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भारत का विभाजन

अमिता इंदर सिंह

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :91
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5661
आईएसबीएन :81-237-5021-7

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विभाजन एक विनाशकारी घटना है और आज भारत इसका सबसे बड़ा उदाहरण है...

Bharat Ka Vibhajan a hindi book by Amita Indar Singh - भारत का विभाजन - अमिता इंदर सिंह

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारत का विभाजन विश्व इतिहास की सबसे विनाशकारी घटनाओं में से एक है। अगस्त, 1947 में भारत और पाकिस्तान में सत्ता का हस्तांतरण ब्रिटेन द्वारा उपनिवेशवादी को खत्म करने की दिशा में पहला महत्त्वपूर्ण कदम था, जिसके साथ उसकी अंतरराष्ट्रीय शक्ति के दूरगामी परिणाम जुड़े थे। इस पुस्तक में बताया गया है कि कैसे और क्यों ब्रिटिश स्वार्थ और भारतीय दलों के राजनीतिक मतभेदों ने मिलकर 15 अगस्त, 1947 में ब्रिटिश भारत का विभाजन कराया, जिसका आधार दिखावे भर के लिए ही धार्मिक था।

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विभाजन : अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में



सन् 1947 में हुआ ब्रिटिश भारत का विभाजन विश्व इतिहास की सबसे विनाशकारी घटनाओं में से एक है, और इस पर बहसों का कोई अंत नहीं है। भारत का यह विभाजन अठारहवीं सदी में यूरोप, एशिया अफ्रीका और मध्य पूर्व में किए गए अनेक विभाजनों में से एक है। प्रायः अधिकांश विभाजनों में जिस तरह विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच जितनी हिंसा हुई, उससे कहीं अधिक हिंसा इस विभाजन में हुई। इसमें किसी अन्य विभाजन की अपेक्षा कहीं अधिक लोग हताहत हुए थे। पता नहीं, कितने लोग मारे गए, विस्थापित हुए और एक स्थान से दूसरे पर जबरन भेजे गए। अनुमान है कि दो लाख से लेकर तीस लाख तक की संख्या के बीच लोगों ने अपनी जानें गवाईं। सन् 1946 से 1951 के बीच अनुमानतः 90 लाख हिंदू और सिख पाकिस्तान से भारत आए तथा लगभग 60 लाख मुसलमान भारत से पाकिस्तान गए।

साम्राज्यशाही ब्रिटेन द्वारा किया गया भारत का यह विभाजन उसके द्वारा किए गए चार विभाजनों में से एक है। उसने आयरलैंड, फिलिस्तीन और साइप्रस के भी विभाजन कराए। उसने इन विभाजनों का कारण यह बताया कि अलग-अलग समुदायों के लोग एक साथ मिलकर नहीं कर सकते। जबकि इन विभाजनों के पीछे केवल धार्मिक और नस्ली कारण नहीं थे, बल्कि ब्रिटेन के सामरिक और राजनीतिक हित भी शामिल थे, जिनके आधार पर समझौतों के समय उसने अपनी रणनीति बनाई और चालें चलकर विभाजन कराए।

दरअसल, ब्रिटेन की इन्हीं चालों की वजह से ये चारों विभाजन हुए।
इससे पहले अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में यूरोप की महाशक्तियों की पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता के परिणामस्वरूप अफ्रीका में विभाजन हुआ और पोलैंड में तीन विभाजन हुए। सन् 1991 में शीत युद्ध की समाप्ति के बाद यूगोस्लाविया में कई विभाजन हुए। इन विभाजनों में यूगोस्लाविया से विभाजित होकर बोस्निया एक नए राज्य के रूप में उभरा। बोस्निया जो एक गणतांत्रिक देश बना, उसमें सर्ब, क्रोट और मुस्लिम तीनों ही अल्पसंख्यक थे। इनमें भी विभाजन हुए और सर्बिया और क्रोशिया अलग-अलग राज्य बने, जिनकी अंतर्राष्ट्रीय सीमाएं युद्ध द्वार निर्धारित हुईं। सन् 2006 में, अब यह अनुमान लगाया जा रहा है कि मुसलमानों और सर्बों के बीच क्या कोसोवो का विभाजन होगा या कोसोवो सर्बिया का ही हिस्सा बना रहेगा।
विभाजनों को लेकर चलने वाली बहसों का कभी अंत होने वाला नहीं है। अलग-अलग समुदायों के लोगों का, जहां साथ-साथ रह पाना संभव न हो, हां उस क्षेत्र का बंटवारा कर उन्हें अलग-अलग बसा देने से क्या समस्या का समाधान हो सकता है ? विभाजन के पक्षधरों का कहना है कि परस्पर विरोधी संघर्षरत पक्षों को विभाजन के मुद्दे पर ही समझौते की मेज पर लाया जा सकता है और संघर्ष को समाप्त कर लोगों की जान बचाई जा सकती है। परस्पर शत्रुतापूर्ण समुदायों को इस बात की आजादी देने पर ही कि वे साथ-साथ मिलकर न रहें, हिंसा को रोका जा सकता है। मतलब यह कि विभाजन द्वारा ही हिंसा को रोकना संभव है।

निष्पक्ष मध्यस्थ ही इस तरह दोनों पक्षों को न्याय दिला सकते हैं। नस्ली या राज्यक्षेत्रीय आधार पर देश का विभाजन दोनों पक्षों को एक राजनीतिक अस्तित्व तथा नस्ली समरूपता दे सकता है। अतः विभाजन ही संघर्ष को रोकने का एक मात्र उपाय है।
विभाजनों के पीछे की सचाई फिर भी एक-दूसरे से अलग है। दरअसल, विभाजन की मांग तभी की जा सकती है जब कम से कम दो नस्ली समुदाय किसी राज्यक्षेत्र विशेष पर अधिकार के लिए सशस्त्र संघर्ष में उतर आएं। एकमात्र एक ही विभाजन ऐसा हुआ है जिसमें हिंसा नहीं हुई, और यह था चेकोस्लोवाकिया का, जो सन् 1992 में हुआ।
विभाजनों से कभी किसी ऐसे देश की स्थापना नहीं हो सकी जहां राज्यक्षेत्रीय नस्ल या धर्म के सामंजस्य की दृष्टि से एक ही नस्ल के लोग रहें।
बोस्निया जो सर्ब, क्रोट और मुस्लिम अल्पसंख्यकों वाला गणतंत्र है, किस तरह एक राष्ट्र राज्य हो सकता है ? सन् 1947 के विभाजन के समय ब्रिटिश पंजाब का मिलाजुला क्षेत्र था जिसमें हिंदू, मुसलमान और सिख सभी समूचे पंजाब में फैले हुए थे। मुसलमानों ने भारतीय उप महाद्वीप का विभाजन कर अपने लिए मुस्लिम गृहराज्य बनवाया, लेकिन उनकी संख्या आज भारत में पाकिस्तान से अधिक है। वैसे भी सभी विभाजनों में विभाजन के बाद अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार के दोनों क्षेत्रों में मिली जुली आबादी ही रहती रही है।

विभिन्न राज्यों के बीच लंबे समय से चले आ रहे संघर्षों के कारण विभाजन होते हैं। सन् 1947 में ब्रिटिश शासित भारत के विभाजन ने कश्मीर के मामले पर पहला अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष पैदा किया जिसे संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में लाया गया : इसके बाद फिलिस्तीन और साइप्रस का मामला भी सुरक्षा परिषद में पहुँचा। दरअसल, विभाजनों ने रिसते हुए घाव ही पैदा किए हैं, जिसका दूसरा उदाहरण है-उत्तरी आयरलैंड।

दुनिया भर के अधिकारी विभाजनों को इसलिए नापसंद करते रहे हैं क्योंकि अधिकांश विभाजन सीमाओं के बलात किए गए परिवर्तन सिद्ध हुए हैं और इनके कारण अनेक गंभीर मानवीय समस्याएँ पैदा हुई हैं। विभाजनों से वे लोग भी निराश हुए हैं जो सोचते हैं कि जातीय विविधता से संपन्नता आती है और यह भी सोचते हैं कि जातीय संघर्षों का मूल कारण कट्टरपंथी और सत्तावादी विचारधारा है।
विभाजन और अलगाव प्रायः निरंकुश राज्यों के कारण होते हैं, क्योंकि निरंकुश शासक चाहे वे साम्राज्यशाही हों या गैर साम्राज्यशाही, फूट डालो और राज करो की नीति पर चलते हैं। निरंकुश शासक न तो जनमत में विश्वास करते हैं और न उस पर अमल करते हैं। सन् 1991 और 1992 के बीच यूगोस्लाविया के जो कई विभाजन हुए वे उसके अधिनायकवादी इतिहास के कारण हुए। ऐसा ही ब्रिटेन ने आयरलैंड भारत और फिलिस्तीन में किया। इन तीनों को ही विरासत में जातीय घृणा और हिंसा मिली थी, और बाद में साइप्रस को भी।

जो लोग विभाजन की मांग करते हैं उनका यह विश्वास होता है कि विभिन्न जातियों और धार्मिक समुदाय के लोग मिल जुलकर नहीं रह सकते। जबकि उनमें बौद्धिक या राजनीतिक मदभेद नहीं होते और ऐसे राष्ट्र व राज्य मिलकर ही रह रहे होते हैं, यदि ऐसा न हो तो जरूरत पड़ने पर उन्हें बलपूर्वक मिलाकर रखना चाहिए।

जितने भी विभाजन हुए हैं वे आंशिकरूप से राज्यराष्ट्र की किसी विशेष विचारधारा से प्रेरित होकर हुए हैं। विभाजन की मांग करनेवाले लोग उस राज्यक्षेत्र विशेष को नस्ल, संस्कृति, भाषा या धर्म से जोड़ देते हैं, जिसमें विभिन्न समुदायों केलोग रहते हैं और इन विभिन्न समुदायों के बीच सशस्त्र संघर्ष पैदा कर दिया जाता है।

दुनिया भर के नब्बे प्रतिशत से अधिक राज्य बहुजातीय हैं। विभिन्न समुदायों को बसाने और उनसे बीच तालमल बैठाने के लिए राष्ट्र और राज्य को एक समन्वयकारी बहुलतावादी अवधारणा की आवश्यता होती है, ताकि राज्य द्वारा सभी समुदायों के अस्तित्व और उनके हित सुरक्षित रहें। इसमें एक-दूसरे के प्रति आदर, सुरक्षा और वैयक्तित्व मानवीय अधिकार शामिल होते हैं।
इसे एक ऐसे लोक तांत्रिक राज्य द्वारा ही उपलब्ध कराया जा सकता है जो अपने आप को किसी एकसमुदाय से जोड़कर न देखे। जातीय, धार्मिक या सांस्कृतिक बहुमत राजनीतिक बहुमत से अलग होता है, क्योंकि राजनीतिक बहुमत में सभी समुदायों के नागरिकों का प्रतिनिधित्व हो सकता है।

धार्मिक, जातीय या सांस्कृतिक विभेदों और राज्य के कारण पैदा की गई जटिलताएं परस्पर गुंथकर ऐसी स्थितियां पैदा कर देती हैं जिनका परिणाम विभाजन ही होता है। इन्हीं कारणों से विश्व के विभिन्न भागों में विभाजन हुए हैं। इस पुस्तक में आगे बताया गया है कि कैसे और क्यों ब्रिटिश स्वार्थ और भारतीय दलों के राजनीतिक मदभेदों ने मिलकर 15 अगस्त, 1947 में ब्रिटिश भारत का विभाजन कराया, जिसका आधार दिखावे भर के लिए ही धार्मिक था।


2
भारत का विभाजन :प्रश्नों के घेरे में


भारत में सत्ता हस्तांतरण के लिए 1946-7 में जो समझौता वार्ताएं हुईं उनमें शामिल तीन पार्टियों में से मुस्लिम लीग विजयी रही। भारत के विभाजन के परिणामस्वरूप भारतीय उप महाद्वीप में एक प्रभुसत्ता-संपन्न ‘मुस्लिम’ राज्य का उदय हुआ जो मुस्लिम संप्रदायवाद या ‘पाकिस्तानी राष्ट्रवाद’ की विजय का संकेत था। विभिन्न कारणों से कांग्रेस और ब्रिटेन के लिए यह विभाजन एक असफलता थी।

यह विभाजन कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष भारतीय एकता के आदर्श के विरुद्ध था। और इस विभाजन ने ब्रिटेन की उन योजनाओं पर पानी फेर दिया था, जिनके तहत वह स्वयं को विश्व शक्ति के रूप में, अविभाजित एवं स्वतंत्र भारत को अपना सैनिक अड्डा बनाना चाह रहा था। आधी सदी से अधिक समय बीत जाने के बाद आज भी, यह विभाजन निरंतर विमर्श का विषय बना हुआ है कि भारतीय उप महाद्वीप का विभाजन क्यों और कैसे हुआ ?

अधिकांश तर्क विभाजन के ‘दोषारोपण’ में हिस्सेदारी के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं, विशेषकर भारत और ब्रिटेन के, जो विभाजन नहीं चाहते थे। भारत इस विभाजन के लिए ब्रिटेन की विभाजनकारी नीतियों को दोषी ठहराता है, तो भारत और ब्रिटेन दोनों ही नेहरू की विचारधारा के प्रति उनकी हठधर्मिता को दोषी मानते हैं, जिसने सन् 1937 और 1946 में मुस्लिम लीग को शामिल नहीं होने दिया। ब्रिटेन ने यह भी दावा किया कि विभाजन को रोकने के लिए उसने सभी संभव प्रयास किए, इसलिए विभाजन के लिए भारत की राजनीतिक पार्टियां ही जिम्मेदार हैं।


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