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वधस्तम्भ

अरुण गद्रे

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 592
आईएसबीएन :81-263-1002-2

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यह उपन्यास वर्तमान समाज का दर्पण है जो हमारे समाज की क्रूर सच्चाई को प्रकट करने में कोई संकोच नही करता...

Vadhastambh - A hindi Book by - Arun Gadre वधस्तम्भ - अरुण गद्रे

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


क्षय होती सामाजिकता, स्वार्थ केंद्रित मानसिकता और हिंसक गतिविधियों के क्रूर पंजों में छटपटाती मानवता को औपन्यासिक कलेवर में दिखाने की सार्थक और महत्त्वपूर्ण कोशिश है-वधस्तम्भ। यह उपन्यास वर्तमान समाज का दर्पण है जो हमारे समाज की क्रूर सच्चाई को प्रकट करने में संकोच नहीं करता। धर्म, अर्थ और काम-सम्बन्धों को इस हद तक विकृत कर दिया है कि जीने की सार्थकता खो गयी सी लगती है। ऐसी स्थिति में आश्चर्य नहीं कि हर संवेदनशील व्यक्ति को लगे कि वह अपना वधस्तम्भ खुद अपने कंधों पर ढोता हुआ चलने को विवश है।

धार्मिक आतंकवाद के जहर ने न केवल हमारी सामाजिक समरसता का विनाश किया है बल्कि उसने नवजागरण काल के समाज-सुधारकों के सामाजिक उत्थान हेतु किये गये अथक प्रयासों पर भी कालिख पोत दी है। उपन्यास की एक प्रमुख पात्र ‘मरियम’ की कोशिश रहती है कि वह ईसा मसीह के बताये रास्ते पर चलते हुए लाख बाधाओं और विपरीतताओं के बावजूद मानव-कल्याण का काम करती रहे। कहना न होगा कि अपने परिवेशगत कीचड़ में एक वही कमल के समान खिली नजर आती है। मरियम जैसे चरित्रों के रहते ही मानव का भविष्य सुरक्षित है, यह उपन्यास इसकी प्रतीति कराता है।
मराठी का ‘वधस्तम्भ’ अपने समय का महत्त्वपूर्ण उपन्यास है, जिसकी मराठी में बहुत चर्चा हुई है। आशा है हिन्दी पाठक भी इसका उतनी ही गहराई से आस्वादन कर सकेंगे।

मनोगत


ईसा मसीह को तारणहार माननेवाली इस उपन्यास की ‘मरियम’ मुझे श्री एस. एम. जोशी जी की मृत्यु के कुछ महीने पूर्व लिखे ‘साधना’ साप्ताहिक के एक लेख के माध्यम से मिली।
एस.एम. अत्यन्त पारदर्शी, ईमानदार तथा निष्ठामान व्यक्ति थे। उन्होंने आजीवन समाजवाद तथा नास्तिक मानवतावाद को अपनी जीवन-प्रणाली का एक अंग बनाया था। कैन्सर की बीमारी के दौरान उनको ईसा में विश्वास करने वाली श्रद्धावान दो सिस्टर्स मिली थीं। उनकी स्नेहशील शुश्रूषा से एस.एम. गद्गद हो गये। उसे लेख के अन्त में उन्होंने लिखा था-‘अगर ये सिस्टर्स आस्तिक हैं तो मैं भी आस्तिक हूँ।’

अलीबाग के मेरे निवासकाल में मुझे मरियम की तरह कट्टर कैथोलिक या प्रोटेस्टेण्ट धर्मसत्ता को नकारने वाले ऐसे लोग मिले जिनके घर में लकड़ी का क्रॉस तक नहीं था। मगर वे ईसा को तारणहार मानते थे तथा अपने आपको ‘हिन्दू ईसा भक्त’ कहते थे। उन्हीं के कारण उस ‘मरियम’ को मैं और गहराई से समझ सका।
बाबरी मस्जिद की घटना से मुझे बड़ा सदमा पहुँचा। सहिष्णु हिन्दू समाज में इस तरह की धार्मिक बीभत्सता कभी भी अनुभव नहीं की गयी थी। सदाचार पन्नों में ही ऐसी खबरें सिमटी रहती थीं। यह वीभत्सता अन्य धर्मावलम्बियों और अन्यों में भी थी। ईसा के नाम पर हाथों में बन्दूक और बम लेकर दूर आयरलैण्ड में सालों से कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्ट लड़ रहे हैं। ईरान, अफगानिस्तान तथा चेतन्या में मुस्लिम आतंकवादी हिंसा को अंजाम दे रहे थे। लेकिन यह सब भारत से दूर की घटनाएँ थीं। बाबरी मस्जिद की घटना ने इस वास्तविकता को उजागर कर दिया।

अब तक जिस मध्यवर्गीय व्यक्ति ने अपने जीवन में कभी चींटी तक नहीं मारी हो, न इसके पूर्व किसी मुसलमान द्वारा वह भी सताया गया हो, ऐसा व्यक्ति भी अब धार्मिक उन्माद में आतंक तथा हिंसा की भावना से पागल होता हुआ नजर आता है। उससे नित्य के मिलने-जुलने वाले पापभीरु लोग भी इस उन्माद से मुक्त नहीं हो पाये। सत्ता पाने के लिए धर्म का इस्तेमाल करने वाले धूर्त नेता किस प्रकार बड़ी सहजता के साथ ऐसे समझदार लोगों को भी हिंसक भीड़ में बदल सकते हैं, यह नग्न सत्य देखकर दिल दहल उठता है।

समाज को इस विध्वंस को तो झेलना पड़ा ही, एक दूसरा आतंक एड्स के नाम से हमारे बीच आ खड़ा हुआ। स्थिति यह है कि सुदूर गाँवों में भी इसका ज़हर फैल रहा है। देहातों में ड्राइवर दामाद के हाथ, बड़ी धूमधाम से जो पिता अपनी बेटी की जिन्दगी सौंप देता है, वही पिता जब अपनी बेटी को पहली प्रसूति के लिए घर ले आता है, तब उससे इस यथार्थ को बताने की बात सोचकर मन काँप उठता है कि भई, तुम्हारी लाड़ली बेटी एच.आई.वी. पॉजिटिव है यानी एड्स से ग्रस्त हो गयी है।

फुले, आगरकर, भाऊराव पाटील, अण्णा साहब, कर्वे जी के इस महाराष्ट्र में जहाँ समाज-सुधार का पौधा बड़े सशक्त रूप में खिला-फूला, वहाँ उसी महाराष्ट्र में बड़ी तेजी के साथ समय का चक्र उल्टी दिशा में घूमने लगा। शाहू महाराज ने समझ-बूझकर ही हर जाति के उनके अपने पुरोहितों को प्रेरित किया था, अब वह बात नहीं रही और एक बार फिर सभी जातियों के लिए ब्राह्मण पण्डित ही अपने से लगन लगे। ‘पंढपुर की यात्रा’ करनेवाला तथा श्रद्धालु मालाधारी बहुत ही सहज भाव से अपनी बहू को, सोनोग्राफी कराके मारने लगा। सोनोग्राफी से उस मासूम गर्भ का लिंग पता चल जाने पर वह बड़ी आसानी से स्त्री-गर्भ का गला घोंटने लगा। चारों ओर पोंगा पण्डित, माताएँ, तन्त्र-मन्त्र का बोलबाला बढ़ने लगा। अब गणेश जी की मूर्ति भी दूध पीने लगी। गाडगे महाराज ने जिस सत्यनारायण को बहिष्कृत किया था, वही सत्यनारायण फिर से आसीन हो गया। शिक्षित, अशिक्षित में कोई फर्क नहीं रहा। वास्तु शास्त्र, ज्योतिष, नारायण, नागबलि का महत्त्व बढ़ा। दहेज-प्रथा बढ़ी। स्त्रियाँ जलायी जाने लगीं। रूप कुँवर सती मामले के आरोपी सबूत के अभाव में छूट गये। सभी राजनीतिक दलों के नेताओं ने उनका समर्थन किया। नष्ट होती जातीयता, साम्प्रदायिकता फिर से जोर पकड़ने लगी। दफना दी जाने वाली साम्प्रदायिकता तथा जातीयता भूत की तरह फिर से कब्र से उठकर खड़ी हो गयी।
किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह हताशा से देखते रहने के अलावा कोई चारा नहीं था।

इसी पृष्ठिभूमि पर धर्मसत्तावाद, मानवतावाद तथा धर्म तत्त्वज्ञान का अध्ययन करके इस उपन्यास को लिखा गया। अब यह उपन्यास ‘बाळ’ या ‘मरियम’ की व्यक्ति-रेखाओं तक ही सीमित नहीं रहा। इस उपन्यास में हमारे समय के विभिन्न सामाजिक यथार्थ तो मिलेंगे ही, उनके जरिये व्यक्ति-रेखाओं को भी प्रभावी बनाने की चेष्टा की गयी है।
धार्मिक उन्माद का विरोध लेखक को दो तरीकों से कर सकता है। प्रथम मार्ग है-ऐसे उन्माद को व्यंग्य चित्रात्मक रूप देकर उसकी भयानकता का मज़ाक उड़ाये। (बर्वे साहेब)

दूसरा मार्ग है-जिस धर्म का धार्मिक उन्माद नजर आ रहा है, उस धर्म के कुछ सत्प्रवृत्त व्यक्ति, जो अपने तर्कों से उन्माद के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, उनको प्राथमिकता देना (पटेल काका और वापट गुरुजी)।
मैंने इन दोनों मार्गों का अवलम्बन किया है।
मैंने संदर्भ सूची भी खास तौर से दी है। अध्ययनशील पाठकों को उससे लाभ होगा। पाठक का यह मूलभूत अधिकार है कि उसे जो धर्मतत्त्वज्ञान अच्छा लगता है, निरीश्वर मानवतावाद के साथ, उसे वह अपना ले, उसको स्वीकार करे, उसी के आधार पर खुद जिए तथा आग्रहपूर्वक उसका विचार करे। लेकिन वह सिर्फ एक प्रश्न खुद से करें, क्या वह उस तत्त्वज्ञान को स्वविवेक से सोच-समझकर स्वीकार कर रहा है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्ता लोभी किसी नेता के हाथों का वह खिलौना बन गया हो ? यह सतर्कता जरूरी है। पाठकों से मैं निवेदन करता हूँ कि इस उपन्यास को लिखने के पीछे मेरी यही प्रेरणा रही है।

इस उपन्यास में मैं कहाँ तक सफल हुआ हूँ, इसका निर्णय तो पाठक ही करेंगे। पुणे की प्रकाशन संस्था देशमुख कम्पनी (विद्यापीठ) से मुझे लेखकीय संस्कार मिले हैं और मैं लेखक बन सका।
स्व. डॉ. सुलोचना बाई देशमुख, जो इस संस्था की संचालिका थीं, आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके मार्गदर्शन का लाभ मुझे आज भी मिल रहा है।
देशमुख कम्पनी के आज के प्रकाशक और मेरे मित्र श्री रवीन्द्र गोडबोले की हर संभव सहायता के कारण ही मैं इस कठिन विषय को प्रस्तुत कर सका। मित्रवर डॉ. राजेन्द्र मलोसेजी के भी अमूल्य सहयोग से मैं लाभान्वित हुआ हूँ।
इन दोनों के प्रति ऋण व्यक्त करते हुए मैं अपनी बात समाप्त करता हूँ।

-अरुण गद्रे

इस उपन्यास के सभी घटनाएँ तथा पात्र काल्पनिक हैं।
वधसत्म्भ
वधसत्म्भ उठाने का बल नहीं है मेरी काया में मैं चलता हूँ उसकी छाया में।

-बाबा आमटे

वधस्तम्भ


जया जाग गयी। हैंग ओवर के कारण सिर बुरी तरह दर्द कर रहा था।
उसकी बगल में एक गौरवर्ण का सुन्दर अपरिचित युवक सोया हुआ था। वह कुछ खिन्नता से उसकी तरफ देखती रही।
कल रात वह उसके साथ सोयी थी। आज की रात कोई अन्य पुरुष उसकी देह का साथी बनेगा। ऐसे ही किसी पुरुष में से किसी ने उसे रुपयों के साथ-साथ एच.आई.वी. वायरस भी उपहार में दे दिया था। जाहिर है, अब उसे मौत के हाथों से कोई बचा नहीं सकता था।
वह हर रोज....हर पल अपनी आनेवाली मृत्यु को देखती तिलमिला रही थी। लेकिन वह इस बात को किसी से भी नहीं कह सकती थी। वह जीना चाहती थी। वह आभिजात्य समाज की एक वेश्या थी। उस धंधे में वह दीपा देशमुख के नाम से विख्यात थी।

उसने गहरी साँस ली। उठकर बेसिन के पास आयी। हाथ-मुँह धोकर उसने अपनी लिपिस्टिक उठायी। पलभर के लिए वह काँप गयी। हाँ....यह भी सच था वह मासूम युवक उसके धंधे के रास्ते से नहीं पहुँचा था। उन दोनों को एक-दूसरे का नाम तक मालूम नहीं था।
जया का चेहरा अजीब हो गया। उसके ओठों पर सैतानी मुस्कान उभरी। अब निश्चित रूप से एक और व्यक्ति इस हादसे को महसूस करने वाला था, तड़पने वाला था। अब वह एक बेचारी औरत नहीं रह गयी थी। खुद को शक्तिशाली समझ रही थी। उस शक्ति से वह रुपयों का घमण्ड रखने वाले पुरुषों को निर्दयता से कुचल देना चाहती थी।
जया ने ओठों को दबाकर अपनी लिपिस्टिक से सामने वाले आईने में लिखा-
‘वेलकम टु एड्स फैमिली’ !

वह क्षण-भर के लिए रुकी। फिर उसने नीचे अपने दस्तखत किये-‘रोहिणी साठे !’
पलंग पर निश्चिन्त सोये हुए युवक की ओर उसने फिर से एक बार देखा। वही विकृत मुस्कान उसके चेहरे पर खिल गयी।
वह चुपचाप दरवाजा खोलकर कमरे से बाहर आ गयी।
बरामदे की पुरानी घड़ी में रात के एक बजने का घण्टा बजा।
बाल को महसूस हुआ कि वह जाग रही है। उसने करवट बदली। पुणे शहर के उस बाड़े में रात का सन्नाटा था। वह उठ गया। पास ही निर्मला आराम से खर्राटे भर रही थी। बच्चा भी गाढ़ी नींद में था। वह धीरे से उठा, उसने बरामदे की तरफ का दरवाजा खोला। हवा को झोंके से उसने ताजगी महसूस की। आँगन में रजनीगन्धा की भीनी सुगन्ध पहुँची। आश्चर्य था कि माई भी अभी तक जाग रही थी।

‘‘आओ बाल...बैठो !’’ माऊ खाट पर हाथ पाँव समेटकर बैठी हुई थी। उसने खिसककर जगह बना दी। बाल खटिया पर बैठ गया। माई की गुदड़ी की गन्ध महसूसते हुए उसने एक लम्बी साँस ली। उसमें माई का हाथ अपने हाथ में ले लिया। उसके काँपते हुए हाथों को स्पर्श उसे अच्छा लगता था। माई आँखों से अन्धी थी। उम्र अस्सी-बयासी की होगी। दुर्बल शरीर के बावजूद आश्चर्य ही था कि आवाज और सुनने की शक्ति एकदम ठीक थी।
दूसरे सब बड़ी सहजता से सो जाते हैं। थके न होने के बावजूद उन्हें नींद आ जाती है। मगर वह आँखें फाड़े रहता है। और हाँ, यह माई भी।
माई ने उसका हाथ दबाया।
‘‘मैं तुम्हारी प्रतीक्षा ही कर रही थी, दो-तीन रातों से।’’ वह बुदबुदायी। पोपले चेहरे से वह हँसी लेकिन उसकी आँखें बेहद निर्जीव।

बाल हँसा। बोला, ‘‘क्या करूँ ? निर्मला सो गयी और मुझे भी नींद लग गयी।
माई हँसी।
‘‘अपने घराने में पत्नी से डरना एक तरह का रिवाज ही समझो। पता है, मेरे ये भी मुझसे डरते थे। डरते नहीं तो क्या करते ! आँ ?....बरली कॉटन के आँकड़ों के चक्कर में वे अपनी तनख्वाह वहीं लगा दिया करते थे। क्या मुँह लेकर मेरे सामने आते ? लेकिन तुम बड़े सज्जन हो। बिल्कुल नाक की सीध में चलने वाले। सुपारी तक का व्यसन नहीं है तुम्हें। फिर अपनी बीबी से तुम्हें डरने की क्या जरूरत है ? हाँ...सीधे मेरे पास ही आ रहे हो न ?....या कोई चुडैल पकड़ रखी है ?’’
माई फिर एक बार पोपले मुँह से हँसी।

बाल ने सिर हिलाया। उसने कहा, ‘‘निर्मला ही नहीं, नाना जी भी गुस्साते हैं मुझे। कहते हैं, यह भी कोई समय है किसी से गप्पे करने का ? माई को कोई काम है नहीं। लेकिन तुम्हें तो दूसरे दिन ऑफिस जाना होता है। काम होता है ?’’




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