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कविता संग्रह >> मधुकलश

मधुकलश

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5694
आईएसबीएन :9788170284260

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इन कविताओं की रचना कवि के यौवनकाल काल में हुई। यह संग्रह यौवन रस और ज्वार से भरपूर हैं...

Madhukalash

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अग्रणी कवि बच्चन की कविता का आरंभ तीसरे दशक के मध्य ‘मधु’ अथवा मदिरा के इर्द-गिर्द हुआ और ‘मधुशाला’ से आरंभ कर ‘मधुबाला’ और ‘मधुकलश’ एक-एक वर्ष के अंतर से प्रकाशित हुए। ये बहुत लोकप्रिय हुए और प्रथम ‘मधुशाला’ ने तो धूम ही मचा दी। यह दरअसल हिन्दी साहित्य की आत्मा का ही अंग बन गई है और कालजयी रचनाओं की श्रेणी में खड़ी हुई है।

इन कविताओं की रचना के समय कवि की आयु 27-28 वर्ष की थी, अतः स्वाभाविक है कि ये संग्रह यौवन के रस और ज्वार से भरपूर हैं। स्वयं बच्चन ने इन सबको एक साथ पढ़ने का आग्रह किया है।
कवि ने कहा है : ‘‘आज मदिरा लाया हूं- जिसे पीकर भविष्यत् के भय भाग जाते हैं और भूतकाल के दुख दूर हो जाते हैं..., आज जीवन की मदिरा, जो हमें विवश होकर पीनी पड़ी है, कितनी कड़वी है। ले, पान कर और इस मद के उन्माद में अपने को, अपने दुख को, भूल जा।’’

 

अपने पाठकों की नई पीढी़ से

(सातवें संस्करण से)

 

‘मधुकलश’ का सातवाँ संस्करण मेरे नए प्रकाशक के यहाँ से छपने जा रहा है। इस पर मुझे संतोष और प्रसन्नता का अनुभव होना स्वाभाविक है। पिछले छः संस्करणों के साथ मेरी, न किसी और की भूमिका थी, न सम्मति थी; केवल कविताएँ ही पाठकों के सामने रख दी गई थीं। मेरे मन में कुछ ऐसा ही विचार रहा होगा कि यदि इन कविताओं में कोई भाव-विचारों की सच्चाई-गहराई है, कोई सुन्दरता है, कोई खूबी है, आनन्द, रस या प्रेरणा देने की कोई शक्ति है, तो हिन्दी के पाठक इनको खरीदेंगे, पढेंगे, गुनगुनाएँगे; और अगर ऐसा कुछ इनमें नहीं है तो मेरे या किसी के कहने से, सिफारिश करने से, विज्ञापन करने से, या ढोल पीटने से इनको कोई मन से स्वीकार नहीं करेगा। कविता जो मन से, हृदय से, जीवन की माँग से, प्यार से स्वीकार नहीं की जाती, वह उपेक्षित रहती है, भुला दी जाती है। दुनिया अपने पर अनावश्यक, अवांछित का बोझ अधिक दिन नहीं ढोती। आज जब देखता हूँ कि लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व लिखी इन कविताओं को लोग अब तक संग्रह करना चाहते हैं, पढ़ना चाहते हैं, इनमें रूचि लेते हैं, तो आत्म-विश्वास होता है कि इनमें वह कुछ है जिसकी लोग कविता से प्रत्याशा करते हैं। यह आत्मविश्वास और बढ़ जाता है जब मैं देखता हूँ कि विशुद्ध कविता-प्रेम से इन्हें स्वीकार किया गया है; किसी और तरह इन्हें जनता तक पहुँचाने की न मेरी इच्छा ही रही है, न मेरे पास कौशल-साधन ही रहा है, और मेरी कामना है कि आगे भी अपनी सहज आकर्षण-शक्ति से ये लोगों तक पहुँचें, लोगों को अपनी ओर खींचें।

जब ‘मधुकलश’ की लगभग पन्द्रह हज़ार प्रतियाँ लोगों में पहुँच चुकी हैं, जिन्हें तीस-चालीस हज़ार लोगों ने पढ़ा भी होगा, तब मेरी हिम्मत होती है कि इन कविताओं के बारे में कुछ कहूँ। आशा है, आगे की पक्तियों में मैं जो कहने जा रहा हूँ वह आपको रोचक लगेगा। कवि और कविताओं के बारे में एक ऐसी जिज्ञासा भी प्रायः होती है जिसको शान्त करने का प्रयत्न आगे किया जाएगा। इन कविताओं के बारे में मेरे पाठक प्रायः मुझसे मौखिक रीति से या पत्रों के द्वारा पूछते रहे हैं। किसी-किसी को मैंने संक्षेप में उत्तर दिया है, किसी-किसी के सवाल को टाल गया हूँ। क्योंकि एक बात मेरे मन में सदा से स्पष्ट और दृढ़ रही है कि कविता से जो संतोष, आनन्द, रस मिलना चाहिए, उसे देने की पूरी क्षमता कविता में होनी चाहिए। आगे जो लिखने जा रहा हूँ वह इस वास्ते या इस ध्येय से नहीं कि उससे कविता के समझने में सहायता मिले या उससे कविता का आनन्द बढ़े; इसके बिना भी लोग इन कविताओं को समझते और इनका रस लेते रहे हैं।

और आज के पाठकों की समझ और सुरुचि में कोई कमी नहीं आई है कि उनको इस प्रकार की टिप्पणियों की जरूरत पड़े। मेरा अनुभव तो यही है कि आज के पाठकों की रूचि में अधिक सँवार और समझ में अधिक निखार आया है। ‘मधुशाला’ के प्रथम श्रोता-पाठक जानते हैं कि मैंने ‘हाला-बाज़’ और ‘पियक्कड़’ समझा था, आज के श्रोता-पाठक जानते हैं कि मैंने हाला का प्रयोग प्रतीक अथवा रूपक के समान किया है और मुझसे अब वे भोंडे सवाल नहीं पूछे जाते जो आज से पचीस वर्ष पहले पूछे जाते थे। मैं क्या परिणाम निकालूँ ? अगर आपकी गरज केवल कविता से है, और उसके संबंध में अतिरिक्त कौतूहल आपके मन में नहीं जागते, तो आपको आगे पढ़ने की जरूरत नहीं। आप मेरे अधिक नज़दीक हैं। एक अरसे तक घर में मेरा आदेश था कि कविता की जितनी भी नई पुस्तकें आएँ उनसे भूमिका, प्रस्तावना, प्राक्कथन और सम्मतियों का पेज फाड़कर उन्हें मेरे सामने रखा जाए।

‘मधुकलश’ की कविताएँ सन् 1935-36 में लिखी गईं और सर्वप्रथम 1937 में प्रकाशित हुईं। इसके पहले ‘मधुशाला’ 1935 में और ‘मधुबाला’ 1936 में प्रकाशित हो चुकी थीं। मेरे जीवन का जो उत्साह, उल्लास और उन्माद- गो उनमें एक अभाव, एक असन्तोष, एक निराशा की व्यथा भी घुली-मिली थी- ‘मधुशाला’ और ‘मधुबाला’ में व्यक्त हुआ था, वह अब उतार पर था। मेरे भावना-स्वप्नों का शीशे का संसार यथार्थता और वास्तविकता की चट्टान से टकराकर चकनाचूर हो गया था। ‘मधुबाला’ के ‘प्रलाप’ में इसका प्रतीकात्मक संकेत हैं, ‘पाँच पुकार’ शीर्षक कविता में भी

 

‘गिर-गिर टूटे घट प्याले
बुझ दीप गए सब क्षण में।’

 

नियति ने भी इसी समय मेरे ऊपर आक्रमण किया- मारेसि मोहि कुठावँ। मेरे छोटे भाई की बच्ची को मौत एक झपट्टे में उठा ले गई। मेरे कोई सन्तान न थी, वह कन्या मुझे बहुत प्रिय थी। चार महीने बाद उसकी माँ भी चल बसी। इसके बाद मैं बीमार पड़ा और डॉक्टरों ने मुझे क्षय का भय बताया। सृजन की शक्तियाँ मुझमें अब भी अप्रतिहत थीं। मैं ‘अतीत का गीत’, ‘मरघट’ और ‘हलाहल’ लिखने लगा। ‘हलाहल’-हाला का प्रतिरोधी-जिन भावनाओं का प्रतीक बनकर मेरे मन में उदय हुआ था, उन्हें प्रश्रय देकर मैं नहीं जी सकता था; उसकों मैंने चुनौती दी। हलाहल मुझे मार नहीं सकेगा; मेरी अमरता का सबूत बनेगा। ‘हलाहल’ के दो पद देखें :

 

सुरा पी थी मैंने दिन चार
उठा था इतने से ही ऊब,
नहीं रुचि ऐसी मुझको प्राप्त
सकूँ सब दिन मधुता में डूब

हलाहल से की है पहचान,
लिया उसका आकर्षण मान,
मगर उसका भी करके पान
चाहता हूँ मैं जीवन-दान।

पहुँच तेरे अधरों के पास
हलाहल काँप रहा है, देख,
मृत्यु के मुख के ऊपर दौड़
गई है सहसा भय की रेख,

मरण था भय के अन्दर व्याप्त,
हुआ निर्भय तो विष निस्तत्व,
स्वयं हो जाने को है सिद्ध
हलाहल से तेरा अमरत्व।

 

‘मरघट’ और ‘अतीत का गीत’ मैंने अधूरा ही छोड़ दिया जो मेरी पाण्डुलिपियों में अब भी कहीं पड़ा है। ‘हलाहल’ दस वर्ष बाद मैंने पूरा करके प्रकाशित कराया। इधर तो मैं और मेरे परिवार के लोग दुर्भाग्य, मौत और बीमारी से सन्त्रस्त और आतंकित थे, उधर साहित्य की दुनिया में कलम और ज़बान दोनों ही मेरे खिलाफ़ चल रही थीं। ज़बानें तो ज़बानी जमा-खर्च करती हैं, पर कलम की काली करतूतें तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं के कालमों में अब भी जीवधारी खज़ाने की तरह ईर्ष्या, द्वेष, अहंमन्यता और स्पर्धा के सर्पों की संरक्षता में बन्द पड़ी हैं। कोई मेरे उद्गारों को वासनामय बताता, कोई मेरे गान को निराशा से भरा, कोई मेरी पैरोडी लिखता, कोई मेरा उपहास करता, कोई मुझे पथभ्रष्ट कहता।

मेरी पत्नी श्यामा कहती, ‘तुम कौनो सफाई न देव, तुम तो बस थुरे जाव’। ‘थुरने’ का लाक्षणिक अर्थ तो अवधी जानने वाले ही समझेंगे। मतलब उसका था कि मैं किसी की परवाह किए बिना एक के बाद दूसरी रचना की चोंट दिए जाऊँ। कई मास की प्राकृतिक चिकित्सा से जिस दिन मैं ज्वर मुक्त हुआ, उसी दिन उसने चारपाई पकड़ ली और चिता की सेज के लिए ही छोड़ी। ‘मधुकलश’ की रचनाएं इन्हीं बाढ़, बवंडर और वज्राघात के दिनों में लिखी गईं और श्यामा के देहावसान के पश्चात् उसे ही समर्पित हुईं।

यह है इन कविताओं की पृष्ठभूमि जिसे, मेरा विश्वास है, मेरे भाव-प्रवण और कल्पनाशील पाठक मेरे बिना बताए अपनी सहज सहानुभूति से जानते-समझते रहे हैं।
‘मधुकलश’ नाम को सार्थक करनेवाली तो शायद सिर्फ़ पहली कविता है- ‘है आज भरा जीवन मुझमें, है आज भरी मेरी गागर’। इसका उचित स्थान संभवतः ‘मधुबाला’ के साथ होता, जहाँ वह कहती है, ‘मैं मधुबाला मधुशाला की, मैं मधुशाला की मधुबाला’। पर उस समय यह कविता लिखी गई होती तो शायद उसमें ‘तन की क्षणभंगुर नौका’ का जि़क्र न होता : ‘जीवन में दोनों आते हैं, मिट्टी के फल सोने के क्षण’, ऐसी पंक्तियाँ न आतीं, पर अब मेरे लिए यह सिर्फ़ सुना-सुनाया ज्ञान नहीं रह गया था।

यह मेरी छाती में बलक चुका था; मेरी आँखों में ढलक चुका था। उल्लास और अवसाद इतनी तीव्रता से मेरे जीवन में आ चुके थे कि अब उनकी स्मृति का भार उठाने की भी मुझमें शक्ति न थी। मन कहता था,

 

विस्मृति की आई है बेला,
कर पान्थ न इसकी अवहेला,
आ भूलें हास-रुदन दोनों
मधुमय होकर दो-चार पहर।


‘कवि की वासना’ की मूल प्रेरणा पण्डित बनारसीदास चतुर्वेदी की एक टिप्पणी थी जो उन्होंने मेरी कविताओं के विषय में ‘विशाल भारत’ में लिखी थी। उसके उत्तर में मैंने यह कविता ‘सरस्वती’ में भेज दी। कविता के साथ मैंने नोट भी दिया था कि किसी सम्पादक ने मेरे विषय में ऐसा कहा था; उसी की प्रतिक्रिया में यह कविता लिखी गई-ठीक शब्द मुझे याद नहीं। चतुर्वेदी जी का नाम जानबूझकर न लाया गया था। चतुर्वेदी जी ने कविता देखी तो फड़क उठे, और दूसरे मास उन्होंने पूरी कविता ‘विशाल भारत’ में छापी। साथ ही एक नोट में यह यह भी स्वीकार किया कि मुझपर वासना का आरोप उन्होंने ने ही लगाया था और मुझे अपना उत्तर ‘विशाल भारत’ में ही छपाना था। बहरहाल, यदि उनकी टिप्पणी से मुझे ऐसी कविता लिखने की प्रेरणा मिली तो उन्हें पश्चात्ताप नहीं था। इस विषय पर उन्होंने मुझे व्यक्तिगत पत्र भी लिखा था। साहित्य की दुनिया ही जिस क्षुद्रता का अब मैं अभ्यस्त हो गया था, उसमें चतुर्वेदी जी की ‘शिवलरी’ ने- इस शब्द की ठीक हिन्दी मुझे नहीं सूझ रही है- मुझे बहुत प्रभावित किया।

‘सुषमा’ साफ़ कविता है; पर जो गीतात्मकता उन दिनों मेरी हर रचना में रहती थी, इसमें नहीं। मैंने कैसे गद्यमय क्षण में उसे लिखा होगा। सुरुचि की बलिहारी की किसी ने इसे पाठ्य पुस्तक के लिए चुना है !

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