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स्वाधीनतासंघर्ष >> मृत्युंजय

मृत्युंजय

बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :220
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5689
आईएसबीएन :8126308087

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1942 के स्वाधीनता आन्दोलन में असम की भूमिका पर लिखी गयी एक श्रेष्ठ एवं सशक्त साहित्यिक कृति है ‘मृत्युंजय’।

Mritunjaya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1942 के स्वाधीनता आन्दोलन में असम की भूमिका पर लिखी गयी एक श्रेष्ठ एवं सशक्त साहित्यिक कृति है ‘मृत्युंजय’। असम क्षेत्रीय घटनाचक्र और इससे जुड़े हुए अन्य सभी सामाजिक परिवेश इस रचना को प्राणवत्ता देते हैं चरित्र समाज के उन स्तरों के है जो जीवन की वास्तविकता के बीभत्स रूप के दासता के बन्धनों में बँधे-बँधे देखते आये हैं और अब प्राणपन के संघर्ष करने तथा समाज की भीतरी-बाहरी उन सभी विकृत मान्यताओं को निःशेष कर देने के लिए कृतसंकल्प है।  

उपन्यास में विद्रोही जनता का सजीव चित्रण है। विद्रोही की एक समूची योजना और निर्वाह, आन्दोलनकारियों के अन्तर-बाह्य संघर्ष, मानव- स्वभाव के विभिन्न रूप; और इन सबके बीच नारी-मन की कोमल भावनाओं को जो सहज, कलात्मक अभिव्यक्ति मिली है वह मार्मिक है। कितनी सहजता से गोसाईं जैसे चिर-अहिंसावादी भी हिंसा एवं रक्तपात की अवांछित नीति को देशहित के लिए दुर्निवार मानकर उसे स्वीकारते हुए अपने आपको होम देते हैं ! और फिर परिणाम ? स्वान्त्र्योत्तर काल के अनवरत, उलझे हुए प्रश्न ?......
भारतीय ज्ञानपीठ को हर्ष है कि उसे असमिया की इस कृति पर लेखक को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित करने का गौरव मिला।


आमुख  


(प्रथम संस्करण से)

लेखक के नितान्त अपने दृष्टिकोण से देखें तो पुस्तक के लिए किसी आमुख की आवश्यकता नहीं होती। स्वाभाविकता इसी में रहती है कि पुस्तक और पाठक के बीच सम्प्रेषण निरवरोध हो। मेरे जैसे लेखक के लिए तो, जो अपनी रचना के प्रति अनासक्त रहना चाहता हो, आमुख लिखना और भी दुष्कर हो जाता है। पर प्रस्तुत पुस्तक के प्रसंग में कुछ लिखना शायद उपयोगी हो।

हमारे यहाँ साहित्यिक विद्या के रूप में उपन्यास पश्चिम से आया; और देखते-देखते इसने यहाँ घर कर लिया। भले ही हमारी परम्परा काव्य को मान्यता देती आयी, पर पाठक-जगत् ने उपन्यास को फिर भी युग का प्रतिनिधि सृजन रूप माना। रवि बाबू जैसे महान कवि प्रतिभाओं तक ने महत्त्वपूर्ण उपन्यास लिखे और इस विद्या को गरिमा प्रदान की। फिर तो उपन्यास न केवल समाज के लिए दर्पण बना,  बल्कि सामायिक विचार-चिन्तन की अभिव्यक्ति का माध्यम भी हुआ।

मैंने स्वयं जब सामाजिक वास्तविकता की भाव-प्रेरणा पर उपन्यास लिखना प्रारम्भ किया तब असमिया में यह विद्या काफी प्रगति कर चुकी थी। भविष्य इसका कैसा और क्या होगा, यह आशंका समाक्षकों के मन में अवश्य थी। हाँ विवेकी समीक्षक उस समय भी आश्वस्त थे। उनके विचार से असमी जीवन की विविधरूपता के कारण लेखक को सामग्री का अभाव कभी न होगा। और सचमुच देश के उत्तर पूर्वी क्षेत्र की सामाजिक वास्तविकता को आपसी तनावों ने ऐसा विखंडित कर रखा था कि लेखक के लिए सदाजीवी चुनौती बनी रहे।

जितना कुछ अब तक मैंने लिखा वह सब न अमृत ही है, न निरा विष। कुछ है तो ऐसे एक व्यक्ति का प्रतिबिम्ब मात्र, जो अमृत की उपलब्धि के लिए वास्तविकता के महासागर का मन्थन करने में लगा हो। मेरे प्रमुख उपन्यासों के प्रमुख पात्रों में ऐसा कोई नहीं जिसके अन्तर्मानस में एक सुन्दर और सुखद  समाज की परिकल्पना हिलोरती न रहती हो। कहीं व्यक्तित्व रूप से तो कहीं सामूहिक रूप से, वे सभी इस महामारियों के मारे वर्तमान जीवन-जगत् की बीभत्स वास्तविकता को अस्वीकार ही अस्वीकार करते-रहते हैं। किन्तु सच्चाई यह भी है कि वे  चरित्र-पात्र एक सम्भावनीय मानव-संसार के सम्भव प्राणी मात्र होतें हैं, और उस समूची परिकल्पना का सृजेता स्वयं भी सम्भवन की अवस्था में होता है।
 
उपन्यास-लेखन को सामने की वास्तविकता से ऊपर उठकर उसे विजित करना पड़ता है, तभी ऐसे चरित्रों की परिकल्पना और सर्जना सम्भव हो पाती है जो  उसकी विचार-भावनाओं के प्रतीक और संवाहक बन  सकें। सच तो, अपने अभीष्ट चरित्रों की खोज में उसे पल-घड़ी लगे रहना होता है। ऐसा न करे वह तो उसके भावित चरित्र उसी का पीछा किया करेंगे। और जहाँ अभीष्ट चरित्रों का रूपायन हुआ कि फिर उसे ऐसे कल्पना-प्रसूत लोक-परिवेश की रचना करनी होती है जहाँ वे सब रह सकें, सक्रिय हों, सोचें-विचारें और गन्तव्य की ओर बढ़ते जा सकें। अवश्य अपना एक-एक चरित्र उसे लेना होगा युगीन वास्तविकता से हीः और लेना भी होगा बिलकुल मूल रूप में : मृत चाहे जीवित। एक सीमा-बिन्दु तक पहुँचने के बाद फिर लेखक की ओर से रचित्र-पात्रों को छूट मिल जाती है  कि अपने-अपने वस्तुरूप का अतिक्रम करें और उसकी अपनी भावनाओं और मूल्यों के साथ एकाकार हों।

 वास्तव में सृजन प्रक्रिया को शब्द–बद्ध कर पाना कठिन होता है। किस प्रकार क्या-क्या करके रचना का सृजन हुआ, इसमें पाठक की रुचि नहीं होती। उसका प्रयोजन सामने आयी रचना पर तो सृजन-पीड़ा के कोई चिह्न कहीं होते नहीं। अनेक बार होता है कि अनेक चरित्रों के भाव-रूप अनेक-अनेक बरसों तक लेखन की चेतना के कोटरों में अधमुँदी आँखों सोये पड़े रहते हैं और फिर रचना-सृजन के समय उनमें से कोई भी हठात् आकर कथानक में भूमिका ग्रहण कर लेता है। ये तीनों उपन्यास- ‘इयारूइंगम’, ‘प्रतिपद और ‘मृत्युंजय’- लिखते समय ऐसा ही हुआ।  

इनके चरित्र-पात्र समाज के उन स्तरों से लिये गये हैं जो सामाजिक वास्तविकता के बीभत्स रूप को देखते-भोगते आये हैं और अपनी स्वाभाविक मानवीयता तक से वंचित हो बैठे हैं। वे अब उत्कण्ठित हैं कि संघर्ष करें और यथार्थ मानव बन उठने के लिए अपने को भी बदलें और समूचे समाज को भी। किसी भी मूल्य पर वे अब सामाजिक बीभत्सता का अस्तित्व लुप्त कर देना चाहते हैं; और चाहते हैं कि समाज का बाहरी ही नहीं, भीतरी ढाँचा भी स्वास्थ और सहायक रूप ग्रहण करे।
‘मृत्युंजय’ की कथावस्तु है 1942 का विद्रोहः ‘भारत छोड़ों’ आन्दोलन का असम क्षेत्रीय घटना-चित्र और इसके विभिन्न अंगों के साथ जुड़ा–बँधा अन्य वह सब जो रचना को प्राणवत्ता देता है, समृद्धि सहज मानवीय भावनाओं के चिरद्वन्द्वों की अछूत छवियों द्वारा।

 कथानक आधारित है वहाँ की सामान्यतम जनता के उस विद्रोह की लपटों को अपने से लिपटा लेने पर, और कैसा भी उद्गार मुँह से निकले बिना प्राण होम कर उसे सफल बनाने पर। घटना के 26 वर्ष बाद यह उपन्यास, मैंने लिखा। उस समय की वह आग ठण्डी पड़ चुकी थी; पर उसकी आत्मा, उसका यथार्थ, अब भी सांसें ले रहे थे। उपन्यास में विद्रोह-सिक्त जनता के मानस का, उसकी विभिन्न ऊहापोहों का चित्रण किया गया है। सबसे बड़ी समस्या उस भोले जनसमाज के आगे यह थी कि गाँधी जी के अहिंसावादी मार्ग से हटकर हिंसा की नीति को कैसे अपनाएं; और सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि इतनी-इतनी हिंसा और रक्तपात के बाद का मानव क्या यथार्थ मानव होगा ? वह प्रश्न आज भी ज्यों-का-त्यों जहाँ का तहाँ खड़ा है।

भारतीय ज्ञानपीठ के प्रति मैं आभारी हूँ कि यह कृति हिन्दी पाठकों के सम्मुख पहुँच रही है। इसका हिन्दी रूपान्तर गुवाहाटी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. कृष्ण प्रसाद सिंह ‘मागध’ ने किया है। मैं उनका आभारी हूँ और दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी प्राध्यापक डॉ. रणधीर साहा का भी जिनका सक्रिय सहयोग इसे मिला।

 
गुवाहाटी, 9 अक्टूबर 1980

-बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य


एक



‘‘बर्रों के छत्ते छेड़ दें तो फिर उनसे अपने को बचा पाना कठिन हो जाता है।’’
बात भिभिराम ने कही। घुटनों तक खद्दर की धोती, खद्दर की ही आधी बाँह की कमीज, पाँवों में काबुली चप्पल जिन्हें खरीदने के बाद पॉलिश ने छुआ ही नहीं घुँघराले बाल, लम्बी नाक और लम्बोतरा साँवला चेहरा : एक सहज शान्ति आभा से युक्त।

साथ में थे धनपुर लस्कर और माणिक बरा। तीनों जन कामपुर से रेल द्वारा जागीरोड उतरे और नाव से कपिली के पार करके पगडण्डी पकड़े हुए तेज पाँवों से दैपारा की ओर जा रहे थे। आगे था पचीसेक मील का रास्ता। बीच में था एक मौजा पड़ताः मनहा। तीनों जन का चित्य अब उद्वेगमुक्त हो आया था। क्योंकि मनहा आगे का समूचा रास्ता घने जंगल से होकर जाता था। रास्ते के दायें-बायें पहाड़ियाँ थीं या घनी वनस्पतियाँ। कहीं-कहीं दलदली चप्पे मिलते, नहीं तो खुले खेत होते। दूर दाहिने झलझल करता ब्रह्मुपुत्र की की बालू का प्रसार, उन्मुक्त पसरा हुआ बालूचर।

धनपुर लस्कर ! तरुणाई की साकार मूर्ति। बड़े चकोतरे जैसा गोल-मटोल चेहरा, काली घनी मूछों की रेख, बाल पीछे के कंघी किये हुए लम्बी-बलिष्ठ देह, बड़ी-बड़ी आँखेः पैनी वेधक दृष्टि। जो इसे देखता प्रभावित हुए बिना न रहता। लगता जैसे आँखों से अग्नि-शिखाएँ फूटी आती हों। बहुत चेष्टाएँ करके भी हाई-स्कूल की दहलीज पार न कर सका। बीड़ी-सिगरेट का लती, पर चिरचल ग्रहों की नाईं सतत  क्रियाशील, और अपने तरुण हृदय में छिपाये हुए  एक मूक व्यथा। अभी तक औरों को यह गोचर न थी। आज दोनों साथियों पर प्रकट कर उठने को व्याकुल सा हो आयाः इसलिए कि यात्रा के श्रम भूला रहे, और इसलिए कि अपने चरम विपदा-भरे-कार्य-दायित्व पर रोमांचित हुए आते मन को दूसरी ओर फेर सके।
भिभिराम रह-रहकर धनपुर की मोटी-गँठीली उँगलियों को सभय देख उठता था।

देहाती प्रवाद के अनुसार ऐसी उँगलियों वाला व्यक्ति बिना द्विधा में पड़े किसी की भी हत्या कर सकता। धनपुर ने भिभिराम की उस दृष्टि को लक्ष्य किया। बोलाः

‘‘तुम ठीक ही कह रहे थे भिभिरम भइया, कि हम लोग बर्रों की तरह हैं। बर्रों का अस्त्र डंक होता है। पर मैं तो सच में कसाई हूँ, कसाई।’’ मुट्ठियों के रूप में दोनों हाथों की उँगलियों को भींचकर उन्हें देखता हुआ आगे बोला,’’ भाभी तो मेरी इन उँगलियों पर आँख पड़ते ही भय के मारे मुँह को दूसरी ओर कर लेती हैं।’’ दो क्षण कहीं खोये रहकर कहा, ‘‘भगवान ने ये उँगलियाँ मुझे कलम पकड़ने के लिए नहीं दीं। ये हथौड़ा और दाव चलाने के लिए हैं।’’ भिभिराम गम्भीर हो आया।
‘‘जानता हूँ धनपुर। तुम्हारी भाभी तो इसके प्रतिकार के लिए उपाय तक कराने गयी थी। गोसाईं जी को तुम्हारी जन्म-कुण्डली दिखायी। उन्होंने दुष्ट-ग्रह बहुत प्रबल बताये; मारक योग तक का संकेत किया। कुछ पूजा आदि भी सुझायी थी कुछ हुआ उसके बाद, मुझे नहीं पता !’’

‘‘होना क्या था। उसके बाद तो हाथ में रिंच सँभाल ही लिया।’’ भिभिराम चुप ही रहा।
उसे कामपुर हाईस्कूल में हुए स्ट्राइक का दिन याद हो आया।

उस दिन धनपुर ने ही झण्डा फहराया था। उस दिन ही उसे शान्ति-सेना में भरती करे ‘करेंगे या मरेंगे’ की शपथ दिलायी थी। कामपुर के पास ही शान्ति-सेना का शिविर लगा हुआ था। मगर शिविर में बीड़ी-सिगरेट पीना मना था। इसलिए धनपुर वहाँ जाना ही बचा गया। भिभिराम को बहुत बुरा लगा। पर करता क्या ? नेता लोग गिरफ्तार किये जा चुके थे। बचे थे इने-गिने कार्यकर्ताः इन्हें तत्काल आगे का कार्यक्रम देना था। कार्यक्रमः मिलिटरी की सप्लाई काट देना, रेल-पुल     आदि नष्ट करके यातायात भंग कर देना।

समूचा देश उन दिनों मिलिटरी की एक विराट छावनी बना हुआ था। जापानी सेना चिन्दुइन नदी के उस पार पहुँच गयी थी। ब्रिटिश, अमेरिका, चीनी और आस्ट्रेलिया सेनाएँ सारे में फैली थीं। ऊपर से यमदूतों की तरह दया-मायाहीन पुलिस और सी.आई.डी. हाथ धोकर देशसेवकों पीछे पड़ी हुई थी। कमी देशद्रोहियों की भी नहीं थी। शहर तो शहर, गाँवों तक में इन दुष्टों के दल खड़े हो गये थे। कम्युनिस्ट लोग अपनी-सी करने पर उतारू थे। युद्ध का विरोध न करके, ये उसे फासिस्ट-विरोध संग्राम बताकर अपना सहयोग दे रहे थे। इतना ही नहीं, देशसेवकों के हर काम को ये गलत ठहरा रहे थे।

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