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यात्रा वृत्तांत >> हमसफर मिलते रहे

हमसफर मिलते रहे

विष्णु प्रभाकर

प्रकाशक : कादम्बरी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5815
आईएसबीएन :81-85050-58-9

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जीवन के विविध अनुभवों पर आधारित संस्मरण, जो औपचारिक शिक्षा के कहीं बहुत आगे तक जाते हैं

Hamsafar Milte Rahe

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पुरोवाक्

मनुष्य की शिक्षा का माध्यम प्राथमिक विद्यालय से विश्वविद्यालय तक माना जाता है। नाना क्षेत्रों में विशेषज्ञ बनने के लिए अनेक संस्थान और अनुसन्धान केन्द्र भी हैं, लेकिन मनुष्य को सचमुच मनुष्य अर्थात् इन्सान बनाने की शिक्षा देने वाला कोई महाविद्यालय या अनुसन्धान केन्द्र कहीं नहीं बन पाया है।
मेरे मामाजी ने, जो पुराने युग की दसवीं कक्षा पास कर सके थे, किसी प्रसंग में एक दिन मुझसे कहा था, बेटा, तुम पाठशाला में साठ प्रतिशत अंक ले आओगे तो प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण समझे जाओगे। पचहत्तर प्रतिशत ले आओगे तो विशेष योग्यता प्राप्त करनेवाले विद्यार्थी माने जाओगे, लेकिन जीवन की पाठशाला एक ऐसी पाठशाला है जहाँ शत-प्रतिशत अंक पाने पर ही सफलता मिलती है।’ यानी उन्होंने मुझे बताया कि यदि सचमुच शिक्षित होना चाहते हो तो तुम्हें पाठशाला से बाहर आकर संसार में भ्रमण करना होगा। वहाँ पर तुम्हें मनुष्य बनने की शिक्षा मिलेगी, क्योंकि अन्नतः शिक्षा का उद्देश्य मात्र जीवनयापन के लिए अर्थ का अर्जन करना नहीं है बल्कि सचमुच मनुष्य बनना है। मनुष्य को सचमुच मनुष्य बनानेवाला अभी तक कोई विश्वविद्यालय अस्तित्व में नहीं आया। शायद, आ भी नहीं सकेगा। राहुलजी के अनुभवों के आधार पर कहें तो केवल घुमक्कड़ शास्त्र ही मनुष्य को मनुष्य बनने की राह दिखा सकता है।’

इस तथ्य को प्रमाणित करनेवाली एक कथा पुराणों में भी आती है। एक बार आर्य-परम्परा के सबसे महान ऋषि सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार ने ने देखा कि महान ऋषि नारद बैठे हुए बहुत उदासीन दिखाई दे रहे हैं। सनत्कुमार ने उनसे पूछा ‘ब्रह्मर्षि ! आपने तो संसार की सारी विद्याएँ पढ़ ली हैं, कुछ भी शेष नहीं रहा, लेकिन अब भी आपका चेहरा इतना मुरझाया हुआ क्यों है ?’
नारद बोले, ‘हाँ, महर्षि आप ठीक कहते हैं। मैंने सब विद्याएँ पढ़ ली हैं।’ और उसके बाद आजकल के स्नातक की तरह सब विद्याओं के नाम गिनाते हुए कहा ‘लेकिन मेरा मन शान्त नहीं हो रहा, क्या करूँ ?’
सनत्कुमार मुस्कराये, बोले, ‘नारद। तुमने अक्षर और शब्द पढ़े हैं। उनका वास्तविक अर्थ नहीं जाना। उसे जानने के लिए तुम्हें दुनिया की पाठशाला में जाना होगा।
इसके बाद ही नारद संसार के सबसे बड़े धुमक्कड़ बन गये।

इस दृष्टि से मेरा अपना भी अनुभव और विश्वास है कि प्रत्येक प्राणी के लिए यात्रा करना अनिवार्य होना चाहिए। मात्र नियोजित यात्राएँ ही नहीं, अनियोजित यात्राएं भी होनी चाहिए। ये अनियोजित यात्राएँ ही वास्तविक यात्राएँ होती हैं। इन्हीं पथ घाट में मिले व्यक्तियों से वास्तविक और अवास्तविक मनुष्य की पहचान होती है।
प्रस्तुत संग्रह में मैंने अनेक नियोजित और अनियोजित यात्राओं के बीच मिले व्यक्तियों के माध्यम से मनुष्य के अन्तर में झाँककर वास्तविक मनुष्य को समझने की चेष्टा की है। इनमें से अधिकांश न तो महान् साहित्यकार हैं, न अन्य किसी क्षेत्र की अन्यतम उपलब्धि उन्होंने प्राप्त की है। वे सभी भारतीय भी नहीं है। कुछ को छोड़कर राष्ट्रीयता की दृष्टि से वे सब विदेशी हैं। हाँ, एक बात कह सकता हूँ कि अपवाद रूप इनमें दो-चार व्यक्ति ऐसे हैं जिन्होंने अपने क्षेत्र में अद्भुत सफलता प्राप्त ही है; अपने विषय के विषेषज्ञ भी हैं और कुछ ने सार्वजनिक जीवन में भी उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं। पर उनसे भी मेरी कोई पूर्व नियोजित भेंट नहीं हुई। शरत् बाबू के जीवन के सम्बन्ध में सामग्री की खोज करते हुए मैंने बर्मा से लेकर सिंगापुर तक की यात्रा की और उसी यात्रा के दौरान, जैसाकि आप पढ़ेंगे मेरी उनसे भेंट हुई।

कम्पूचिया में तिरुपति चेट्टियार से मिलना तो एक अद्भुत अनुभव हैं। इससे प्रमाणित हो जाता है कि भाषा का अज्ञान भी मनुष्य के मिलन में बाधक नहीं होता। एक छोटी सी कहानी याद आती है-
कहीं एक डॉक्टर थे जो नारियों से बहुत ही चिढ़ते थे, क्योंकि वे इतना बोलती थीं कि वह तंग आ जाते थे, इसलिए वह नारी रोगियों से सबसे अन्त में मिलते थे।
एक दिन क्या हुआ कि एक नारी आयी और वह बाहर दरवाजे से ही सटकर खड़ी हो गयी, बोली तक नहीं। डॉ. ने उसे देख लिया था और अपना माथा भी ठोक लिया था, लेकिन कई मिनट बीत गये वह नारी चुप ही खड़ी रही। अब तो डॉ. का ध्यान बार-बार उसकी ओर जाने लगा और अन्नतः उससे रहा नहीं गया। वह उठकर उसके पास आया और कोमल स्वर में बोला, ‘आपको क्या रोग है ?’

नारी ने सुनकर अपना हाथ आगे बढ़ाया और केवल एक शब्द कहा ‘आग’। इस एक शब्द ने उसकी पूरी कहानी कह दी। उसका हाथ जल गया था। डॉ. ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उसके हाथ की जाँच की और वह निरन्तर बोलता रहा, नारी वैसे ही चुप खड़ी रही। डॉ. अन्दर गया, एक शीशी में दवा और बार-बार उसे बताने लगा, कैसे और क्या-क्या करना है।
नारी ने कोई जवाब नहीं दिया, दवा लेकर चली गयी। अब तो डॉ. रोज उस स्थान की ओर देखता रहता जहाँ वह नारी खड़ी हुई थी, लेकीन वह नारी नहीं आयी। डॉ. व्याकुल हो उठा। तब सातवें दिन उसने उस नारी को उसी स्थान पर खड़े देखा। वह तुरन्त उठकर उसके पास आया और नाना प्रकार के प्रश्न पूछने लगा, ‘तुम क्यों नहीं आयी, क्या हाल है तुम्हारे हाथ का, दवा लगाई या नहीं ?’

नारी ने कुछ उत्तर नहीं दिया। अपना हाथ आगे बढ़ाया और एक शब्द कहा ‘बिल’।
डॉ. इतना गद्गद् हुआ कि उसने कहा, ‘नहीं, नहीं आपको कुछ नहीं देना होगा। आपको जब भी कोई कष्ट हो तो तुरन्त इधर आ जाइए।’
नारी मुस्करायी हाथ जोडे और चली गयी। इस कथा का अर्थ स्पष्ट है। इसके द्वारा लोककथा नायक यह बताना चाहता है कि भाषा का अधिक प्रयोग करना सफलता की कसौटी नहीं है बल्कि कम से कम शब्दों में अधिक बात कह देन वास्तविक शिक्षा है। दो शब्दों में उस नारी ने अपनी सारी बात कह दी।
ऐसा अनुभव हमें यात्राओं में अनेक बार हुआ। तिरुपति चेट्टियार का रेखाचित्र इस बात का प्रमाण है। प्यार की भाषा क्या होती है, वह हम ऐसे चरित्रों से सीख सकते हैं।

इस संग्रह में जो व्यक्ति आए हैं, वे विभिन्न देशों, विभिन्न भाषा-वर्गों और विभिन्न क्षेत्रों के हैं, लेकिन उन सबसे हमारे सम्बन्ध कितने सघन बन गए, इसका प्रमाण भी आपको इन रेखाचित्रों में मिल जाएगा। अपनी अनेक यात्राओं के दौरान बिना किसी पूर्व योजना के अनायास ही उनके सम्पर्क में आना हुआ। तीन-चार व्यक्तियों को छोड़कर उनसे फिर कभी मिलना भी नहीं हुआ; पत्र व्यवहार भी नहीं हुआ, लेकिन वे मेरे अन्तर में इस प्रकार जड़ जमाकर बैठ गए हैं, जैसे युग-युग से परिचित हों।

कुछ तो ऐसे व्यक्तियों से मिलना हुआ, जिनके बारे में मैं यह भी नहीं जानता कि वे कौन हैं, अब हैं भी या नहीं। इसका पता लगाने का भी कोई मार्ग शेष नहीं है। लेकिन उन्हें मैं कभी भूल पाऊँगा, ऐसा भी सम्भव नहीं है-यह सब आप इन चरित्रों के बारे में पढ़ते हुए समझ सकेंगे और मेरी तरह मानवता के उन वरद पुत्रों को याद रखेंगे।
सचमुच मेरे मामाजी के शब्दों में जीवन की पाठशाला में पास होने के लिए शत-प्रतिशत अंक पाने होते हैं। वहाँ न कोई श्रेणी होती है और न विशेष योग्यता का प्रमाणपत्र वहाँ बस इन्सान और उसकी इन्सानित होती है। उर्दू के प्रसिद्ध शायर ‘हाली’ ने कहा है-

 

फरिश्ते से बेहतर है इन्सान बनना
मगर इसमें पड़ती है मेहनत ज़यादा


इन कुछ ज़यादा मेहनत करने वाले इन्सानों के कन्धों पर ही तो दुनिया खड़ी है। इसलिए मैं कहता हूँ चरैवेति, चरैवेति। यात्रा करो, यात्रा करो। रवि बाबू के शब्दों में-

 

जोदि तोर डाक शुने केउ न आसे,
तोबे एकला चोलो, एकला चोलो, एकला चोलो रे

 

इस संग्रह में जितने व्यक्तियों की चर्चा हो सकी है, उन्हीं से मेरा सम्बन्ध सधा हो, ऐसा भी नहीं है। प्यार की भाषा जानने वाले अनेक अनपढ़ व्यक्तियों के सम्पर्क में मैं आया हूँ। आज के नानारुप हिंसा के युग में ये टिमटिमाते दीप ही हमें मानवीय संवेदना के क्षेत्र में ले जा सकते हैं। प्यार के ढाई आखर पढ़कर ही तो मनुष्य पण्डित होता है।
इसी आशा के साथ यह पुस्तक मैं उन्हीं प्रेम दीवानों को समर्पित करता हूँ जो आनेवाले युग की आशा है।

 

विष्णु प्रभाकर

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