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महादेवी प्रतिनिधि कविताएँ

रामजी पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5686
आईएसबीएन :81-263-0820-6

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प्रस्तुत संग्रह में महादेवी जी की प्रमुख कविताओं का संकलन है।

Mahanayak - A Hindi Book by - Vishwas Patil महानायक - विश्वास पाटील

अप्रतिहत आराधना की अमर ज्योतिः महीयसी महादेवी

पुजारी, दीप कहीं सोता है !
जो दृग दानों के आभारी
उर वरदानों के व्यापारी,
जिन अधरों पर काँप रही हैं
अनमाँगी भिक्षाएँ सारी,
वे थकते, हर साँस सौंप देने को यह रोता है।

(दीपशिखा, गीत क्र. 45) अप्रतिहत आराधना की वेदी पर प्रत्येक साँस न्यौछावर कर देने के लिए आतुर महिमामयी महादेवी का समस्त जीवन मन्दिर की आरती के समान देव के प्रति समर्पित है। वे स्नेह, मैत्री और करुणा की कवि हैं, मधुर-मधुर जलनेवाले दीपक के समान, युगयुग, प्रतिक्षण, प्रतिफल, प्रियतम का पथ आलोकित करने के लिए आकुल। उन्होंने अपने समस्त जीवन को दीपशिखा के समान प्रज्वलित कर युग की देहरी पर ऐसे रख दिया है कि भीतर और बाहर दोनों ओर उजियारा हो रहा है। अपनी रहस्यवादी अभिव्यक्ति को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा है कि-उसने परा विद्या की अपार्थिवता ली, वेदान्त के अद्वैत की छायामात्र ग्रहण की, लौकिक प्रेम से तीव्रता उधार ली और इन सबको कबीर के सांकेतिक दाम्पत्यभाव सूत्र में बाँधकर एक निराले स्नेह-सम्बन्ध की सृष्टि कर डाली, जो मनुष्य को हृदय को आलम्बन दे सका, पार्थिव प्रेम के ऊपर उठा सका तथा मस्तिष्क को हृदयमय और हृदय को मस्तिष्कमय बना सका। उनके अनुसार, सत्य काव्य का साध्य और सौन्दर्य साधन है।

श्रीमती महादेवी वर्मा का जन्म उत्तरप्रदेश के फ़र्रुख़ाबाद जनपद में, होली के पुण्य पर्व पर फाल्गुन पूर्णिमा की आह्लादमयी वेला में सन् 1907 में हुआ था। बचपन से ही छन्द में बोलने की आपकी विलक्षण प्रतिभा थी। प्रारम्भ आपने ब्रजभाषा में समस्यापूर्ति से किया। जब आप 7-8 वर्ष की थीं तो पण्डितजी ने राधा द्वारा कृष्ण से बाँसुरी माँगने का प्रसंग समझाकर ‘बोलिहैं नाहीं’ समस्या की पूर्ति करने को कहा, आपने इस रूप में उसकी पूर्ति की-

मन्दिर के पट खोलत का
ये देवता तो दृग खोलिहैं नाहीं
प्रानन में नित बोलत हैं
पुनि मन्दिर में ये बोलिहैं नाहीं।

इस पर पण्डितजी देवता के प्रति इनकी उद्दण्डता पर रुष्ठ हो गये। दसवें वर्ष में प्रवेश करते-करते मैथिलीशरण गुप्त की सद्यःप्रकाशित ‘भारत-भारती’ में ऐसी रम गयीं की इनकी सर्जना की धारा ही बदल गयी। पण्डितजी द्वारा प्रदत्त, ‘मेघ बिना जल वृष्टि हुई है’ समस्या पर जब इन्होंने आशुकवित्व के रूप में तत्क्षण सुना दिया कि-

हाथी न अपनी सूँड़ में यदि नीर भर लाता अहो !
तो किस तरह बादल बिना जल-वृष्टि हो सकती, कहो ?

तो ब्रज की माधुरी में पगे पण्डितजी, ‘अहो, कहो’ की तुक सुनकर चौंक पड़े और झल्लाकर बोले-‘‘अरे ! ये तो यहाँ भी आ धमके।’’ फिर तो सिलसिला चल पड़ा और ग्यारह वर्ष की आयु में आपने ‘दिया’ नाम से खड़ी बोली में प्रथम रचना की। तेरहवें में प्रवेश करते-करते सौ छन्दों में एक करुण कथा का खण्ड-काव्य तथा अबला, विधवा, माँ भारती आदि के रूप में कविताएँ निर्झर के स्वप्नभंग की भाँति अनेक धाराओं में फूट पड़ीं। आपकी प्रथम प्रौढ़ रचना ‘चाँद’ के प्रथम अंक सन् 1922 में प्रकाशित हुई। राष्ट्र के जीवन में वह अभूतपूर्व उन्मेष का काल था जिसमें सांस्कृतिक जागरण के साथ राष्ट्रीय उत्सर्ग की भावना का ज्वार भी चारों ओर उमड़ रहा था। गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन से प्रभावित होकर आपने उन पर एक जोशीली कविता लिख डाली, जिस पर आपको प्रथम पुरस्कार के रूप में चाँदी का नक्काशीदार कटोरा मिला। जब गाँधी जी सन् 1922 में इलाहाबाद में आये तो उन्हें कविता सुनाने की उमंग में आनन्दभवन पहुँच गयीं और उन पर लिखी प्रशस्ति के साथ पुरस्कार के रूप में प्राप्त कटोरा भी प्रस्तुत कर दिया। गाँधी जी ने कविता-अविता तो कुछ सुनी नहीं, इन्हें प्यार से थपथपाते हुए वह कटोरा और हड़प लिया। महादेवी जी के अनुसार, उन्होंने चाहे कविता न सुनी हो, पर उनका स्पर्श ही ऐसी अन्तःप्रेरणा दे गया कि गंगोत्री के स्त्रोत के समान नीहार, रश्मि, नीरजा की दुःख से आविल, सुख से पंकिल अजस्त्र धारा इनके मानस से फूट पड़ी। जब सन् 1935 में इन्दौर के अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन में गाँधी जी ने इन्हें उस समय की सर्वोच्च नारी लेखिका के रूप में नामित ‘मंगलाप्रसाद पुरस्कार’ प्रदान किया तो उन्हें सन् 1922 की कटोरेवाली बलिका की याद हो आयी और उन्होंने बड़े प्यार से इनके मस्तक पर अपना हाथ रख दिया, जिसे देखकर दर्शकगण भी भाव-विमुग्ध हो उठे जैसे ‘‘प्रभु कर-पंकज कपि के सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा’’ की उद्धरणी घटित हो गयी हो। विगत 18 मई, 1983 को प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी के हाथों ‘भारत-भारती पुरस्कार’ प्राप्त करते समय महादेवीजी ने बड़े भावभीने शब्दों में उक्त घटना का उल्लेख करते हुए कहा था-‘‘गाँधी जी के हाथों पुरस्कार प्राप्त करने के पश्चात् मुझे अन्य किसी पुरस्कार के प्रति विशेष आकांक्षा नहीं रह गयी थी। अतएव मैं उनकी पावन स्मृति में कृतज्ञतापूर्वक यह पुरस्कार न्यास को समर्पित करती हूँ, जिसके द्वारा अभावग्रस्त प्रतिभाशील सर्जकों का श्रमहार कर सकने में यह सार्थक हो सके।’’ बचपन से ही बुद्ध की करुणा की ओर आपका विशेष झुकाव रहा है और बी.ए. पास करते-करते तो आपने भिक्षुणी बनने का भी निश्चय कर लिया था। परन्तु जब आप बौद्ध महास्थविर से दीक्षा लेने पहुँचीं तो पंखे की ओट करके बातें करते देख इनका नारी-सुलभ स्वाभिमान प्रदीप्त ही उठा कि जिसका अपनी इन्द्रियों के संयम पर इतना भी विश्वास नहीं, वह मुझे दीक्षा क्या देगा ? इस घटना से भिक्षुणी के बाह्य वेश से तो ये वंचित रह गयीं पर इनकी आत्मा में बुद्ध के दुःखवाद की अमिट छाप बनी रही। उन्हीं के शब्दों में- ‘‘बचपन से ही भगवान बुद्ध के प्रति एक भक्तिमय अनुराग होने के कारण उनके संसार को दुःखात्मक समझने वाले दर्शन से मेरा असमय ही परिचय हो गया था। अवश्य ही इस दुःखवाद को मेर हृदय में एक नया जन्म लेना पड़ा परन्तु आज तक उसमें पहले जन्म के कुछ संस्कार बिद्यमान हैं जिनसे मैं उसे पहचानने में भू़ल नहीं कर पाती। दुःख मेरे निकट जीवन का ऐसा काव्य है जो संसार को एक सूत्र में बाँध रखने की क्षमता रखता है। हमारे असंख्य सुख हमें चाहे मनुष्यता की पहली सीढ़ी तक भी न पहुँचा सकें, किन्तु हमारा एक बूँद आँसू भी जीवन को अधिक मधुर, अधिक उर्वर बनाये बिना नहीं गिर सकता। मनुष्य सुख को अकेला भोगना चाहता है, परन्तु दुःख सबको बाँटकर विश्व-जीवन में अपने जीवन को, विश्व-वेदना में अपनी वेदना को, इस प्रकार मिला देना जिस प्रकार एक जल-बिन्दु समुद्र में मिल जाता है, कवि का मोक्ष है।’’

महादेवी का समस्त साहित्य आस्था, उपासना और उत्सर्ग का साहित्य है। नीहार, रश्मि, नीरजा, सान्ध्यगीत और दीपशिखा उनकी मंगलमय यात्रा के ज्योतिर्मय चरण-चिह्न हैं। नीहार के धुँधलके में उनका प्रथम प्रवेश विसर्जन के ही आधार पर हुआ था। उनके अनुसार उनकी सबसे पुरानी रचना सम्भवतः ‘उस पार’ है-
विसर्जन ही है कर्णाधार
वही पहुँचा देगा उस पार।

प्रत्यूष में स्फुटित कमलों की कषाय गन्ध के साथ मिलन की मादक स्मृतियों के संकेतों का संचरण बड़ा सम्मोहक है-

कैसे कहती हो सपना है
अलि ! उस मूक मिलन की बात ?
भरे हुए अब तक फूलों में
मेरे आँसू, उनके हास।

प्रेमी के सर्वात्म समर्पण की तुलना में अमरता को सदा तुच्छ ठहराया गया है। ‘सगुणोपासक मोक्ष न लेहीं’ में भक्ति की इसी मर्यादा को गोस्वामी जी ने प्रतिष्ठित किया है-

क्या अमरों का लोक मिलेगा
तेरी करुणा का उपहार ?
रहने दो हे देव ! अरे,
यह मेरा मिटने का अधिकार।

‘नीहार’ की रचनाएँ 1924 से 1928 के बीच की हैं जिनमें प्रणय-पुलक का प्रथम स्पर्श सृष्ष्टि की रागात्मकता से एकात्मक होता प्रतीत होता है-
आँखों में रात बिता जब
विधु ने पीला मुख फेरा
आया फिर चित्र बनाने
प्राची में प्रात चितेरा
इन ललचायी पलकों पर
पहरा था जब व्रीडा का
साम्राज्य मुझे दे डाला
उस चितवन ने पीड़ा का।

सृष्टि के कण-कण में व्याप्त संवेदन की यह प्रतीति अपनी सूक्ष्मता एवं सुकुमारता में मर्मस्पर्शी हो उठी है-

कन-कन में बिखरी सोती है
अब उनके जीवन की प्यास

जगा न दे हे दीप, कहीं
उसको तेरा यह क्षीण प्रकाश।

दीपक के क्षीण प्रकाश से उनींदे प्रिय के जाग जाने की आशंका बरबस मीर तक़ी ‘मीर’ की याद दिला देती है-

सरहाने मीर के आहिस्ता बोलो,
अभी टुक रोते-रोते सो गया है!

इस समय तक भावना का व्योम में रवीन्द्रनाथ स्पन्दित हो उठे थे। और बाउलों के गीतों की सहज अभिव्यक्ति मलय-पवन की भारवाही गन्ध के समान संचरित होने लगी थी। गंगाराम जैसे बाउल सन्तों की वाणी में सहजिया साधकों की यह अभिव्यक्ति परिलक्षित की जा सकती है-
तुमी सागर, आमी तरी
तुमी खेवार माँझी
पार नदिया डुबावो जदि
तातेउ आमी राजी
ओगो, तोमार है ते पार कि बड़ो भरम की आमार।

जब यह मालूम पड़ गया कि तुम्हीं सागर हो और तुम्हीं खेवा के माँझी भी हो तो तुममें डूब जाना, लय हो जाना अच्छा है या पार पहुँचना, मैं तो नौका मात्र हूँ। इसीलिए-
तरी को ले जाओ मँझधार
डूबकर हो जाओगे पार।

नारी-जनित मनुहार महादेवी की अभिव्यक्ति की अपनी विशेषता है-
करुणानिधि को भाता है
तम के परदे में आना
हे नभ की दीपावलियो
तुम क्षण भर को बुझ जाना !

सृष्टि के व्यापारों के साथ जीवन के बिम्बित और प्रतिबिम्बित स्वरूपों के निरूपण ने रहस्यवादी संकेतों को नितान्त सहज भावभूमि प्रदान की है-
कहते हैं नक्षत्र ‘पड़ी हम पर
उस माया की झाँईं’
कह जाते वे मेघ ‘हमीं
उसकी करुणा की परछाईं।’

नीहार-जनित धुँधलका मिटते ही यौवन की प्रथम रश्मि का स्पर्श जीवन को तरल-चंचल अनुभूतियों से आन्दोलित कर देता है-
दे मृदु कलियों की चटक, ताल
हिम-बिन्दु नचाती तरल प्राण

‘रश्मि’ में मुग्धा नायिका की अल्हड़ता और प्रगल्भता सृष्टि के कण-कण में स्पन्दित दिखलाई पड़ती है। जाने-अनजाने किसी की सुधि वसन्त का सुमन तीर मुग्ध मानस को अधीर कर जाता है जिससे देह की डाली प्रत्येक पुलकन और रोमांच से सिहर-सिहर उठती है-
मंजरित नवल मृदु देह-डाल
खिल-खिल उठता नव पुलक जाल
मधु-कन सा छलका नयन-नीर

उद्दाम वासना के उन्मद पहरों में इस अनन्य साधिका ने अपने अप्रतिहत संयम से आत्मोत्सर्ग के उन शिखरों को सँवारा है जहाँ आराधक और आराध्य का अन्तर मिट जाता है-
चिर ध्येय यही जलने का
ठण्डी विभूति बन जाना
है पीड़ा की सीमा यह
दुःख का चिर सुख हो जाना !

उत्सर्ग की वेदी पर स्वयं को शून्य कर देने की यह साधना ही उपालम्भ के रूप में आत्मीयता की प्रगाढ़ता का परिचय देती है-
विश्व में वह कौन सीमाहीन है
हो न जिसका खोज सीमा में मिला
क्या रहोगे क्षुद्र प्राणों में नहीं
क्या तुम्हीं सन्देश एक महान हो ?

कबीर की वाणी में पग-पग पर प्रियतम को चुनौती देने की निर्व्याज व्यंजना इसी सान्निध्य की परिचायक है-

मिलनौ तो जीवित मिलौ, कहै कबीरा राम।
लोहा जब माटी भया, पारस का क्या काम।।

‘नीरजा’ (रचनाकाल 1931-34) तक आते-आते रश्मि की अल्हड़ता मानस शतदल की उत्फुल्लता की ओर अग्रसर होने लगती है, जहाँ जगत और जीवन के असंख्य बन्धनों के बीच से उसकी उत्सर्गी आराधना अंकुरित हुई है-

तुम्हें बाँध पाती सपनों में !
तो फिर जीवन प्यास बुझा-
लेती उस छोटे क्षण अपने में
प्रिय में लेती बाँध मुक्ति
सौ-सौ लघुतम बन्धन अपने में
रवीन्द्रनाथ ने भी लिखा है-
वैराग्य साधने मुक्ति से आभार नय।
असंख्य बन्धन माँझे महानन्दमय
लभिवो मुक्तिर स्वाद।

महादेवी भी वैराग्य साधना द्वारा मुक्ति प्राप्त करने की आकांक्षी नहीं हैं। वे भी असंख्य बन्धनों के बीच ही महानन्दमय मुक्ति का स्वाद प्राप्त करना चाहती हैं। इसलिए इस मंगलयात्रा में दृश्य, गन्ध और गान में जो आनन्द है उसी को उन्होंने अपना पाथेय बना लिया है। उनकी रूपसी का घनकेश-पाश विराट् में व्याप्त सौन्दर्य-राशि के विभिन्न स्वरूपों को प्रतिबिम्बित करता है-
उच्छ्वसित वक्ष पर चंचल है, वक पाँतों का अरविन्द-हार
तेरी निःश्वासें छू, भू की बन जाती मलयज बयार।
केकी-रव की नूपुर-ध्वनि सुन।
जगती-जगती की मूक प्यास।
रूपसि, तेरा घन-केश-पाश।

इस सनातन व्यथा और व्याकुलता के मूल में द्वैत का विभ्रम मिटाने की साधना ‘बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ’ तथा ‘तुम मुझमें प्रिय’ फिर परिचय क्या’ आदि रचनाओं में उद्भासित हो उठी है।
‘सान्ध्यगीत’ (रचनाकाल 1934-36) तक आते-आते जीवन का उन्मद उल्लास सपनों की रंगीनी में घुलता हुआ वेदना की विह्वलता में समरसता की सृष्टि करता प्रतीत होता है। उन्होंने स्वयं लिखा है-‘‘नीरजा और सान्ध्यगीत मेरी उस मानसिक स्थिति को व्यक्त कर सकेंगे, जिनमें अनायास ही मेरा हृदय सुख-दुःख में सामंजस्य का अनुभव करने लगा।’’ सान्ध्यगीत में अभिव्यक्ति के मार्दव के साथ-साथ रंग-बिरंगे चित्रों का रेखांकन समस्त संग्रह को द्वाभा की आभा से मण्डित करता दिखाई पड़ता है-
यह क्षितिज बना धुँधला विराग
नव अरुण-अरुण मेरा सुहाग
छाया-सी काया वीतराग
सुधि-भीने स्वप्न रँगीले घन,
प्रिय, सान्ध्य गगन मेरा जीवन।

यह कह सकना कठिन है कि कब उनकी तूलिका से छन्द सँवर जाते हैं और कब उनके छन्दों में रंग निखर उठते हैं।
इस विमुग्ध विभावरी में भावना की तीव्रता, आत्मनिवेदन, भावान्विति और गेयता सभी दृष्टियों से गीतिकाव्य का शिल्प बड़े सुन्दर रूप से सँवरा है-
मैं नीर-भरी दुख की बदली !
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही
उमड़ी कल थी, मिट आज चली

इस प्रकार ‘प्रिय मेरे नीले नयन बनेंगे आरती’, ‘फिर विकल हैं प्राण मेरे’, ‘क्यों वह प्रिय आता पार नहीं’, ‘सखि, मैं हूँ अमर सुहाग-भरी’ में गीतों की संक्षिप्तता, सरलता और तरलता बड़ी मर्मस्पर्शी बन पड़ी है। सान्ध्यगीत में ही पहले-पहल जीवन-संघर्ष के वे उदात्त स्वर, जो बाद में दीपशिखा के रूप में प्रज्वलित हुए, ‘जाग, तुझको दूर जाना’ और ‘हे चिर महान’ जैसी रचनाओं में मिलने लगते हैं-
मेरे जीवन का आज मूक
तेरी छाया से हो मिलाप
तन तेरी साधकता छू ले
मन ले करुणा की थाह नाप।
उर में पावस, दृग में विहान
हे चिर महान।

‘सान्ध्यगीत’ के गीतों की दीपशिखा के रूप में परिणति अपने नाम को सार्थक करती है। ‘यह मन्दिर का दीप’ इसे नीरव जलने दो’ और ‘पुजारी, दीप कहीं सोता है’ जैसे गीतों की प्रांजलता में गहन अनुभूति की वह आँच है जो सूर के ‘ऊधौ, विरही प्रेम करै’ जैसे गीतों के आधार पर महसूसी जा सकती है। इन गीतों के मर्म का उद्घाटन करते हुए कवयित्री ने स्वयं कहा है कि-‘‘मेरे गीत अध्यात्म के अमूर्त्त आकाश के नीचे लोकगीतों की धरती पर पले हैं।’’ जीवन का चंचल बालक और मृत्यु का माँ के रूप में चित्रण जीवन और मृत्यु के सम्बन्धों को अद्भुत सहजता प्रदान कर सका है-

तू धूल भरा ही आया !
ओ चंचल जीवन बाल, मृत्यु जननी ने अंक लगाया।

‘दीपशिखा’ में राष्ट्र का जागरण छायावादी भूमिका के समस्त सूक्ष्म स्पन्दनों के साथ मूर्तिमान हो उठा है। कवयित्री के ही शब्दों में-‘‘दीपशिखा में अविश्वास का कोई कम्पन नहीं है। नवीन प्रभात के वैतालिकों के स्वर के साथ इनका स्थान रहे ऐसी कामना नहीं, पर रात की सघनता को इसकी लौ झेल सके, यह इच्छा तो स्वाभाविक ही रहेगी।’’
साधारणतया महादेवी के काव्य का दाय इन्हीं पुस्तकों तक सीमित कर दिया जाता है, पर सन्तप्तों को शीतल करनेवाले मेघों के समान उनके रिक्थ की तो कोई सीमा नहीं है।‘सप्तपर्णी’ में आर्षवाणी के रूप में चारों वेदों, उपनिषदों, वाल्मीकि, थेरगाथा, अश्वघोष, कालिदास, भवभूति, जयदेव आदि के मार्मिक अनुवादों के रूप में उन्होंने समस्त भारतीय चिन्तन और सृजन का गंगाजल मंगल-कलश में संचित कर दिया है। वेदों-उपनिषदों और बौद्ध ग्रन्थों का ऐसा सारग्राही अनुवाद और वाल्मीकि, अश्वघोष, कालिदास, भवभूति और जयदेव की साधना का ऐसा मार्मिक प्रांजल प्रसाद बाङ्मय की भूमि पर अभी तक देखने को नहीं मिला था। बुद्ध की करूणा से अभिभूत होने के कारण उन्होंने एक ओर पाली वाङ्मय के अथाह सागर में डुबकी लगाकर अश्वघोष की सहज संवेदना के अनमोल मोतियों का संचय किया और दूसरी ओर शैव मतावलम्बी कालिदास के सौन्दर्य-बोध को मानस-पीठ पर प्रतिष्ठित किया। काव्य की दृष्टि से अश्वघोष और कालिदास को आदिकवि के उत्तराधिकारी के रूप में उनका उद्घोष मानव-मात्र के कल्याण की शुद्ध-बुद्ध सद्भावना का परिचायक है। धर्म या सम्प्रदाय के पूर्वग्रहों की व्यर्थता का बोघ कराते हुए उन्होंने अपने उदात्त स्वरों में कहा है कि-

‘‘इस वाङ्मय ने जब धर्मविशेष के वाहक मात्र के रूप में अपना परिचय दिया तब उसका उपयोग सीमित हो गया और उसे वेद साहित्य के समान एक ओर अन्धविश्वास और दूसरी ओर उपेक्षा से घिरकर अपनी स्थिति की रक्षा करनी पड़ी। वह जहाँ पर साहित्य की वाणी में बोला है, वहाँ हृदय की बात को हृदय तक पहुँचने से रोकने में धर्म, सम्प्रदाय, दर्शन आदि की कोई भित्ति समर्थ नहीं हो सकी। साहित्य में ऐसी अनेकान्त साधना शायद ही कभी घटित हुई हो।’’
साधारणतया समीक्षकों की भाषा में उन्हें आधुनिक मीरा के रूप में अभिहित किया जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि गिरिधर गोपाल के प्रति मीरा की अनन्य अनुरक्ति की अभिव्यक्ति भक्ति-साहित्य की परम मर्मस्पर्शी निधि बन गयी है और स्वयं महादेवी ने मीरा की व्यथासिक्त पदावली को सारे नीति-जगत् की सम्राज्ञी की संज्ञा दी है परन्तु महादेवी का-सा वैविध्य, गीति, काव्यात्मक शिल्प, दार्शनिक चिन्तन, बिम्बात्मक रूपायन, चित्रात्मक रेखांकन, गद्यशैली का निबन्धन तथा नवनवोन्मेषशालिनी अभिव्यंजना, सम्भवतः आज विश्व-साहित्य की किसी नारी-सर्जक में खोज सकना दुर्लभ होगा। चाहे गद्य का शिल्प हो, चित्रों की बिम्बात्मकता हो, नारी की मुक्तिभावना हो अथवा बंगाल के अकाल और चीनी आक्रमण का प्रतिरोध हो, महादेवी राष्ट्र की विह्वल आत्मा के रूप में सब जगह स्पन्दित हैं। उन्हीं के शब्दों में-‘‘साधारणतया मुझे भाव, विचार और कर्म का सौन्दर्य समान रूप से आकर्षित करता है।’’ अपनी इस संवेदनशील प्रवृत्ति की ओर संकेत करते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा है-

‘‘मेरी कविता मेरे विश्राम-क्षणों का ही प्रतिबिम्बक है। शेष जीवन मैं वहाँ दूँगी जहाँ उसे देने की आवश्यकता है।’’
एक ओर तो उनकी अगाध संवेदनशीलता बुद्ध की करुणा से अनुप्राणित है, दूसरी ओर उनकी वाणी में ऋचाओं की पवित्रता और स्वरों में सामगान का सम्मोहन है। उनकी सहज अभिव्यक्ति आर्ष वचनों के समकक्ष रखी जा सकती है-

अमरता है जीवन का ह्रास,
मृत्यु जीवन का चरम विकास।

उनके इसी स्वरूप पर मुग्ध होकर महाकवि निराला ने द्रष्टा के स्वरों में कह डाला था-

हिन्दी के विशाल मन्दिर की वीणा-वाणी
स्फूर्ति चेतना, रचना की प्रतिमा कल्याणी

इस नामरूपात्मक विश्व से एकात्म होकर उन्होंने सत्यं शिवं सुन्दरं को वर्ण और वाक् दोनों में बाँधने का अद्भुत कौशल दिखाया है। काव्य को चित्रमय और चित्र को काव्यमय बनाने की उनमें अद्भुत क्षमता है।

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