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विवेकानन्द साहित्य >> मेरा जीवन तथा ध्येय

मेरा जीवन तथा ध्येय

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :47
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5934
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक मेरा जीवन तथा ध्येय...

Mera Jeevan Tatha Dhyey

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

(प्रथम संस्करण)

‘मेरा जीवन तथा ध्येय’ नामक यह भाषण स्वामी विवेकानन्द ने 27 जनवरी 1900 ई. में पासाडेना कैलिफोर्निया के सेक्सपियर क्लब के समक्ष दिया था। इसमें भारत के दुखी मानवों की वेदना विहृल उस महात्मा के हृदय का बोलता हुआ चित्र है। इसमें प्रस्तुत है उसका उपचार जिसके आधार पर वे मातृभूमि को पुनः अतीत यश पर ले जाना चाहते है। यही एकमात्र ऐसा अवसर था, जब उन्होंने जनता के समक्ष अपने जी की जलन रखी, अपने आन्तरिक संघर्ष और वेदना को उघाड़ा।
हमें आशा है, इस पुस्तक से जनता का अवश्य लाभ होगा।

प्रकाशक

मेरा जीवन तथा ध्येय


देवियों और सज्जनों आज प्रातः काल का विषय वेदान्त दर्शन था। किन्तु रोचक होते हुए भी यह विषय बहुत विशाल और कुछ रूखा सा है।
अभी अभी तुम्हारे अध्यक्ष महोदय एवं अन्य देवियों और सज्जनों ने मुझसे अनुरोध किया है कि मैं अपने कार्य के बारे में उनसे कुछ निवेदन करूँ। यह तुम लोगों से कुछ को भले ही रुचिकर जान पड़े किन्तु मेरे लिए वैसा नहीं हैं। सच पूछो तो मैं स्वयं समझ नहीं पाता कि उसका वर्णन किस प्रकार करूँ क्योंकि अपने जीवन में इस विषय पर बोलने का यह मेरा  पहला ही अवसर है।

अपने स्वल्प ढंग से, जो कुछ भी मैं करता रहा हूँ  उसको समझाने के लिए मैं तुमको कल्पना द्वारा भारत ले चलूंगा। विषय के सभी ब्योरों और सूक्ष्म विवरणों में जाने का समय नहीं है और न एक विदेशी जाति की सभी जटिलताओं को इस अल्प समय में समझ पाना तुम्हारे लिए सम्भव है इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि मैं कम से कम भारत की एक लघु रूपरेखा तुम्हारे सम्मुख प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा।

भारत खँडहरो में ढेर हुई पड़ी एक विशाल इमारत के  सदृश है। पहले देखने पर आशा की कोई किरण नहीं मिलती। वह एक विगत और भग्नावशिष्ट राष्ट्र है। पर थोड़ा और रुकों रुककर देखो, जान पड़ेगा कि इनमें कुछ और भी है। सत्य यह है कि वह तत्त्व, वह आदर्श मनुष्य जिसकी बाहृय वंचना मात्र है, जब तक कुण्ठित अथवा नष्ट-भष्ट नहीं हो जाता, तब तक मनुष्य भी निर्जीव नहीं होता तब तक उसके लिए आशा भी नष्ट नहीं होती। यदि तुम्हारे कोट को कोई बीसों बार चुरा ले, तो क्या उसमें तुम्हारा अस्तित्व भी शेष हो जाएगा ? तुम नवीन कोट बनवा लोगे –कोट तुम्हारा अनिवार्य अंग नहीं, सारांश यह है कि यदि धनी व्यक्ति की चोरी हो जाए तो उसकी जीवनी शक्ति का अन्त नहीं हो जाता, उसे मृत्यु नहीं कहा जा सकता। मनुष्य तो जीता ही रहेगा।

इस सिद्घान्त के आधार पर खडे़ होकर आओ हम अवलोकन करें और देखें-अब भारत शक्ति नहीं, आज वह दासता में बँधी हुई एक जाति है अपने ही प्रशासन में भारतीयों की कोई आवाज नहीं। उनका कोई स्थान नहीं-वे हैं केवल तीस करोड़ गुलाम और कुछ नहीं भारत वासियों की औसत आय डेढ़ रुपया प्रतिमाह है। अधिकाँश जनसमुदाएँ की जीवन चर्या उपवासों की कहानी है, और जरासी आय कम होने पर लाखों कालकवलित हो जाते हैं। छोटे से अकाल का अर्थ है मृत्यु। इसलिए जब मेरी दृष्टि उस ओर जाती है, तो मुझे दिखाई पड़ता है, नाश असाध्य नाश।

पर हमें यह भी विदित है कि हिन्दू जाति ने भी कभी धन को श्रेय नहीं माना। धन उन्हें खूब प्राप्त हुआ दूसरे राष्ट्रों से कहीं अधिक धन उन्हें मिला, पर हिन्दू जाति ने धन को कभी श्रेय नहीं माना युगों तक भारत शक्तिशाली बना रहा, पर तो भी शक्ति उसकी श्रेय नहीं बनी कभी उसने अपनी शक्ति का उपयोग अपने देश के बाहर किसी पर विजय प्राप्त करने में नहीं किया वह अपनी सीमाओं से सन्तुष्ट रहा, इसलिए उसने कभी किसी से युद्ध नहीं किया, उसने कभी सामाज्यवादी गौरव को महत्त्व नहीं दिया। धन और शक्ति इस जाति के आदर्श कभी न बन सके।

तो फिर ? उसका मार्ग उचित-था अथवा अनुचित-यह प्रश्न प्रस्तुत नहीं है वरन बात यह है कि एक ऐसा राष्ट्र है यही मानव वंशों में एक ऐसी जाति है जिसने श्रद्धापूर्वक सदैव यही विश्वास किया है यह जीवन वास्तविक नहीं, सत्य तो ईश्वर है, और इसलिए दुःख और सुख में उसी को पकड़े रहे अपने अधपतन के बीच भी अपने धर्म को प्रथम स्थान दिया है हिन्दू का खाना धार्मिक उसका पीना धार्मिक उसकी नींद धार्मिक, उसकी चालढ़ाल धार्मिक, उसके विवाहादि धार्मिक, यहाँ तक कि उसकी चोरी करने की प्रेरणा भी धार्मिक होती है।

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