटे बच्चे में जब तक कान, आँख आदि ज्ञानेद्रियाँ पूरी तरह काम नहीं करती, वह अन्तस् धारा को अनुभूत करता रहता है। उसे देखकर किसी ऋषि मुनि की समाधि की याद आती है। लेकिन समाधि का शुद्धतम रूप तो ज्ञानेन्द्रियों के निर्माण से पहले अनुभव होता है। परमात्मा ने यह परम सौभाग्य सब को दे रखा है। बाद में चेतना भिन्नता का गुण जब ग्रहण करती है तो समाधि टूट जाती है। प्रत्येक भिन्नता हमारी चेतना के मध्य दीवार का निमार्ण करती है, एक द्वार बंद हो जाता है। अंतस् चेतना बाहरी चेतना के बीच दीवार व द्वारों की एक श्रृंखला बन जाती है। चेतनाएँ एक दूसरे के लिए रहस्य बन जाती हैं। वे एक दूसरे से परिचित हो जाती हैं। इस गुण से कार्य दक्षता में वृद्धि होती है, समाज के विकास में तीव्रता आती है लेकिन जब सुख, शान्ति, आनंद की बात आती है तो मनुष्य मार खा जाता है।

एक व्यक्ति धन से मालामाल हो गया, पद-प्रतिष्ठा की कोई कमी नहीं रही पर अगर उसे मालूम न हो कि उसको जन्म देने वाली माँ कहाँ है, किस हाल में है, सुखी है कि दुखी है या उसके भाई-बीन बिछुड़ जाए, उनका अता-पता मालूम न हो तो व्यक्ति ही समृद्ध होता चला जाए पर उसके हृदय में एक टीस उठती रहेगी कि काश ! वह अपनी समृद्धि को अपनों में बाँट पाता, दिखा पाता, परिचितों में बांटा गया दुःख भी आनन्द देता है जबकि अपरिचितों में राजा बनने पर भी व्यक्ति अनुभूति शून्य रहता है। व्यक्ति के आंतरिक चेतना जगत का भी यही नियम है। अपने से अनभिज्ञ होना बहुत ही कष्टदायी है। हालांकि यह विधाता की जीवन चलाने की तकनीक है पर मनुष्य कि चेतना में ज्ञान की बहुलता है इसलिए मनुष्य का बार-बार ध्यान जाता है, विचार आते हैं कि कहीं कुछ छूटा है। यह विचार जीवन भर कांटे की तरह चुभता है।
ध्यान से चेतना के द्वार खोला जा सकता है। ध्यान से ही इस द्वार का निर्माण हुआ था लेकिन उस अवस्था में ध्यान की तरंग अलग प्रकार थी, मात्रा अलग प्रकार की थी। सबसे बड़ी बात यह है कि उस वक्त अंहकार को दूर कर दिया जाए तो तत्क्षण ध्यान अचेतन की दीवार को पार कर देगा। अंहकार की मौजूदगी ध्यान को असफल कर देती है। हजारों वर्षों से योग, ध्यान, समाधि, आत्मा पर शोध होते रहे हैं,

धर्म का कितना प्रचार-प्रसार होता रहा है, शास्त्रों में बहुत बारीकी से आत्म ज्ञान का वर्णन किया गया है लेकिन जो ध्यान को जितना ध्यान समझकर चेतना में उतारता है उतनी ही जल्दी असफल होकर वापिस लौटता है। लेकिन व्यक्ति जो थोड़ी सी संभावना लेकर चेतना में उतरता है वह सफल हो जाता है। जब व्यक्ति का अपने व्यक्तित्व पर से विश्वास उठ जाए तब वह अपने वास्तविक स्वरूप को खोजने के लिए अंदर उतरता है। वह सफल होता है उसका अहंकार टूटा हुआ होता है। निर अहंकार की अवस्था में चेतना सारे रहस्य खोल देती है।

जीव या मनुष्य की बाहरी चेतना का अंश, बिल्कुल शुरुआती अवस्था दिव्य चेतना जो कि अल्प काल के बाद अचेतन में चली जाती है, का समतुल्य अंश होता है। वही दिव्य चेतना जो कि बाहरी चेतना के साथ एक रस थी, कई अंतरालों में भिन्नता ग्रहण करते रहते इतनी दूरी बना लेती है कि मन के लिए रहस्यमयी व परामात्मा बन जाती है। योग विद्या कहती है कि चेतना को भिन्न-भिन्न विधियों से, सिद्धियों से जगाते चले जाएं तो अचेतन से योग हो सकता है और दिव्य शक्ति की अनुभूति हो सकती है। यहाँ कहना जितना आसान है करना उतना ही कठिन। जब चेतन अचेतन में वियोग होता है तब उन्हें लगता है कि वे स्वेच्छा से अलग हो रहे हैं वस्तुतः वे आभासी कर्ता हैं जबकि जीव के जीवन में जो प्रलेख लिखा होता है वह उन्हें अप्रत्यक्ष रूप में प्रेरित करता है। आभासी कर्ता होने कि वजह से कर्तृव्य का अहंकार हो जाता है। वहीं अहंकार चेतना को परा विद्या से वंचित कर देता है इसी से साधना कठिनतर हो जाती है।

साधना कठिनतर हो जाए तो दूसरे मार्ग खोजे जाते हैं हालांकि वे मार्ग तो परम्परागत मार्ग से और भी ज्यादा कठिन होते हैं पर व्यक्ति के स्वाभाव व परिस्थिति की वजह से वे कारगर हो जाते हैं। वस्तुतः परमात्मा तो पारम्परिक मार्ग से ही मिलेगा लेकिन दूसरे मार्गों की मदद से इसका नक्शा हाथ लग जाता है।, फिर लक्ष्य तक पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं आती है। एक व्यक्ति ज्ञान को बहुत महत्त्व देता है उसके लिए विशेष मार्ग उपयोगी होता है। ज्ञान मार्ग में चेतन को ही अति सक्रिय किया जाता है। एक-एक कदम पूरी तरह होश से, जानते हुए चेतना के अन्तिम छोर तक पहुंचना होता है वहीं पर दिव्य शक्ति मौजूद मिलती है। व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकता कि इतनी नजदीक परा विद्या का स्रोत मिल सकता है। दीपक के नीचे जिस तरह अंधेरा होता है उसी प्रकार चेतना छिपी रहती है।

चेतना मन सम्पूर्ण आत्मा का एक हिस्सा होता है। सिर्फ चेतन अंश सक्रिय होता है बाकी निष्क्रिय अवस्था कुण्डलिनी कहलाती है। व्यक्ति के समस्त जीन एक जगह से जुड़ कर कुण्डली बना कर स्थिति हो जाते हैं। जिस तरह बैटरी में विद्युत धारा संग्रहित होती है उसी प्रकार कुण्डलिनी में ज्ञान की धारा संग्रहित होती है। बाहर से देखें तो यह एक यंत्र जैसी लगती है ध्यान के द्वारा इसमें प्रवेश किया जाता है तो जीव का व्यक्तित्व झलकता है। मनुष्य का मन इस कुण्डलिनी की कुण्डलियों पर चलता है जब कुण्डली बदल जाती है तो मन का भाव भी बदल जाता है। शुरू में जब कुण्डली में प्रवेश किया जाता है तो इसका भयावह रूप दिखाई पड़ता है। काम क्रोध, लोभ, मोह, अंहकार आदि शैतानी भाव विकराल रूप धारण किए मिलते हैं। मनुष्य इन्हें देखते ही बाहर भागता है। इन राक्षसी वृत्तियों के ठीक पीछे दिव्य शक्तियाँ भी मौजूद थी।
इस संसार में हर चीज समतुल बनी हुई है उसी से तो संसार चलता है। पर कम ज्ञान होने की वजह से व्यक्ति भ्रमित हो जाता है। यही अकेला कारण है जो आध्यात्मिक, धार्मिक व सांस्कृतिक सभी विकास किए पर अध्यात्म की उसे अभी भी सुध बुध नहीं है। जबकि इक्कीसवीं सदी तो प्रतिभा सम्पन्नता की सदी है। अभी नहीं तो फिर कभी नहीं। शैतानी प्रवृत्ति से बिल्कुल भी भयभीत नहीं होना चाहिए। यह तो इस बात का प्रतीक है कि दिव्य शक्ति बिल्कुल नजदीक है राक्षसी वृत्ति को तो दिव्य शक्ति की मंजिल में पहुँचने की शुभयात्रा में सहायक मान कर चलना चाहिए।

एक बारगी तो अंतस् यात्रा में उपद्रव को झेलना पड़ता है। चेतना अंश में सक्रिय जीन, अचेतन अंश में सक्रिय जीनों से टकराते हैं, संघर्ष करते हैं, एक युद्ध हो जाता है। यह एक प्रकार का धर्मयुद्ध होता है। दुनिया भर के शास्त्रों में इसका वर्णन मिलता है हम तो शास्त्रों में पढ़ते हैं कि राक्षसों और देवताओं के मध्य खूनी संघर्ष होता है। वह अंतर्यात्रा की अनुभूति का वर्णन है। वस्तुतः जब चेतन मन अचेतन में प्रवेश करता है तो एक दूसरे को इस तरह नहीं जानते कि उनका एक ही मूल है। जैसे मनुष्य जब वन में प्रवेश करता है तो वन्य प्राणी उसे अपने शत्रु के रूप में देखते हैं। एक देश के लोग जब दूसरे देश में जाते हैं तो उनको भय हो जाता है कि ये बर्बाद करने के लिए आए हैं। जब एक जीव दूसरे जीव के कार्य क्षेत्र में, निवास स्थान पर जाता है या एक समुदाय दूसरे समुदाय के पास जाता है तो सब से पहले उनमें संघर्ष होता है। पड़ोस में कोई नया मकान बन रहा रहा हो तो पहले डरावने विचार आयेंगे। न कौन चोर उचक्का है कहाँ से आया है, भला होता तो वहीं न रहता, किसी से भी नहीं बनती होगी, लेकर देना नहीं करके खाना नहीं, न जाने किसका माल हड़प कर आया है। इस तरह के विचार नए विचार पड़ोसी का स्वागत करते हैं यही नियम व अचेतन के प्रथम मिलन का होता है। चेतन व अचेतन में जब संघर्ष होता है तो एक बारगी मनुष्य बेबस हो जाता है। एक ही बात उसका सहारा बनती है कि यह सत्य के मार्ग पर चलने का पहला चरण है।

तपश्चर्या क्या है ? जब चेतानाओं के मध्य संघर्ष होता है तो ऊर्जा विमाचित होती है। ज्ञान के नये द्वार खुलते हैं। बाह्यय चेतना भीतर प्रवेश कर जाती है भीतर चेतना बाहरी व्यक्तित्व में आ जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में मनुष्य अंतरलीन हो जाता है कुछ वर्षों के लिए समाज से संसार से पीछे हट जाता है। दिन रात ध्यान, समाधि, वृत्तियों का निरीक्षण व दिव्य शक्तियों की भिन्न अनुभूतियों में अंतर्दहन का आभास होने लगता है। वस्तुतः यह सत्य के पथ पर प्रथम अंतराल होता है। बाद में चेतन व अचेतन में जब समन्वय व शक्ति स्थापित हो जाती है तो स्वतः ही आत्मिक विकास होने लगता है। बाहर उनकी प्रक्रिया दिखाई नहीं पड़ेगी पर प्रभाव दिखाई पड़ेगा। मनुष्यों के लिए वह दर्शनीय हो जायेगा। जिस तरह शरीर के लिए पौष्टिक भोजन जरूरी है उसी प्रकार आत्मा के लिए दिव्य वृत्तियों कि जरूरत पड़ती है। महान आत्मा के दर्शन करने से दिव्य वृत्तियाँ स्वतः जाग्रत होने लगती हैं। राक्षसी वृत्तियों का अस्थायी रूप में अतिक्रमण हो जाता है। व्यक्ति का व्यसन व वासना से पीछा छूट जाता है।

आज के युग में व्यसन व वासना ने भंयकर रूप धारण कर लिया है उससे भी बुरी बात यह कि उसे सामान्य रूप में लिया जाने लगा है। अब आए दिन कुछ लोग करोड़पति हो जाते हैं। दो मोबाइल होंगे, कार होगी फिर कुछ दिन के लिए प्रॉपर्टी डीलर बन जायेंगे। नये यार दोस्त बनेंगे फिर किसी नशे का शिकार हो जायेंगे, बस अच्छा खासा जीवन बर्बाद हो जायेगा। पूछो तो कहते हैं सभी पीते हैं। एक व्यक्ति रिश्वत लेता है कहता है सभी लेते हैं व व्यसन का शिकार हो गया है। वह नरक की अर्धअवस्था में जी रहा है। एक बार ध्यान अचेतन में उतर जाए फिर कोई भी व्यसन, कोई भी वासना हावी नहीं हो सकेगी। जिस तरह पिटयूटरी ग्रंथि जब सक्रिय होती है तो उसके द्वारा भेजे गये हारमोन दूसरी ग्रन्थियों को भी सक्रिय कर देते हैं। इसी प्रकार ध्यान की सक्रियता अचेतन के बहुत से कारकों को सक्रिय कर देती है।

ध्यान का चेतन से अचेतन में उतरने का एक मार्ग और भी है, कम चेतना की वृत्ति से अचेतन में उतरना। पहला मार्ग तो था चेतन के तीव्रतम बिंदु से अचेतन में उतरना। इस मार्ग में पहला कदम आसान है दूसरा कदम मुश्किल। यहाँ चेतना पूरी तरह सक्रिय है अचेतन पूरी तरह सोया हुआ है। यह अमीर के बंगले जैसा है आलीशान है मगर लोहे के गेट और बड़े-बड़े ताले। दूसरा मार्ग कम चेतन के न्यूरॉनों द्वारा बंद कुण्डली में प्रवेश करना है। इसका पहला कदम कठिन है पर दूसरा कदम आसान यह गरीब के झोपड़े जैसा है, उसके जाने को दिल नहीं करेगा पर एक बार चले गये तो अंदर प्रवेश करना आसान है, कोई रुकावट नहीं मिलेगी।

मनुष्य की आंख, कान आदि ज्ञानेन्द्रियों में जो केन्द्रीय न्यूरॉन होते हैं वे अति सक्रिय होते हैं। यह चेतना का नियम होता है कि वह प्रत्येक न्यूरॉन को थोड़ा-सा भिन्न बनाती है। समान चेतनाएँ एक स्थान पर नहीं रह सकती। जब न्यूरॉनों का निर्माण होता है तो एक न्यूरॉन अपनी चरमसीमा को प्राप्त कर लेता है उसी वक्त निर्माण कार्य रुक जाता है। जो न्यूरॉन कम गुणवत्ता के होते हैं वे सहायक का कार्य करते हैं। लेकिन कार्य क्षमता में कमी होने के बावजूद उनमें बहुत से अच्छे गुण होते हैं। एक गुण तो यह होता है कि चेतना की कम सक्रियता, कम गुणवता कम जागरुकता की वजह से अचेतन अपेक्षाकृत ज्यादा सक्रिय मिलता है। इससे उसमें प्रवेश आसान हो जाता है। यही कारण है कि भोले भाले लोग ईश्वरीय ज्ञान को प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हैं। एक बार ध्यान लग जाए तो अचेतन में जाने के हजारों मार्गों का पता लग जाता है। यह पता चल जाता है किस व्यक्ति कि लिए कौन सा मार्ग, कौन सी विधि ज्यादा उपयुक्त है।

यह एक रहस्य की बात है कि सबसे सरल मार्ग कौन-सा है ? गुरु अपने शिष्य को राज की बात बता सकता है एक बहुत ही प्रतिभावान व्यक्ति अगर केन्द्रीय चेतना पर ध्यान में उतरने की कोशिश करता है तो कामयाब नहीं हो सकता। उस स्थान पर उसका अचेतन एक तरह से निचौड़ा हुआ, मृतप्रायः होता है तभी तो उसके चेतन में प्रतिभा होती है वह अचेतन की शक्ति को लिये हुए होता है। प्रतिभा से थोड़ा पीछे हट कर चेतना को ध्यान के लिए प्रेरित किया जाए तो तुरंत सफलता मिल जाती है। आमतौर पर केन्द्रीय चेतना इसके लिए राजी नहीं होती सौ वर्षों तक उसी का अधिकार बना रहता है। पर अपनी गरज में, अपने स्वार्थ के लिए हालांकि परमार्थ भी इसी से हासिल होता है, सरल हृदय का उपयोग किया जाए तो अंतस् में प्रवेश हो सकता है। परमात्मा की प्राप्ति के लिए थोड़ा सा प्रकृति का अतिक्रमण करना ही चाहिए ऐसा नहीं है कि इससे व्यक्ति प्रकृतिक विरुद्ध हो जायेगा बल्कि वह तो प्रकृति का ज्यादा हिमायती बन जायेगा। ऋषि परमात्मा ही सादगी भरा व प्राकृतिक जीवन बिताते थे।

मनुष्य के मस्तिष्क की ज्ञान कोशिकाओं का स्वभाव बड़ा स्थिर होता है। जब इनमें पूर्ण समन्वय होता है तो जीवन का चौतरफा अनुभव होता है। अंतस् की, बाहर की, अतीत की व भविष्य की अनुभूतियों की धारा बहने लगती है। कुछ ज्ञान कोशिकाएँ अंतस की है। कुछ ज्ञान कोशिकाएँ अंतस् की अनुभूति करती, हैं, कर सकती हैं जबकि कुछ बाहर की अनुभूति करती हैं। वे सब एक वर्तुल में जुड़ जाती हैं। गहरी शान्ति की अनुभूति करती हैं। वस्तुतः यह अनुभूति परमात्मा करता है। इस सृष्टि की रचना परमात्मा ने किस लिए की है, जीव का निर्माण किस लिए किया जाता है ? वह स्वयं के द्वारा अनुभव करता है। जब मनुष्य का ध्यान लग जाता है वह समाधि की अनुभूति कर लेता है तब उसे समस्त ज्ञान कोशिकाओं में समन्वय की कला आ जाती है। वह ईश्वर का उपकरण बन जाता है। हम कहते हैं वह व्यक्ति ईश्वर को समर्पित हो गया।
अगर मनुष्य ध्यान, समाधि से अनभिज्ञ है तो परमात्मा उसके जीवन में अपना जीवन जी रहा है पर उसकी आंशिक अनुभूति होने की वजह से पता नहीं चल पाता। पर कम मनुष्य होने की अनुभूति हो होती है। अगर आंशिक में भी समन्वय नहीं होता है तो व्यक्ति विक्षिप्त जैसा होता है। बहुत से व्यक्तियों को देख सकते हैं कि वे अपने ही बात किये जा रहे हैं। कुपोषण व प्रदूषण की वजह से ज्ञान कोशिकाओं का पूरा विकास नहीं हो पाता। उनमें समन्वय नहीं हो सकता व्यक्ति अल्प बुद्धि रह जाता है। अब ध्यान की, ज्ञान की, समाधि की, मोक्ष की बात छोड़िये, वह सामाजिक जीवन ढंग से जी ले यह भी भगवान की मेहरबानी होगी।

क्यों रह जाती है अल्प बुद्धि ? क्यों ज्ञान कोशिकाओं का पूरा विकास नहीं हो पाता ? एक बच्चे के जन्म देने वाली माँ अगर संतुलित भोजन नहीं खाती है तो बच्चे की ज्ञान कोशिकाओं पर सीधा फर्क पड़ता है। इस काल में दूसरे अंगों के निर्माण का इतना मूल्य नहीं होता जितना ज्ञान कोशिकाओं का। आजकल बाजार में तैयार भोजन को खाने का प्रचलन शुरू हो गया है। खाने में स्वादिष्ट मगर पौष्टिक तत्वों का अभाव ऐसे मनुष्यों का निर्माण करेगा जो जरा से सदमे में ही मानसिक संतुलन खो देंगे। बाजार के भोजन की शुद्धता की भी गारंटी नहीं होती। कुछ लोग जो मिनटों में करोड़पति होना चाहते हैं बाजार में मिलावटी माल उतार देते हैं और व्यक्तियों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करते हैं। हम कहेंगे इससे आत्मा पर क्या फर्क पड़ता होगा। अग्नि जिसे जला नहीं सकती, हवा जिसे सुखा नहीं सकती, उसके लिए किसी तरह की चिंता की आवश्यकता होती ही नहीं। चिंता की आवश्यकता होती है आत्मा का एक हिस्सा नाजुक भी होता है कि क्रोध से उसे देखें तो कुम्हला जाए। आत्मा संवेदनशील नहीं होती तो आध्यात्मिक विकास का न कोई महत्त्व होता और न ही कोई बात होती। आत्मा पर भोजन का, विचारों का, पर्यावरण का पूरा असर पड़ता है। हमें पुराने रूढ़िवादी विचारों को, धारणाओं को छोड़ना होगा। आत्मा को कठोर व कोमल एक साथ माना जाना चाहिए। व्यक्ति को गलत आचरण, व्यसन, मादक द्रव्यों के प्रयोग, हिंसा अहंकार से बचना होगा।

महज जीभ के स्वाद के चलते या किसी विशेष प्रकार के भोजन को प्रिय कह कर लगातार उपयोग करने से शरीर में विशेष तत्त्वों की कमी हो जाती है। कम तत्व के वितरण में अंतद्वर्द्व उत्पन्न होता है। इसमें आत्मिक विकास बाधित होता है। माना हमारे पास कोई ऐसा काम वैज्ञानिक उपकरण नहीं है जो आध्यात्मिक स्तर की सूक्ष्म बातों का परिक्षण कर सके पर ध्यान के अंतः प्रवेश से यह पता लग सकता है कि आत्मा किस दिशा में जा रही है। हालांकि सामाजिक ऐतिहासिक, भौगोलिक जीवन भी विराट स्तर पर इसकी हल्की सी झलक ही दिखला पाता है।

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