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विवेकानन्द साहित्य >> प्राच्य और पाश्चात्य

प्राच्य और पाश्चात्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5910
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक प्राच्य और पाश्चात्य....

Prachya Aur Pashchatya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

भगवान् की असीम कृपा से स्वामी विवेकानंद के सुप्रसिद्ध ग्रंथों में से एक ‘प्राच्य और पाश्चात्य’ नामक ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो गया। यह मूल बंगला में लिखी हुई पुस्तक का अकृत्रिम और अक्षरश: अनुवाद है। हिन्दुराष्ट्र निर्माण के परिपोषक विचारों का विवेकपूर्ण विवेचन इस पुस्तक में अत्यन्त सुलभ और स्फूर्तिदायिनी भाषा में किया है। यहाँ पर आज आत्यन्तिक आग्रही मतवादियों के दो पंथ हैं। उसमें एक हठ के साथ यही कहे जाता है कि जो कुछ पश्चिमी है निर्दोष तथा परिपूर्ण और स्वर्गांसुन्दर है। एवं हमारे देश में ऐसा कुछ भी नहीं है जो विचार के योग्य हो अथवा अनुकरण का विषय बन सके। दूसरे प्रकार के लोग ‘पुराणमित्येव हि साधु सर्वं’ कहलाने वाले हैं। उनका मत है कि जो कुछ इस देश का है वही अच्छा तथा निर्दोष हो सकता है। वे यह ख्याल नहीं कर सकते कि पाश्चात्यों से, उनकी संस्कृति और उनके विकास से भी हम कुछ सीख सकते हैं। इसी संकुचित दृष्टिकोण के कारण ही आज हिन्दुसमाज की आत्मा नष्ट होती जा रही है और साथ ही उसमें ऐक्य तथा शक्ति का भी ह्नास होता जा रहा है। हम आशा करते हैं कि उस महान् देशभक्त, महात्मा स्वामी विवेकानंद के खूब सोच-समझ के बाद लिखे हुए ये सुसंश्लिष्ट और विधायक विचार, जो इस पुस्तक में संकलित किये गये हैं, हमारी धुँधली कल्पनाएं शुद्ध करने में समर्थ होंगे और हमारे राष्ट्र को योग्य मार्ग पर चलाने में अमर्याद सहायता पहुँचायेंगे।

हिमालयान्तर्गत अद्वैताश्रम के अध्यक्ष स्वामी पवित्रानन्द के हम अन्त:करण से आभारी हैं जिनकी अनुज्ञा से इस अनुवाद की (जो कि रामकृष्ण मिशन के एक प्रमुख संन्यासी स्वामी माधवानंदजी द्वारा अनुपम योग्यतापूर्वक संपादित ‘समन्वय’ नामक हिन्दी पत्रिका में छप चुका था।) फिर से प्रकाशित करने का हमें सौभाग्य प्राप्त हुआ।
पाठकों को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि इस पुस्तक के प्रकाशन से होने वाली आय श्रीरामकृष्ण आश्रम नागपुर (सी.पी.) के द्वारा किये जाने वाले धार्मिक और सेवा कार्य में लगाई जायेगी। हमें आशा है कि यह पुस्तक अपना उद्देश्य पूरा करेगी और लोकप्रिय होगी। बहुजन समाज के हितार्थ पुस्तक की कीमत भी जितनी कम रखी जा सकी रखी गई है।

4 जनवरी 1938
प्रकाशक

प्राच्य और पाश्चात्य

वर्तमान भारत का बाहरी चित्र

सलिल-विपुला उच्छ्वासमयी नदियाँ, नदी-घाट पर नन्दवन को लजानेवाले उपवन, उनके मध्य में अपूर्व कारीगरी युक्त रत्न-खचित गगनस्पर्शी संगमर्मर के प्रासाद: और उनके सामने तथा पीछे गिरी हुई टूटी झोपड़ियों का समूह; इतस्तत: जीर्णदेह छिन्नवस्त्र युगयुगान्तरीण निराशादर्शक वदन वाले नरनारी तथा बालक-बालिकाएँ; कहीं कहीं उसी प्रकार की कृश गायें, भैंसे और बैल, चारों ओर कूड़े का ढेर-यही है हमारा वर्तमान भारत !
अट्टालिकाओं से सटी हुई जीर्ण कुटियाँ, देवालयों के अहाते में कूड़े का ढेर, रेशमी वस्त्र पहने हुए धनियों के बगल में कौपीनधारी, प्रचुर अन्न से तृप्त व्यक्तियों के चारों ओर क्षुधाक्लान्त ज्योतिहीन चक्षुवाले कातर दृष्टि लगाये हुए लोग-यही है हमारी जन्मभूमि !

पाश्चात्य की दृष्टि में प्राच्य

हैजे का भीषण आक्रमण, महामारी का उत्पात, मलेरिया का अस्थिमज्जाचर्वण, अनशन, अधिक से अधिक आधा पेट भोजन, बीच बीच में महाकाल स्वरूप दुर्भिक्ष का महोत्सव, रोगशोक का कुरुक्षेत्र, आशा-उद्यम-आनन्द एवं उत्साह के कंकाल से परिलुप्त महाश्मशान और उसके मध्य में ध्यानमग्न मोक्षपरायण योगी-यूरोपीय पर्यटक यही देखते हैं।

तीस कोटि मानवाकार जीव-बहुशताब्दियों से स्वजाति-विजाति, स्वधर्मी-विधर्मी के दबाव से निपीड़ितप्राण, दाससुलभ परिश्रमसहिष्णु, दासवत् उद्यमहीन, आशाहीन, अतीतहीन, भविष्यत्-विहीन, वर्तमान में किसी तरह केवल ‘जीवित’ रहने के इच्छुक, दासोचित ईर्ष्यापरायण, स्वजनोन्नति-असहिष्णु, हुताशवत् श्रद्धाहीन, विश्वासहीन, शृगालवत् नीच-प्रतारणा-कुशल, स्वार्थ-परता से परिपूर्ण, बलवानों के पद चूमने वाले, अपने से दुर्बल के लिए यमस्वरूप, बलहीनों तथा आशाहीनों के समस्त क्षुद्र भीषण कुसंस्कारों से पूर्ण, नैतिक मेरुदण्डहीन, सड़े मांस में बिलबिलाने वाले कीड़ों की तरह भारतीय शरीर में परिव्याप्त-अंग्रेज सरकारी कर्मचारियों की दृष्टि में हमारा यही चित्र है।

प्राच्य की दृष्टि में पाश्चात्य

नवीन बल से मदोन्मत्त हिताहितबोधहीन, हिंस्रपशुवत् भयानक, स्त्रीजित, कामोन्मत, आपादमस्तक सुरासिक्त, आचारहीन, शौचहीन, जड़वादी, जड़सहाय, छलबल और कौशल से परदेश-परधनापहरण-परायण, परलोक में विश्वासहीन, देहात्मावादी, देहपोषण मात्र ही है जिसका जीवन-भारतवासियों की दृष्टि में यही है पाश्चात्य असुर।
यह तो हुई दोनों पक्षों की बुद्धिहीन वाह्य दृष्टि वाले लोगों की बात। यूरोप-निवासी शीतल साफ सुथरी अट्टालिकाओं वाले नगरों में वास करते हैं, हमारे ‘नेटिव’ मुहल्लों की अपने देश के साफ सुथरे मुहल्लों से तुलना करते हैं।

भारतवासियों का जो संसर्ग उन्हों होता है, वह केवल एक दल के लोगों का-जो शहर में नौकरी करते हैं। और दु:ख-दारिद्रय तो सचमुच भारतवर्ष जैसा पृथ्वी पर और कहीं नहीं है। मैला, कूड़ा-कर्कट तो चारों ओर पड़ा ही रहता है। यूरोपियनों की दृष्टि में इस मैले, दासवृत्ति, इस नीचता के बीच कुछ थोड़ा अच्छा होना भी सम्भव है, ऐसा विश्वास नहीं होता। हम देखते हैं वे शौच नहीं करते, आचमन नहीं करते, कुछ भी खा लेते हैं, कुछ भी विचार नहीं करते, शराब पीकर औरतों को बगल में लेकर नाचते हैं-हे भगवान्, इस जाति में भी क्या भलाई हो सकती है !
दोनों दृष्टियाँ बाह्य दृष्टियाँ हैं, भीतर की बात वे समझ ही नहीं सकती। हम विदेशियों को अपने समाज में मिलने नहीं देते और उन्हें म्लेच्छ कहते हैं। वे भी ‘नेटिव स्लेव’ कहकर हमसे घृणा करते हैं।

प्रत्येक जाति के विभिन्न जीवनोद्देश्य

इन दोनों दृष्टियों में कुछ सत्य अवश्य है, किन्तु दोनों ही दल भीतर की असली बात नहीं देखते।
प्रत्येक मनुष्य में एक भाव विद्यमान रहता है; बाह्य मनुष्य उसी भाव का प्रकाश मात्र अर्थात् भाषा मात्र रहता है। इसी प्रकार प्रत्येक जाति में एक जातीय भाव है। यह भाव जगत् के लिए कार्य करता है, वह संसार की स्थिति के लिए आवश्यक है। जिस दिन वह आवश्यकता भी चली जायगी, उसी दिन उस जाति अथवा व्यक्ति का नाश हो जायगा। इतने दु:ख-दारिद्रय में भी बाहर का उत्पात सहकर हम भारतवासी बचे हैं, इसका अर्थ यही है कि हमारा एक जातीय भाव है, जो इस समय भी जगत् के लिए आवश्यक है।

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