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उपन्यास >> सुथरी

सुथरी

बलराम मिश्र

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5799
आईएसबीएन :81-7721-067-x

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महानगर के ‘कच्छ की खाड़ी’ कहलानेवाले तट पर एक साधारण सा गाँव है ‘सुथरी’। इस नाम के माध्यम से पुस्तक में सागर से संवाद स्थापित किया गया है।

Suthari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

महानगर के ‘कच्छ की खाड़ी’ कहलानेवाले तट पर एक साधारण सा गाँव है ‘सुथरी’। इस नाम के माध्यम से पुस्तक में सागर से संवाद स्थापित किया गया है।

सुथरी के स्वच्छ समुद्र तट की श्लाघा करते हुए लेखक ब्याज रूप में हमारा ध्यान प्रदूषित होती नदियों, सूखते तालाबों, कुओं और जोहड़ों की ओर आकर्षित करता है। साथ ही स्पष्ट रूप में सत्य, वैभव, धर्म, कर्म, काम, मोक्ष पर विचारता, चिंतना करता हुआ ‘धर्मनिरपेक्ष’, ‘सामाजवाद’ जैसे संश्लिष्ट, विवादास्पद एवं भ्रामक तथा भ्रमित करनेवाले शब्दों व पदों पर सटीक टिप्पणियाँ भी देता है और राष्ट्रवादी विचारों की स्थापना करता है। देश-समाज पर छाई विपत्तियों के लिए आत्म-विस्मरण को कारण मानता है। युवाओं व देशवासियों को चेतना के स्तर पर निष्क्रिय-निश्चेष्ट करनेवाले विचारों से बचने की सीख भी देता है- किन्तु यह सब संवाद की रोचकता के माध्यम से ही।

प्रस्तुत उपन्यास ‘सुथरी’ के बहाने उसे प्रकट रूप में समझ रखते हुए पूरे भारत राष्ट्र का सांस्कृतिक, सामाजिक, जैविक, भौगोलिक स्वरूप खड़ा कर दिया गया है; उसे पुन: उन्नत, समृद्ध, संगठित करने तथा गौरव से मंडित करने की चिंताकुल विचारणा उभरकर साकार हुई है। इस औपन्यासिक कृति में विराट् के दर्शन कराने की चेष्टा मूर्तिमान हुई है, जो अत्यन्त प्रेरक है।

मनोगत


प्रकृति के अंतर्भूत लय को सुन-गुनकर उसके साथ सामंजस्य स्थापित करने से मनुष्य की सोच-समझ को नई दिशाएँ मिलने के प्रसंग बहुश्रुत हैं। प्रकृति के प्रति श्रद्धाभाव में संपूर्ण सृष्टि के कल्याण का भाव निहित रहता है, यह बात हम भी जानते हैं। प्राचीन भारतीय वाङ्मय पर एक विहंगम दृष्टि भी इस सत्य को उद्घाटित करेगी कि निकटता होनेवाली परिष्कृत मानवता के दर्शन तभी हो सकेंगे जब प्रकृति को अपना मित्र ही नहीं, गुरु भी समझेंगे।

भगवान् श्रीकृष्ण ने ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में प्रकृति के आठ अंग बताए हैं- भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार। इन आठों की मानव जीवन में अनंत उपादेयता है, यह निर्विवाद है। प्रकृति के सान्निध्य से अद्वितीय दैवी सोच प्राप्त करने के अनेकानेक उदाहरण हमारे ऋषि-मुनियों ने प्रस्तुत किए हैं, जो सदैव अनुकरणीय रहे हैं। हिंदु महासागर के सुथरी-तट पर बैठकर अनंत जलराशि को निहारने का मुझे सौभाग्य मिला। वहाँ मेरे मन के सारे भ्रम-पार अपने आप ही मिट गए और मैंने पाया कि जल और हमारी जीवन पद्धति अर्थात् हिंदुत्व में काफी समानताएँ हैं। समुद्र की लहरों ने मुझे अनेक समाधान दिए और जल के साथ मेरा एक प्रकार का संवाद स्थापित हो गया। वह संवाद ही इस कृति की विषय-वस्तु है।

क्या यह कृति मौलिक है ? यह एक कठिन प्रश्न है। यदि पूरी इस प्रश्न का मंथन किया जाए तो शायद उत्तर यही मिलेगा कि मौलिक तो केवल प्राचीन भारतीय वाङ्मय ही है, बाकी सब कुछ उसकी प्रतिकृतियाँ मात्र हैं। शायद ही ऐसी कोई विचारधारा हो जिसका मूल उन ग्रंथों में न हो। इस दृष्टि से प्रस्तुत कृति भी यदि मौलिक है तो वह रक्त की मौलिकता के समान ही है। विभिन्न प्रकार के खाद्य-पदार्थों के पाचन के पश्चात् ही रक्त बनता है। रक्त में प्रत्यक्ष रूप से कोई खाद्य-पदार्थ नहीं दिखाई देता, यद्यपि उनके बिना रक्त ही ही नहीं सकता।

इस कृति के शब्दों के चयन में कुछ मनमानी का उद्देश्य केवल शब्द-जगत् में व्यापक छुआछूत की भावना को नकारना रहा है। चाहे जिस भी भाषा का शब्द हों, यदि वह समाज में अपनाया जाकर किसी अर्थ का वाहक बन सकता है तो उसी प्रकार अपनाया गया जिस प्रकार किसी भी लकड़ी या उसके कोयले को प्रयुक्त कर अंगारा बनाया जाता है। सागर में मिलनेवाली नदियाँ भी तो किसी भेदभाव के अनेक नालों का स्वागत करती हैं। हिन्दुत्व में भी तो अनेक मत-पंथ हैं, पूँजी-पद्धतियाँ हैं, अनंत विचार स्वातंत्र्य हैं, व्यापक एवं वैविध्यपूर्ण लोकतंत्र है।

मैं उन सभी मनीषियों का सादर स्मरण करते हुए उन्हें प्रणाम करता हूँ जिन्होंने हिन्दुत्व को मानव कल्याण के अद्वितीय विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने में अपने जीवन का सदुपयोग किया। साभार स्मरणीय हैं कच्छ (गुजरात) एक अति महत्त्वपूर्ण रणक्षेत्र के बेस कमांडर ग्रुप कैप्टन एस.एस. त्यागी एवं उनके वीर सैनिक, जिनके साथ चर्चाओं एवं सुथरी-तट के दर्शनों ने ‘सुथरी’ को लिखने की प्रेरणा दी। पांडुलिपि पढ़कर मेरा उत्साह बढ़ाने के लिए मैं कृतज्ञ हूँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री रामशंकर अग्निहोत्री एवं श्री भानुप्रताप शुक्ल का। ग्वालियर के डॉ. शिवशरण शर्मा, डॉ. कमल किशोर, दिल्ली के डॉ. हीरा लाल बाछोतिया एवं रा. स्व. संघ के उत्तर क्षेत्र प्रचार प्रमुख श्री किशोरकांतजी ने पांडुलिपि पढ़कर मुझे अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। मैं उनका हृदय से आभारी हूँ।

विद्वत्वर डॉ. बलदेव वंशीजी का मैं विशेष रूप से आभारी हूँ, जिन्होंने अपना अमूल्य समय देकर इस पुस्तक की भूमिका लिखी तथा मुझे अनुग्रहीत एवं प्रोत्साहित किया।
इस पुस्तक के लेखन के समय मेरे मानस-पटल पर जो निरंतर विद्यमान रहे, ऐसे अनेक श्रेष्ठजनों में उल्लेखनीय हैं- मेरे पूज्य पिताजी स्व. पंडित मंगल प्रसाद मिश्र, माताजी स्व. श्रीमती सुभद्रा देवी एवं मेरे अनेक गुरुजन। उन सभी के चरणों के निकट ही मानस-पटल पर मेरा संपूर्ण अतीत भी किलोंले भरता रहा और उनकी स्नेहिल स्मृतियों का लाभ मिला इस पुस्तक के लेखन में।
इस पुस्तक की शब्द-सज्जा एवं प्रूफ संशोधन में मेरे सहयोगी श्री मनोज कुमार शर्मा जिस तन्मयता का परिचय दिया, वह उल्लेखनीय है।

बलराम मिश्र

भूमिका
सागर संवाद


महानगर के ‘कच्छ की खाड़ी’ कहलानेवाले तट पर एक साधारण सा गाँव है ‘सुथरी’। इस नाम के माध्यम से पुस्तक में सागर से संवाद स्थापित किया गया है। संस्कृत के महाकवि कालिदास ने बादल के माध्यम से संदेशा भेजने के लिए ‘मेघदूत’ (काव्य) की रचना की थी। इस पुस्तक के लेखक डॉ. बलराम मिश्र ने अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिए सुथरी-तट के माध्यम बनाया है। भारतीय चिंतन निकाय एवं वाङ्मय में यह अवधारणा पुरातनकाल से विद्यमान रही है कि प्रकृति के महत्-तत्त्व, अवयवों से हमारा विकास हुआ है। पंच महाभूतों के बाद प्रकृति का विकास मनुष्य के विकास-क्रम का इतिहास सँजोए हुए है। इस कारण जलराशि की विपुलता गहरी झील, विशाल नदी या समुद्र हमें मोहित करते हैं। हम इनके आंतरिक आकर्षण से खिंचे-बँधे कई बार अपनी सामर्थ्य सीमा तक भूल जाते हैं और जीवित ही इनमें विलयित भी हो जाते हैं।

यह सृष्टि ब्रह्मा-कृत मानी जाती है, इसलिए ब्राह्मांण कहलाती है। इसमें निहित ऋतु ही गतिशीलता के कारण ऋतुधर्मी परिवर्तन लाता है। इसे सत् के रूप में भी पहचाना जाता है। कृत (ब्रह्मा-कृत) से सृष्टि कृति है।
कृति के पूर्व उपसर्ग लगाकर बना शब्द ‘प्रकृति’ (प्रकृष्ट, पूर्ण, अविकारी) है। इस प्रकृति से गुण-धर्म- लय-गति प्राप्त कर इसके संस्कारों में अंत:-बाह्य रँगी होने से जिस संस्कृति का विकास हुआ है उसे ही हजारों वर्षों से भारतीय संस्कृति के रूप में जाना जाता है। अत: कहना होगा कि भारतीय संस्कृति प्रकृति का ही जीवंत-मुखर-सवाक् रूप है और प्रकृति के नियमों-लयों-गतियों (ऋत्) के विरुद्ध आचरण विकृति कहलाता है।

बोध के सांस्कृतिक आयामों में ही हमने जाना-माना कि प्रकृति के तत्त्व-आयामों के विकास में ही मानव की चेतनागत विकास-यात्रा भी निहित है। पहाड़-पत्थर, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी या फिर मानव-प्राणी- ये चेतनागत विकास की विभिन्न स्थितियाँ-सीढ़ियाँ हैं। ये सब हमारे विश्वासों, जीवंत और स्पंदनशील अहसासों को पुन:-पुन: सहेजने की खातिर आज भी पर्वतों (गोवर्धन, कामदगिरि आदि), पशु-पक्षी (गाय-गरुड़-मोर) आदि को पूज्य-पावन मानते हैं। ये सब महज अंधविश्वास नहीं अपितु सुचिंतित, सजग चैतन्य-बोध का सुफल है, जो मानव को मानव होने की तमीज और सभ्य होने की गुणवत्ता प्रदान करता है, जिससे रहित होने पर मनुष्य पशु-प्रस्तर स्तरों से भी नीचे गिर जाता है। चेतनागत विकास की गति चक्राकार, वर्तुलाकार है। श्रीअरविंद इसी क्रम में भावी विकास-चरण को अति मानव रूप में मानते हैं।

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