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सफेद घोड़े का सवार

महावीर रवांल्टा

प्रकाशक : इण्डियन बुक बैंक प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :79
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5775
आईएसबीएन :81-8115-028-7

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उत्तराखण्ड के रवांई क्षेत्र की लोक कथा पर आधारित नाटक.

Saphed Ghore Ka Sawar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुति

सफेद घोड़े का सवार उत्तराखण्ड के रवांई क्षेत्र की लोक कथा पर आधारित है जिसमें एक गड़रिये (भेडाल) की भेड़ें खो जाती हैं। वह उन्हें ढूँढ़ने निकलता है। जंगल काँठे ढूँढ़ने पर भी भेड़ें नहीं मिलतीं। थक-हारकर एक ताल (झील) के पास बैठकर वह बाँसुरी बजाने लगता है तो उसकी बँसुरी पर मुग्ध होकर जंगल की आछरियाँ (वन-देवियाँ) उसके प्राण हर लेती हैं। वह देव पुरुष हो जाता है और लोक में ‘रथ देवता’ के नाम से पूजा जाने लगता है। नाटक को लिखते हुए जहाँ कल्पना का सहारा लिया गया है वहीं पर्वतीय लोक जीवन के अंकन और लोक नाट्यतत्त्वों के निर्वाह का भी प्रयास किया गया है।

साज़िश ग्रामीण तन्त्र से जुड़े उन लोगों की स्वार्थ-लिप्सा को बेनकाब करता है जो भोली-भाली ग्रामीण जनता के अपनी कुटिल चालों से अपने हाथों की कठपुतली बनाकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं।

गाँव तक घुस आई राजनीतिक तिकड़मों, अशिक्षा, नशा, सामंती व्यवस्था पर प्रहार के साथ ही शिक्षित युवाओं के संघर्ष एवं आक्रोश को भी यह नाटक शब्दायित करता है और इसके मूल में है ‘सत्यमेव जयते’ का संदेश जो हमारी संस्कृति में भी रचा बसा है।


नाटककार

पात्र

जीवा –दक्षी
फग्गू – बैकुंठी
पुरुष – स्त्री-1
स्त्री-2


विपत्ति



(ग्रामीण पृष्ठभूमि। जीवा का दुमंजिला घर। शाम का समय। घर के बराँडे में बैठा जीवन हुक्के की नाल मुँह से लगाकर तम्बाकू के कश लेकर धुआँ बाहर की ओर छोड़ता है और सोचने की मुद्रा में हो जाता है)
जीवा : (अपने आप में ही) रात होने को है लेकिन फग्गू अब तक भेड़ें लेकर नहीं लौटा। जाने कहाँ रह गया। पगले को समय का पता नहीं रहता। (भेड़ों का मिमियाना सुनकर चेहरे पर प्रसन्नता उभरती है) लगता है भेड़ें आ गईं। मैं तो व्यर्थ ही व्यग्र हुआ जा रहा था (मिमियाने का स्वर मंद पड़ते ही उदास हो जाता है) नहीं ये अपनी भेड़ें नहीं थीं। जंगल में आजकल बाघ लगा है यह फग्गू भी...भेड़ों को कुछ हो गया तो....
(तभी फग्गू आता है। पर्वतीय परिधान। पच्चीस के आसपास की उम्र। हल्की दाढ़ी मूछें। चेहरे पर उदासी)
फग्गू : (मद्धिम स्वर में) सयाणा।

जीवा : (सिर उठाकर) अच्छा हुआ आ गया। कहाँ कर दी इतनी अबेर ? मुझे तेरी चिंता खाए जा रही थी और तू....(जैसे याद कर) पर भेड़ें नहीं दिख रहीं। कहाँ छोड़ आया उन्हें, किसी के खेत पर बसेरे के लिए या किसी और टोली के साथ आ रही हैं और तू क्यों चला आया ?
फग्गू : (भयभीत सा) सयाणा, हमारी भेड़ें न जाने कहाँ चली गईं।
जीवा : (आवेश में) क्या कहा, भेड़ें कहीं चली गईं और तू यहाँ चला आया ! क्या करने ? कहाँ चली गईं भेड़ें ? और तब तू क्या कर रहा था ? मूर्ख भेड़ें चराते हुए सालों हो गए तुझे और....अब यहाँ खड़ा क्या सोच रहा है जाकर इधर-उधर क्यों नहीं खोजता।

फग्गू : मैंने जंगल-जंगल खोजा ! सयाणा, अब कहाँ जाऊँ ? रात होने को है।
जीवा : होगी पर तेरे लिए क्या दिन क्या रात। मैंने भेंड़े तुझे इसलिए तो नहीं सौंपी थीं कि तू मेरी लाख की मौ खाक में मिला डाले और यह बता तब तू क्या कर रहा था ?
फग्गू : म्...म्...म...मैं ...
जीवा : सो रहा होगा। निर्लज्ज को कितनी बार समझाया कि भेड़ों के साथ भेड़ बनना पड़ता है। मेरी सात बीसी भेड़ें यूँ नहीं हुईं। इनके लिए मैंने बड़े-बड़े त्याग किए। सर्दी-गर्मी, गीले-सूखे की परवाह नहीं की तब कहीं...और तू...मेरे पास तो और भी काम थे इन्हें चराने के अलावा...खेत...बाग...लकड़ी और तू अकेली भेड़ों को नहीं सँभाल सका।
फग्गू : सच कहूँ सयाणा, मैं सो नहीं रहा था माँ कसम !

जीवा : सो नहीं रहा था तो क्या कर रहा था ? सपने देख रहा होगा। पर तुझे यह नहीं पता कि खुली आँखों में सपने नहीं देखे जा सकते, पाले जरूर जा सकते हैं, वो भी सच्चे नहीं होते। सपने नहीं देख रहा था तो फिर मुरली बजा रहा होगा। खोया होगा किसी और दुनिया में। कितनी बार कहा तोड़-ताड़कर फेंक दे इसे पर सुनता कहाँ है तू। पिछले साल भी दो बार भेड़ें खो आया। वह तो अच्छा हुआ जो दूर तक नहीं गई थीं। भला हो रामसू का जिसने अपनी टोली के साथ लौटा लाई थीं तब भी तुझे सीख नहीं मिली।
फग्गू : माफ करना सयाणा, आगे भूल बिसर नहीं होगी, गलती के लिए कान पकड़ता हूँ।
(अपने दोनों काम पकड़ता है)
जीवा : आगे की बात कर मुझे बातों के जंजाल में न फँसा। मैं नहीं आने वाला तेरे झाँसे में। पहले गलती कर लेता है फिर माफी माँगकर...

फग्गू : मैं आपको किसी जंजाल में क्यों फँसाने लगा। मैं तो बस अपनी गलती के लिए....
जीवा : अच्छी तरह जानता हूँ तुझे। मेरे ये बाल धूप में सफेद नहीं हुए दुनिया देखी है मैंने अब तू है कि...
फग्गू : मैं क्या कहने लगा सयाणा, मैंने तो आपको अपना माई- बाप समझा है और भेड़ों को अपनी संगी। आपने मुझे जीवन दिया। भेड़ों के साथ मैंने जीवन काटा।
जीवा : तेरी यही बात तो मुझे मोम की तरह पिघलने को लाचार कर देती है। मैंने भी तो तुझे बेटे-सा प्यार दिया। अब तू ही बता तेरे लिया क्या कमी की मैंने ?
फग्गू : कुछ नहीं। सबकुछ मिला मुझे, कपड़ा, खाना, रहने को घर बाप का प्यार और....
जीवा : और कोई कमी-कसर रह गई हो तो बोल।

फग्गू : क्या बोलूँ सयाणा। जिस पेड़ के नीचे बैठते हैं उसकी छाँव को नापा थोड़े जाता है। आपने मुझ पर बड़ा उपकार किया। आप न होते तो मैं ही कहाँ होता। कहीं भूखा-तीसा मर गया होता।
जीवा : कोई नहीं मरता। जिसे ऊपर वाला जीवन देता है वह नहीं मरता। हमारे जीवन मरण की डोर उसी के हाथ में रहती है। उसकी इच्छा के बिना कुछ नहीं होता।
फग्गू : उसी की ही तो इच्छा थी जो मुझे आपके घर....

जीवा : (जैसे अतीत में खोकर) हाँ, सालों पहले तेरी माँ इस गाँव में अकेली आई थी। पता चला था, तेरा बाप पहाड़ काटकर बन रही सड़क पर काम करने जाता था। एक दिन एक बड़े पत्थर के नीचे आकर उसकी मौत हो गई। तेरी माँ विधवा हो गई। खाने-कमाने का और जरिया न था इसलिए हमारे गाँव आ गई। तब तू नहीं था। हमने अपने घर आसरा दिया तो क्या बुरा किया। तेरा जन्म हुआ और ठीक सात महीने बाद दक्षी का। सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था लेकिन तीन बरस बीते होंगे कि तेरी माँ चल बसी। दक्षी की माँ ने ही तुझे पाला पोषा। उसी का सींचा हुआ पौधा है तू।
फग्गू : कैसी रही होगी मेरी माँ ? सयाणा आपने तो देखा था।
जीवा : बिलकुल चाँद देखने में। मन व चरित्तर की उससे भी उजली। ऐसी औरतें भगवान गरीब घरों में न जाने क्यों जन्मा देता है दर-दर की ठोकरे खाने के लिए।

फग्गू : हाँ सयाणा, पर कमल का फूल भी तो सुना है कीचड़ में ही उगता है।
जीवा : उगता होगा, पर यहाँ कमल को देखा ही किसने है, सुना भर है। यहाँ तो लगातार लोग दूर काँठे में उगने वाले ब्रह्म कमल या जयाण की बातें जानते हैं। ब्रह्म कमल को सभी देख लेते हैं। तूने भी देखा होगा, घर-घर पूजते हैं।
फग्गू : न ही आपने और न ही सयाणी ने कभी मेरी माँ का किस्सा छेड़ा।
जीवा : कब छेड़ते, बचपन पालने-पोषने में निकल गया। कुछ बड़ा हुआ तो राजा-रानियों की कहानियाँ सुनाने में निकल जाता। तुझे और दक्षी को कहानियाँ सुनना अच्छा लगता था और हम जाड़ों में देर रात तक बैठे तुम्हें कहानियाँ सुनाते रहते थे और तुम बड़े चाव से सुनते थे फिर हम तुझे माँ की याद दिलाकर रुलाना नहीं चाहते थे।

फग्गू : अच्छा किया आपने वरना मैं तो उसकी याद में कहीं का न रहता।
जीवा : ऐसा नहीं बोलते। यादें इंसान को केवल जख्मी करने के लिए नहीं होतीं वे उसे सहलाती भी हैं, जीने का रास्ता दिखाती हैं। वे आसानी से भुलाई नहीं जा सकतीं। वे रस्सी के दो छोरों की तरह होती हैं। एक पकड़ में आता है तो दूसरा अनायास ही हाथ से छूटने लगता है। मैं तो यही चाहता था तू बड़ा होकर अपनी जिंदगी अपने ढंग से जीए। तेरा घर बस जाए उस दिन मैं समझूँगा मेरे सिर से जिम्मेदारी का बोझ उतर गया। मुझे कभी-कभी दुःख होता है तो केवल इस बात का जो तुझे स्कूल नहीं भेज सका। पर करता भी क्या, मेरी भी अपनी लाचारी थी। घर-गृहस्थी के झंझट में उलझकर मैं चाहते हुए भी यह नहीं कर पाया। अकेला था साथ में दक्षी उसकी माँ और तू...इसलिए तुझे भी अपनी जिम्मेदारियों से लाद दिया मैंने और अब तक...काश ! मेरा एक भी बेटा जिंदा बचता। चार बेटों को विदा किया है मैंने, अपने ही हाथों...खाड खोदकर जमीन को अर्पित किया ( आँखें नम हो जाती हैं)।

फग्गू : चुप करो सयाणा, तुम रोने लगे !
जीवा : नहीं (सहज होने के प्रयास में) कहाँ रोने लगा, बस दिल पर एक बोझ-सा था उसी को हल्का कर रहा था।
फग्गू : तो भी आदमी का रोना अच्छा नहीं होता। उसकी आँखों में आँसू किसी बड़ी विपदा को निमंत्रण देते हैं।
जीवा : कैसी विपदा ? बहुत विपदाएँ तो झेल चुका हूँ इस जीवन में। इन आँखों ने कम विपदाएँ नहीं देखीं। भूख, गरीबी, अकाल, क्या कुछ नहीं देखा मैंने और तू ही बता इतनी कम उमर में तूने भी क्या कम विपदाएँ झेलीं ? भेड़ों के साथ कभी खेतों में पड़ा रहा कभी दूर काँठे में।

फग्गू : बचपन से यही सब तो करता आया हूँ मैं, बस भेड़ों का साथ। न धूप की परवाह और न बरसात, सर्दी-गर्मी की। ठीक कहा था आपने भेड़ बनना पड़ता है, मैं बन भी गया। सुबह उठता हूँ तो भेड़ों की म्याँह म्याँह, रात सोता हूँ तो भेड़ों की म्याँह म्याँह के साथ।
जीवा : शायद तेरे भाग में यही लिखा था। भाग का लिखा नहीं मिटता।
फग्गू : मेरा भाग खोटा नहीं था न ही आप लोगों का आशीर्वाद व्यर्थ गया।


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