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हास्य-व्यंग्य >> महागुरु

महागुरु

हरि जोशी

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5683
आईएसबीएन :81-85830-19-3

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आज की राजनीतिक भ्रष्टता में आदमी की विवशता को प्रस्तुत उपन्यास में व्यंग्य के माध्यम से उकेरा गया है...

Mahaguru

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


 ‘‘ये पढ़े-लिखे लोग कौन होते हैं, पिताजी ?’’
‘‘जिसके पास जितनी बड़ी डिग्री हो, वह उतना ही अधिक पढ़ा-लिखा !’’
नखत कुछ सोचता रहा, यह डिग्री क्या होता है ? उसने प्रश्न किया, ‘‘समाचारों में वाचक बताते हैं कि आज का तापमान कल से पांच डिग्री अधिक था, ऐसा ही कुछ इस डिग्री में होता है क्या ?’’
‘‘हाँ, बेटा, हाँ ! यदि दिन में तापमान कुछ डिग्री अधिक होता है। कुछ डिग्री कम यानी दिन ठंडा होता है। ठीक इसी प्रकार, जिसके पास अधिक डिग्रियाँ होती हैं, उससे कम डिग्रीवाले मनुष्य की तुलना में अधिक गरमी होती है। बात-बात में उसकी गरमी छलककर बाहर आ जाती है।’’

‘‘लेकिन दादीजी तो ‘विद्या ददाति विनयम्’ का आदर्श मुझे सिखाते थे कि विनय न आई तो व्यक्ति ने विद्या ही अर्जित नहीं की !’’
‘‘ठीक है, पिताजी के समय में वही सिद्धांत था। हमारे समय में वह नियम थोड़ा बदला हुआ है। अब हो गया है-‘विद्या ददाति तापम्’ अथवा ‘विद्या ददाति पाखंडम्’। अब विद्या का अर्थ चिन्तन, मनन, अध्ययन न होकर येन-केन-प्रकोरण डिग्री हथियाना है। परीक्षकों तक सिफारिशों और पहुँच या अंकों की हेराफेरी, कुछ भी करना पड़े, लेकिन ऊँची डिग्री अपने पास होना आवश्यक है। यही आज की प्रगति मानी जाती है।’’


1



कोई भी माँ थोड़े-से अनुभव के बाद ही समझ लेती है कि बच्चे के लिए झूलाघर का अनुभव एक महती आवश्यकता है। उसे शिशु रहते ही समझ लेना चाहिए कि इस समाज में उसे एक सीमा के भीतर ही आना-जाना है। लटकते रहना है। बँधकर कभी इधर, कभी उधर जाना है-जिस प्रकार गाय खूँटे में बँधी रहकर गले की रस्सी की लंबाई को ही अपनी सीमा मानती है। खंभे के आसपास घूमते रहना उसकी विवशता है। किसी ने चारा डाल दिया तो खा लिया, पेट भर लिया: वरना उसके दूध पर मालिक का सर्वाधिकार होता है। मालिक या मालिक के बच्चों का स्वास्थ्य उत्तरोत्तर बढ़िया होता जाता है। गाय के बच्चे के स्वास्थ्य की किसे चिन्ता रहती है ! इस देश में सामान्य नारी भी एक गाय से अधिक कुछ नहीं है, जिसका जन्म होता ही शोषण के लिए है। जितना दिया, जैसे दिया, खा लेना उसकी नियति है। कहने को तो कहा जाता है : ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता !’

इसी प्रकार गाय की पूजा तो की जाती है, किन्तु यह सब कहने भर के लिए है ! व्यवहार में दोनों का जन्म भरपूर शोषण के लिए ही होता है।
शिक्षा-व्यवस्था भी कभी राजनीति तो कभी अपराधों के बीच झूल रही है। दोनों ओर से झूला खींचा जा रहा है।
इस समाज में स्वाधीनता-प्राप्ति के पचास वर्ष बाद भी हमारे विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों से जो परिपक्व उत्पादन निकल रहा है, वह हाथ मैले कर देने वाले काम से घृणा करने वाले-सफेदपोश- युवकों की भीड़ है। दिशा समझती है तो वह यही कि बिना काम किए या कम-से-कम काम करके, अधिक-से-अधिक आर्थिक लाभ कैसे लिया जाए ? विश्वविद्यालय राजनीति के अखाड़े बने हुए हैं, और आधुनिक अखाड़े अपराधियों के जमघट ! बड़े-बड़े शिक्षाविद् परस्पर कुश्ती और उखाड़-पछाड़ की कितनी ही योजनाएँ बनाते रहते हैं। लक्ष्य हैं-शिक्षा का उन्नयन ! युवकों का सही दिशा में विकास, किन्तु ये सभी योजनाएँ कागजों पर या मात्र पुस्तकों में लिखी रहती हैं। सरकारी घोषणाएँ होती रहती हैं कि योजनाओं पर अमल हो रहा है, लेकिन योजनाएं बस्तों में कैद कराहती रहती हैं। आज की शिक्षा का अर्थ येन-केन-प्रकारेण ऊँची-से-ऊँची डिग्री हथियाकर उच्च पद दबोच लेना है। जब ऐसे लोग प्राचार्य, प्राध्यापक या कुलपति बन जाते हैं तो अपने द्वारा अपनाए गए तौर-तरीकों को ही सही मानते हैं। वैसी ही प्रेरणा उनसे नवयुवक पाते हैं।

गरीब परिवार का बालक मृगशावक होता है और शिक्षा उसके लिए चिलचिलाती रेत पर लहराती मृगतृष्णा मात्र बन जाती है। गरीब बच्चे का उच्च शिक्षित होने का अर्थ है, बेरोजगार बने रहने की लंबी और असहनीय परीक्षा। अंतहीन प्रतीक्षा। वैसे ही इस देश में उच्च शिक्षा का अर्थ स्वयं को विशिष्ट समझना तथा ग्रामीणों, जनजातियों अथवा कम पढ़े-लिखे लोगों से स्वयं को अलग श्रेणी में खड़े कर लेना ही है। कभी यहाँ पर ‘विद्या ददाति धूर्तत्वम्’ हो गया है। पढ़ा-लिखा व्यक्ति शोषण करने तथा दबदबा जमाने का अधिकार-पत्र प्राप्त कर लेता है। अधिक पढ़ा-लिखा पुत्र अपने पिता को गँवार तथा तुच्छ समझता है तथा कुछ मामलों में तो स्वयं को अपने पिता का बाप मानने लगता है। पढ़ने-लिखने के बाद उसे गरीबों की पीड़ा समझने की फुरसत ही कहाँ मिलती है !

अनैतिकता की गोद में संपोषित हो रही शिक्षा गुंडागर्दी के आगे घुटने टेकती है। सिफारिशों के बीच पल-बढ़ रही है। शिक्षा राजनीति के आगे पानी भरती है। राजनीतिज्ञों को देखते ही कुलपतियों की जबान बंद हो जाती है, प्राध्यापक हकलाने लगते हैं। शिक्षा किस तरह की हो, इस बात को वे कर्णधार तय करते हैं, जिन्होंने पढ़ाई कभी नहीं की-उद्दंडता और दादागिरी से ही कुछ डिग्रियाँ हासिल कर ली थीं !
शारदा ने पति को चाय पिलाई। समाचार-पत्र दिया। इसी बीच उसने एक प्रश्न पूछा, ‘‘नखत तीन साल का हो चला है, किसी झूलाघर में डाल दें ? हम दोनों तो नौकरी करते हैं। दादी या नानी के पास छोड़ना भी उन्हें अतिरिक्त बोझ से दबाना है !’’

मनीष ने अखबार पढ़ते-पढ़ते ही जवाब दिया, ‘‘हाँ, हाँ, देखो कोई अच्छा-सा झूलाघर। किन्तु झूलाघर ऐसा देखना जिसमें बच्चा सचमुच झूले में ही हो, धूले में नहीं।’’
शारदा ने कहा, ‘‘क्या मतलब ! झूलाघर में जब बच्चे को प्रवेश दिलाएँगे, समस्त शुल्क देंगे तब बच्चा धूल में क्यों रहेगा ?’’
‘‘अभी तुमने झूलाघरों के हालचाल देखे नहीं हैं। संपन्न घरानों की महिलाएँ आजकल शौकिया झूलाघर चलाने लगी हैं। वास्तव में झूलाघर के बहाने वे स्वयं झूले पर झूलती रहना चाहती हैं। बच्चों के नाम पर स्वयं के लिए झूलाघर बन जाता है !’’ मनीष ने कहा।

शारदा झुँझसाई, ‘‘आप तो हर जगह के बारे में सोचते समय उसकी मीन-मेख पहले ही निकालना शुरु कर देते हैं ! यदि झूलाघर होगा तो उसकी सर्वेसर्वा को झूले में बैठने की मनाही कैसी ?’’
‘‘मैं यही तो कह रहा था। झूलाघर की संचालिका झूला झूल रही होगी और आपका बेटा धूल उड़ा रहा होगा। जमीन में लोट रहा होगा।’’ मनीष ने धीमी आवाज में कहा।
शारदा बोली, ‘‘ऐसा नहीं है। वे बच्चों का ध्यान तो रखती ही हैं। उनको दूध-बिस्कुट खिलाना, कपड़े बदलना, गाने सुनाना आदि काम तो करती ही रहती हैं !’’

मनीष बोला, ‘‘लेकिन पाया यह गया है कि स्वास्थ्य बच्चों के नहीं, झूलाघरवालियों के ही सुधरते हैं। जो कमाई झूलाघरों से उन्हें होती है, उससे वे स्वयं दिन में कई बार कपड़े बदल सकती हैं। चप्पलों से नई-नई मैच करती रंगीन साड़ियाँ पहन सकती हैं। उनका हृदय भले ही गा उठता हो, बच्चा बेचारा तो दिनभर रोता रहता है !’’
‘‘ठीक है, ठीक है ! कुछ कमाई कर लेती हैं तो दिन भर काम में भी तो जुटी रहती हैं। एक बच्चा रोता है। दूसरे के कपड़े बदलने हैं। तीसरे को झूला देना है ! इन सब चिंताओं के बीच ही तो बेचारियों का पूरा दिन निकलता है !’’ शारदा ने झूलाघर-संचालक महिलाओं का पक्ष लिया।

मनीष हारकर बोला, ‘‘अच्छा भाई, मान लिये तुम्हारे तर्क। चलो, एक दिन की मैं भी छुट्टी लेता हूँ और चलते हैं, झूलाघरों को देखने के लिए। देख लेना, मैं सही हूँ या तुम !’’
‘‘शुभस्यशीघ्रम् ! कल की छुट्टी ले लेते हैं। आसपास के तीन-चार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में खोजते हैं, कोई अच्छा झूलाघर। वहीं रख देंगे, अपने नखत को।’’ संतोष की साँस लेकर शायद बोली।
अगले दिन पति-पत्नी दोनों नखत को साथ लेकर स्कूटर से झूलाघरों का सर्वेक्षण करने निकल पड़े। कोई एक किलोमीटर आगे निकल जाने पर मनीष को एक झूलाघर दिख गया।
‘‘अरे, यह देखो ! यह भरत झूलाघर है। शायद यहां बच्चों को शेरों के साथ खेलने की प्रेरणा दी जाती हो।’’ मनीष बोला।
दोनों ने फाटक खोलकर अन्दर प्रवेश किया।

झूलाघर में बाहर ही लगे लकड़ीवाले झूले में एक महिला बैठी थी। मैले-कुचैले कपड़े पहने वह महिला उस हाल (डॉरमिटरी) का पर्यवेक्षक थी, जिसमें बीस-पच्चीस बच्चे गीले में पड़ रहे थे, रो रहे थे। एक-दो जमीन पर भी पड़े थे।
शारदा ने पूछा, ‘‘क्या आप ही चलाती हो झूलाघर ? यहाँ प्रवेश की शर्तें और नियम क्या हैं ?’’
महिला खड़ी होकर बोली, ‘‘मैडम नहाकर आ रही हैं, वे ही आपको सब नियम-कायदे बताएँगी।’’
मनीष ने कहा, ‘‘नखत को यहीं रख देना चाहिए। कितनी बढ़िया व्यवस्था है !
संचालक भीतर नहा रही हैं। कुछ बच्चे झूलों के स्वीमिंग पूल में नहा रहे हैं, कुछ नीचे धूल में। सभी स्नान कर रहे हैं। बच्चों की देख-रेख के लिए एक पर्यवेक्षक नियुक्त है। मैडम निश्चिंत होकर स्नानरत हैं।’’

महिला अपने झूलाघर की प्रशंसा सुनकर उत्साहित दिखी।
शारदा ने कहा, ‘‘जरा संचालक से बात कर लें ! फीस वगैरह के बारे में कुछ अनुमान तो लगेगा।’’
नौकरानी बोली, ‘‘आप थोड़ी देर बाहर बैठिए, मैं अंदर सूचना दिए देती हूँ।’’
भीतर जाकर वह संचालक से बोली कि दो अच्छे पढ़े-लिखे पति-पत्नी अपने बच्चों को हमारे झूलाघर में रखना चाहते हैं। झूलाघर की व्यवस्था की बहुत तारीफ भी कर रहे हैं !
संचालक ने प्रश्न किया, ‘‘तूने झूलाघर की ठीक से सफाई तो कर दी थी कि सारे बच्चे गंदगी में ही पड़े-पड़े रो-चिल्ला रहे हैं ?’’

नौकरानी ने सफाई दी, ‘‘सफाई कर ही रही थी कि वो दोनों भीतर आ धमके। आप नाश्ता करके जल्दी आइए, तब तक मैं और सफाई किए देती हूँ।’’
संचालक ने आदेश दिया, ‘‘हाँ, जल्दी जा। अपने झूलाघर का ‘इंप्रेशन’ खराब नहीं होना चाहिए, सफाई कर देना। मैं बस, आ रही हूँ।’’
नौकरानी ने बाहर आकर दोनों से कुछ देर रुकने के लिए कहा। यह भी बतलाया कि मैड़म नहा चुकी हैं, बस, आ रही हैं, और हाल की साफ-सफाई करने में लग गई। मनीष और शारदा दोनों बाहर निकलकर विचार-मंथन करने लगे।
मनीष ने प्रश्न किया, ‘‘देख लिया भरत झूलाघर ? कितनी बढ़िया व्यवस्था है ! अभी फीस के बारे में और मालूम हो जाए तो कुछ और आँखें खुलें।’’

शारदा बोली, ‘‘थोड़ा धीरे बोलो, कोई सुन लेगा ! आप थोड़ा खामोश तो रहते, वहीं मजाक उड़ाने लगे झूलाघर का ? शुल्क की जानकारी हो जाए तो झूलाघरों का अंदाजा लग जाएगा !’’
मनीष ने आश्चर्य व्यक्त किया, ‘‘मैंने क्या मजाक उड़ाया ! मैंने तो भरत झूलाघर की भरपूर प्रशंसा ही की है। आधुनिक भरतों के आसपास तुमने शेरों के चित्र, शेरों की मूर्तियाँ नहीं देखीं ? शायद यह संचालक बहादुर है !’’
शारदा शांत होकर बोली, ‘‘झूलाघर की व्यवस्था देखो और फीस की जानकारी लो, तब सोचेंगे। अभी कुछ और झूलाघर भी तो देखने हैं !

इतने में संचालक का आगमन हुआ। गंभीर, बनी-ठनी, रोबीली मुद्रा में वे अपनी कुरसी पर विराजमान हो गईं और घंटी बजा दी। कौन आया है, बुला ला ! (धीरे से कहती है) लेकिन हाल के कोने में कचरा पड़ा है, वह तो पहले साफ कर ले !’’
कचरा साफ करने के बाद नौकरानी ने मनीष और शारदा को अंदर जाने को कहा।
मनीष और शारदा ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया। संचालक ने मात्र गरदन हिलाकर अभिवादन का उत्तर दिया।
शारदा ने पूछा, ‘‘मैडम, झूलाघर की फीस और नियम क्या हैं ? हम भी अपने बच्चे को डालना चाहते हैं !’’
संचालक बोली, ‘‘तीन सौ रुपया प्रति माह फीस होगी। बच्चे के तीन जोड़ी कपड़े यही रखने होंगे, और समय से यहाँ छोड़ने और ले जाने की जिम्मेदारी आपकी रहेगी !’’

शारदा ने पुन: प्रश्न किया, ‘‘अच्छा, क्या कभी-कभी दोपहर में भी हमें देखभाल के लिए चक्कर लगाना होगा ?’’
संचालक ने आश्वस्त किया, ‘‘नहीं, नहीं, दिनभर आपको चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। दिनभर की फिक्र हमारी है। हाँ, यदि बच्चे की तबीयत खराब रहे, बुखार-खाँसी वगैरह हो, तो जब तक स्वस्थ न हो जाए, यहाँ न लाएँ।’’
शारदा ने उत्सुकता से पूछा, ‘‘देखिए, यह झूलाघर है, अस्पताल नहीं। हम उतना दूध पिला दिया करेंगी, जितना आप बच्चे के लिए दे जाया करेंगी। हाँ, फीस प्रतिमाह तीन तारीख के पूर्व जमा करा दी जानी चाहिए। फिर आपका बच्चा भले ही महीने में आठ जिन यहाँ रहे !’’

मनीष ने कहाँ, ‘‘लेकिन जो साफ-सफाई की व्यवस्था इस डॉरमिटरी में है, उसे देखकर तो लगता है कि बच्चे बीमार ही अधिक रहते होंगे। कोई स्वस्थ बच्चा इस झूलाघर में तीन-चार दिन रह ले तो पाँचवें दिन बीमार होकर उसे अपने घर में ही रहना पड़ेगा ! इससे आपको सुविधा यह होती कि पंजीकृत बच्चों की संख्य़ा भले ही अधिक हो, किन्तु वास्तविक संख्या कम रहती होगी !’’


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