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भाग्य चक्र

लक्ष्मी सहाय सिनहा

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :127
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5672
आईएसबीएन :81-7721-030-0

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प्रस्तुत कहानियाँ हमारे समाज के उत्थान व पतन का दिग्दर्शन कराती हैं....

Bhagya Chakra a hindi book by Laxmi Sahay Sinha - भाग्य चक्र- लक्ष्मी सहाय सिनहा

प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश


"प्रतिदिन छत्तीस किलोमीटर एक तरफ हुए, फिर उतना ही बोझ उसी दिन लादकर उतनी ही यात्रा फिर पूरी करना मेरी कल्पना के बाहर की चीज है।" कमला की ओर एक अविश्वास की मुद्रा में देखते हुए मैंने कहा।
"आप तो स्वयं ही देख रहे हैं। यह काम तो वे बरसों से करते आ रहे हैं। इनके लिए यह कोई नई बात नहीं है।"
मन में जिज्ञासा हुई-दो बातें इन तपस्वी महाशय से करूँ।

"आप इतना बड़ा बोझ लिये इतनी लंबी यात्रा, वह भी रोज कैसे कर लेते हैं ? मुझे तो बड़ा आश्चर्य होता है।"
"का बताई रउरा के ! लरिकन खातिर ही तो मनई कुल करत बाड़ैं। पढ़ लिख जइहैं त मन के संतोष होई। उन्हई के खातिर त जिंजगी बा।" उन्होंने बिना कुछ सोचे हुए ही मेरी शंका जैसे दूर कर दी हो।

यह बात समझ में आ रही थी कि उन्होंने अपने समस्त जीवन को, अपनी संपूर्ण साधना को अपने बच्चों को पालने तथा ऊपर उठाने के लिए लगाया था। उन्हीं का भविष्य निर्माण का स्वप्न उन्हें बल देता है; इतनी शक्ति देता है कि इतनी बड़ी साधना और तपस्या को वे साधारण सी दिनचर्या ही समझते हैं।
कमला को उनके विषय में अधिक जानकारी थी, इसलिए मैंने उनसे पूछा कि...


इसी संग्रह से


इस संग्रह की कहानियाँ जहाँ हमारे समाज के उत्थान व पतन का दिग्दर्शन कराती हैं वहीं समाज-जीवन की उन सच्चाइयों को भी बयान करती हैं, जिन्हें हम प्रायः नजरअंदाज कर देते हैं। उन्हें पढ़कर पाठकों का जीवन के एक नए आयाम से परिचय होता है, जो उनके चिंतन एवं विचारों को और अधिक परिपुष्ट करेगा।


लॉटरी का चस्का



जैसी ही 3009 नंबर के मकान के सामने पहुँचा, फाटक से ही पीछे के कमरे में एक बड़ा-सा ताला नजर आया। जाहिर था, किराएदार शुक्लाजी उपस्थित नहीं थे। फिर भी पूछताछ करना जरूरी था, तो मकान मालकिन श्रीमती वर्मा (वर्माजी की पोस्टिंग उत्तर प्रदेश के सुदूर पर्वतीय प्रांत में हो गई। थी तथा वे महीने दो महीने बाद ही छुट्टियों में आते थे) का दरवाजा खटखटाया।

श्रीमती वर्मा बड़े आदर भाव से निकलीं तथा मुसकराते हुए अभिवादन किया, कहाँ रह गए थे, जीजाजी, महीनों बाद लौटे हैं।" और बड़े आग्रह के साथ उन्होंने बैठक खोलकर मुझे बिठा दिया। बेटी को चाय बनाने का आदेश देते हुए मुझसे इधर-उधर की बातें छेड़ दीं। पहले बड़ी लड़की की चर्चा जो महानगरी में ही लगभग पाँच किलोमीटर दूर ससुराल में थी, फिर लड़के की, जो महाराष्ट्र में इंजीनियरिंग का विद्यार्थी था; फिर उस लड़की की पढ़ाई के बारे में, जो किचेन में चाय बनाने गई थी-"क्या बताएँ, जीजाजी ! पढ़ाई में ऋतु का जी ही नहीं लगता। साइंस ले रखी है, देखें, क्या करती है ! अब की तो बोर्ड की परीक्षा है।"

उनके स्वतः कथन की समाप्ति के पश्चात् मैंने अपनी अनुपस्थिति के कारण पर प्रकाश डाला तथा उन्हें समझाया कि कैसे बड़े भतीजे के आग्रह पर तीन माह भोपाल रह गया, फिर बेटी के बार-बार बुलाने पर तीन माह के लिए वडोदरा चला गया था, जहाँ पर क्रम से तीसरी, छठी तथा दसवीं कक्षा में पढ़ रहे नातियों की पढ़ाई से जूझता रहा। इसी बीच श्रीमती वर्मा के ग्राहकों के आ जाने पर बातचीत में व्यवधान आ गया। उन्होंने मकान के एक कोने में साड़ी की दुकान खोल रखी थी, जहाँ पर महिलाएँ प्रायः साड़ियाँ खरीदने आया करती थीं। दो-एक साड़ी बेचने के बाद वे फिर आ गईं। चाय की प्यालियाँ भी पहुँच चुकी थीं।

"क्या करें, जीजाजी ! यदि आमदनी का और कोई जरिया न किया जाए तो खर्चा नहीं चलता।" श्रीमती वर्मा ने अपनी दुकान के पक्ष में तर्क उपस्थित करके हुए कहा।
"क्यों नहीं, क्यों नहीं ! आपका खर्च बढ़ गया है। लड़के को भी काफी रुपए भेजने होते होंगे; पर आपको थोड़ा बहुत किराया भी तो मिलता ही होगा। शुक्लाजी तो रहते हैं न ?"
"रहते क्यों नहीं हैं और हमारा किराया पाँच सौ रुपए हर माह बराबर दे देते हैं, भले ही कर्जे से लदे हों।" फिर श्रीमती वर्मा ने शुक्लाजी के कर्जे के बारे में ब्योरेवार कहानी बताई कि कैसे कुल मिलाकर उनके ऊपर लगभग एक लाख रुपया कर्ज चढ़ चुका है।

मैं अवाक् रह गया तथा उनकी और भी कहानी सुन लेना चाहता था।
श्रीमती वर्मा (इंदू वर्मा) ने बताया कि शुक्लाजी ने कुछ ही देर पहले उन्हें फोन किया है कि अगले माह के दूसरे मंगल के दिन वे अपना सामान ले जाएँगे तथा यह भी प्रार्थना की है कि किसी को भी उनके बारे में सूचना न दें।
"उनके ऊपर क्यों कर्ज चढ़ गया है ?" मैंने जानना चाहा।
"बस, यही लॉटरी के नरेश ने उन्हें तबाह कर दिया। सैकड़ों टिकट एक बार में खरीदते थे और उनका नंबर नहीं खुलता था। बस, सारे रुपए डूब जाते थे। दूसरी बार फिर वही सिलसिला-और भी अधिक टिकटों की खरीदारी, जिससे कोई-न-कोई नंबर लग ही जाए। पर हर बार निराशा ही हाथ लगती। भला तनख्वाह से गुजारा कहाँ और एक बेचारे एल.डी.सी. को मिलते ही कितने हैं। बीवी और एक बच्चा घर में। उधार-पर-उधार लेते जाते थे-किसी से पाँच हजार, किसी से आठ हजार; बस ऐसे ही। मिसेज शर्मा ही पूछ रही थीं कि शुक्लाजी कब आएँगे, तो हमने कह दिया कि यहाँ तो महीनों से नहीं हैं। दो कुरसियाँ पड़ी हैं बस। बेचारी रो रही थी कि उनके भी आठ हजार बाकी हैं।"
शुक्लाजी से मेरी भी जब भेंट हुई थी तो उनका व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली लगा था। कुरता पाजामा पहने हुए तथा आँखों पर बिना रिम का एक चश्मा

दुबला पतला, फिर भी स्वस्थ शरीर, रंग गेहुँआ तथा बाल काले और घने, बीच से माँग निकाले हुए, पान हमेशा मुँह में भरे हुए, बड़े ही मृदुभाषी थे वे। दो मिनट की बात में ही अपना जादू छोड़ जाते थे। कैसे एक लाख का कर्ज उनके ऊपर हो गया और उससे अधिक यह कि कैसे पैसा वसूलने में वे सफल हो जाते थे-मेरी जिज्ञासा बनी हुई थी। श्रीमती वर्मा ने ही उनकी गतिविधियों पर प्रकाश डाला-

"टेलीफोन लगाने या किसी सरकारी विभाग से काम कराने की आवश्यकता प्रायः ही लोगों को रहती है। वे ऐसे लोगों की तलाश में रहते हैं, जो पहुँचवाला हो तथा दौड़-भाग कर सकता हो, भले ही थोड़ा-बहुत पैसा खर्च करना पड़ा जाए। शर्मा दंपती भी ऐसे जरूरतमंद लोगों में से थे, जिन्हें एक पहुँचवाले व्यक्ति की जरूरत थी। उनके भाग्य से, या दुर्भाग्य से कहिए, शुक्लाजी से उनकी भेंट हो गई। बस फोन लगवाने के लिए आठ हजार गँवा दिए-चार हजार फोन के मद में तथा उसी की आड़ में वे चार हजार कर्ज भी दे बैठे। श्रीमती शर्मा को ही फोन का रोग अधिक सताए हुए था। उनकी बहन के पति किसी विभाग में इंजीनियर थे और उन्हें घरपर सरकारी फोन मिला हुआ था। इन्हें भी धुन सवार हो गई कि उनके यहाँ भी शीघ्र से शीघ्र फोन लग जाए। शुक्लाजी ने बताया था कि उनके एक निकट के संबंधी टेलीफोन विभाग में दिल्ली में जनरल मैनेजर हैं तथा लखनऊ के संबंधित अधिकारी को फोन कर देंगे तो मिनटों में काम बन जाएगा। वे मिनट महीनों लाँघकर वर्षों में प्रवेश कर गए, पर बात नहीं बनी थी। रुपए की माँग जब भी की जाती, वे बड़ी ही चतुराई से टाल दिया करते। फोन वाले मरीज और भी थे जिनसे शुक्लाजी लंबी लंबी वसूली कर लाए थे। टेलीफोन के अतिरिक्त कुछ और भी क्षेत्र थे, जहाँ शुक्लाजी का दखल था।

आवास-विकास परिषद् तथा एल.डी.ए. (लखनऊ विकास प्राधिकरण) में मकान आवंटित करनेवाले उम्मीदावर भी उन्हें मिल जाते, जिनका काम अटका रहता। वहाँ से काम करवाने का भी ठेका प्रायः वे निस्संकोच ले लेते थे। यहाँ पर भी संभवतः वे अपना प्रभाव बनाए हुए थे; पर सारा रुपया इस मृग मरीचिकावाली लॉटरी में ही लगाते जाते, जहाँ से परिणाम शून्य ही निकलता; पर यह जिगर उन्हीं का था कि हताशा का नाम नहीं और चेहरे पर वही मुसकान। भाग्य की विडंबना जब से यह लत पड़ी रुपया डूबता ही गया तथा सारी की सारी टिकटें धरी की धरी रह जातीं। दो तीन बार तो लॉटरी आते-आते रह गई। बस, अंतिम अंकों ने ही धोखा दे दिया, वरना लाखों के स्वामी बन बैठते। सिक्किम लॉटरी भूटान लॉटरी तथा असम लॉटरी और भी न जाने कहाँ-कहाँ की लॉटरियाँ उनको निरंतर लुभाती रहतीं और हर बार ही बिना चूके धोखा दे जातीं। पर फिर वही नई आशा लिये मैदान में उतर आते तथा और अधिक संख्या में टिकट खरीदते। पराजय स्वीकार करना उन्होंने सीखा नहीं था। भले ही दीवालिया बन गए हों।"

श्रीमती वर्मा ने जैसे-जैसे शुक्लाजी के विशाल ऋण की कहानी समझाई, मेरा मन उनके प्रति सहानुभूति अनुभव करने लगा। मैं प्रश्न कर बैठा, फिर यह बताइए, इनके परिवार का खर्च कैसे चलता है ?"
"बस यही समझ लीजिए कि भगवान् ही किसी ढंग से बेड़ा खे रहे हैं। बीवी के गहने बिक गए, केवल उसके गले का मंगलसूत्र बाकी है। बिलकुल बेजबान लड़की है। आज तक एक बार भी विद्रोह का स्वर नहीं सुना। सहनशीलता की तो मूर्ति है।"
"उसके माँ-बाप से कुछ मदद मिल जाती है या नहीं ?"
"हाँ, जरूर ! उनकी खेती-बाड़ी का सिलसिला है। खेती बड़े पैमाने पर तो नहीं है, फिर भी काफी है। एक बोरा चावल तथा एक बोरा गेहूँ रख गए थे। उन्हें दालें खरीदनी पड़ती थीं; पर उनकी और भी लड़कियाँ हैं, पारिवारिक जिम्मेदारियाँ हैं, कहाँ तक बोझा उठाएँगे बेचारे।"

शुक्लाजी की पत्नी को मैं जानता नहीं था। दूर से ही एक झलक देखी थी। बड़ी सौम्य दीखती थी, भारतीय नारी की प्रतिमूर्ति। अब केवल अनुमान ही लगा सकता हूँ कि उसका कितना त्यागमय साधना का जीवन रहा होगा। पति की कमजोरियों की शिकार होते हुए भी उसने उनकी बातों का प्रतिकार नहीं किया।
काफी देर तक बातें होती रहीं, तभी श्रीमती वर्मा को ध्यान आया कि उन्होंने मेरे आने का मंतव्य नहीं पूछा।
"कोई काम तो नहीं था, जीजाजी ? कैसे आना हुआ, मैंने तो पूछा ही नहीं।"
"नहीं, कोई बात नहीं है।" मैंने धीमे स्वर में ही स्वीकार किया।
"नहीं-नहीं, कोई बात है। बताइए न, हम भरसक आपकी मदद करेंगे।"

यह एक वास्तविकता थी कि वे प्रायः ही दूसरों की मदद किया करती थीं। किसी को सहारा नहीं मिल रहा हो तो वे उनके यहाँ पहुँच जाती थीं। किसी को खाने पकानेवाली की आवश्यकता होती, तो वे भी इन्हीं से याचना करतीं। किसी को गैस सिलेंडर की जरूरत पड़ जाती तो वे भी इनकी सहायता की अपेक्षा रखते। इसी प्रकार यह सभी के छोटे बड़े कामों को करने का प्रयास करतीं।

मैं अपनी बात नहीं कहना चाहता था, पर उन्होंने जिद की तो कहानी पड़ी।
"बात यह है, इंदूजी कि मैंने भी एक हजार रुपए फोन लगवाने के लिए दिए थे। उसी के लिए आया था।"
"लीजिए, तो आप भी उनके जाल में फँस गए। बहुत कठिन है वसूल करना; पर कहिए तो कोशिश करें।"
मैंने कहा, "अब जाने भी दीजिए। हमारी रकम तो औरों को अपेक्षा बहुत कम है। नहीं भी मिली तो कोई बात नहीं।" यह कहते हुए मैंने इंदूजी को नमस्कार किया और अपने घर की ओर चल दिया।



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