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मुट्ठी भर रोशनी

उषा जैन शीरीं

प्रकाशक : बालसभा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :206
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5700
आईएसबीएन :000000

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प्रस्तुत है सामाजिक दोषों पर आधारित लघुकथाएँ..

Mutthi bhar roshani

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस संकलन की लघुकथाओं के चन्द शब्दों में गहरा और चुटीला सच बयाँ है। सम्वेदना के मार्मिक प्रसंग हैं, तथा आस-पास घटती विडम्बनाओं को रेखांकित किया गया है।

यथार्थ से ये इस कदर गुंथी हैं कि इनमें अविश्वास की कहीं भी गुंजाइश नहीं। मानवीय मूल्यों की रक्षा करती हुई ये लघुकथाएँ पाठक को स्वस्थ मानसिक खुराक मुहैय्या करती हैं। जहाँ अधिकांश रचनाओं का मूलस्वर शोषण, अव्यवस्था, पुलिस-अत्याचार, गुण्डाराज, नैतिक गिरावट, समाज में व्याप्त कर्त्तव्यहीनता, आर्थिक युग में मानवीय मूल्यों का अवमूल्यन तथा नारी-शोषण इत्यादि हैं वहीं कुछ रचनाएं ऐसी भी हैं जो मानवीय मूल्यों की शाश्वतता में आस्था बनाये रखती हैं।

शिल्प एवं प्रभाव की दृष्टि से सभी रचनाएँ काफी दमदार हैं। सहज ढंग से कही गई ये लघुकथाएँ सुधी पाठकों को सामाजिक दोषों के चिन्तन पर बाध्य करती हैं।

मुट्ठी भर रोशनी


‘‘डैडी ऽऽ आपको शेक्सपीयर के नाटकों में हैमलेट ही सबसे ज्यादा अच्छा लगता है ना !’’
‘‘हाँ उसमें जीवन का गहरा सत्य जो है। शेक्सपीयर के हर कोटेशन पर थीसिस लिखी जा सकती है। गज़ब का माइंड था वह।’’
डैडी से शिवली यूँ ही बात करते-करते कितना कुछ जान गई थी। उनके घर में आधुनिक उन्मुक्त वातावरण था। उसके विचारों पर कभी कोई अंकुश नहीं लगाया गया था। उसकी स्वतंत्र सोच ने मगर उसे कुछ-कुछ विद्रोही बना दिया था। किसी भी बात को स्वीकारने से पूर्व वह आश्वस्त हो जाना चाहती थी। इफ, बट, सपोज से ही उसके तर्क आरम्भ होते। उसकी जिज्ञासाएँ अंतहीन थी। बड़ा हो जाने पर भी उसमें बाल-सुलभ औत्सुक्य बना ही हुआ था।

मम्मी के पास उसके, उनके अनुसार सिली क्वेश्चंस के लिए वक्त न था। उन्हें अपनी किटी क्लब महिला उत्थान समितियों से ही फुर्सत न मिलती। अंग्रेजी में उन्होंने थीसिस कर रखी थी। वे बड़ा फख्र महसूस करतीं जब उनके पत्रों पर लिखा होता-डॉक्टर मिसेज रंजना साही।
एक-दो बार तो जब उन्हें कुछ लोग डॉक्टर समझकर इलाज करवाने चले आये तो उनका हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया। वो अक्सर लोगों को यह बात बड़े गुरूर से बतातीं।

वैसे भी उन्हें उनके गुणों के कारण कम्पलीट वुमन का ख़िताब तो डैडी के दोस्तों ने दे ही रखा था। औरतें उनसे ईर्ष्या करती तो उनका ईगो पूर्णत: सन्त्रप्त रहता। वे जैसे महत्त्वाकांक्षाओं के लिए ही जीना चाहती थीं।

उनको लेकर शिवली डैडी की उदासी को भाँप जाती। बाहर से वे दोस्तों में हँसी-मज़ाक चाहे कितना भी कर लेते उनके अन्तर में तपते रेगिस्तान को कभी-कभी वह भी विचरण कर उसकी तपिश महसूस कर लेती। ऐसे में वो शिवली पर स्नेह फुहार बरसा मन की तपिश कुछ देर शान्त कर लेते।

उसे याद नहीं, कभी मम्मी ने डैडी से सीधे मुँह बात की हो। वे अक्सर इस तरह के जुमले उछालतीं, ‘अब हम-एक-दूसरे के लिए बासी और बोर जो हो गए हैं....एहसासों के रंग जो फीके पड़ गए हैं फिर सारे मर्द एक-से होते हैं....शिकारी कहीं के....‘इससे पहले कि वो कुछ और उल्टा सीधा बोलें शिवली वहाँ से दूर चली जाती।

उनके डिसिप्लीन ने मानो सबको कठपुतली समझ रखा था। नौकर तो खैर इसी बात की तनख्याह पाते थे। किन्तु शिवली का उनके निषेधों में दम घुटता विवेकाधिक्य उन्हें दिन-ब-दिन अकेला बना रहा था। अपने इन्टलैक्चुएल स्तर का उन्हें कोई मिलता ही न था जैसे। और सब धीरे-धीरे वे किटी क्लबों से भी ऊबने लगी थीं।

बचपन में उसे याद है मम्मी की जगह डैडी ही उसे लोरी सुनाया करते। मम्मी से वह जुड़ ही नहीं पाई ? अच्छे खिलौने, कपड़े दिलवाकर ही वे सोचतीं उनका मातृत्व सफल हो गया। कैसी नारी थी वे ? माँ बनकर भी ममता का झरना उनमें नहीं बहा।

छह-सात बरस की रही होगी वह जब नौकर मायाराम के लड़के का हाथ पकड़े खिलन्दड़ मूड़ में ड्राइंगरूम में घुसी तो कीचड़-मिट्टी में सने हाथ और कपड़ों को देख मम्मी ने सहेलियों के सामने ही उसे तड़ से एक चाँटा रसीद कर दिया था। बेचारा शेखर सहम कर कुछ देर उसे देखता रहा था। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में मम्मी के प्रति घृणा वह आज भी नहीं भूली है। वह थप्पड़ अगर डैडी मारते तो शायद उसे इतना गहरा आघात न लगता क्योंकि वे प्यार भी तो करते थे लेकिन मम्मी जब प्यार नहीं करती थीं तो मारने का भी हक नहीं था। उसने बहुत छोटी उम्र में ही बहुत कुछ सोचना सीख लिया था।
वह धीरे-धीरे मानसिक तौर पर मम्मी से दूर होती गई वैसे तो वह पास कभी थी ही नहीं। लेकिन अब जानबूझकर वह उनकी उपेक्षा करती। उन्हें नीचा दिखाने, तड़पाने में उसे जैसे एक तरह का सुकून मिलने लगा था। उसे डैडी की तरफ से भी मोर्चा सँभालना था। वे नाश्ते के लिए आवाजें लगाती रह जातीं लेकिन वह अपनी धुन में रहती कोई जवाब तक न देती मानो उसने सुना ही न हो।
डैडी को वह इस तरह घेरे रहती कि उन्हें डैडी से बात करने का मौका ही न मिलता। उसे यह सोचकर तसल्ली मिलती कि मम्मी हिर्स से जल रही होंगी।
एक दिन उसने मम्मी को इतना प्रवोक कर ही दिया कि वे पति पर बरस पड़ीं, ‘‘तुमने ही इसे इतना सर चढ़ा लिया है कि आज यह बेटी नहीं सौत लगती है मुझे।’’ सदा शान्त सौम्य धीर डैडी को जाने क्या हुआ कि मम्मी पर उनका हाथ उठ गया।
वे ठगी-सी गाल पर हाथ रखे बैठी रह गई थीं। उन्होंने बेटी से बोलना करीब-करीब बन्द-सा ही कर दिया था। और एक दिन उन्होंने हुक्म सुना दिया कि शाम को लड़के वाले उसे देखने आयेंगे सो वह तैयार रहे।
शिवली रोती हुई डैडी से लिपट गई। जब उसका रोना कुछ थमा तब ही वह डैडी को अपनी वह बात जो वह काफी समय से कहना चाहती थी बता पाई।

‘‘डैडी ‘आई एम प्रेगनेंट’ मैं किसी दूसरे से शादी कैसे कर सकती हूँ।’’
कुछ देर मौन रहकर उन्होंने पूछा था ‘‘हू इज ही ?’’
वह कुछ बोलती इससे पहले ही मम्मी गरजती हुई बोली, ‘‘देख लिया, यही होना था। आई न्यू यही होगा। कैसे पिता हो ? प्यार करते हो बेटी को बहुत लेकिन जो फर्ज एक साधारण स्थिति का आम-सा आदमी भी बेटी के प्रति निभाता है, तुम तो वह भी नहीं कर पाये !’’
‘‘रंजना तुम्हारे मुँह से फर्ज की बात सुनकर मुझे आश्चर्य हो रहा है। कुछ बातें बेटी को माँ ही समझा सकती है, बाप नहीं। उसकी लिमिटेशन हैं।’’
‘‘इस समय मैं तुमसे कुछ बहस में नहीं उलझना चाहती। पहले नाम पता करो, कौन है। मैंने इतने बड़े घर में इसका रिश्ता करना चाहा था लेकिन सोची हुई हर बात कहाँ पूरी होती है। मैं जा रही हूँ। शायद मेरे सामने शीलू नाम न बताना चाहे।’’

‘‘हाँ ऽऽ बेटे, अब बताओ कौन- है वह जिसे तुम प्यार करती हो। जिसके साथ घर बसाना चाहती हो। मुझे विश्वस है अपनी बेटी पर, उसने जिसे भी पसन्द किया है वह कोई मामूली लड़का नहीं हो सकता।’’
‘‘यह तो मैं नहीं जानती डैडी लेकिन वह एक नेक इंसान है। डैडी मैं शेखर के साथ अपना जीवन बिताना चाहती हूँ।’’
‘‘कौन शेखर शीलू ? वो...मायाराम को बेटा तो नहीं ?’’
‘‘वही है।’’ अपने डर पर काबू पाते हुए शीलू ने दृढ़ता से कहा।
‘‘हूँ ऽऽ। करता क्या है ?’’

‘‘एक प्राइवेट फर्म में इंजीनियर है। पढ़ाई में हमेशा टॉप करता रहा है। गोल्ड मेडेलिस्ट है।’’
‘‘तुम्हारी मम्मी तो उसका नाम सुनते ही भड़क उठेंगी !’’
‘‘डैडी यह मेरी चाहत मेरी जिन्दगी का प्रश्न है। यहाँ मैं उनसे कोई समझौता नहीं कर सकती। जानती हूँ कहेंगी, पागल मत बनो। बच्चा गिरा दो। जीवन में पैसों को ही तो अहमियत देती रही हैं वो। लेकिन डैडी शेखर बहुत अमीर नहीं तो क्या हुआ मेरी देखभाल वो अच्छी तरह कर सकता है। मेरी हर इच्छा पूरी कर सकता है क्योंकि मैंने भी उन्हें उसकी पहुँच से बाहर नहीं रखा है। उसने मुझसे वादा लिया है कि मैं उसके पास सिर्फ मैं बनकर ही जाऊँगी। मिस्टर साही की बेटी बनकर नहीं।’’
‘‘आइ एम इम्प्रैस्ड ! खुद्दार लड़का है। तुम्हारी मम्मी को देर-सबेर उसे अपना कानूनी बेटा मानना ही होगा।’’
परिस्थिति को देखते हुए मम्मी के पास थोड़ी बहुत नाराज़गी के अलावा इस रिश्ते को स्वीकारने के सिवा कोई विकल्प न था।

एक सादे से समारोह में शिवली और शेखर परिणय सूत्र में बँध गए। यह शेखर का ही प्रस्ताव था कि शादी में किसी तरह का अपव्यय न किया जाए।
आधुनिकता का दावा करने के बावजूद मम्मी के अन्तर्मन की गहराइयों में कहीं बेटे की वाह छाप थी। यह शनै: शनै: शिवली पर जाहिर होने लगा। शेखर की शालीन गम्भीरता ने मम्मी को जीत लिया था। वे अपनी इस नयी खुशी में और भी खूबसूरत लगने लगी थीं।

शेखर उनकी इज्जत करने लगा था। वह उनसे मन के किसी कोने में अत्यन्त प्रभावित था। शेखर की माँ बहुत जल्दी चल बसीं थीं। माँ के प्यार से उसका बचपन महरूम रहा था। वह उनमें अपनी खोयी माँ को ढूँढ़ता।
मम्मी तो हमेशा से ही अपने अपीरियंस की तरफ बहुत सजग रहा करती थीं। उन्हें अच्छे कपड़े, अच्छे खाने का शौक था। वे शेखर के प्रति अति उत्साहित रहतीं। उन दोनों के आने पर वे तरह-तरह की चीजें बनाकर शेखर को अतिरिक्त मनुहार से खिलातीं।। शिवली जानती थी डैडी मम्मी के इस रवैये से खुश थे।

लेकिन न जाने क्यों शिवली को यह बिलकुल अच्छा न लगता। पहले उसने अप्रत्यक्ष रूप से शेखर को मम्मी से ज्यादा बात करने, उनके नज़दीकी बढ़ाने से बरजा लेकिन जब शेखर ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया तो साफ शब्दों में यह बात कहने लगी। एक दिन क्रोध और घृणा के आवेग में वह बोल पड़ी, ‘‘तुम्हारे प्रति मम्मी का व्यवहार सास जैसा नहीं बल्कि एक प्रेयसी जैसा लगता है और तुम, शेखर तुम भी प्रणयी लगते हो। वो कहते है न ओल्डवाइन....पुरानी शराब ज्यादा नशा देती है...’’

तड़ से एक चाँटा शिवली के गाल पर पड़ा वह वहीं सिर थामकर बैठ गई। उसका सिर चकरा गया था। उसकी आँखों में बेतहाशा आँसू उमड़ आये। क्या इसीलिए उसने बगावत कर शेखर को चुना था। एकाएक उसकी स्मृति में इसी तरह डैडी से थप्पड़ खाकर रोती हुई मम्मी की तस्वीर उभर आई। उस दिन मम्मी ने शिवली को सौत जैसी कहा था और आज वह...वह भी तो वही गल्ती दोहरा रही है। क्यों सोचा उसने ऐसा ? उसकी सोच क्यों इतनी घटिया हो गई ? क्या हर स्त्री अपने पति को लेकर इतनी ही पजेसिव होती है ? वह कितनी सेल्फिश है। उसे अपने पर ग्लानि हो आई।

शेखर कहाँ गया होगा ? उसने मोटरसाइकिल की आवाज सुनी थी। गुस्से में ड्राइविंग कितनी खतरनाक हो सकती है, यह सोचकर वह आशंका से भर गई। सोफे पर बैठे-बैठे उसे झपकी-सी आ गई। नींद में भी वह डरावने ख्वाब से देखती रही। डैडी मम्मी को घसीट कर घर से बाहर धकिया देते हैं। उनके अपशब्द फिज़ाओं में गूँजते हैं। ‘कुलटा बदजात... अपनी बेटी के ही सुहाग पर डाका डाल रही है....तुझे ईश्वर कभी माफ नहीं करेगा...। और सड़क पर भीड़ इक्ट्ठी हो जाती है। चारों तरफ से आवाज़ आती है, मारोऽऽ ये स्त्री चरित्रहीन है।’ मम्मी लहुलूहान हो जाती हैं। वो चिल्लाती है, ‘मत मारों मेरी मम्मी को मत मारो। उन्होंने कुछ नहीं किया है सब मेरे दिमाग का वहम था....।’
टिन ऽऽ टिन ऽऽ फोन की घंटी बज उठती है। उधर से आवाज आती है शिवली बेटे। ‘‘जल्दी से जमनादास नर्सिंगहोम होम पहुँच जाओ। घबराना नहीं। चिन्ता की कोई बात नहीं है। जल्दी आ जाओ बस।’’
    

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