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नारी विमर्श >> मोहभंग

मोहभंग

क्रांति त्रिवेदी

प्रकाशक : वन्य भारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5704
आईएसबीएन :81-903869-0-5

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नारी चरित्र के प्रकृतिजन्य गुणों जैसे समर्पण की भावना, मातृत्व ग्रहण करने की उद्दाम इच्छा, दया, क्षमा, ममता, त्याग और सेवा भावना को अंतर्मन की गहराइयों तक पहुंचकर चित्रित करने में जो दक्षता इस उपन्यास की लेखिका ने प्राप्त की है वह अन्यत्र दुर्लभ है।

Mohbhang

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


नारी चरित्र के प्रकृतिजन्य गुणों जैसे समर्पण की भावना, मातृत्व ग्रहण करने की उद्दाम इच्छा, दया, क्षमा, ममता, त्याग और सेवा भावना को अंतर्मन की गहराइयों तक पहुंचकर चित्रित करने में जो दक्षता इस उपन्यास की लेखिका ने प्राप्त की है वह अन्यत्र दुर्लभ है।

इस उपन्यास की नायिका ‘हंसा’ एक ऐसी आदर्श नारी है जो अपने अविवाहित जीवन में मातृविहीन होने पर अपने रुग्ण पिता की सेवा शुश्रुवा और अपनी छोटी बहिनों के भविष्य निर्माण के लिए अपने भविष्य को  दाव पर लगा देती है। विवाहित होने पर जब उसे ज्ञात होता है कि उसका अमीर पति एक आधुनिका युवती के प्रेमजाल में फंसा है तो वह उसके मार्ग से हटने का निर्णय कर लेती है। लेकिन क्या उसके चरित्र की दृढ़ता, त्याग और सेवा भावना के प्रभाव से उसका कामी पति अप्रभावित रह सका ?

1


‘‘दीदी तुम्हारा कहना शत-प्रतिशत ठीक निकला। हमारे आने से इस लोकेल्टी में तहलका मच गया है।’’
प्रिया हंस रही थी। उसके स्वस्थ गुलाबी कपोलों पर ठीक बीचोंबीच छोटे-छोटे गढ़े पर रहे थे। हंसा की नकल करके जब प्रिया अपने चेहरे पर क्रीम और होंठों पर लिपिस्टिक लगाना चाहती है तो हंसा उसे हमेशा रोक देती थी। प्रिया उस पर आरोप लगाती कि वह अपनी श्रृंगार सामग्री के बारे में कंजूस है। केवल अपनी सुंदरता बढ़ाती रहती है। हंसा गंभीर हो जाती—

प्रिया तू जानती नहीं तेरे पास क्या है। तू हमेशा लिपिस्टिक पाउडर लगा सकती है, और मुझसे अधिक सुंदर दिख सकती है। लेकिन तेरे गालों पर पड़ने वाले सुंदर डिंपलों को मैं अपने गालों पर नहीं बना सकती।’’
‘‘सो तो है ही। भगवान ने यह उपहार देकर मुझ पर विशेष कृपा न की होती तो मैं, तुम दोनों के सामने सिर ही न उठा पाती। काश ! तुम्हारी ठुड्डी वाला डिंपल मुझे भी मिल जाता।’’
‘‘उसके सिवा तुममें सब-कुछ तो मुझसे ज्यादा है।’’
‘‘भगवान ने एक ही चीज कम दी है।’’
‘‘वह क्या ?’’

‘‘मेरे दिमाग में अक्ल भी तो कम है। पर उसका मुझे कोई अफसोस नहीं है क्योंकि मैं तेरी जैसी सखी की बुद्धि पर भरोसा कर सकती हूं। खैर छोड़ !
‘‘सो तो दीदी मेरा पहला ही काम है।’’—प्रिया बेशर्मी से मुस्कराई, ‘‘बायीं ओर वाले उस बड़े से आलीशान घर में तो अस्सी वर्ष के मि. प्रसाद रहते हैं। साथ में उनके पोते और दो पोतियाँ हैं। इसकी विधवा मां बीमार है और सदा बिस्तर पर लेटी रहती है। पोते साहब वकालत कर रहे हैं। मैंने उनके दर्शन नहीं किये पर सुना है, बड़े रोबदार व्यक्ति हैं, और उनकी वकालत भी खूब चलती है। दायीं ओर वाले मकान में भी कोई अमीर सज्जन रहते हैं। इनकी एक लडकी है, वह शायद मेरे कॉलेज में ही पढ़ती हैं और दो-तीन लड़के हैं, सब पढ़ रहे हैं। एक डॉक्टरी, एक इंजीनियरिंग और एक अंग्रेजी साहित्य में एम.ए.। सामने वाले घर में कोई फैक्ट्री के मालिक रहते हैं। उनके यहां तो छोटे बच्चे-बच्चियां नजर आये हैं। अभी तो कुछ सतही-सी जानकारी प्राप्त की है। बस कुछ दिन और रुको तो...’’
हंसा इतने में ही ऊब गई थी।

‘‘छोड़ों अब इतना काफी है। हमें क्या लेना-देना है ? नानाजी ने दिया हुआ था तो इस मकान में रहने हमें आना पड़ा, वरना इस तरह के लोगों से हमारा क्या संबंध ?’’
‘अच्छा ही हुआ जो हम यहाँ आ गये। वहाँ तो पापा की तबीयत ठीक होना कठिन था। एक तो उस दुष्ट होम सेक्रेटॉरी ने छुट्टी की अर्जी पहुंचते ही दूसरा कमिश्नर नियुक्त कर लिया, दूसरे वहाँ उन्हें मम्मी की हर समय याद आती रहती—अब यहाँ हम नये ढंग से रहेंगे, ताकि वे मम्मी की कमी कम-से-कम महसूस करें।’’

मम्मी की याद आते ही हंसा की आंखें भर आयीं। उन्हें भूलना क्या किसी के लिए संभव था ? सौंदर्य और कुशलता का ऐसा सुंदर संगम बार-बार नहीं होता होगा। लेकिन मम्मी जाते-जाते उस पर कितना बड़ा भार डाल गयी थीं। उनके शब्द—‘‘बेटी, तुम्हारे पापा और छोटी बहनों का भार अब तुम्हारे ऊपर छोड़े जा रही हूँ। तुम जैसा ठीक समझो उसी तरह सब संभालती रहना’’, हर काम उसे प्रेरणा देते थे तभी तो वह यहां आने का निर्णय कर सकी थी। अब सारी गृहस्थी जमाने की जिम्मेदारी भी उसी की थी। प्रिया का क्या जाने कि नये ढंग से जीना शुरु करना कितना कठिन होगा, खास तौर से जब रुपयों की कमी रहती हो, घर में राजसी रोग से पीड़ित पिता हों और अड़ोसी-पड़ोसी वैभव के लाडले हों। यहां जीना और खुश रहकर जीना और भी कठिन होगा।

काश ! प्रिया में जिम्मेदारी बांट सकने की चाह अथवा योग्यता होती ! वह तो बच्चों की तरह इधर-उधर ताक-झाँक में व्यस्त थी। प्रसून ने अपने पढ़ने का कमरा ठीक कर लिया था। अलमारियों में किताबें सजा ली थीं, और दिख रहा था कि वह निश्चिंत होकर पढ़ाई में डूब जायेगी। इतना अवश्य चाहा था कि उसका कमरा पापा के कमरे के पास हो ताकि वह उनकी आवाज जल्दी सुन लिया करे और उनकी छोटी-छोटी जरूरतें पूरी कर सके। उसके चेहरे पर न राग था, न विराग। ऐसा लगता था मानों कुछ हुआ ही न हो, केवल स्थान-परिवर्तन ही हुआ हो। कुछ ही दिनों में पुराने सामान से नया घर सजा लिया गया।

मि. माथुर खुश थे कि हंसा इतनी कुशलता से घर चला रही थी कि पेंशन की आय में मजे से घर चल रहा था। उन्होंने इन लड़कियों की शादी के लिए जो कुछ रुपया छुपाकर रखा था—उसमें से उन्होंने कभी-कभी ही निकालना पड़ता था। उन्हें क्या मालूम था कि डॉ. हंसा को कैसी-कैसी हिदायतें दी हैं—और उन्हें पूरी करने के लिए उसे कितनी परेशानी उठानी पड़ती है। गर्मी आने पर उन्हें पहाड़ भेजना बिलकुल जरूरी है, उसके लिए रुपयों का प्रबंध करना ही होगा। वह कई बार घुमा-फिराकर उनसे पूछने की कोशिश कर चुकी है लेकिन वे हर बार चालाकी से भेद छुपाकर मन-ही-मन हंस देते थे।
हंसा चिंतित रहती, प्रिया से बात करती तो वह बेसिर-पैर की योजनायें समझाने लगती—
‘‘दीदी तुम तो इतनी सुंदर हो। किसी अमीर आदमी से शादी कर लो—सारी समस्यायें स्वयं हल हो जायेंगी।’’
‘‘कैसी बातें करती है प्रिया। मैं पापा का साथ तब तक नहीं छोड़ूंगी जब तक वह बीमार हैं। तेरा मन हो तो तेरे लिए ही वर ढूंढ़ू ?’’

‘‘न-न दीदी, तुम मेरे लिए वर मत खोजना। मैं तो सिर्फ उससे शादी करूंगी जो मेरे सौंदर्य का मूल्य समझेगा।’’
‘‘उसका तुझे क्या डर है। तेरा सौंदर्य तो अमूल्य है। उसका मूल्य लगाना क्या किसी के लिए संभव है ?’’
‘‘मेरा मतलब था कि मैं ऐसे व्यक्ति से शादी नहीं करूँगी जो पैसा कमाने में दिन-रात लगा रहे, और जिसके लिए स्त्री केवल घर की नौकरानी हो।’’
‘‘वाह ! यह खूब कही, और तुम चाहती हो मैं रुपये की तिजोरी से शादी कर लूं !’’ हंसा भौंहें चढ़ाकर गुस्से का अभिनय करती हुई बोली।
प्रिया कुछ सहमी और आंखें नीचे किये हुए धीरे से बोली, ‘‘तुम्हारी बात अलग है। दीदी, तुम औरों से कुछ अलग हो। वैसे भी पापा के लिए अपना जीवन होम करने की तुम्हारी इच्छा है। इस तरह उन्हें कोई फायदा तो होगा नहीं, उस तरह से कम-से-कम तुम उन्हें पहाड़ तो भेज सकोगी।’’

हंसा ने सोचा कि प्रिया की बात में कुछ तथ्य तो है यद्यपि है बात बिल्कुल अनहोनी—
‘‘प्रिया अभी तेरी अक्ल बहुत सीमित है—मान लो मैं किसी अमीर से शादी करना चाहूं तो वह मुझसे शादी क्यों करना चाहेगा ?’’
प्रिया इस बार आंख उठाकर अपनी प्रश्न करती बहन की ओर देखती रह गयी। क्या नहीं था उसमें ! सिर्फ गालों में पड़ते डिंपल ही तो नहीं थे। यह दूधिया रंग, सुंदर चेहरा, जिसकी एक-एक चीज सौंदर्य से परिपूर्ण थी। हंसा के मन में भरे स्वाभिमान की प्रतीक जैसी लंबी-पलती और ऊपर उठी नाक। प्रिया का मन वहीं अटक गया। जो वह सोच रही थी उसे कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी। प्रिया कहते-कहते रुक गयी लेकिन परिस्थितियां उसकी मन की इच्छा के अनुसार आगे बढ़ने लगीं।


2



‘‘हंसा !’’
‘‘जी पापा’’ मुसंबी के रस में ग्लूकोज डालती हंसा बड़ी चुप-चुप-सी लग रही थी।
‘‘प्रिया और प्रसून तो कॉलेज जाने लगी हैं। उसका मन कुछ बदल जाता है, तुम रात-दिन घर और मेरी सेवा में ही लगी रहोगी क्या ?’’
‘‘पापा आप जानते हैं कि मुझे इसी में अच्छा लगता है।’’
‘‘सो तो है बेटी, लेकिन मेरा मन तुम्हें इस तरह जुटे देखकर दुखी जाता।’’
‘आप ऐसी बातों से क्यों दुखी होते हैं, क्या आप नहीं जानते कि यदि मेरा मन होता तो मैं जरूर घूम-फिर आती।’’
‘‘अच्छा भई तुम घूमने-फिरने न जाओ लेकिन शिष्टाचार के लिए पास-पड़ोस में तो मिल आया करो।’’
‘‘वह काम प्रिया कर रही है।’’ हंसा हंसकर बोली।

‘‘प्रिया का जाना न जाना बराबर है। मेरी प्रतिनिधि तुम हो। वक्त जरूरत के लिए पड़ोसियों से जान-पहचान रहनी चाहिए।’’
‘‘अच्छा पापा मैं शाम को वकील साहब के यहां हो आऊंगी। एक बात और, अगर समय बिताने को मैं नौकरी कर लूं तो ?’’
‘‘तो-तो—’’ वर्माजी लड़खड़ा गये बस यही स्थिति थी वह जहां वे घोर दकियानूसी बन जाते थे, ‘‘फिर मुझे कौन देखेगा ?’’
‘‘अभी तो आप कह रहे थे बाहर हो आया करो ?’’
‘‘वह बात अलग है।’’ वह गंभीर होकर बोले।
‘‘अरे पापा, आप तो फिजूल में परेशान हो रहे हैं। मैं नौकरी नहीं करूँगी।’’
‘‘हाँ बेटी नौकरी की जरूरत ही क्या है, खाने-पीने को बहुत है।’’

शाम को हंसा ने अपने दाहिने ओर वाले पड़ोसी के यहां जाने का कार्यक्रम बनाया। उसे सादे से कपड़े पहनकर जाते देख प्रिया ने टोका, ‘‘दीदी यह क्या, तुम उन्हें यह दिखाने जा रही हो कि हम सामान्य लोग हैं।’’
‘‘मैं फिजूल के दिखावे में जरा भी नहीं पड़ना चाहती। एक झूठ बोला तो फिर बोलती ही चले जाओ।’’
प्रिया को कभी-कभी हंसा की सिद्धांतवादिता बिलकुल अच्छी नहीं लगती थी।
‘‘दीदी तुम्हारा यह हंसा नाम ही सारे अनर्थ की जड़ है। तुम जीवन भर हंस जैसी बेदाग बनी रहना चाहती हो।’’
‘‘प्रिया भगवान से यही मना कि कि तेरी दीदी ऐसी ही बनी रहे।’’

बहस करना व्यर्थ जानकर प्रिया कंधे उचकाती हुई हट गयी।
हंसा सकुचाती-सी वकील साहब के गेट के पास पहुंची। दरबान ने देख लिया कि बगल वाले घर से निकल कर आयी है। हंसा का घर उतना भव्य नहीं था, फिर भी सामान्य से अच्छा था। वह हंसा के आने पर अपनी कुर्सी से खड़ा तो हो गया लेकिन उसने उसे रोका और पूछने लगा, ‘‘कहां से आ रही हैं।’’ प्रिया की सलाह मानकर यदि उसने अपने को कुछ बाहरी प्रदर्शन से रोबदार बना लिया होता तो शायद वह कुछ न पूछता और इस तरह घूरता नहीं। हंसा खड़ी ही थी, अंदर से एक बड़ी-सी कार आयी और तेजी से निकल गयी। हंसा चौंककर पीछे हट गयी।

जब तक वह संभल कर देखे कि इस तरह तूफान की तरह पास से क्या निकल गया,  कि वह गाड़ी पीछे आती दिखी। कार ठीक हंसा के पास ब्रेकों की तेज आवाज के साथ रुक गयी। गाड़ी में से एक सिर निकला और एक पुरुष स्वर उसके कानों से टकराया, ‘‘माफ कीजियेगा।’’ हंसा के चेहरे पर विस्मय के रंग बिखरे ही रह गये और कार फिर आगे बढ़ गयी। हंसा को ऐसा प्रतीत हुआ कि कार से एक स्त्री-पुरुष की सम्मिलित हास्य ध्वनि हवा में तैरती उस तक आयी है।

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