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मैं ऐसी ही हूँ

ईश्वर चन्द्र सक्सेना

प्रकाशक : साहित्यागार प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5705
आईएसबीएन :81-7711-157-4

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यथार्थ के धरातल पर जन्मी समकालीन कहानियों का संकलन...

Main aisi hi hoon

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नारी मन की पीड़ा, उसका विद्रोह, नारी मन स्पन्दन, उस पर हुए अत्याचार, नारी का उपयोग सिर्फ सजावटी, भोग्या, या कुछ और बन कर जरूर हुआ है परन्तु इन सभी बातों से पनपते विद्रोह का आन्दोलन उठ खड़ा हुआ है। अब नारी उस कोढ़ रूपी संस्कार से बाहर आने को, सौ साल से जाल में उलझे अपने संस्कारों से बाहर निकलने की तड़फड़ाहट, व्याकुलता के बाद विस्फोट से बाहर निकलने को आमादा हैं।

मेरी प्राथमिकता चाहे अम्माजी की हठधर्मिता हो या ‘चन्दा चाची’ की चन्दा की विवशता ‘आत्मग्लानि’ की रश्मि का विद्रोहात्मक बदला हो कैसा प्रतिशोध, ये लेती हैं। मध्यवर्गीय स्त्री की पीड़ा मंजु अपने पिता द्वारा अत्याचार और मम्मी की लाचारी भरा जीवन देख-देख कर, जीवन भर कुण्ठा से ग्रसित रहती है। मैंने उनके संघर्ष को ही सार्थक करने की कोशिश की है।

फैक्ट्री के माध्यम से पूँजी उत्पादकों के जंजाल में फँसी आजीविका धर्मी मानसिकता की मजबूरी कितना सच्चा ज्ञान करती हैं ‘ठहरा हुआ एक दिन’ जिसमें एक खिलाड़ी की रोटी की व्यथा, एक इंजीनियर की उन्नति पाने के लिए समर्पण, यहाँ तक कि अपने प्रेम अपने घर को भी भूलना, पार्टी में पिछले मजाक, आगे बढ़ने के लिए क्या-क्या सहना पड़ता पेश  करना आज की संस्कृति बनती जा रही हैं।

कुछ कहना है

मेरे पहले कहानी संग्रह ‘‘मैं ऐसी ही हूँ’’ के बारे में कुछ कहना है, हाँ मुझे कुछ कहना है। वैसे कई लेखक दार्शनिक यह बातें कह चुके हैं। फिर भी मुझे अपनी बात कहना है, क्यों न कहूँ जिंदगी कितनी खूबसूरत है। अगर इसे जिया जाए, बोझ न समझा जाए, प्यार ही तो इसका फलसफा है। इसमें महक है। जीवन है, तो असन्तोष भी है।
मुझे यथार्थ की कहानियाँ कहना अच्छा लगता है, और वो और आसान हो जाता है, जब दृश्य कथा, घटनाएँ, आँखों के सामने घटित होती हैं। समाज का दर्द, नारी की पीड़ा देखकर मन कचौटता है, नारी का विद्रोह समाज में पनपते कोढ़ सा फैलता जा रहा है। चाहे वो अविश्वास का हो या अव्यवस्था का, पीड़ा, अत्याचार से आक्रोश जन्म लेता है, तो असहाय लेखक मुट्ठियाँ भींचकर कलम पकड़ लेता है।

मेरी कहानियाँ काल्पनिक नहीं हैं। ये यथार्थ के धरातल पर जन्मी हैं। विषमताएँ जो जीवन में पति-पत्नी के बीच में, असन्तोष पैदा करती हैं। इसी बीमार मानसिकता से निकली हैं मेरी कहानियाँ। प्रतिक्रियाएँ किसी भी प्रकार के अत्याचार या आक्रोश पर हों, अन्त से निकलती हैं। दर्द हो या खुशी चेहरे से बोलती है। आँखों की जुबान से व्यक्त होती है, और लेखनी द्वारा कागज पर उतर जाती हैं।

मैंने जो थोड़ा बहुत भोगा है, जिया है, समझा है, सागर में बूँद सा प्रयास किया है। अपनी नजरों से झांक कर जिन्दगी के कुछ सत्य को पीकर उसकी अनुभूतियों को उगलने का प्रयास भर किया हैं।
मेरी कहानी ‘हठधर्मिता’ की नायिका अम्माजी हो या ‘आत्मग्लानि’ की रश्मि या ‘चन्दाचाची’ की चन्दा, अपने पति अथवा समाज के अत्याचार से पीड़ित होकर कैसे प्रतिशोध पर उतर आती हैं।

‘नियति’ की मंजू अपनी मम्मी पर हुए पिता के अत्याचारों को जीवन भर सहमी-सहमी आँखों से  देखती हैं, घुटन महसूस करती हैं, और बड़े होने पर अपने जीवन के लिए कोई निर्णय समय पर नहीं कर पाती। अपने क्रूर पिता के कृत्यों का परिणाम जीवन भर झेलती है। पति से प्रताड़ित औरत, दूसरी औरत, पर पुरूष कैसे जीवन का संतुलन बिगाड़ देते हैं। वो कितना दुखदायी बन जाता है। सारा जीवन अभिषप्त हो जाता है।
मध्यवर्गीय स्त्री जन्म से विवाह के बाद तक उसके पारिवारिक विसंगतियों, उसका आत्मसम्मान, और पुरुष की मानसिकता के अलावा मेरी कहानियों में सांगोपांग परिस्थितियों में विसंगतियों की पूरी ताकत के साथ उकेरने, उभारने का प्रयास किया है।

‘ठहरा हुआ एक दिन’ कहानी दिन भर में फैक्टरी के महौल द्वारा पूंजीपतियों से लेकर लेबर यूनियनों, खिलाड़ियों, इन्जीनियरों, तक मानसिकता एंव  बॉस शैली को व्यक्त करती है। मेरी सभी कहानियों में भी कहने को बहुत कुछ है। इस साफगोई सपाटबयानी में भी संन्देश छुपा है।
इन कहानियों को पुस्तक रूप में लाने हेतु अनवरत उत्प्रेरित करने वाले आदरणीय काव्य मनीषी, नाटककर्मी, गुरुजन, आत्मीय बड़े भाई साहब श्री मंगल सक्सेना जी के द्वारा दिये गए, मार्गदर्शन के प्रति मैं अति कृतज्ञ हूँ। जिनकी वजह से मेरी उपेक्षित पड़ी, छपी अनचपी कहानियों का रूप निखर आया और उन्होंने अपना अमूल्य समय देकर मुझे उत्साहित भी किया। जिनकी वजह से यह कहानी संग्रह बन पाया।

मेरी प्रथम पाठक मेरी आदरणीय बुआजी श्रीमती ब्रजरानी जिन्होंने मेरी रचनाओं, लप्पेबाजी को भी उसी तरह सराहा जैसे किसी अच्छे साहित्यकार की रचना की तारीफ की होगी, मैं आदरणीय फूफाजी श्री सूरज नारायण जी सक्सेना जी की स्वस्थ आलोचना की भी चर्चा करना चाहूँगा, जिन्होंने मेरा नाम ही कविराज रख दिया था।
अगर मैं अपने छोटे यार मामा स्वर्गीय आदरणीय श्री जवाहर लाल जी को याद नहीं करूँ मैं अपने को अपराधी समझता रहूँगा। मामा केवल एक अच्छे दोस्त, सहयोगी ही नहीं थे, उन्होंने कठिन मुश्किल हालातों में हिस्मत बंधा कर मेरी हौसला अफज़ाई भी की, उन्होंने लिखने की प्रेरणा ही नहीं दी सहयोग भी किया। मैं उनका तहे दिल से आभारी हूँ। इस संग्रह के द्वारा मैं उन्हें एवं आत्मीय प्यारी बहन स्वर्गीय श्रीमती आशा सक्सेना को भी श्रद्धांजली अर्पित करता हूँ।

मेरी श्रीमति नीलिमा, जिसने मुझे हमेशा एक दोस्त की तरह मेरी आंकाक्षाओं, इच्छाओं, ख्वाबों, जरूरतों को समझा, इसके अलावा इला, किशन, नीना श्रीवास्तव, रीता अस्थाना, दीपिका चतुर्वेदी आदि का सहयोग हमेशा मिला वो सभी महिला पुरुष मित्र जिन्होंने लिखने में सहयोग दिया, जिनके बिना ये कहानियां अधूरी रह जाती। सोम, कृष्ण प्रधान, मोहिनी जैन, मंजू कुमकुम जोशी एवं सारे दोस्त और दुश्मन, ये सभी लेखन में हमेशा मेरे साथ रहे। मैं इन सभी को धन्यवाद देकर सहयोग को छोटा नहीं कर सकता। मैं सभी के सार्थक सहयोग के लिए आत्मीय साधूवाद अर्पित करता हूँ।
हिन्दी के विद्वान साहित्यकार, पाठक, आलोचक, मेरी साधरण सी रचना ‘मैं ऐसी ही हूँ’ को अवश्य पसन्द करेगें, ऐसी मेरी अभिलाषा है। ‘इति’

ईश्वर चन्द्र सक्सेना

आत्मीयता के उदगार


ईश्वर चन्द्र सक्सेना के रचना संसार से मैं तीन दशक से अधिक वर्षों पहले से परिचित हूँ। मुझे स्मरण है जब मैं राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर की साहित्यिक पत्रिका ‘‘मधुमती’’ का सम्पादक था। मैंने ईश्वर की कई कविताएं और कहानियाँ आमंत्रित करके प्रकाशित की थी सन् 1972 से 75 के उन वर्षों में ईश्वर की प्रकाशित कहानी पर मधुमती में ही प्रकाशित एक आलोचनात्मक लेख में लेखक ने ईश्वर की कहानी का प्रंशसात्मक उल्लेख किया था। इनकी कविताओं में अनुभूतियों का सूक्ष्म संसार, सटीक शब्द बिन्दुओं और मार्मिक सम्वेदनाओं को जमाने वाले प्रतीकों द्वारा सहज अभिव्यक्त होता है। अनेक बार कविता की सक्षिप्त पंक्ति परिवेश को किस तरह  प्रकट करती हैं, कि साथ-साथ कवि के अंतः करण पर पड़े हुए प्रभाव ही पाठक के हृदय तक पंहुच जाते है।

लेकिन मैं यहाँ उनके कहानी कौशल की बात करना चाहता हूँ अरूप निराकार से विषय को भी वे रूपकार कर देते है। ‘‘ठहरा हुआ एक दिन’’ कहानी फैक्टरी के कामकाजी व्यक्तियों की अन्तर कथा तो है ही, वह फैक्टरी के माहौल के माध्यम से पूँजी उत्पादकों के जंजाल में फंसी आजीविका धर्मी मानसिकता की मजबूरियों को भी निष्पक्ष अन्दाज में उजागर करती है। कहानी की विशेषता है कि फैक्ट्री की तरह हो गये हैं। और उनकी नियति एक बंधी हुई दिनचर्या में खास प्रकार की लफ्फाजी के द्वारा अपने सोच की यान्त्रिकता को प्रकट करती है। प्रोन्नति पाने के लिये बाँस को पत्नि परोसने की व्यंग्यात्मकता मजबूरी और एक खिलाड़ी की असफल व्यथा कथा बिना कथानक के अर्थ से इति तक सहज रूप से बयान हो जाती है। यह ईश्वर का शिल्प चातुर्य है।


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