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विवेकानन्द साहित्य >> व्यक्तित्व का विकास

व्यक्तित्व का विकास

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :57
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5947
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक व्यक्तित्व का विकास....

Vyakatitva Ka Vikas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।

(गीता 6.5)

आप ही अपना उद्धार करना होगा। सब कोई अपने आपको उबारे। सभी विषयों में स्वाधीनता, यानी मुक्ति की ओर अग्रसर होना ही पुरुषार्थ है। जिससे और लोग दैहिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वाधीनता की ओर अग्रसर हो सकें, उसमें सहायता देना और स्वयं भी उसी तरफ बढ़ना ही परम पुरुषार्थ है।

स्वामी विवेकानन्द

प्रस्तावना

(प्रथम संस्करण)

‘व्यक्तित्व का विकास’ यह नया प्रकाशन पाठकों को समर्पित करते हुए हमें प्रसन्नता हो रही है।
वास्तविक ‘व्यक्तित्व’ किसे कहते हैं, इस विषय में हम लोग काफी अनभिज्ञ हैं। हम यह नहीं जानते कि व्यक्तित्व के विकास का संबंधी हमारी मूल चेतना अथवा हमारे ‘अंह’ से है। अतः देखने में आता है कि व्यक्तित्व के विकास के नाम पर केवल बाहरी दिखावटी रूप पर ही बल दिया जाता है। इस पुस्तक में हम इसी विषय पर स्वामी विवेकानन्दजी के उपयुक्त विचार प्रस्तुत कर रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द साहित्य से उपरोक्त विचारों का संकलन किया गया है।

यह पुस्तक Personality Development नाम से हमारे रामकृष्ण मठ, मैसूर ने प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में अध्यक्ष, रामकृष्ण मठ, मैसूर ने प्रारम्भिक भूमिका लिखी है। यह भूमिका हमने यथावत् अनूदित की है। इस अनुवाद का कार्य रामकृष्ण मिशन, रायपुर के स्वामी विदेहात्मानन्द ने किया है। रामकृष्ण मठ, मैसूर के अध्यक्ष तथा स्वामी विदेहात्मानन्दजी इन दोनों को हम हृदय से धन्यवाद देते हैं। आशा है यह पुस्तक हमारे युवकों के लिए विशेष लाभदायी सिद्ध होगी।

प्रकाशक

भूमिका


व्यक्तित्व क्या है ?

अंग्रेजी के कैम्ब्रिज अन्तर्राष्ट्रीय शब्दकोश के अनुसार ‘आप जिस प्रकार के व्यक्ति हैं, वही आपका व्यक्तित्व है और वह आपके आचरण, संवेदनशीलता तथा विचारों से व्यक्त होता है।’ लांगमैंन के शब्दकोष के अनुसार ‘किसी व्यक्ति का पूरा स्वभाव तथा चरित्र’ ही व्यक्तित्व कहलाता है।

कोई व्यक्ति कैसा आचरण करता है, महसूस करता है और सोचता है; किसी विशेष परिस्थिति में वह कैसा व्यवहार करता है—यह काफी कुछ उसकी मानसिक संरचना पर निर्भर करता है। किसी व्यक्ति की केवल बाह्य आकृति या उसकी बातें या चाल-ढाल उसके व्यक्तित्व के केवल छोर भर हैं। ये उसके सच्चे व्यक्तित्व को प्रकट नहीं करते। व्यक्तित्व का विकास वस्तुतः व्यक्ति के गहन स्तरों से सम्बन्धित है। अतः मन तथा उसकी क्रियाविधि के बारे में स्पष्ट समझ से ही हमारे व्यक्तित्व का अध्ययन प्रारम्भ होना चाहिए।

अपने मन को समझने की आवश्यकता

हम बहुत-सी चीजें करने के इच्छुक हैं—अच्छी आदतें डालने और बुरी आदतें छोड़ने, एकाग्रता के साथ पढ़ने और मन लगाकर कुछ करने का हम संकल्प लेते हैं। परन्तु बहुधा हमारा मन विद्रोह कर बैठता है और हमें इन संकल्पों को रूपायित करने के हमारे प्रयास से पीछे हटने को मजबूर कर देता है। हमारे सामने किताब खुली पड़ी है और हमारी आँखें खुली हैं; परन्तु मन कुछ पुरानी बातों को सोचता हुआ या भविष्य के लिए ख्याली पुलाव पकाता हुआ इधर-उधर घूमने लगता है। जब हम थोड़ी देर के लिए प्रार्थना, जप या ध्यान करने बैठते हैं, तब भी ऐसा ही होता है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, ‘‘स्वतन्त्र ! हम एक क्षण तो स्वयं अपने मन पर शासन नहीं कर सकते ! यही नहीं, किसी विषय पर उसे स्थिर नहीं कर सकते और अन्य, सबसे हटाकर किसी एक बिन्दु पर उसे केन्द्रित नहीं कर सकते ! फिर भी हम अपने को स्वतन्त्र कहते हैं ! जरा इस पर गौर तो करो !’’1

भगवद्गीता का कहना है कि असंयमित मन एक शत्रु के समान और संयमित मन हमारे मित्र के समान आचरण करता है।2 अतः हमें अपने मन की प्रक्रिया के विषय में एक स्पष्ट धारणा रखने की आवश्यकता है। क्या हम इसे अपने आज्ञा-पालन में, अपने साथ सहयोग करने में प्रशिक्षित कर सकते हैं ? किस प्रकार हमारे व्यक्तित्व के विकास में योगदान कर सकता है ?

मन की चार तरह की क्रियाएँ

मानव मन की चार मूलभूत क्रियाएँ हैं। इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। मान लो मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिलता हूँ, जिनसे मैं लगभग दस वर्ष पूर्व मिल चुका हूँ। मैं याद करने का प्रयास करता हूँ कि मैं उससे कब मिला हूँ और वह कौन है ! यह देखने के लिए मेरे मन के अन्दर मानो जाँच-पड़ताल शुरू हो जाती है कि वहाँ उस व्यक्ति से जुड़ी हुई कोई घटना तो अंकित नहीं है। सहसा मैं उस व्यक्ति को अमुक के रूप में पहचान लेता हूँ और कहता हूँ ‘‘यह वही व्यक्ति है, जिससे मैं अमुक स्थान पर मिला था’’ आदि आदि। अब मुझे उस व्यक्ति के बारे में पक्का ज्ञान हो चुका है।
उपरोक्त उदाहरण का विश्लेषण करके हम मन की चार क्रियाओं का विभाजन कर सकते हैं—
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1. विवेकानन्द साहित्य, खण्ड 4, पृ. 113
2. गीता, 6/5-6

स्मृति—

स्मृतियों का सञ्चय तथा हमारे पूर्व-अनुभूतियों के संस्कार हमारे मन के समक्ष विभिन्न सम्भावनाएँ प्रस्तुत करते हैं। यह सञ्चय चित्त कहलाता है। इसी में हमारे भले-बुरे सभी प्रकार के विचारों तथा क्रियाओं का सञ्चयन होता है। इन संस्कारों का कुल योग ही चरित्र का निर्धारण करता है। यह चित्त ही अवचेतन मन भी कहलाता है।

सोचने की क्रिया तथा कल्पना-शक्ति—

कुछ निश्चित न कर पाकर मन अपने सामने उपस्थित अनेक विकल्पों का परीक्षण करता है। यह कई चीजों पर विचार करता है। मन की यह क्रिया मनस् कहलाती है। कल्पना तथा धारणाओं का निर्माण भी मानस् की ही क्रिया है।


निश्चय करना तथा निर्णय लेना—

बुद्धि ही वह शक्ति है, जो निर्णय लेने में उत्तरदायी है। इसमें सभी चीजों के भले तथा बुरे पक्षों पर विचार करके वांछनीय क्या है, यह जानने की क्षमता होती है। यह मनुष्य में निहित विवेक की शक्ति भी है; जो उसे भला क्या है तथा बुरा क्या है, करणीय क्या है तथा अकरणीय क्या है और नैतिक रूप से उचित क्या है तथा अनुचित क्या है, इसका विचार करने की क्षमता प्रदान करती है। यह इच्छाशक्ति का भी स्थान है, जो व्यक्तित्व-विकास के लिए परम आवश्यक है, अतः मन का यह पक्ष हमारे लिए सर्वाधिक महत्त्व का है।

‘अहं’ का बोध—

सभी शारीरिक तथा मानसिक क्रियाओं को स्वयं में आरोपित करके—मैं खाता हूँ, मैं देखता हूँ, मैं बोलता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सोचता हूँ, मैं द्विधाग्रस्त होता हूँ, आदि—इसी को अहंकार या ‘मैं—बोध कहते हैं। जब तक यह ‘मैं’ स्वयं को असंयमितदेह-मन से जोड़ लेता है, तब तक मानव-जीवन इस संसार की घटनाओं तथा परिस्थितियों से परिचालित होता है। (इसके फलस्वरूप’) हम प्रिय घटनाओं से सुखी होते हैं और अप्रिय घटनाओं से दुखी होते हैं। मन जितना ही शुद्ध तथा संयमित होता जाता है, उतना ही हमें इस ‘मैं’—बोध के मूल स्रोत का पता चलता जाता है। और उसी के अनुसार मनुष्य अपने दैनन्दिन जीवन में सन्तुलित तथा साम्यावस्था को प्राप्त होता जाता है। ऐसा व्यक्ति फिर घटनाओं तथा परिस्थितियों द्वारा विचलित नहीं होता।
मनस्, बुद्धि चित्त और अहंकार—मन के ये चार बिल्कुल अलग अलग विभाग नहीं हैं। एक ही मन को उसकी क्रियाओं के अनुसार ये भिन्न भिन्न नाम दिये गये हैं।

मन के विषय में और भी

कठोपनिषद्3 एक रथ के दृष्टान्त द्वारा मानव-व्यक्तित्व का वर्णन करता है। हमारा ‘मैं’ रथ का स्वामी है, शरीर ही रथ का स्वामी है, शरीर ही रथ है और बुद्धि सारथी है। मनस् लगाम है, जिससे कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा तथा घ्राणरूपी ज्ञानेन्द्रियाँ जुड़ी हुई हैं। ये ज्ञानेन्द्रियाँ व्यक्ति को संसार का ज्ञान देनेवाली मानो पाँच खिड़कियाँ हैं। भोग्य विषयों रूपी सड़क पर यह रथ चलता है। जो व्यक्ति इस देह-मन के साथ तादात्म्य का बोध करता है, उसे विषयों या कर्मफलों का भोक्ता कहा जाता है।

यदि घोड़े भलीभाँति प्रशिक्षित नहीं हैं और यदि सारथी सोया हुआ है, तो रथ अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता। बल्कि यह दुर्घटनाग्रस्त होकर अपने मालिक की मृत्यु का कारण भी बन सकता है। इसी प्रकार यदि इन्द्रियाँ नियंत्रण में नहीं लायी गयीं और यदि विवेक की शक्ति सोयी रह गयी, तो व्यक्ति मानव-जीवन के लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता।
दूसरी ओर, यदि घोड़े प्रशिक्षित हैं और सारथी सजग है, तो रथ अपने लक्ष्य तक पहुँच जाता है। उसी प्रकार यदि बुद्धि जाग्रत है और यदि मन तथा इन्द्रियाँ अनुशासित एवं संयमित हैं, तो व्यक्ति जीवन के लक्ष्य तक पहुँच सकता है। वह लक्ष्य क्या है ? हम शीघ्र ही उस विषय पर आयेंगे।

व्यक्तित्व-विकास से जुड़ी मन की एक अन्य महत्त्वपूर्ण क्रिया है हमारी भावनाएँ। ये भावनाएँ जितनी ही संयमित होंगी, व्यक्ति का व्यक्तित्व भी उतना ही स्वस्थ होगा। इन भावनाओं या मनोवेगों को मोटे तौर पर दो भागों में बाँटा जा सकता है—राग और द्वेष। प्रेम, प्रशंसा, महत्त्वाकांक्षा, सहानुभूति, सुख, सम्मान, गर्व तथा इसी प्रकार के अन्य भावों को राग कहा जाता है


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