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धर्म एवं दर्शन >> योगिराज श्रीकृष्ण

योगिराज श्रीकृष्ण

विनय

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5730
आईएसबीएन :81-288-0859-1

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सोलह कलाओं से सम्पन्न, राग-विराग की भावना से पूर्ण एवं विरुद्ध स्थितियों में संतुलित रहने वाले योगिराज श्रीकृष्ण...

Yogiraj shrikrishna

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

योगिराज श्रीकृष्ण कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, अपितु साक्षात् परम ईश्वर हैं, जिन्होंने इस धराधाम में अवतार लिया। वे पिता वसुदेव और माता देवकी के पुत्र हैं, इनका लालन-पालन यशोदा और नंद ने किया।
श्रीकृष्ण सोलह कलाओं से संपन्न, राग-विराग की भावना से पूर्ण एवं विरुद्ध स्थितियों में संतुलित रहने की प्रेरणा देने वाले दूरदर्शी व क्रांतिकारी महामानव होने के साथ-साथ महाभारत व भगवद्गीता के प्रतिपाद्य हैं।

1
योगिराज श्रीकृष्ण का अवतरण

पृथ्वी पर सभ्यता और संस्कृति के आविर्भाव तथा विकास की दृष्टि से भारतीय और यूनानी संस्कृति और सभ्यता प्राचीनतम है। भारत और ग्रीक दोनों स्थलों की सृष्टि की उत्पत्ति और विकास अलग-अलग रूप से चित्रित किए गए हैं। भारतीय चिंतन परंपरा में सृष्टि का विकास और ब्रह्म के अवतारवाद की विचारधारा ईश्वरवादी दृष्टिकोण से की गई है। इसी दृष्टिकोण में हमारे विश्वास में धार्मिक और वैज्ञानिक-दोनों आधारों का समावेश देखा जा सकता है।
युगों-युगों से चली आ रही मान्यता ऐसी है कि सृष्टि के आदि में आदिरूप भगवान् ने लोकों के निर्माण की इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महत्तत्त्व से निष्पन्न पुरुषरूप ग्रहण किया। इस आदिपुरुष में दस इंद्रियां, एक मन और पाँच भूत और सोलह कलाएँ थीं।

उन्होंने कारण-जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि में से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। इस प्रकार जो अजन्मा है, जो भगवान आदि रूप हैं—उनसे ही भगवान का वह विराट् रूप उत्पन्न हुआ। उस महारूप के अंग-प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गई है। वही है भगवान् की विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप।
जो योगी हैं उन्हें भगवान के इसी रूप का दर्शन मिलता है, जिसे वे अपनी साधना द्वारा उपलब्ध करते हैं। भगवान का वह रूप हजारों पैर, भुजाएं और मुखों के कारण अत्यंत विलक्षण—उसमें हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएं हैं। वस्तुतः वे सृष्टि में निहित अनेक रूपों, शक्तियों एवं क्रियाओं आदि का प्रतीक हैं।

भगवान का वह आदिरूप पुरुष है, वह महापुरुष, वह विराट पुरुष है जिसे नारायण कहते हैं, जो अनेक अवतारों का अक्षय कोष है—इसी से सारे अवतार प्रकट होते हैं। इसी रूप के छोटे-से-छोटे अंश से पशु-पक्षी और मनुष्य आदि योनियों की सृष्टि होती है अर्थात यह उर्जा का वह महाकोष है जिसके ऊर्जांश असंख्य रूपों में गति भर सकते हैं।
हमारी चिंतन परंपरा के अनुसार भगवान कृष्ण का अवतार भगवान विष्णु का आठवां, अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवतार है।

योगिराज भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि हे अर्जुन !

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भावामि युगे युगे !

हे अर्जुन ! जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है। तब-तब मैं अपने आपकी नई सृष्टि करता हूं या अपना आविर्भाव करता हूं। साधुओं की रक्षा के लिए और दुष्टों के नाश के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए मैं युगों-युगों में अवतार लेता हूं।
अर्थात युग-युग में धर्म और अधर्म का संघर्ष चलता रहता है और इन युगों में ईश्वर, भगवान, नर रूप में अवतार लेकर धर्म की स्थापना करते हैं। इसके साथ ही-

स्वलीला कीर्ति विस्तारात् भक्तेष्वनुजिघृक्षया।
अस्य जन्मादि लीलानाम प्राक्टयेहेतर्रुत्तमः।।

अपनी लीला के विस्तार के लिए और भक्तजनों के अनुरंजन हेतु अनेक जन्मों में लीला करने के लिए भगवान प्रकट होते हैं।
कृष्ण ! इस नाम के सामने आते ही मुरलीधारी अपनी त्रिभंगी मुद्रा में खड़े होकर गोपियों को रिझाने की लीला करने वाले गोपाल, कन्हैया का बिम्ब उभरता है तो दूसरी ओर अर्जुन के रथ पर सारथी के रूप में बैठे भगवान स्वरूप का बिम्ब व्यक्त होता है। तो जरासंध को मारने वाले, कंस का उद्धार करने वाले...हतशक्ति अर्जुन को कर्मयोग की शिक्षा देने वाले भगवान कृष्ण का रूप सामने आता है।
कृष्णावतार के उल्लेख कंस के साथ जुड़ा है, किंतु वह भक्ति का प्रतीक है। वस्तुतः कृष्ण मूलतः योगिराज है और धर्म के प्रतिपाद्य हैं।
हमारी पृथ्वी पर अनेक घटनाएं होती रहती हैं। कुछ का परिचय हमसे सीधा होता है कुछ का अप्रत्यक्ष रूप से हुआ है। कहते हैं कि धरती पर जब अधिक अत्याचार बढ़ गया और भी बढ़ने की सम्भावना थी तब लक्ष्मी पति विष्णु ने कृष्ण के रूप में अवतार लिया।

जैसा कि कहा है, इस अवतार से पूर्व भगवान विष्णु अनेक रूपों में अवतार ले चुके थे।
कृष्णावतार श्री विष्णु का पूर्णावतार माना जाता है। श्रीकृष्ण सोलह कलाओं में सम्पन्न, राग, विराग की भावना से पूर्ण, सर्व पूज्य श्री पुरुष हैं।

भगवान का सबसे पहला अवतार मत्स्य अवतार है। कहा जाता है कि एक बार कुछ राक्षस, दैत्य, वेदों को लेकर समुद्र में प्रवेश कर गए। इससे चारों तरफ अंधकार छा गया तो भगवान विष्णु ने समुद्र में प्रवेश करके मकर दैत्य से युद्ध किया। मत्स्य अवतार के रूप में उन्होंने न केवल वेदों का उद्धार किया अपितु पृथ्वी पर पुनः धर्म की स्थापना की।
बहुत पहले ऋषि दुर्वासा इन्द्र से मिलने आए। उन्होंने इन्द्र को एक माला दी और इन्द्र ने उस माला को  एरावत के सिर पर डाल दिया उस हाथी ने वह माला कुचल डाली। जब दुर्वासा ने यह देखा तो उसने वह अपना अपमान समझ कर इन्द्र को शाप दे डाला। सारे इन्द्र लोक में दरिद्रता छा गई, किन्तु इन्द्र अभी भी सुरक्षित था और आत्मरक्षा में लीन था। उसने भगवान विष्णु के पास जाकर अपना दुख निवेदन किया तो विष्णु ने सागर मंथन का परामर्श दिया और कूर्म (कछुआ) का अवतार लेकर मंद्रचाल को अपनी पीठ पर धारण किया।

भगवान ने वराह अवतार के रूप में अवतार लेकर पृथ्वी का उद्धार किया। जय-विजय नाम के दो द्वारपालों को सनद आदि ऋषियों ने इसलिए श्राप दे डाला था कि उन्होंने ऋषियों को भगवान की सेवा में उपस्थित होने से रोका था। शाप के कारण वे दोनों राक्षस योनि में पैदा हुए जिनका नाम हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु रखा गया। हिरण्यकशिपु को मारने के लिए भगवान ने नरसिंह अवतार लिया। उन्होंने स्वयं ही उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया था कि वह न दिन में मरेगा न रात में। वह देव असुरों से भी नहीं मारा जाएगा। इस पर उसने गर्वित होकर देवलोक पर आक्रमण कर दिया और इन्द्र को परास्त करके उसने अपने पुत्र प्रह्लाद को भी तंग करना शुरू कर दिया। वह चाहता था कि लोग उसे ही ईश्वर मानें किन्तु उसके पुत्र ने उसे भगवान मानने से इंकार कर दिया।

एक बार क्रोध में आकर हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से पूछा कि मैं तुझे मारता हूं और यह देखता हूं कि तेरा भगवान तुझे बचाता है या नहीं। उसने प्रह्लाद को एक खम्भे से बांध दिया और जैसे ही वह उसे मारने लगा तो नरसिंह रूप में विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने संध्याकाल में उस राक्षस का वध कर दिया।
भगवान विष्णु का वामन अवतार भी प्रसिद्ध है। इसमें उन्होंने वामन रूप में पृथ्वी को तथा सम्पूर्ण ब्रह्मांड को तीन पैरों से ही नाप लिया था। बली प्रारंभिक रूप में धर्मात्मा और इन्द्रिय जित दैत्य था। उसने इन्द्र को परास्त करके सारे भू-मंडल पर अपना राज्य स्थापित कर लिया था और फिर उसे बहुत अधिक घमंड हो गया। मुनि कश्यप ने बली से कहा कि वह इंद्र का राज्य लौटा दे किंतु वह नहीं माना। इसके बाद भगवान ने ब्राह्मण का रूप धारण कर उससे भिक्षा माँगते हुए संपूर्ण ब्रह्मांड नाप लिया। बली ने जब उनसे कुछ लेने के लिए कहा तो उन्होंने तीन पैर धरती मांगी और इस तरह उसका सब कुछ अपने हस्तगत कर लिया फिर उसे पाताल लोक भेज दिया और इन्द्र का राज्य उसे वापस कर दिया।

भगवान विष्णु ने परशुराम के रूप में गर्वित राजाओं को दंड देने के लिए अवतार लिया। वे जमदग्नि ऋषि के यहाँ पैदा हुए और राजा कार्तवीर्य से संघर्ष करके दुष्टतापूर्ण राज्य करने वाले अनेक क्षत्रियों को मारा। उनके बाद भगवान राम का अवतार आता है।
राम का अवतार मर्यादा और उच्च आदर्शों की स्थापना के लिए हुआ है। उन्होंने राजा दशरथ के यहां राम के रूप में जन्म लिया और जीवन में सब कर्म करते हुए लोक मर्यादा की प्रतिष्ठा की। इस विषय में कहानी यह कि रावण और कुम्भकरण जय-विजय का जन्म परम्परा में ही थे। कहा यह जाता है कि हिरण्याक्ष कुम्भकरण के रूप में पैदा हुआ और हिरण्यकशिपु रावण के रूप में।

भगवान ने रावण को पराजित करके पृथ्वी पर दुखी ऋषि मुनियों की रक्षा की। सबसे पहले उन्होंने किशोर अवस्था में ऋषि विश्वामित्र के साथ जाकर यज्ञ में बाधा डालने वाले राक्षसों को मारा और फिर बाद में लंका के राजा रावण को पराजित करके पृथ्वी का उद्धार किया।

भगवान के सम्पूर्ण अवतारों में सबसे पूर्ण और सब कलाओं से सम्पन्न अवतार कृष्ण अवतार माना जाता है। भगवान विष्णु ने कंस और जरासंध बने जय विजय के उद्धार के लिए कृष्ण का अवतार लिया। यह अवतार एक ओर धर्म की रक्षा के लिए था और लोकमंगल के साथ लोकरंजन के लिए भी था। जब कंस और जरासंध के अत्याचारों से लोग तंग हो गए तो विष्णु ने कृष्ण का अवतार लिया। उन्होंने ब्रज में रहकर अनेक लीलाएं कीं और योगिराज के रूप में महाभारत के युद्ध में गीता के प्रसंग में धर्म की वास्तविक व्याख्या की और कौरव पांडवों के युद्ध में पांडवों का पक्ष लेकर धर्म की स्थापना की।
इस प्रकार जब-जब पृथ्वी पर पाप बढ़ता रहा है तब-तब किसी न किसी रूप में अवतार होता रहा है। अवतारों की इसी परम्परा में मार्कंडेय दत्तात्रे और बुद्ध आदि ऋषि मुनियों को भी अवतार के रूप में स्वीकृति मिली है।

वैदिक कर्मकांड के विरोध में अहिंसा और समानता के धर्म की स्थापना करने के लिए बुद्ध के अवतार को माना जाता है।
प्रकृति अपनी समस्त शक्ति से अपने भीतर अच्छे-बुरे तत्त्व को समाए हुए होती है और इसीलिए सत्य-असत्य, प्रकाश और अंधकार, अच्छे-बुरे का संघर्ष हमेशा चलता रहता है। हमें इस बात पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए कि बुराई क्यों होती है। बुराई नहीं होगी तो सत्यता और अच्छाई का प्रतिपादन कैसे होगा ? इसलिए भगवान ने अपने सभी अवतारों में बुराई को जड़ से निकालने के लिए कर्म पर बल दिया और इसका व्यपाक प्रतिपादन पूर्ण अवतार रूप कृष्ण के मुख से निकली गीता में प्रतिपादित किया गया।


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