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कहानी संग्रह >> लकड़बग्घा

लकड़बग्घा

चित्रा मुदगल

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5680
आईएसबीएन :81-288-1353-6

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नारी-अस्मिता और मानवीय विकास से जुड़े मामलों पर रचनात्मक लेखनुमा कहानी संग्रह

Lakadbaggha - A Book of Stories by Chitra Mudgal. The books brings out some interesting issues regarding prestige of womankind and development of Humanity

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नारी-अस्मिता और मानवीय विकास से जुड़े मसलों पर अपने रचनात्मक लेखन और सांस्कृतिक सहभागिता निभाने वाले लोगों में हिन्दी की चर्चित कथाकार चित्रा मुद्गल आज एक जाना-पहचाना नाम है। आधुनिक भारतीय कथा साहित्य में एक उल्लेखनीय और सम्मानित रचनाकार हैं। उनके रचनात्मक लेखन के बारे में कहा जाता है कि समकालीन यथार्थ को वह जिस अद्भुत भाषिक संवेदना के साथ अपनी कथा कृतियों में परत-दर-परत अनेक अर्थ छवियों में अन्वेषित करती हैं, वह चकित कर देने वाला है। लकड़बग्घा (कथा संग्रह) ऐसी ही कहानी संग्रह है जिसमें भाषिक संवेदना के साथ-साथ आम लोगों का दुःख-दर्द है।

मैं और मेरा लेखन

कागज़ कलम अपने हाथों में देखकर अक्सर उसे अचरज होता है। वह पैड पर ढेर से कोरे कागज़ लगाए, बगल में कलम रखे, कागज़ों की सफेदी को घूरा करती है दृष्टि की उंगलियों से कुछ खोया हुआ टटोलती हुई कोरे कागज़ों की कोई दुनिया होती है ? होती है, उसे महसूस होता है। पन्ने जब भी फड़फड़ाते हैं, खाली पेटों की कराह से निस्तब्ध रात्रि में, डनलप में धंसी नींदों को चौंकाकर, एक अजीब-सी दहशत घोलते हुए, कुत्तों से रोने लगते हैं। जिनका रुदन अपशकुनी माना जाता है। कागज़ों की फड़फड़ाहट वह अपशकुन ही तो है...डनलप में धंसी नींदों के सुख-संतोष में अकस्मात् खलल बोता हुआ। मगर उनकी दुनिया कागज़ों से नहीं, कैनवस से शुरू होना चाहती थी। वह सोचती थी, कैनवस के किसी सिरे पर वह कूंची की कुदाल और फावड़े से अपनी इमारत की नींव खोदना शुरू करेगी। जिसकी गहराई में उसकी अपनी इमारत की चिनाई शुरू होगी और उस इमारत की खिड़कियां, रोशनदान उन सभी दिशाओं की ओर खुलती होंगी, जहां अपने-अपने कैनवस में अपनी दुनिया का संघर्ष जीता हुआ प्रत्येक व्यक्ति अपनी इमारत की नींव खोद रहा होगा। पता नहीं हाथ, में आया हुआ कैनवस कब, कहां, कैसे छूट गया और चौके वाली खमसार के बाहर वाले चूल्हे के ऊपर बने आले में रखी लालटेन की रोशनी में पिता को चिट्टी लिखने के लिए कॉपी में से फाड़ा गया पन्ना अचानक कागज़ों का पुलिंदा बन उसकी दुनिया में परिवर्तित हो उठा...

किसके साथ रहना है तुम्हें ? मां के साथ या मेरे ?" बच्ची से सवाल किया गया।
वह बोरीबंदर स्टेशन था। प्लेटफार्म नंबर नौ। पंजाब मेल से वे गांव के लिए रवाना हो रहे थे। प्रथम श्रेणी के कूपे में माथे तक घूंघट काढ़े बैठी अम्मा सिसकियां भर रही थीं। बगल में बड़े भाई और उससे तीन साल छोटी बहन। भाई चुप ? बहन की आँखों से सहमापन ! वह डिब्बे से बाहर डैडी से सटी खड़ी हुई। उन लोगों से कुछ दूर गहमागहमी में उलझे हुए से खड़े उसके डॉ. बाबा बजरंग सिंह, डैडी का प्रश्न सुन उसकी छह साला की अबोध उम्र अचकचा उठी थी। इस प्रश्न का क्या उत्तर हो सकता था ?...‘दोनों को’ बच्ची ने बड़ी चतुरता से जवाब दिया था। और तभी गाड़ी ने सीटी दी। आगे बढ़कर बाबा ने उसे डैडी से अलग कर दरवाजे की ओर खींच लिया। गाड़ी चल पड़ी। डैडी ने आगे बढ़ते हुए बाबा के पाँव छुए और उसके माथे को चूमा और फिर ड़ैडी भीड़ का हिस्सा होते हुए अचानक उसकी नजर से ओझल हो गए। बाबा ने कूपे का दरवाजा बंद कर लिया। अम्मा अब भी सिसक रही थीं घूंघट में। बच्चों की समझ में नहीं आ रहा-वे कहां जा रहे हैं। बाबा को उसने कई बार देखा था। गांव उसने नहीं देखा था। गांव कैसा होगा ? डैडी ने बताया था, गांव में खूब सारी गाय, भैंस है, डैडी दूध दुहना चाहते हैं। जब वह उनके संग गांव चलेगी, उसे दूध दुह कर दिखाएंगे। वह सफेद चकते वाला घोड़ा भी दिखाएंगे जिसकी सवारी वह किया करते थे और जिस पर बैठकर वह अपने मित्र गुलाब सिंह के साथ अक्सर कटरी के जंगलों में शिकार खेलने जाया करते थे। वह डैडी के बिना गांव जा रही थी। पता नहीं, बाबा उसे वह सब दिखाएंगे या नहीं। डैडी ने उससे यह सवाल क्यों पूछा था ?...

...हाँ यही है भरतीपुर का गलियारा है, जो कन्या पाठशाला की बगल से निकलता हुआ उस ओर मुड़ जाता है, जहां से सगवर की शुरुआत होती है और उसी शुरुआत पर लड़कों का मदरसा है। पाठशाला के सामने सिंघाड़े की बेलों से आच्छादित विशाल तालाब है। तालाब के किनारे धोबियों के कपड़े धोने के पत्थर गड़े हुए हैं। पाठशाला के साथ सटा हुआ शिवाला है, पीपल के पेड़ की छांह में। तने के नीचे बने कच्चे चबूतरे पर एक पंडित जी बैठे रहते। वह पाठशाला की बच्चियों को दो-दो पैसों में कचालू और गुड़ की भुरभुरी सी मिठाई का पत्ता बेचते। बच्ची को वह पाठशाला अजीब लगती है। फर्श पर टाट की पट्टियां बिछी हुई हैं। बच्चियां उसी पर बैठती हैं। धूल और मिट्टी भरे फर्श पर बड़ी अध्यापिका भी कभी-कभी उन्हें पढ़ाने आती हैं। मनोरमा बहन जी उन लोगों को समवेत स्वर में गिनती रटवाती हैं। बच्ची कक्षा में सहमी-सहमी बैठी रहती है। कन्या पाठशाला वैसी क्यों नहीं है जैसा कि विलेपारले मुम्बई में उसका कई माले वाला सुंदर-सा स्कूल था ?

 वहां स्कूल ही अच्छा नहीं था। खपरैलों वाला विशाल बंगला भी बड़ा विचित्र और लुभावना था। बड़े-बड़े हालनुमा कमरे-आगे रेलिंग लगा खूब चौड़ा बरामदा। चारों ओर खूब खुला अहाता। हॉल की छत से लगी घन्नी की शक्ल में नक्काशीदार शहतीर, कबूतर के जोड़े उस शहतीर पर बैठे ‘गुटरगूं’ किया करते। वह उन्हें अबोध विस्मित दृष्टि से देखा करती। कई दफा उसने मेज पर चढ़कर उस ऊंचाई तक पहुंचने की कोशिश की कि वह कबूतरों के कोटरों तक पहुंच सके और उन्हें बहुत करीब से देर छू सके, भले वे उसके हाथ बढ़ाते ही फड़फड़ाकर उड़ जाएं। उसे तो खुशी होगी कि वह उनके करीब तक पहुंच सकी...लेकिन वे उससे छूट गए। पाठशाला की बगल में पीपल के उस वृक्ष पर जैसे कबूतर उसे नहीं दिखे हैं। दिखे भी तो वैसे नहीं लगे जैसे कि विलेपारले वाले उस विशाल बंगले की नक्काशीदार शहतीर पर बैठे हुए लगते थे...

.....भुसौरे से रामसेवक बारी के छोटे बेटे भीखू ने एक बोरी गेहूं चुरा लिया है। उसकी चोरी पकड़ी गई है। दुआर के विशाल सघन नीम के तने से उसे बांध दिया गया है। बड़े बप्पा हाथ में हंटर लिए अपने बंगले से बाहर निकलते हैं। हंटर हवा में लपलपाने लगता है। तने से भीखू की बंधी देह आर्तनाद के साथ कसमसाने लगती है। भसके कलींदे-सी उसकी काली देह लहू लुहान हो उठी है। ‘सडाक्... सड़ाक्’ वह विशाल दरवाजे की सांध से सटी तमाम जोड़ी आँखों के संग आंखें गड़ाए यह दर्दनाक दृश्य देख रही हैं। बारी काका और बारिन काकी बड़े बप्पा के पांवों पर लोट रहे हैं-‘क्षमा करि देव मालिक तुम्हार परजा हन.....बहिकगा बचुआ...एक मौका अउर दै देव...अब जो मुट्ठी भूर भूसिव हियां से हुआं कीन्हिस तौ दहिजार खाल खीचि के भूसा भरि दीन्हेऊ मालिक ! बारिन काकी की बड़ी बिटिया भगतिन और छोटी बिटान भी भाई की दुर्गति पर कलपती हुई बड़े बप्पा के हाथ पांव जोड़ रही है। लेकिन बड़े बप्पा का हाथ तब तक नहीं रुकता जब तब वह स्वयं थककर चूर नहीं हो जाते।  भीखू की बंधी देह पर गरदन एक ओर लुढ़क गई है।
बच्ची दहशत से कांपने लगी है....

एक बोरी गेहूं की बात नहीं है। बात गेहूं चुराने तक की सीमित होती तो बड़े बप्पा इतने निर्दयी नहीं हैं कि उसे क्षमा कर देते। बड़ा उत्पाती है भिक्खुआ ! उसकी अनेक कुचेष्टाओं को उन्होंने जब तक नजरअंदाज किया है। दरअसल भीखू डकैतों में शामिल हो गया है, बड़े बप्पा के पास पक्की खबर है कि अहरेऊरा में...फलाने सिंह के यहां जो डकैती पड़ी थी, उसमें भीखू भी शरीक था...
बच्ची सोचती है, एक बोरी गेहूँ के पीछे इतने हंटर ! कोई डकैतों की टोली में नहीं शामिल होगा तो क्या करेगा ?
बारिन काकी आजी से हल्दी की गांठ ले जा रही है।
ठीक घंटे-डेढ़-घंटे बाद बड़े बप्पा झक्क सफेद धोती, कुर्ता पहने पुरवा के अपने डॉक्टर मित्र के साथ हाथी पर सवार हो पुरवा रवाना हो गए। कुछ हुआ ही नहीं हो जैसे।

बच्ची अब तक स्तब्ध है। उसे अच्छी तरह याद है। वेदना से छटपटा रहे भीखू को देखकर उसके मन में आया था, बड़े बप्पा के हाथ से हंटर लपककर वह उन पर तब तक बरसाती रहे जब तक कि वह भींखू की ही भांति गरदन एक ओर लुढ़काकर मुर्च्छित न हो जाएं..
बच्ची का मन उचाट हो रहा है।
वह डैडी को पत्र लिखती है। वे उसके पास क्यों नहीं रह सकते ? यहां गांव में क्यों छोड़ दिया है उन्होंने ? लोग कहते हैं, बाबू ने किसी को रख लिया है। उसे उनकी याद आ रही है..आकर उन्हें ले जाएं। बड़े बप्पा उसे राक्षस लगते हैं।
गर्मियों की एक रात कुटुंब सोने की तैयारी कर रहा है कि अचानक दरवाजे से किसी की आवाज भीतर दौड़ती चली आ रही है, "बाबू भैया आए हैं, मुम्बई से..’
वह खुश है, सब मुम्बई लौट रहे हैं।

यह घर नया था, विलेपारले वाले बंगले की अपेक्षा बेहद छोटा। उसके बप्पा, जिन्हें उसने डैडी कहना छोड़कर इसी संबोधन से पुकारना शुरू कर दिया था और उसे यह संबोधन अधिक अच्छा लगने लगा था-घर पर कम ही रहते थे। एम.ई.एस. क्वाटर्स के पीछे उनका एक विशाल फार्म हाउस था, जिसकी देखभाल माली जग्गू किया करता था..बप्पा वहीं रहते, वहीं से शिकार पर निकल जाया करते और तभी तुलसी लेक के जंगलों में शेर मारकर जीप में लदवाये चले आते तो कभी घाना जिले के जंगलों से कोई अन्य हिंस्र पशु। आदिवासी गांवों में यह ठाकुर साहब के नाम से जाने जाते थे। उसे याद है, सद्धू आदिवासी के घर एक बार वह भी उनके संग शिकार पर गई थी। वहीं पर बप्पा ने उसे पहली बार बंदूक पकड़ना और निशाना साधना सिखाया था। एक चिड़िया का लक्ष्य बनाकर गोली दागते हुए बंदूक अचानक दहशत से उसके हाथों से छूटकर गिर गयी थी। बप्पा ने क्रोध से जलती आंखों से सद्धू और अन्य ग्रामवासियों के सामने उसे डपटा था, इतनी जोर से कि उसे लगा था कि उनकी आवाज में एक ऐसी दहाड़ है जो हड्डियों में सूजे-सी उतरती हुई व्यक्ति को निष्प्राण कर देती है-‘पकड़ो ठीक से एक आंख दबाकर निशाना साधो...ट्रिगर दबाओ !’

उसकी किशोर उंगलिया कांप रही थीं क्यों यह आदमी उससे एक चिड़िया की हत्या करवा रहा है ?...
‘नहीं...’ उसने दृढ़ शब्दों में प्रतिवाद किया था।
‘निशाना साधो...
और अचानक हिलती टहनी पर बैठी चिड़िया की जगह उसे बड़े बप्पा का चेहरा झूलता दिखाई दिया था। उसने ट्रिगर दबा दी थी और गोली चलने की आवाज से कांपती हुई वह मूर्च्छित हो गई थी।
जंगल से वापसी पर उसने सहमी आंखों से देखा था, सद्धू के हाथों में पांच छह मरे हुए खरगोश लटके हुए थे। क्या उसके बप्पा भी बड़े जैसे निर्दयी और कठोर हैं।
वह रेसकोर्स क्लब में उनकी घुड़सवारी सिखाने की इच्छा पर भी पानी फेर बैठी थी। घोड़े से गिरकर, बाएं घुटने पर चार टांके लगे थे। सिर फट गया था।

 

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