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अधूरी कहानी

विष्णु प्रभाकर

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5858
आईएसबीएन :81-8143-673-3

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Adhoori Kahani a hindi book by Vishnu Prabhakar - अधूरी कहानी - विष्णु प्रभाकर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विष्णु प्रभाकर हिन्दी कथा साहित्य के वरिष्ठतम नागरिक है। उनकी यह वरीष्ठता वयगत वरीष्ठता नहीं है। बल्कि उत्कृष्ट कथा कौशल से अर्जित की गई वरीष्ठता है। इतना होने पर भी विष्णु प्रभाकर की कथात्मक उपस्थिति आज भी ताजा दम है।

उन्होंने हिन्दी कहानी को यह सिखाया कि व्यर्थ की पहेलियों से बचकर सीधे-सीधे समझ में आने वाली कहानी कैसी लिखी जाए। वस्तुत: इसी रास्ते चलकर हिन्दी कहानी की समृद्ध परम्परा का विकास हुआ है। विष्णु प्रभाकर की प्रस्तुत संकलन में शामिल कहानियाँ इस तथ्य का साक्ष्य है कि वैसे कहानी में अपने आप-पास के दैनंदिन इतिहास की रचनात्मक प्रस्तुति संभव हो सकती है। लेखक अपनी कहानियाँ हमारे जाने पहचाने ऐसे पात्रों के माध्यम से प्रस्तावित करता है जिनसे हम रोज मुठभेड़ करते हैं। इस प्रक्रिया में विष्णु प्रभाकर आम आदमी के जीवन की सामान्य परिस्थितयों को देशकाल के पर्यावरण में बदल देते हैं। यानि व्यक्ति के माध्यम से समय और समाज को पाठक विष्णु, प्रभाकर की कहानियों में देख समझ सकता है। समय और समाज पर विष्णु प्रभाकर रुदीखी अचूक पकड़ इन दिनों लगभग दुर्लभ है। इसीलिए अनेक जैसे यथार्थकी विश्वसनीय प्रस्तुति कम देखी जाती है। और यह सब वह आम फहम भाषा में कहते हैं।

विष्णु प्रभाकर के यहाँ विचार नारों की तरह शोर गुल में नहीं बदलता और न फार्मूलाबद्ध चालाक जुगत की तरह लेखक इसका इस्तेमाल करता है बल्कि वह समूचे कथा विन्यास में एक अतंधारा या पाश्व संगीत की तरह अंर्तनिहित रहता है। मनुष्य मन की जटिल व्यवस्था हो या अमानवीय असामाजिक परिस्थितियाँ विष्णु प्रभाकर उस मनुष्य की चिंता करते हैं और उसके साथ में खड़े होते हैं जिसे सताया जा रहा है और वह फिर भी एक निरन्तर मुक्ति संग्राम करता है।

अधूरी कहानी

नारों की आवाज धीरे-धीरे धीमी, फिर बहुत धीमी पड़ गई, प्लेटफार्म की भीड़ छँटने लगी और सब लोग अपनी-अपनी सीट पर आ बैठे। इसी बीच एक मुस्लिम युवक एक हिंदू सज्जन से उलझ पड़ा था। युवक कह रहा था, ‘हम पाकिस्तान नहीं चाहते, लेकिन कांग्रेस ने मजबूर कर दिया है। हम उसे लेकर छोड़ेगे।’’
हिंदू साहब ने तलखी से जवाब दिया, ‘‘पाकिस्तान। जो पाकिस्तान आप छे सौ बरस की हुकूमत में न बना सके, उसे अब गुलाम रहकर बनाना चाहते हैं ? एकदम नामुमकिन।’’

एक भारी बदन के मुस्लमान, जो सामने की बर्थ पर बैठे हुए थे, बीच में बोल उठे, ‘‘छै सौ नहीं साहब, हमने नौ सौ बरस हुकूमत की है।’’
‘‘जी हाँ। नौ सौ वर्ष।’’
‘‘और उन नौ सौ बरसों में हिंदू बराबर हमसे नफरत करते रहे।’’
‘‘जी ! क्या कहा आपने ? हिंदू साहब बोले, ‘‘नफरत करते रहे ? जो जुल्म करता है, उससे नफरत ही की जाती है, प्यार नहीं।’’

उन मुसलमान भाई ने बड़े अदब से कहा, ‘‘जुल्म क्या है, इस पर सबकी अलग अलग राय है, पर मेरे दोस्त, आप लोगों ने हमें सदा दुरदुराया। हमारी छाया से भी आपको परहेज था। माना कि हम जालिम थे, पर जालिम के पास भी दिल होता है। वह कभी न कभी पिघल सकता है, लेकिन परहेज सदा मुहब्बत की जड़ खोदता है। वह नफरत करना सिखाता है। आपने हमसे नफरत की और चाहा कि हम आपसे प्यार करें। यह कैसे हो सकता था ? माफ करना, मैं आप लोगों की कद्र करता हूँ। मैं मेल जोल का पूरा हामी हूँ, पर आप बुरा न मानें तो एक बात पूँछूँ ?’’
हिंदू भाई की तेजी और तलखी अब कुछ घबराहट में बदलती जा रही थी और दूसरे मुसलमान साहब अजीब अदा से मुस्कराने लगे थे। तो भी उन्होंने कहा, जी जरूर पूछिए।

वह मुसलमान भाई निहायत शराफत से बोले, अछूत हिंदू हैं, पर आप उन्हें ताकत सौंप दीजिए तब, मैं पूछता हूँ वह आपसे प्यार करेंगे या नफरत ?’’
हिंदू भाई सिटपिटाए। उन्हें एकाएक जवाब न सूझा। मुसलमान साहब उसी संजीदगी से कहते रहे, ‘‘मैं जानता हूँ, आज आप उन्हें अपने बराबर मानते हैं। मेरे ऐसे हिंदू दोस्त हैं, जो इन्सान इन्सान के बीच के भेद को दुनिया का सबसे बड़ा पाप समझते हैं। पर मेरे दोस्त। भेद की इस लकीर को बराबर गहरी करने में, जाने या अनजाने जो लोग मदद करते आए हैं, उनके पापों का फल तो आपको भुगतना ही पड़ेगा। आप मत समझिए कि मैं आपकी कौम और मजहब पर कोई हमला कर रहा हूँ। मैं आपके धर्म को समझता हूँ। मेरे दिल में उसके लिए जगह है। मैं मुसलमानों की कमियों से भी वाकिफ हूँ, पर दूसरों में कमी है-यह कहकर कोई अपनी कमी को सही साबित करने की कोशिश करे, तो वह महज अपनी जिद और बेवकूफी जाहिर करेगा। जो असलियत है, उसका न सामना करना ही इन्सान की इन्सानियत है। मैं आपको एक छोटी सी कहानी सुनाता हूँ। मुझे यह मेरी वाल्दा ने सुनाई थी।’’

इतना कहकर वह पल भर रुके। डिब्बे में तब तक सन्नाटा छा गया था। पता नहीं लगा कि गाड़ी कब चल पड़ी और कब शड़ाक छू शड़ाक छू की गहरी आवाज करती हुई अगले स्टेशन पर जा खड़ी हुई। सूरज डूबने लगा था। एक भाई ने स्विच दबा दिया। बिजली की हल्की सी रोशनी में डिब्बा चमक उठा।

तब उन भारी बदन के मुसलमान भाई ने कहना शुरू किया, ‘‘मेरे दोस्तो ! बात आज से तीस बरस पहले की है। हमारे सूबे में एक छोटा सा कसबा है। उसमें, हिंदू, मुसलमान सभी रहते हैं। वह सदा आपस में मुहब्बत करते थे। एक दूसरे के सुख दुख साथ में रहते थे। लड़ते भी थे, पर वह लड़ना प्यार की तड़प को और भी गहरा कर देता था। हिंदुओं के त्योहरों पर मुसलमान उन्हें बधाई देते थे। मौसम की पैदावार का लेना-देना चलता था। होली जलती तो जौ की बालें पहुँचाने का जिम्मा मुसलमानों पर था। ईद के दिन हिंदू अपनी गाय-भैंसों का सारा दूध मुसलमानों में बाँट देते थे। सवेरे ही दूध दुहकर वह अपने अपने दरवाजों पर खड़े हो जाते और थोड़ा-थोड़ा दूध सब मुसलमानों को देते। उस दिन उनके हारों अहारों या अँगीठियों से धुआँ नहीं निकलता था, लेकिन उनके दिल की दुनिया खिल उठती थी। मैं नहीं जानता कि यह रिवाज कब और कैसे चला। इसकी बुनियाद जुल्म पर भी हो सकती है, पर उन दिनों यह मुहब्बत इन्सानियत और हमदर्दी का सबूत बन गया था। जो हो, उस साल भी ईद आई। मुसलमानों के घर जन्नत बने।

उनके बच्चे फरिश्तों की तरह, खिल उठे, लेकिन दुनिया आखिर दुनिया है। यहाँ जिंदगी की बगल में मौत यहाँ जिंदगी की बगल में मौत सोती है। रंज हमेशा खुशी का दामन पकड़े रहता है। इसीलिए जब सब लोग हँस रहे थे, एक घर में एक बालक दुःखी मन चुपचाप अपनी अम्मा की चारपाई के पास बैठा था, उसकी अम्मा फातिमा बीमार थी। उसकी साँस फूल रही थी। वह बेचैन हाथ-पाँव फेंक रही थी, लेकिन यह बेचैनी बुखार की इतनी नहीं थी, जितनी खाविंद की याद की। पार साल अहमद का बाप जिंदा था, तो घर में फुलवारी खिली थी। वह अचानक एक दिन खुदा को प्यारा हुआ, घर वीरान हो गया। आज ईद आई, लेकिन...। एकाएक फातिमा को न जाने क्या सूझा, वह उठकर बैठ गई। उसने हाँफते-हाँफते कहा ‘मेरे बच्चे ! कितना दिन चढ़ गया ? तू दूध लेने नहीं गया।

अहमद ने सिर हिलाकर कहा, ‘नहीं अम्मी।’
फातिमा के दिल पर चोट लगी। उसकी आँखें भर आईं। वह अपने को कोसने लगी, ‘मैं कैसी कमीनी हूँ। साल का त्योहार आया है और मेरा बच्चा इस तरह मुहताज बेबस बैठा है। नहीं, नहीं आज ईद मनेगी, जरूर मनेगी।’
और उसने कहा, ‘जा अहमद, तू जल्दी जाकर दूध ले आ। मैं तब तक तेरे कपड़े निकालती हूँ। जा, जल्दी कर मेरे बच्चे।’

बच्चे ने एक बार अपनी अम्मी को देखा और फिर चुपचाप बाल्टी उठाकर बाहर चला गया, लेकिन बहुत देर हो चुकी थी। सब लोग दूध बाँटकर अपने-अपने काम में लग गए थे। रास्ते में उसके साथी हँसते- हँसते लौटे और बाल्टी दूध से भरे चले आ रहे थे। उन्होंने देखा और अचरज से कहा, अरे। तुमने बहुत देर कर दी। तुम अब तक कहाँ सो रहे थे ? अब तो सब दूध बँट चुका है। मियाँ, अब जाकर क्या करोगे ?’
अहमद सुनता और उसका दिल बैठने लगता, लेकिन उनकी बात ठीक थी। वह जिस दरवाजे पर जाता, वहाँ फर्श पर पड़े दूध के छीटों के अलावा उसे कुछ नहीं मिलता। तब सचमुच उसका दिल भर आया। आँखें नम हो उठीं, लेकिन फिर भी उम्मीद की डोर पकड़े वह आगे बढ़ा चला गया। अचानक एक दरवाजे पर किसी ने उसका नाम लेकर पुकारा, ‘अहमद। अहमद।

अहदम ने रुककर देखा, पुकारने वाला उसके स्कूल का साथी दिलीप है। वह उसकी ही जमात में पढ़ता है। उसकी आवाज सुनकर अहमद ठिठक गया। दिलीप दौड़कर आया, बोला, तू अब तक कहाँ था ? तेरी बाल्टी खाली है।
अहदम की आवाज भर्रा रही थी। उसने कहा, ‘अम्मी बीमार है, मुझे देर हो गई।’
‘तो।’
‘दूध बिल्कुल नहीं है ?’
‘ना।’
फिर कई पल तक वे दोनों उसी दरवाजे पर, जहाँ आधा घंटा पहले दूध लेने वालों की आवाज गूँज रही थी, चुपचाप खड़े रहे। अचानक दिलीप को कुछ सूझा। वह अंदर दौड़ा गया। जाते-जाते उसने कहा, तू यहीं ठहर मैं अभी आया।’
अंदर वह सीधा अपनी माँ के पास पहुँचा और धीरे से बोला, भाभी। कुछ दूध और है क्या ?’
उसकी माँ बोली, हाँ है, तेरे और मुन्ने के लिए है। तू पिएगा ?’
नहीं’

अचरज से माँ बोली, तो।’
दिलीप नहीं बोला।
‘अरे, बात क्या है, बता तो।’
‘अहदम को दूध नहीं मिला।
‘कौन अहमद ?’
‘वह मेरे साथ पढ़ता है। उसकी माँ बीमार है, इसलिए उसे देर हो गई।’ कहते-कहते दिलीप ने अपनी माँ को ऐसे देखा, जैसे उसने कोई कसूर किया हो। पर माँ का दिल खुशी से भर आया। वह मुस्कराई। उसने दूध का भरा लोटा उठाया और कहा, ‘चल बता कहाँ है तेरा दोस्त।
दिलीप ने तब खुशी की छलाँग लगाई। माँ बेटे दरवाजे पर आए। अहदम उसी तरह खड़ा था। दिलीप ने हँसते-हँसते कहा, ‘अहमद ! बाल्टी ला। जल्दी कर।
दिलीप के लोटे का दूध अहमद की बाल्टी में क्या आया, उसकी मुहब्बत अहमद के दिल में समा गई। माँ ने पूछा, ‘तेरी मां बीमार है ?’

‘जी।’
‘तो सेंवइयाँ कौन बनाएगा ?’
‘वही बनाएगी।’
‘अच्छा, हमें भी खिलाएगा न ?’
अहमद ने सिर हिलाकर कहा, जरूर।’
माँ हँस पड़ी। बोली, ‘भगवान् तेरी माँ को जल्दी अच्छी करेगा। जा घर जा, जल्दी आता तो और दूध मिलता।
फिर दिलीप का हाथ पकड़कर उसकी माँ अंदर चली आई। उसका दिल बार-बार यही कह रहा था, ‘परमात्मा मेरे बच्चे का दिल सदा इसी तरह खुला रखे।’
उधर अहमद फूला-फूला घर आया। घर में घुसते ही उसने पुकारा, ‘अम्मी ! मैं दूध ले आया।’
फातिमा खिल उठी, ले आया ? बहुत अच्छा बेटा। कहाँ ले आया ?’
अहमद खुशी से बोला, ‘अम्मी ! दूध थोड़ा तो नहीं है ?’
‘बहुत है, मेरे बेटे। इतना ही बहुत है।’

‘हाँ अम्मी। सब दूध बँट चुका था। यह उसके अपने पीने का दूध था। ’
‘अपने ?’
अपने और छोटे भाई के। जरा सा रखकर सब उसने मुझे दे दिया।
फातिमा का दिल भर आया। गद्गद होकर बोली, ‘खुदा उसका भला करे। उसने गरीब की मदद की है।’
और फिर उन्होंने खुशी-खुशी ईद मनाने की तैयारी की। फातिमा का बुखार हल्का हो चला। उसने अहमद को नहलाया और कपड़े बदले। किसी तरह वह उसके लिए कुरता-पाजामा तो नया बना सकी थी पर जूता पुराना ही था। उसे तेल से चुपड़कर चमका दिया और टोपी पर नई बेल टाँक दी। अहमद खुश होकर बाहर साथियों के बीच चला गया। नमाज पढ़ने जाना था और उसके बाद मेला भी देखना था। सबकी जेबों में पैसे खनखना रहे थे। सबकी आँखें चमक उठी थीं। सबके मन उछल -उछलकर मिठाई और खिलौनों की दुकान पर जा पहुँचे थे। अगरचे अहमद के पास बहुत कम पैसे थे, पर क्या हुआ, उसका दिल तो कम खुश नहीं था। कम होता क्यों, अम्मी ने उसे बताया था कि उसके अब्बा दिसावर गए हैं, बहुत रुपए लेने। अगली ईद पर लौटेंगे, जैसे नियाज के अब्बा लौटे थे।

यह क्या कम भरोसा था। इसी भरोसे को लेकर वह ईदगाह पहुँचा। वहाँ उसने हजारों इन्सानों को एक साथ नमाज पढ़ते देखा। उसके बाद उसने मेले की सैर की। चाट, मिठाई, फल, खिलौने सभी तरह की दुकानों की पड़ताल उसने की। उसने अपने साथियों को झूलते देखा पर वह तो सब कुछ अगले साल के लिए छोड़ चुका था। इसीलिए जो पैसे अम्मी ने उसे दिए थे, उन्हें ठिकाने लगाकर वह घर लौट आया। देखा सेंवइयाँ बन चुकी हैं। गरम-गरम लंबी-लंबी सेंवइया उसे बड़ी खूबसूरत लगीं। बीच- बीच में गोले की फाक पड़ी थी। शक्कर की वजह से दूध कुछ पीला हो गया था। उसका दिल बाग-बाग हो उठा। फातिमा ने प्यार से उसे देखा और कहा, ‘मेरे बच्चे ! जा कटोरी ले आ और खाला के घर सेंवइयाँ दे आ। फिर मामू के घर जाना और फिर…।’

अहमद बोला, सबके घर देते हैं ?’
हाँ बेटा। वे भी तो हमारे पास भेजेंगे।’
‘अच्छा अम्मी, मैं अभी दे आता हूँ।
और फातिमा ने दोनों कटोरों में सेंवइयाँ भरीं और उन पर रूमाल ढँक दिया कि कहीं चील झपट्टा न मार ले। अहमद पहले एक कटोरा उठाकर चला, लेकिन जैसे ही वह दरवाजे के बाहर गया, उसे एक बात याद आ गई। सेंवइयाँ सबसे पहले दिलीप के घर देनी चाहिए। उसने मुझे दूध दिया था, अपने हिस्से का दूध।
बस उसने अपना रास्ता पलटा। खाला के घर न जाकर वह दिलीप के घर की ओर चला। सोचने लगा, अम्मा सुनेगी तो बड़ी खुशी होगी। बेचारी बीमार है। इसलिए दिलीप का नाम भूल गई। नहीं तो। यही सोचता हुआ वह खुशी-खुशी दिलीप के घर पहुँचा। दरवाजा बंद था। कुछ देर वह असमंजस में सकुचाया हुआ खड़ा रहा। फिर हिम्मत करके आवाज दी, दिलीप।’

कोई नहीं बोला।
फिर पुकारा, ‘दिलीप।’
इस बार किसी ने जवाब दिया, कौन है ?’
और वह कहने वाला बाहर आ गया। वह दिलीप का बड़ा भाई था। उसने अचरज से अहमद को देखा और पूछा, क्या चाहते हो ?’
अहमद झिझका, फिर सँभलकर बोला, ‘दिलीप है’
‘नहीं।’
‘उसकी माँ ?’
‘माँ ? माँ से तुम्हारा क्या मतलब ?’
अहमद ने कहा, ‘मेरा नाम अहमद है। मैं दिलीप के साथ पढ़ता हूँ। सवेरे उसने मुझे अपने हिस्से का दूध दिया था।’


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