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उपन्यास >> जंगल

जंगल

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5885
आईएसबीएन :9788170283065

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जंगलों में व्याप्त भ्रष्टाचार को उघाड़ता उपन्यास...

Jugle

सांबली और गछट के सरकारी जंगलों में, लकड़ी की कटाई-चिराई का काम आरंभ होने वाला था। ठेकेदार अपने-अपने प्रार्थनापत्र लिए अधिकारियों के पीछे बाग-दौड़ रहे थे। पेड़ों की शाखाएँ काटने, पेड़ गिराने, लकड़ी चीरने, जंगल से जरनैली सड़क डिपो तक ढुलाई करने, जनरैली सड़क डिपो से रेलवे-स्टेशन डिपो तक ढुलाई इत्यादि प्रत्येक काम के भाव निश्चित थे। अधिकारियों को जिस ठेकेदार की कार्य-क्षमता पर विश्वास हो, वे उसे ठेका दे सकते थे। सारा काम एक व्यक्ति को न देकर, वे विभिन्न काम, विभिन्न ठेकेदारों को भी दे सकते थे।....प्रत्येक ठेकेदार की इच्छा थी, सारा काम उसी को मिले। वे अपने प्रयत्नों में लगे हुए थे। अपने पहले कार्यों के प्रशंसात्मक विवरणों से अधिकारियों पर अपनी योग्यता का प्रभाव डाल रहे थे। अफ़सरों की कोठियों पर डालियाँ पहुँच रही थीं...

ठेका साधारण नहीं था। लाख रुपयों से कम का काम नहीं था। इतना बड़ा ठेका देने का काम छोटा-मोटा अफसर नहीं कर सकता था। यह अधिकार केवल डिविज़नल फ़ारेस्ट अफ़सर के हाथ में था। डिविजनल फ़ारेस्ट अफ़सर, राबर्ट चारवूड बहुत तेज़ स्वभाव के, क्रोधी अफसर के रूप में प्रसिद्ध था। उस तक पहुँचने का साहस बड़े-से-बडा ठेकेदार भी नहीं कर सकता था। उनकी पहुँच दारोगा और रेंज अफ़सर तक ही थी ठेकेदार राजा फ़ज़लदाद खाँ, अपना प्रार्थना पत्र लेकर, रेंज अफसर पीरशाह के पास बैठा हुआ था। ‘‘हुजूर ! आप मेरी सिफारिश कर दें तो ठेका मुझे मिल जाए। जो खिदमत हुजूर कर सकूँगा, कर दूँगा। बहुत दिनों से हुजूर ने मुझ पर करम नहीं किया।’’

पीरशाह ने उसके हाथ से प्रार्थना पत्र लेकर पढ़ा और उसके सामने चारवूड का चेहरा घूम गया—नाराज़ अंग्रेज़ अफ़सर का चेहरा। पीरशाह स्वयं को अच्छी तरह पहचानता था। उसे हिंदुस्तानी अफ़सरों के अधिकारों के विषय में भी कोई भ्रांति नहीं थी। वह जानता था कि जब तक चारवूड स्वयं ही कुछ न पूछे, पीरशाह उसके सामने मुँह खोलने का साहस नहीं कर सकता।...पर वह अपने विषय में फ़ज़लदाद खाँ की ग़लतफ़हमियों को नष्ट नहीं करना चाहता। फ़ज़लदाद खाँ को ही नहीं, सारे ठेकेदारों को देसी अफ़सरों के अधिकारों के विषय में भ्रांतियाँ बनी रहनी चाहिए। एक बार उन लोगों का भ्रम खुल गया तो सारी खुशामद, सलामें और डालियाँ समाप्त हो जाएँगी। पीरशाह अच्छी तरह जानता था, यह ठेकेदारों की सद्बावना नहीं है...

‘‘राजा फ़ज़लदाद खाँ !’’ पीरशाह ने उसे वक्र दृष्टि से देखा, ‘‘अभी तो तुम मेरी खुशामद कर रहे हो, ठेका मिलते ही अपने –आपको खुदा समझने लगोगे।’’
‘‘नहीं हुजूर।’’ फ़ज़लदाद खाँ ने मेज़ पर अपना माथा टेक दिया, ‘आपके सामने यह सिर ऐसे झुका है ऐसे ही झुका रहेगा। बस यह ठेका दिलवा दीजिए !’’

पीरशाह ने उसे घूर कर देखा और कलम उठा कर लिखा, ‘‘Forwarded to the Divisional Officer for necessary action.’’ काग़ज़ फ़ज़लदाद खाँ के सामने रखकर बोला, ‘‘तुम चाहे हमें अच्छा समझो या बुरा, पर हम अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ते। देखो, तुम्हारी सिफारिश लिखकर दी है। अब भी तुम्हें ठेका न मिले तो अल्लाह का कहर !’’
उर्दू पढ़े हुए राजा फ़ज़लदाद खाँ ने, अंग्रेजी में लिखी इस पंक्ति को अत्यंत श्रद्धा से देखा और अपने स्थान से उठकर पीरशाह को अत्यंत विनय से सलाम किया, ‘‘हुजूर की कृपा न होती, तो दुश्मनों ने राजा फ़ज़लदाद खाँ को कब से मिटा दिया होता।’’

वह कमरे से बाहर निकल आया। खुली हवा में लंबी साँस ली। मुड़कर पीरशाह के कमरे की ओर देखा और होंठो में बड़बड़ाया, ‘‘हरामज़ादा।’’
विभिन्न अवसरों पर, जंगल में काम के निरीक्षण के लिए आए हुए चारवूड को अकबर खाँ कई बार सलाम कर चुका था। सलाम करने के बहाने कई बार वह उसके बँगले पर भी जा चुका था। चारवूड ने कई बार उसके सामने ही, मजदूरों पर उसके नियंत्रण, काम के निर्देशन तथा उसकी व्यवस्था-क्षमता की प्रशंसा भी की थी। किंतु, क्या इतनी-सी बात के सहारे वह ठेके के लिए प्रार्थनापत्र लेकर चारवूड के सामने जा पहुँचे ? फिर उसके पास कोई पूँजी भी नहीं थी। काम मिल जाए, तो मासिक बिल पास हो जाएँगे और दफ्तर से पैसे मिल जाएँगे। पर पहले महीने में काम चलाने के लिए-कम-से-कम मज़दूरों को उनकी मज़दूरी देने के लिए तो पूँजी होनी ही चाहिए। वह पूँजी कहाँ से आए.....।

पर क्या इतनी-सी पूँजी के अभाव के कारण, अकबर खाँ ठेके के लिए प्रयत्न ही न करे ? ठेका मिल गया तो पूँजी भी मिल जाएगी। एक बार काम मिल गया तो वह अफसरों को प्रसन्न कर देगा। सारा काम उसकी इच्छानुसार कर दिखाएगा और दुनिया को उसकी वास्तविक क्षमता का पता लगेगा।

तो वह प्रार्थनापत्र दे दे ? किसको दे ? किसकी खुशामद करे ?
देसी अफ़सर बहुत खुशामद चाहते हैं। उनके लालच का भी अंत नहीं है। उनके लिए कुछ ले जाओ, उनकी घरवाली के लिए ले जाओ, उनके बच्चों के लिए ले जाओ। इतना कुछ अकबर खाँ के पास है नहीं ! किसी प्रकार दे भी आओ तो अंत में कह देंगे अंग्रेज अफ़सर नहीं माना। देसी अफ़सरों के सामने नाक रगड़ने से तो अच्छा है कि वह सीधा अंग्रेज अफ़सर से मिले। अंग्रेज को कोई लालच नहीं होता। और देसी आदमी से तो उसे कुछा चाहिए ही नहीं।

अकबर खाँ काफी समय तक सोचता रहा। जितना सोचता उतना ही उसका निश्चय दृढ़ होता जाता। ठीक है कि चारवूड अंग्रेज है, क्रोधी है, ठोकर से बात करता है, पर मिलने में क्या हर्ज है—पीर मुत्तर नहीं देगा, तो सुत्थन भी नहीं लेगा। और कहीं मान गया—सारा ठेका न सही, कोई एक ही काम मिल गया तो उसका भाग्य बदल जाएगा। पाँव टिकाने का स्थान मिलना चाहिए, फिर बैठने और लेटने की व्यवस्था हो जाएगी।

साहस बटोर, अकबर खाँ चारवूड को सलाम करने चला गया। चारवूड ने अकबर खाँ के साहस के किंचित् आश्चर्य से देखा, ‘‘तुम ठेकेदार नहीं, जमीदार नहीं, राजा नहीं, नवाब नहीं। एकदम नया आदमी है। इतना बड़ा ठेका तुमको कैसे मिल सकता ?’’

अकबर खाँ हतोत्साहित नहीं हुआ। उसकी बात सुनकर क्रोधी चारवूड आपे से बाहर नहीं हुआ था, जैसाकि उससे अपेक्षित था। बोला, ‘‘साहब ! मुझे काम का अनुभव है, और मैं किसी भी पुराने ठेकेदार से अच्छा काम कर सकता हूँ !’’
‘‘तुम कौन है ? ठेकेदार राजा फ़ज़लदाद खाँ का मुंशी ?’’ चारवूड उसे पहचानता है—अकबर खाँ ने सोचा—संभव है, उसे उसके प्रति कुछ सहानुभूति भी हो, ‘‘मैं राजा साहब का साला हूँ साहब ! वैसे उनके मुंशी का काम करता हूँ।’’
‘‘उसका साला होकर, उसके पास नौकरी करता है।’ कदाचित् चारवूड भी इस रिश्ते की मह्त स्थिति को समझता था।
‘‘मजबूरी है साहब ! अकबर खाँ अपनी आँखों में पानी भर लाया, ‘‘बहुत शर्म की बात है, पर मजबूर हूँ। हमारी आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। जुमाँ गाँव में हमारी बहुत-थोड़ी सी ज़मीन है। पास में कोई नदी-नाला भी नहीं है; इसलिए अकसर फसल नही होती। हमारा बड़ा परिवार है—एक बड़ा भाई है, एक छोटा, बूढ़े माँ-बाप हैं, भाभी है, पत्नी है। गुज़ारा नहीं होता साहब; इसलिए बहनोई के पास मुंशी की नौकरी कर ली है। अब आप कृपा कर दें तो मैं अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊं।’’

‘‘ठीक है ! ठीक है। तुम्हारा बात हम समझता है; पर तुम एकदम नया आदमी है। तुमको इतना बड़ा काम कैसे दिया जा सकता है ?’’
अकबर खाँ को चारवूड की बात में, अपने लिए काम की काफी संभावना समझ में आई। अब यह अकबर खाँ की अपनी वाक्पटुता पर निर्भर करता था कि वह चारवूड से कितना काम निकलवा सकता है। ‘‘आप सब कुछ कर सकते हैं साहब !’’ वह बोला, ‘‘आप कोई देसी अफ़सर तो नहीं, कि नाम के ही अफसर हों, और अधिकार कोई न हो। आप अंग्रेज हैं, हमारे सर्वशक्तिशाली बादशाह के सगे रिश्तेदार। आपको स्वयं बादशाह ने अधिकार दे रखे हैं। आपके लिखे को कोई नहीं टाल सकता। आप एक बार मेरे सिर पर हाथ रख दें, तो मेरा बेड़ा पार हो जाए। मेरे बूढ़े माँ-बाप आपको और बादशाह सलामत को दुआएँ देंगे। मेरे छोटे-छोटे भतीजे आपका गुण गाएँगे।’’

चारवूड सोच रहा था, इस व्यक्ति को अंग्रेजो की शक्ति में कितना विश्वास है। वह प्रत्येक अंग्रेज अफसर को बादशाह का सगा रिश्तेदार समझता है। एक साधारण क्लर्क के बेटे राबर्ट चारवूड का मन कहीं पुलकित हो उठा : यह व्यक्ति उसे इंग्लैण्ड राजवंश का संबंधी मानता है। चारवुड इस भ्रम को तोड़ना नहीं चाहता। यदि उसने ठेका देने से इनकार किया, तो अकबर खाँ का यह भ्रम टूट जाएगा। आज इस काले हिंदुस्तानी को पता लग जाएगा कि चारवूड के पास भी वह अधिकार नहीं है जो वह समझता है। कल सारे हिंदुस्तानियों को पता चल जाएगा ठीक कहता है अकबर खाँ—ऐसा असंभव काम, केवल एक अंग्रेज ही कर सकता है।

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