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विनोबा-विचार-दोहन

पराग चोलकर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :209
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5757
आईएसबीएन :81-237-3992-3

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प्रस्तुत है विनोबा के जीवन-दर्शन की झांकी...

Vinova vichar dohan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

असामान्य प्रतिभा के धनी आचार्य विनोबा इस सदी के महानतम पुरुषों में से एक थे। अध्यात्म की युगानुकूल नई व्याख्या करने वाले विनोबा ने सामाजशास्त्र, मानवशास्त्र, राजनीतिशास्त्र अर्थशास्त्र, साहित्य, संस्कृति, भाषा, लिपि आदि सभी विषयों पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं, जो आज भी न केवल प्रासंगिक हैं, बल्कि सदियों तक मनुष्य जाति का मार्गदर्शन करने की भी क्षमता रखते है। ‘विनोबा-विचार दोहन’ नामक इस छोटे-से संकलन में समेटे गए विनोबा के विचार गागर में सागर भरने का प्रयास मात्र हैं, लेकिन अमृत-सिंधु की ये कुछ बूंदे भी पाठकों के समक्ष विनोबा के जीवन-दर्शन की झांकी प्रस्तुत करने में सक्षम हैं।

प्रस्तुत पुस्तक के संपादक, पराग चोलकर, केमिकल इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद लगभग दस वर्षों तक स्टेट बैंक आँफ बीकानेर एंड जयपुर में अधिकारी के रूप में कार्यरत रहे। तत्पश्चात नौकरी छोड़ी सर्वोदय आंदोलन से जुड़ गए। सर्वोदय आश्रम, नागपुर के सचिव रह चुके चोलकर जी को ‘गांधीजी का राज्य सत्ता विषयक सिद्धांत’ विषय पर डाक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई। कई स्वयंसेवी संस्थाओं से जुड़े पराग चोकलर ‘साम्ययोग-साधन’ (मराठी पाक्षिक पत्रिका) के संपादन तथा अनुवाद में इनका विशेष योगदान रहा है।

भूमिका


आचार्य विनोबा इस सदी के महानतम पुरुषों में से एक थे। असामान्य प्रतिभा के धनी विनोबा, वैदिक ऋषियों से मध्ययुगीन संतों तक और उससे भी आगे चली आध्यात्मिक साधनों की परंपरा की एक कड़ी तो थे ही, लेकिन वे केवल पारंपरिक साधक नहीं थे। वे ऐसे खोजी थे, जिन्होंने आध्यात्म की युगानुकूल नई व्याख्या की और अध्यात्म विद्या को विकास की नई दिशा और नए आयाम प्रदान किए। उनका अध्यात्म मठों और संप्रदायों में सिमटने वाला नहीं था, वह कर्मक्षेत्र में साहसी प्रयोगों में प्रकट हुआ।

अध्यात्म में वे जितने गहरे उतरे, उतने सामाजिक शास्त्रों में भी उतरे। समाजशास्त्र, मानसशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, साहित्य, संस्कृति, भाषा, लिपि-शायद ही कोई विषय होगा जिसे विनोबा की प्रतिभा ने स्पर्श नहीं किया। और हर विषय में उनके चिंतन ने मनुष्य जाति को कुछ-न-कुछ स्थायी पाथेय दिया। उनका चिंतन केवल शाब्दिक नहीं था। कर्मयोग के आचरण से, कठिन साधना से वह निकला था। घटनाओं, प्रवाहों के पीछे काम कर रही सूक्ष्म शक्तियों को उनकी पैनी नज़र पकड़ लेती थी। इसलिए उनके विचार न केवल आज प्रासंगिक हैं, बल्कि सदियों तक मनुष्य जाति का मार्गदर्शन करने की क्षमता रखते हैं।

विनोबा अर्थात विनायक नरहर भावे का जन्म महाराष्ट्र के कोंकण प्रदेश में गागोदे नामक छोटे- से गाँव में, एक मध्यवर्गीय परिवार में 11 सितंबर 1895 को हुआ। बचपन से ही मेधावी रहे विनोबा पर पिता की वैज्ञानिता के और भक्त- हृदय माँ की आध्यात्मिकता से संकारों ने प्रभाव डाला। बचपन में ही उन्होंने ब्रह्मचर्य का संकल्प लिया। युवावस्था में उन्हें एक तरफ राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का, राष्ट्रसेवा का आकर्षण था, तो दूसरी तरफ ब्रह्मजिज्ञासा थी, आध्यात्मिक साधना के लिए तड़प थी। आखिर 25 मार्च 1916 को उन्होंने गृह त्याग किया। इंटर की परीक्षा देने बड़ौदा से मुम्बई जाते वक्त गाड़ी बदलकर, दो साथियों के साथ वे काशी गए। वहां इन्होंने गहन अध्ययन किया। एक साथी की मौत भी उन्हें विचलित न कर सकी। वहीं उन्होंने गांधीजी के प्रसिद्ध भाषण के बारे में सुना, जिसमें उन्होंने अंग्रेजी शासक और देशी राजाओं के सामने अपनी बात निर्भिकता से रखी थी। गांधीजी के साथ हुए पत्राचार के बाद उनके निमंत्रण पर वे 7 जून 1916 को उन्हें कोचरब आश्रम में मिले और फिर वहीं के हो गए। हिमालय की शांति का और बंगाल की क्रांति का उन्हें बचपन से आकर्षण था, शायद इसलिए वे दोनों के बीचों-बीच स्थिति काशी पहुँच गए थे। गांधी में उन्हें शांति-क्रांति का अभूतपूर्व संगम दिखाई दिया। गांधीजी का आश्रम उनके लिए दृष्टिदाता मातृस्थान साबित हुआ। गांधीजी ने ही विनायक को ‘विनोबा’ नाम दिया। विनोबा के पिताजी को उस समय लिखे पत्र में गांधीजी ने लिखा था- ‘‘इतनी छोटी उम्र में ही आपके पुत्र ने जिस तेजस्विता और वैराग्य का विकास कर लिया है उतना विकास करने में मुझे बहुत साल लगे थे।’’ दीनबन्धु एंड्रयूज को एक बार गांधीजी ने कहा था, ‘आश्रम के दुर्लभ रत्नों में ये एक हैं। ये आश्रम को ही अपने पुण्य से सींचने आए हैं पाने नहीं आए, देने आए हैं।’’

सन् 1921 में गांधीजी ने वर्धा आश्रम के संचालन के लिए विनोबा को भेजा। तब से तीन साल वहीं विनोबा की कर्मस्थली रही। वहां उन्होंने कठिन परिश्रम किया, गहरा अध्यापन किया, रचनात्मक कार्य के क्षेत्रों में कई प्रयोग किए, कईयों को सिखाया, ग्रामसेवा का संयोजन कर मानो उसका मनोहर दिवाण ने कुष्टसेवा जैसे, तब तक भारतीयों से अछूते रहे क्षेत्र में काम शुरू किया।

सन् 1923 में आश्रम से शुरू हुई ‘महाराष्ट्र-धर्म’ पत्रिका ने विनोबा की वैचाचिरक और साहित्यिक प्रतिभा का महाराष्ट्र को परिचय कराया। उनका वेद-उपनिषदों का गहरा अध्ययन उपनिषदों पर लिखी लेखमाला में प्रकट हुआ, जो बाद में ‘उपनिषदांचा अभ्यास’ प्रसाद’ नाम से प्रकाशित हुई। संत तुकाराम के कुछ अभंगों का विवरण ‘संतांचा प्रसाद’ नाम से प्रकाशित हुआ। उनके ललित निबधों ने महाराष्ट्र का ध्यान विशेष आकर्षित किया। उनके चुनिंदा निबंधों का संग्रह ‘मधुकर’ आज भी मराठी की लोकप्रिय पुस्तकों में एक है।

सन् 1923 में नागपुर झंडा सत्याग्रह के समय विनोबा को पहली बार जेलयात्रा हुई। 1932 में उन्होंने धुलिया जेल में गीता पर जो प्रवचन दिए, वे ‘गीता-प्रवचन’ नाम से मशहूर हुए। ‘गीता-प्रवचन विश्वसाहित्य की एक अनूठी कृति है। वह केवल गीता का विवरण नहीं है, मनुष्य को शुभ की प्रेरणा देकर श्रेय की ओर अग्रसर करने की शक्ति रखने वाली एक मौलिक कृति है। अब तक 24 भाषाओं में ‘गीता-प्रवचन’ प्रकाशित हो चुकी है और उसकी करीब 25 लाख प्रतियां बिक चुकी हैं। ‘गीता-प्रवचन’ गीता का संदेश तो है ही, वह विनोबा का भी जीवन-संदेश है। उसके पूर्व, 1930-31 में विनोबा ने ‘गीताई’ रचना की थी। ‘गीताई का मराठी में समश्तलोकी अनुवाद है। लेकिन वह केवल अनुवाद नहीं हैं वह गीता का भाष्य भी है और उसमें विनोबा का अनुवाद भी है। उसकी सरल, लेकिन प्रसादपूर्ण काव्य-शैली का शायद ही कोई जोड़ मिलेगा। विनोबा चाहते थे कि गीताई महाराष्ट्र के घर-घर में पहुँचे। अब तक उसकी 34 लाख प्रतियां निकल चुकी हैं। ‘गीताई और गीताप्रवचन’ उनकी विरासत है, ऐसा विनोबा का खुद का मानना था। 1928 और 1931 के बीच विनोबा अपने कुछ स्फुट विचार भाव से सूत्र रूप में लिखा करते थे। उन विचारों की ‘विचारपोथी’ भी जीवन-साधकों के आकर्षण का केन्द्र रही है।

सन् 1940 में, दूसरे विश्वयुद्ध के समय, युद्धविरोधी सत्याग्रह के लिए प्रथम सत्याग्रही के नाते गांधीजी ने विनोबा को चुना, तब पूरे देश को उनका परिचय हुआ। यह एक प्रकार से गांधीजी द्वारा अपने उत्तराधिकार की घोषणा ही थी। गांधीजी और महादेवभाई देसाई ने उस समय ‘हरिजन’ पत्रिका में विनोबा का परिचय करा देने वाले लेख लिखे। महादेवभाई ने लिखा था। ‘‘विनोबा का सबसे बड़ा गुण यह है कि वे जो निर्णय लेते हैं उसका अमल उसी क्षण से शुरू कर देते हैं। उसका दूसरा गुण है, निरंतर विकासशीलता। गांधीजी के बाद यह गुण मुझे सिर्फ विनोबा में देखने को मिला है।’’ विनोबा ने तीन बार सत्याग्रह किया और उन्हें कुल पौने दो साल की सजा हुई।

सन् 1942 से 1945 तक तीन वर्ष ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के दौरान उन्हें जेल में बिताने पड़े। अपने पौने पांच साल के जेल-जीवन में विनोबा ने दक्षिण की सभी भाषाओं और लिपियों का अध्ययन किया। गांधीजी की ‘मंगल प्रभात’ पुस्तक के आधार पर उनके एकादश व्रतों को अभंगों में गूथकर ‘अभंगव्रते’ की रचना की। ‘स्वराज्यशास्त्र’ के रूप में वैकल्पिक राजनीतिशास्त्र का पूरा खाका खींचा। गीता के स्थितप्रज्ञ के श्लोकों पर विवरणात्मक प्रवचन दिए, जो ‘स्थितप्रज्ञ-दर्शन’ नाम से प्रकाशित हुए। ‘ईशावास्य उपनिषद्’ पर भी उन्होंने लिखा। देवनगरी लिपि का संशोधन कर लोकनागरी लिपि बनाई।

भारत को आजादी मिली, लेकिन विभाजन के साथ। उसने तुरंत गांधीजी को भी खोया। देश में मानों एक शून्य निर्माण हुआ। इस स्थिति में विनोबा तीव्रता से मार्ग खोजने में लग गए। गांधीजी के बाद रचनात्मक कार्य का नेतृत्व अपने आप उनके सिर पर आ पड़ा। मार्च 1948 में सेवाग्राम में हुए रचनात्मक कार्यकर्ता सम्मेलन में, ‘सर्वोदय समाज’ की कल्पना विनोबा ने प्रस्तुत की और बाद में ’सर्वोदय’ शब्द का विविरण और भाष्य करते रहे। साथ ही पवनार आश्रम में ऋषिखेती (बिना बैलों की या यंत्रों की मदद से, सिर्फ हाथ से खेती) का और कांचन-मुक्ति का प्रयोग उन्होंने चलाया। उसी समय एकबार जयप्रकाश नारायण पवनार गए थे। बाद में उन्होंने कहा था। ‘‘मुझे यहां कुछ प्रकाश दीखता हैं।’’
अप्रैल 1951 में तेलंगाना में शिवरामपल्ली सर्वोदय सम्मेलन के लिए विनोबा गए। उस समय वह प्रदेश अशांत था। आजादी मिलने के बाद कम्युनिष्टों ने हिंसक क्रांति की असफल कोशिश वहां की थी, जिसे पुलिस बल से दबाया गय़ा था। लेकिन पुलिस बस समस्या का स्थायी इलाज नहीं था। विषमताओं के कारण असंतोष के बीज मौजूद थे। उन्हें निर्मूल करना जरूरी था। भूमिहीनों को भूमि मिलना इसका पहला कदम होना आवश्यक था।

18 अप्रैल 1951 को भूदान का जन्म हुआ। पोचमपल्ली गांव में दलितों ने जमीन की मांग की और एक सज्जन ने सौ एकड़ जमीन तुरंत दान दी। विनोबा ने इस सूत्र को पकड़ लिया। भूदान-गंगा प्रवाहित हुई। फिर विनोबा के पैर सालों तक रुके ही नहीं। कुल पैंसठ हजार किलोमीटर की पदयात्रा हुई।
 
विनोबा ने ‘दान’ शब्द को नया अर्थ दिया। ‘दानं संविभागः’- दान यानी सम-विभाग, इस शास्त्रवचन का उन्होंने आधार लिया। शास्त्रों से युगानुकूल वचन ढूंढ़ना तथा शास्त्रों वचनों को नए अर्थ देना, यह विनोबा की एक विशेषता थी। उनका मानना था कि यह अहिंसा क्रांति की प्रक्रिया का एक अंग है और भारत में यह परंपरा चलती आई है।
विनोबा सम-विभाग के लिए अधिकार के तौर पर जमीन मांगते थे। वे कहते थे ‘‘मैं भिक्षा मांगने नहीं, दीक्षा देने आया हूँ।’’ वे खुद को दरिद्रनारायण के प्रतिनिधि के तौर पर पेश करते है और जमीन वालों को कहते कि वे उन्हें अपने परिवार का हिस्सा मानकर जमीन दें। जमीन का बंटवारा उसके लिए केवल एक निमित्त था। वे अंहिसा से समस्याओं का समाधान ढूंढना चाहते थे। इसलिए वे भूदान में अहिंसक क्रांति और विश्वशांति के बीज देखते थे।

कई पावक प्रसंग भूदान पदयात्रा में घटित हुए। मनुष्य के हदय में भलाई मौजूद रहती है और उसे जगाया जा सकता है, इसका अद्भुत दर्शन हुआ। सूर्य के सातत्य से विनोबा ‘चरैवेति चरैवेति’ मंत्र सार्थक करते रहे। निःस्वार्थ त्यागी, तपश्वी निष्ठावान  राजनीतिक दलों से मुक्त लोक सेवकों का एक समूह खड़ा हुआ। छोटे-छोटे गांवों में विनोबा और उनके साथी पहुँचे। वहां ज्ञान का प्रकाश, नए प्रकाश, नए विचार उन्होंने पहुँचाए। विनोबा की यात्रा मानों चलता-फिरता विश्वविद्यालय ही था। जीवन से संबंधित लगभग सभी विषयों पर मौलिक चिंतन समाज के सामने प्रस्तुत हुआ।

विनोबा का क्रांतिकारी स्वरूप निखर उठा। चांडिल सर्वोदय सम्मेलन में उन्होंने’ हिंसा-शक्ति जगाना उनका उद्देश्य था। विचार शासन और कर्तृत्व विभाजन की कार्यपद्धति का विवरण भी उन्होंने किया। बाद में इसी सूत्र को आगे बढ़ाते हुए निधिमुक्ति और तंत्रमुक्ति की साहसी पहल कर सर्वोंदय आंदोलन को पूर्णतया जनाधारित जन-आंदोलन करना चाहा। विकल्प की खोज करने वालों को इस विचार-यात्रा से काफी कुछ  मिल सकता है। आचार्य दादा धर्माधिकारी ने ठीक ही कहा था: ‘‘विनोबा ने क्रांति की प्रक्रिया को ललित कला की माधुरी अर्पित की।’’

भूदान ने जमीन मालिकों को झकझोरा। करीब 42 लाख एकड़ जमीन भूदान में मिली और करीब आधी बंट भी गई। सुपात्र भूमहीन मजदूरों को जीविका का स्थायी और गरिमामय साधन मिला। भूदान का यह योगदान किसी भी कसौटी पर कम नहीं आंका जा सकता। इतिहास में एक अपूर्व आंदोलन के नाते हमेशा याद किया जाएगा।
लेकिन भूदान यज्ञ की उपलब्धि महज भूमि समस्या के समाधान तक सीमित नहीं थी। उसकी सबसे श्रेष्ठ उपलब्धि थी, उसका ग्रामदान में विकास। भूदान में सुप्त संभावना ग्रामदान में फ्रकट हुईं।

 ग्रामदान की बुनियाद है, जमीन का ग्रामीकरण और जमीन पर व्यक्तिगत मालिकी की समाप्ति। इससे गांव के समाधान गांव वालों के हाथ आएंगे और उनके समुचित संयोजन से वे गाँव की जरूरतें पूरी कर सकेंगे। इससे हर पेट को रोटी और हाथ को काम मिलेगा। गाँव एकात्म समाज बनेगा और स्वायत्त, स्वावलंबी, स्वाश्रयी, स्वाशासी इकाई होने की दिशा में कदम बढ़ा सकेगा। इसी में मनुष्य का श्रेय है। यही मनुष्य-क्रांति का अगला सोपान हो सकता है।
ग्रामदान की क्रांतिकारिता ने मनुष्य के विचारकों का ध्यान आकृष्ट किया लुई फिशर ने उसे ‘अर्वाचीन काल में पूरब से आया सबसे ज्यादा सृजनशील विचार’ कहा। ग्रामदान को पुष्ट करने के लिए संपत्तिदान, शांतिसेना, सर्वोदयपात्र और आचार्यकुल जैसी कई क्रार्यक्रम भी विनोबा ने दिए और लोकनीति, जय जगत, गणसेवकत्व जैसी मौलिक अवधारणांए प्रस्तुत कीं।
कोई डेढ़ लाख गांवों के बहुसंख्य लोगों के गाँवों ने ग्राम्यदान-संकल्प पात्रों पर हस्ताक्षर किए। यह मामूली काम नहीं था। लेकिन दुर्भाग्य से आगे के कदम उठ नहीं पाए।

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