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विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ

ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5917
आईएसबीएन :9789383751914

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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।

Dhyan Tayha Iski Paddhatiyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तावना

(प्रथम संस्करण)
श्रीरामकृष्ण के शब्दों में स्वामी विवेकानन्द ‘ध्यानसिद्ध’ थे। इन ‘ध्यानसिद्ध’ महर्षि की गहन आध्यात्मिकता आध्यात्मिक अनुभूतियों के स्वयं उन्हीं के द्वारा किये गये विशद वर्णन के आधार पर ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ नामक यह पुस्तक पाठकों को प्रस्तुत करते हमें प्रसन्नता हो रही है।

स्वामीजी ने न केवल भारतीय आध्यात्मिक चिन्तन की जाँची-परखी दीर्घ परम्परा के अनुसार ध्यान के अनेक पक्षों को हमारे समक्ष रखा है अपितु मनुष्य जीवन के ध्येय के लिये उसकी आध्यात्मिक उपयोगिता भी बतायी है। साथ ही उन्होंने ध्यानमग्नता द्वारा सुप्त आध्यात्मिक शक्ति को जाग्रत करके दैनिक व्यावहारिक जीवन में भी दिव्यता की अभिव्यक्ति पर अत्यधिक बल दिया है।
रामकृष्ण संघ की वेदान्त सोसायटी, सेंट लुई (मिसूरी, संयुक्त राज्य अमेरिका) केन्द्र के प्रभारी संन्यासी स्वामी चेतनानन्दजी ने अद्वैत आश्रम मायावती द्वारा प्रकाशित The complete works of Swami Vivekananda (in 8 Volumes) से स्वामी विवेकानन्द जी के ध्यान सम्बन्धी विचारों के मुख्यताः योग तथा वेदान्त की पद्धतियों के अन्तर्गत सकंलित करके उपयुक्त विषयों में वर्गीकृत तथा क्रमबद्ध किया था। इस कष्टसाध्य श्रम के लिए हम उनके आभारी है। उनके मूल सकलन के आधार पर वेदान्त सोसायटी आफ सदर्न कैलीफोर्निया (वेदान्त प्रेस, हॉलीवुड, संयुक्त राज्य अमेरिका) ने सन् 1976 में Meditation and its Methods नामक पुस्तक का अंग्रेजी में पहला संस्करण प्रकाशित किया था। इसी प्रकाशक की अनुमति से अद्वैत आश्रम, (मायावती, चम्पावत, हिमालय’) ने सन् 1980 में इसका अंग्रेजी में प्रथम भारतीय सस्करण उपरोक्त शीर्षक के अन्तर्गत ही प्रकाशित किया था; प्रस्तुत संस्करण इसी भारतीय अंग्रेजी संस्करण का हिन्दी अनुवाद है जिसके उद्वरण उक्त अद्वेत आश्रम द्वारा ही प्रकाशित विवेकानन्द साहित्य, अनुदानित संस्करण (हिन्दी) के निम्नलिखित 10 खण्डों में से है।

खण्ड संख्या संस्करण
1, 2, एवं 3 सप्तम, मार्च 2002
4 एवं 5 षष्ठ, दिसम्बर 2000
6, 7 एवं 8 षष्ठ, मई 2001
9 षष्ठ, दिसम्बर 2000
10 षष्ठ, मई 2001

पठन की सुगमता के लिये अंग्रेजी संस्करण की तरह ही प्रसंग या संदर्भ के अनुरूप उद्वरणों तथा वाक्यांशों के अनुदान तथा चिन्हांकनों में आवश्यकतानुसार काटछाँट करके परिवर्तन किया गया है तथा मूलपाठ से किये गये विलोपों तथा परिवर्तनों को सूचित किये बिना चिह्नाकनो को नया रूप दिया गया है। संदर्भों या स्त्रोतों की अलग तालिका के लिये परिशिष्ट न बनाते हुए उन्हें उद्वत लेखांशों, परिच्छेदों या अनुच्छेदों के अन्त में ही कोष्ठक में विवेकानन्द साहित्य की खण्ड-संख्या, तत्पश्चात् बिन्दु के बाद पृष्ठ-संख्या देकर निर्दिष्ट कर दिया गया है

ताकि सुधी पाठक किसी विषय में विशेष रुचि के कारण विस्तारपूर्वक जानना चाहे तो मूल स्त्रोत, की आवृत्ति से लाभान्वित तथा उपकृत्त हो सकें।

In Search of God and Other Poems तथा Reminiscences of Swami Vivekananda नामक पुस्तकों से लिये गये उद्वरणों को मूल अंग्रेजी पुस्तक (Meditation and its Methods ) से ही अनुवादित किया गया है। तथा उनके संदर्भ भी उद्धरणों के अन्त में दिये गये हैं।
स्वामी चेतनानन्दजी की सम्पादकीय टिप्पणी तथा स्वामी विवेकानन्दजी के संक्षिप्त जीवनवृत्त से एवं क्रिस्टोफर ईशरवुड के प्राक्कथन से पुस्तक की उपादेयता बढ़ी है।
हमें विश्वास है कि प्रस्तुत प्रकाशन साधकों तथा मननशील पाठकों में समादृत होगा।

 

नागपुर

 

प्रकाशक


प्राक्कथन

 

हम कहा करते है ‘काश हम उन्हें जान जाते !’ हम में से अधिकांश पहले से ही यह मानकर चलते हैं कि यदि कोई महान आध्यात्मिक गुरू मिले तो हम उसे पहचानने योग्य होंगे। क्या हम ऐसा पाएंगे ? सम्भवताः हम स्वयं को ही बहलावे से प्रसन्न करते हैं।....फिर भी इस बात में सहमत होना पड़ेगा कि एक जीवित गुरू उसकी निर्जीव पुस्तक की तुलना में श्रेयस्कर है। निरे मुद्रित शब्द सामान्यतः वक्ता की वाणी की स्वर-शैली को ही सम्प्रेषित नहीं करते तो फिर उस स्वर-शैली के पीछे आध्यात्मिक शक्ति के सम्प्रेषण का तो कहना ही क्या।

परन्तु विवेकान्नद असाधारण अपवादों में से एक हैं। उनके मुद्रित शब्दों को पढ़ते हुए हम उनकी स्वर-शैली को कुछ अंशों में समझ सकते है और यहाँ तक उसकी शक्ति से सम्पर्क-बोध का अनुभव भी कर सकते है। ऐसा क्यों है ?

शायद इसलिये कि इन शिक्षाओं में से अधिकतर मूलतः उनके द्वारा लिखी नहीं गयीं परन्तु उनके द्वारा उच्चारित हुई हैं। उनमें वाणी की अनौपचारिकता तथा आग्रह है। इसके अतिरिक्त विवेकानन्द ऐसी भाषा बोलते हैं जिसे हम समझ सकें परन्तु इसके बावजूद जो अद्वतीय रूप से उनकी अपनी विवेकान्नद-अंग्रेजी है- वह है अनूठे प्रकार से गढ़े शब्द-समूहों तथा विस्फोटक उद्गारों का चमत्कारपूर्ण शक्तिशाली वाकव्यवहार।

पचहत्तर वर्ष बाद अब भी हमारे लिये उनके व्यक्तित्व का पुनर्निमाण करता है।
यहाँ स्वामी चेतनानन्द ने हमारे समक्ष मानो स्वामी विवेकानन्द को व्यक्तिगत रूप से इसलिए ला दिया है कि ध्यान कैसे करे। उनकी साहित्यिक रचनाओं से संग्रहीत ये संक्षिप्त स्वयंपूर्ण उद्धरण यह बताते हैं कि धर्म क्या है तथा यह हमारे लिए जीवनप्रद सम्बन्ध वाला क्यों है
तथा इसे अपने जीवन का अंग बनाने के लिए क्यों हमें इसका अभ्यास अवश्य करना ही होगा। इस पुस्तक को शुरू से अन्त तक एक साथ पढ़ने की शीघ्रता न करिये। एक उद्धरण लीजिये और इसके बारे में पूर्ण दिवस या पूर्ण सप्ताह-भर विचार करिये। ऐसा आदेश कुछ ही शब्दों का परन्तु अनन्त अनुबोध की माँग करता है। स्वामी विवेकानन्द की स्पष्टवादिता व्यग्र कर देने वाली है। वे पुराने भर्ती विज्ञापनों के अंकल सैम की तरह अपनी अंगुली सीधे आपकी ओर करते हैं। आप यह दिखावा भी नहीं कर सकते कि वे किसी अन्य से बात कर रहे हैं। उनका आशय आप से है और बेहतरी इसी में है कि आप सुनें।

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि बेहतरी इसी में है कि आप सुने क्योंकि आप नहीं जानते कि आप कौन है। आप कल्पना करते है कि मैं श्री, श्रीमति या कुमारी जोन्स हूँ। यही आपकी मूलभूत विघातक गलती है। स्वयं के बारे में आपका मत भी, चाहे वह श्रेष्ठ हो या ओछा, गलत है; परन्तु ये बात भी गौण महत्त्व की है। आप चाहे सम्राट जोन्स की तरह इठलाते फिरें या गुलाम जोन्स की तरह रेंगते रहे; इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता।

यदि सम्राट जोन्स नाम का कोई जीव है तो उसकी प्रजा रहेगी और दास जोन्स का स्वामी रहेगा। परन्तु आपका कुछ नहीं है। आप ब्रह्म, चिरन्तर ईश्वर हैं। जहाँ भी दृष्टि डालें, आप उस ब्रह्म को छोड़ और कुछ नहीं देखते जो लाखों ऐसे छद्म रूपों को धारण किये हुए है जिनके नाम आपके ही नाम जितने बेतुके है, जैसे कि जोन्स, जुआरेज, जिन्नाह, जुग, जोको, जान्बियर, जगताई, जाब्लोचोव इत्यादि। इन नामों का एक ही अर्थ है मैं वह नहीं हूँ जो आप हैं।

क्योंकि आप अज्ञान में रह रहे हैं। इसलिए आप नहीं जानते कि आप कौन हैं। अनेक अवसरों पर यह अज्ञान सुखद लग सकता है। परन्तु यह तो अनिवार्यताः बन्धन की अवस्था है अतः यह दुख है।

आपके दुःख का प्रादुर्भाव इसी कारण होता है कि जोन रूपी जोन्स को तो मरना ही है-जबकि ब्रह्म शाश्वत है; और वह जोन्स तो जुआरेज, जिन्नाह तथा अन्य सभी से भिन्न है-जबकि उन सभी में विराजमान ब्रह्न एक ही है। जोन्स को पृथकता के भ्रम के कारण ही भिन्न प्रतीत होने वाले अपने इर्द गिर्द के जीवों के प्रति ईर्ष्या, द्वेष तथा भय जैसे भावों का सन्ताप सहना पड़ता है या फिर वह इच्छा या मोहवश उनमें से कुछ के प्रति आकर्षण का अनुभव करता है और उन्हें प्राप्त करने या उनमें पूर्णतया एकाकार न हो सकने के कारण सन्ताप रहता है।

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि यह पार्थक्य भ्रम है जिसे हमने तथा हम सभी में स्थिति शाश्वत ब्रह्य के प्रेम द्वारा दूर करना होगा अतः धर्म का आचरण तो पार्थक्य का अस्वीकार करके इस (पार्थक्य) के उपदेश्यों कूर्ति, धन तथा दूसरों पर प्रभुत्व का त्याग करना है।

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