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ऋग्वेद के देवता विज्ञान के संदर्भ में

शान्तिस्वरूप गुप्ता

प्रकाशक : बुक ट्री पब्लिशिंग हाउस प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5851
आईएसबीएन :978-81-904826-1

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ऋग्वेद के जितने भी अध्याय हुए हैं उनमें ऋग्वेद के देवताओं को चिह्मित करने का प्रयोजन उन्हें जनसाधारण के लिए ग्राह्य बनाना है।

Rigveda Ke Devta Vigyan Ke Sandarbh Mein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ऋग्वेद के जितने भी अध्याय हुए हैं उनमें ऋग्वेद के देवताओं को चिह्मित करने का प्रयोजन उन्हें जनसाधारण के लिए ग्राह्य बनाना है। उनकी आराधना करने का क्या अर्थ है तथा अराधना करने से क्या लाभ मिलते हैं यह बताने के प्रयास नहीं किए गए हैं।
वेद में केवल सर्वशक्तिमान, अजर, और अमर देवता को चिह्नित किया है। उनकी प्राकृतिक शक्तियों तथा उनसे मिलने वाले लाभों और पूजा के कार्यों का पता लगा कर लेखक ने जन साधारण के लिए ऋग्वेद को समझना सुलभ किया है।

 वे उन्हें भौतिक देवता मानते हैं। डॉ. गुप्ता ने यह भी पता लगाया है कि बाद के ऋषियों ने शनैः शनैः आत्मा का भी पता लगा लिया था तथा यह भी मालूम कर लिया था कि आत्मा अजर और अमर है तथा यह बार-बार किसी न किसी शरीर में प्रविष्ट होकर उसे जीवित कर देती है। डॉ. गुप्ता का मत है कि ये ऋषि परमात्मा, विष्णु शिव या रुद्र आदि के बारे में भी अधिक-अधिक जानने का प्रयास करने लगे थे और ऋषि भौतिक देवताओं से आध्यात्मिक देवताओं की तरफ जा रहे थे। डॉ. गुप्ता का यह अध्ययन यह सिद्ध करता है कि ऋषिगण केवल काल्पनिक बातें नहीं कर रहे थे, वे वास्तव में वैज्ञानिक खोजें कर रहे थे। यह बात दूसरी है कि उनकी खोज करने के तरीके भिन्न थे।

अपनी बात

सबसे पहले मैं अपनी धृष्टता की क्षमा माँगना चाहता हूँ। जीवनपर्यन्त मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी रहा पर अवकाश प्राप्त करने के पश्चात् मुझे अचानक ऋग्वेद के अध्ययन के लिए कई कारणों से बाध्य होना पड़ा।
एक हिन्दू स्वभाव से ही धर्मपरायण होता है। अवकाश प्राप्त करने के पश्चात् धर्म ग्रन्थों को पढ़ने की लालसा जाग्रत होना स्वाभाविक होता है। मुझमें भी यह भावना जगी। अतः प्रश्न उठा कि किस ग्रन्थ से प्रारम्भ किया जाए।
अचानक मेरे सामने प्रो. एम.जी. बोकरे, जो एक विख्यात वामपंथी थे, की पुस्तक ‘हिन्दू अर्थशास्त्र’ आ गई जिस पर प्रसिद्ध विचारक, भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक, श्री दत्तोपन्त ठेंगड़जी ने अग्रलेख लिखा है, पढ़कर अविश्नीयता के भाव पैदा हुए। ऋग्वेद में अर्थशास्त्र के मैलिक एवं उपयोगी सिद्धान्त हैं, मानने का मन नहीं किया, विशेषकर जब विद्वान लेखक ने सन्दर्भ नहीं दिए थे। अतः स्वयं पढ़कर सन्तुष्ट होने की इच्छा हुई।

मैंने अनेक बार विद्वानों को कहते सुना था कि वेदों में सब ज्ञान निहित है। मैंने अनेक भारतीय और विदेशी विद्वानों के वेदों पर लिखे ग्रन्थों को पढ़ा पर इस बात की पुष्टि नहीं हो सकी। अतः स्वयं पढ़कर सत्य को जानने की इच्छा हुई।
 
संस्कृत ज्ञान शून्य होने के कारण हिन्दी तथा अंग्रेजी के अनुवादों के माध्यम से ऋग्वेद को पढा। पहली बार पढ़कर ऐसा लगा जैसे मैं एक जंगल में भटक रहा हूँ। कुछ समय बाद देवी कृपा से ऋग्वेद को फिर पढ़ने की इच्छा जाग्रत हुई। पहले अनुभव की पुनरावृत्ति न हो इसलिए सोचा कि शोध प्रणाली की सहायता से इसे पढ़ा जाए। पढ़ने पर लगा कि इसमें वास्तव में ज्ञान-विज्ञान छिपा है, जिसे उद्धृत करने की आवश्यकता है। पुनः मैंने ऋग्वेद को, केवल इन्द्र देवता को माध्यम बनाकर, शोध विधि से पढ़ा। पढ़कर जो परिणाम आए उससे मैं स्वयं ही चौंक उठा। समय के साथ इन्द्र देवता पर एक पुस्तक प्रक्राशित हो गई। उत्साहित होकर विचार उठा कि ऋग्वेद के मुख्य-मुख्य देवताओं का अध्ययन किया जाए। परिणामस्वरूप वर्तमान पुस्तक आपके सामने है। क्षमा माँगना इसलिए आवश्यक है कि न तो मुझे संस्कृत का प्रारम्भिक ज्ञान है और न वेदों को समझने के लिये जो सही उच्चारण विधि या अन्य विधियाँ हैं उनका पता है और न उन विधियों को प्रयोग करने की क्षमता है। अतः ऋग्वेद के देवताओं पर एक पुस्तक लिखना दुःसाहस ही नहीं वरन् धृष्टता भी है। इस बात का बोध होने के उपरान्त भी मेरी स्थिति उस चूहे जैसी हो गई है जिसे हल्दी की एक छोटी-सी गाँठ मिल जाने पर वह अपने को बहुत बड़ा पंसारी समझने लगता है। अतः क्षमा माँगने के अतिरिक्त और उपाय भी क्या है। इस पुस्तक की कमियाँ मेरी हैं और यदि भूले भटके कोई अच्छाई हो तो उसे माँ सरस्वती की कृपा ही माना जाना चाहिए।

ऋग्वेद को बार-बार पढ़ने पर मुझे लगा कि इसको समझने में दो सबसे बड़ी बाधाएँ हैं। प्रथम, ऋग्वेद के ऋषियों ने यह ज्ञान का भण्डार एक-दो वर्षों में न देकर सैकड़ों वर्षों में दिया है। हम आज तक ऋग्वेद के 402 ऋषियों को उनके काल के अनुसार व्यवस्थित नहीं कर पाए हैं जिससे एक विषय पर विचारों का विकास कैसे हुआ है यह समझने में कठिनाई होती है। ऐसा न होने पर जो कभी-कभी ऋषियों के विचारों में विरोधाभास प्रतीत होता है उसकी गुत्थी सुलझाना भी कठिन हो जाता है।

दूसरे, ऋग्वेद के प्रमाणिक इण्डैक्सों का अभाव हैं। जो इण्डैक्स हैं भी वे अपने में पूर्ण नहीं है। उदाहरण के लिये विदेशी विद्वान् ए.ए.मैकडोनेल एवं ए. वी. कीथ का वैदिक इन्डैक्स ले लें। यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इन विद्वानों ने बहुत परिश्रम से बहुत बड़ा काम किया है। इस ग्रन्थ में कुछ कमियाँ होना स्वाभाविक है। उदाहरण के लिये इसमें बहुत सारे शब्द और विषय हैं ही नहीं। फिर इन विद्वानों ने अपने को एक या दो ग्रन्थों तक सीमित न रखकर अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों को ले लिया है। इससे विचारों की क्रमबद्धता तथा स्पष्टता में कमी आई है। फिर मुद्रण की भी काफी कृपा हुई है। इसी तरह ऋग्वेद संहिता, जो वैदिक संशोधन संस्थान मण्डल पूना के दो विद्वानों द्वारा सम्पादित की गयी हैं, के अन्त में जो ऋषियों, देवताओं तथा मन्त्रों की तालिकाएँ दी गयी हैं वे महत्त्वपूर्ण हैं, पर उन्हें वैदिक इण्डैक्स नहीं कहा जा सकता है। इसमें भी संकट का अपना योगदान तो है ही।

ऋग्वेद के अध्ययन की अनेक विधियाँ हो सकती हैं। एक विधि तो विदेशी विद्वानों, विशेषकर मैक्समूलर (max muller, 1875), आर.टी.एच ग्रिफिथ (R.T.H. Griffith, 1982) एच, ओल्डेनवर्ग (H. Oldenberg,  1912) आदि की हैं या फिर विशिष्ट अंशों का आलोचनात्मक अध्ययन करने वाले विद्वानों जैसे रूडोल्फ रौथ (Rudolph Rotlh ), कर्ल गेल्डनर (Karl Geldener), ए. कैगी (Adolf Kaegi), रोअर (Roer),  एहिलीब्रेण्ड (Ahillibrandt), ए. ए. मैकडोनेल (A.A. Mecdinell), ए.बी.कीथ (A.B. Keith) आदि ने अपनाई है। इन विदेशी विद्वानों द्वारा रचित ग्रन्थ उत्तम हैं पर उनमें कुछ कमियाँ भी हैं। उदाहरण के लिये ए.ए. मैकडोनेल का मत है कि कोई ‘‘कभी विषय ऐसा नहीं है जिसका वैज्ञानिक दृष्टि से निरूपण किया जा सके’’ (पृष्ठ 8)। ‘‘वैदिक पुराकथा शास्त्र एक ऐसे देश और काल तथा सामाजिक और भौगोलिक स्थिति की कृतियाँ हैं जो हम (बिटिश) लोगों से अत्यन्त दूरस्थ और अत्यधिक भिन्न हैं’’ (पृष्ठ 8)। स्पष्ट है कि पाश्चात्य सभ्यता में पले, बढ़े और रंगे लोगों को भारतीय संस्कृति, जो अपने में अनूठी है, को समझने में गलतियाँ हो जाना स्वाभाविक है।

भारतीय विद्वानों जैसे सायण, वेंकटमाधव का भाष्य जो डॉ. लक्ष्मण स्वरूप द्वारा सम्पादित है, स्वामी दयानन्द, सातवलेकर आदि ने ऋग्वेद पर लिखा है पर उनमें आपस  में ही मतभेद है, वे विज्ञान की सहायता नहीं लेते हैं, वे किसी आधुनिक शोध विधि को भी नहीं अपनाते हैं। तथा संस्कृत शब्दों के विभिन्न अर्थों के आधार पर अपने-अपने अनुसार व्याख्या करते हैं। उन्होंने भी ऋषियों को कालानुसार व्यवस्थित नहीं किया है। फलतः ये विद्वान् भी विदेशी विद्वानों की तरह ऋग्वेद के देवताओं को न तो चिह्नित कर पाए हैं। और न उनके पारस्परिक सम्बन्धों को स्पष्ट कर पाए हैं और भिन्न-भिन्न अर्थ देते हैं। वे इन देवताओं की पूजा-अर्चना की बात करते हैं पर उसके पीछे छिपे अर्थों को स्पष्ट नहीं करते हैं।
भारतीय धर्मग्रन्थों में पंच तत्त्वों-आकाश, पृथ्वी, अग्नि, वायु और जल की बड़ी महिमा है। कहा तो यहाँ तक गया है कि सभी भौतिक पदार्थ और यहां तक सभी प्राणी उन्हीं की देन हैं। आधुनिक विज्ञान इस बात से सहमत है यद्यपि उसने इन पाँचों तत्वों के ही लगभग 128 उप-तत्त्व मालूम कर लिये हैं तथा उसका मत है कि इन्हीं के संचय (Combination_ तथा क्रमचय (Permution) से सभी भौतिक पदार्थों और जन्म का विकास होता है। अतः लेखक ने इन्हीं पाँच तत्त्वों को आधार मानकर ऋग्वेद के देवताओं का अध्ययन आरम्भ किया है। पर उस अध्ययन में विष्णु, शिव एवं ब्रह्मा को सम्मिलित नहीं किया गया है क्योंकि ये भौतिकवादी देवता न होकर आध्यात्मिक देवता हैं।

लेखक ने वर्तमान अध्ययन में सबसे पहले ऋग्वेद में प्रत्येक देवता को सम्बोधित सूक्तों तथा मन्त्रों को संकलित किया। फिर प्रत्येक देवता को मन्त्रों को प्रमाणित हिन्दी और अंग्रेजी अनुवादों की मदद से पढ़कर सामग्री का, शोध विधियों के अनुसार, वर्गीकरण किया और फिर व्यवस्थित किया तथा इसके बाद विज्ञान की सहायता से उन्हें समझने का प्रयास किया। इस विधि से उपलब्ध सामग्री को व्यवस्थित कर जो कुछ लिखा उसमें तथा विज्ञान के तथ्यों में अद्भुत समानता मिली। इससे जहाँ आश्चर्य हुआ वहीं देवताओं को चिह्नित करने तथा प्रत्येक मुख्य देवता के सहयोगी देवताओं के समुदाय बनाने में सहायता भी मिली। उदाहरण के लिए सूर्य देवता, जो एक मुख्य देवता हैं, के साथ माता अदिति, मौसी दिति, सूर्य सार्पराज्ञी दध्रिका देव, अश्नों सूर्य देवी, आदित्यगण, जो मुख्यतः सूर्य की सात रंगों की सात ऊर्जा तरंगे हैं, जैसे मित्र, उषा, सविता, भग आदि का एक समुदाय बन गया और वे सब विज्ञान की भाषा में चिह्नित भी हो गये। इसी तरह प्रमुख वायु देवता के साथ वात देव, पर्जन्य देव, मरूदगण और अंपा नपात न केवल चिह्नित हो गए बल्कि उनका एक दूसरा देव समूह भी बना गया।

इस अध्ययन से लेखक इस परिणाम पर पहुँचा है कि ऋग्वेद के अधिकांश देवता प्राकृतिक शक्तियाँ हैं, जो अजर-अमर और सर्वव्यापी हैं तथा अपने-अपने नियमों से बँधी हुई हैं। यदि, मनुष्य उन्हें पूजे, अर्थात उनके सहयोग में चलते हुए उनके नियमों का पालन करे, तो निश्चित ही वह स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होगा तथा सुखी और सन्तुष्ट रहेगा। पर जब वह प्रकृति को जीतना चाहता है और उनके नियमों का पालन नहीं करता है तो वह स्वयं तो दुखी रहता ही है पर प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़कर अपने तथा समाज के लिए विष के बीज बो देता है। वर्तमान इस बात को चीख-चीखकर स्वीकार कर रहा है।
इस ग्रन्थ को लिखने का दुःसाहस मैंने इस आशय से किया है कि शायद इसके कारण कुछ विद्वान तथा शोधकर्ता, इस अध्ययन विधि को अपनाकर, नित प्रतिदिन वेदों तथा अन्य पुरातन साहित्य से, नए-नए रत्न निकालकर, माँ सरस्वती के चरणों में अर्पित करेंगे।

इस ग्रन्थ में ऋग्वेद के सन्दर्भ कोष्ठकों में दिए गए हैं। ये सन्दर्भ या तो ऋषि दयानन्द सरस्वती या पण्डित श्री राम शर्मा, बरेली के ऋग्वेदों से जो हिन्दी में है लिये गए हैं या फिर ए. एच. विल्सन या टी. एच. ग्रिफिन के अंग्रेजी के ग्रन्थों से लिए गए हैं।
ग्रन्थ लिखने में जिन विद्वानों ने सहायता दी हैं उन्हें कोरा धन्यवाद देकर मैं औपचारिकता तथा परम्परा निभाना नहीं चाहता हूँ। मैं मौन रहकर उनके उपकार का निरन्तर रसावदन करते रहना चाहता हूँ।
डॉ. ओम शिवराज, जो कालेज के पुराने विद्यार्थी तथा हिन्दी के विख्यात लेखक हैं, उन्होंने मुझे इस पुस्तक के प्रकाशन में सक्रिय सहयोग दिया है। मेरा उन्हें आशीर्वाद।

डॉ. श्री निवास मिश्र मेरे साथी हैं। संस्कृत के माने हुए विद्वान हैं। इस पुस्तक को लिखने में उनका बहुत अधिक सहयोग मिला है। देवताओं के जो चित्र इस पुस्तक में दिए गए हैं। वे बाजार में मिलने वाले देवताओं से भिन्न हैं। ऋग्वेद के अध्ययन के आधार पर विज्ञान की सहायता से, लेखक ने इन देवताओं के स्वरूप का निर्धारण कर डॉ. (श्रीमती) प्रतीक्षा  चौहान को बताया जिन्होंने कम्पूटर की सहायता से उन्हें मूर्त रूप दिया है। वे धन्यवाद की पात्रा हैं।


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