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विवेकानन्द साहित्य >> नेताजी सुभाष के प्रेरणापुरुष स्वामी विवेकानन्द

नेताजी सुभाष के प्रेरणापुरुष स्वामी विवेकानन्द

स्वामी बोधसारानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :76
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5948
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक नेताजी सुभाष के प्रेरणापुरुष स्वामी विवेकानन्द

Netaji Subhash Ke Pernapurush Swami Vivekanand

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय

भारतीय स्वाधीनता के विराट् यज्ञ में जिन महान् विभूतियों ने अपना मन-तन-धन न्यौछावर कर दिया, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ऐसे अग्रगण्य लोगों में अन्यतम थे। आज भी देश की उन्नति तथा अग्रगति के लिए ऐसे असंख्य युवकों की आवश्यकता है, जो पूर्ण नि:स्वार्थ भाव से राष्ट्र-हित में अपना सर्वस्व बलिदान करने को प्रस्तुत हों।

नेताजी को ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ अपना सम्पूर्ण जीवन होम कर देने की प्रेरणा स्वामी विवेकानन्द से ही मिली थी। यद्यपि वे स्वामीजी से साक्षात् मिल नहीं सके थे, तथापि भावरूप में मानो वे उन्हीं के द्वारा ‘अग्निमंत्र’ में दीक्षित हुए थे।

नेताजी का जीवन और व्यक्तित्व आज भी देश के कोटि-कोटि नवयुवकों के समक्ष एक आलोक-स्तम्भ की भाँति दण्डायमान होकर अजस्र प्रेरणा का स्रोत्र बना हुआ है। लेखक ने अपने अनेक वर्षों के शोध पर आधारित इस प्रबन्ध में दिखाया है कि किस प्रकार उनके सशक्त व्यक्तित्व के गठन में स्वामी विवेकानन्द के विचारों का एक अति महत्त्वपूर्ण योगदान था। इस प्रबंध के अनुशीलन से इस बात का भी स्पष्ट बोध होगा कि नेताजी के साहस तथा वीरतापूर्ण जीवन की पृष्ठभूमि में आदि से अन्त तक ‘विवेकानन्द-प्रेरणा’ निरन्तर पार्श्व-संगीत के समान बजती रही।

यह प्रबन्ध हमारे एक अन्य महत्त्वपूर्ण प्रकाशन ‘स्वामी विवेकानन्द और उनका अवदान’ के एक अध्याय के रूप में पहले ही प्रकाशित हो चुका है। अब इसे एक पृथक् पुस्तिका के रूप में इसलिए प्रकाशित किया जा रहा है, ताकि यह सर्वसुलभ हो सके और देश का युवावर्ग इसे पढ़कर इसमें निहित आदर्शों को अपने जीवन में रूपायित करने में प्रयासी हो।
पुस्तक में नेताजी के चित्र छापने की अनुमति प्रदान करने के लिए हम नेताजी रिसर्च ब्यूरो के आभारी हैं।

प्रकाशक

नेताजी सुभाष के प्रेरणापुरुष
स्वामी विवेकानन्द


स्वामीजी की भावमूर्ति

पाश्चात्य देशों में भारतीय संस्कृति की धवल पताका फहराने और सनातन वैदिक धर्म का ओजस्वी सन्देश देने के बाद स्वामी विवेकानन्द स्वदेश लौटे। कई वर्षों के अन्तराल के उपरान्त, 15 जनवरी 1897 ई. को उन्होंने भारतभूमि पर पुन: पदार्पण किया और सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करते हुए राष्ट्र का पुनर्गठन करने हेतु जनसाधारण और विशेषकर नवयुवकों का आह्नान किया। चेन्नई में अपने ‘भारत का भविष्य’ विषयक व्याख्यान में उन्होंने कहा, ‘आगामी पचास वर्षों के लिए यह जननी जन्मभूमि ही मानो तुम्हारी अराध्य देवी बन जाए। तब तक के लिए हमारे मस्तिष्क से व्यर्थ के देवी-देवताओं के हट जाने में भी कोई हानि नहीं है। अपना सारा ध्यान इसी एक ईश्वर पर लगाओ, हमारा देश कहीं हमारा जाग्रत देवता है।’
सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके पैर हैं और सर्वत्र उसके कान हैं। समझ लो कि दूसरे देवी-देवता सो रहे हैं।’1

बड़े ही विस्मय की बात है कि जिन दिनों स्वामीजी के मन में इस तरह के विचार उठ रहे थे, उन्हीं दिनों 23 जनवरी 1897 ई. के दिन एक ऐसे शिशु का जन्म हुआ, जिसके जीवन में स्वामीजी के उपरोक्त शब्द अक्षरश: चरितार्थ हुए हैं। आगे चलकर यही वाणी तरुण सुभाष के जीवन का मानो मूलमंत्र बन गयी थी और उन्होंने ईश्वरोपलब्धि के लिए संन्यास ग्रहण करने की अपनी प्रबल आकांक्षा को त्यागकर प्राय: पचास वर्ष की आयु तक देश की स्वाधीनता के लिए संघर्ष किया, भारतमाता तथा उसकी सन्तानों की सेवा में लगे रहे और अपने आजीवन श्रम के फलप्रसू होने के चिह्न दृष्टिगोचर होते ही अन्तर्धान हो गए। कुछ लोगों का कहना है कि एक विमान-दुर्घटना में उनका देहावसान हो गया और कुछ अन्य का अनुमान है कि उन्होंने संन्यास लेकर अपनी चिराकांक्षित मोक्ष की साधना में मनोनियोग किया।

साहित्य में परिचय

स्वामी विवेकानन्द की अग्निमयी वाणी के प्रबल प्रभाव के विषय में नोबल पुरस्कार विजेता सुप्रसिद्ध
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1. विवकानन्द साहित्य, खण्ड 5, पृ. 113

फ्रांसीसी साहित्यकार रोमाँ रोलाँ कहते हैं- ‘उनके शब्द महान संगीत हैं, बीथोवन शैली की कड़ियाँ हैं, हैण्डेल के समवेत गान के छन्दप्रवाह की भाँति उद्दीपक लय हैं। शरीर में विद्युत-स्पर्श के से आघात की सिहरन का अनुभव किए बिना मैं उनके उन वचनों का स्पर्श नहीं कर सकता, जो तीस वर्ष की दूरी पर पुस्तकों के पृष्ठों पर बिखरे पड़े हैं, और जब वे ज्वलन्त शब्दों के रूप में उस वीर के मुख से नि:स्रित हुए होंगे, तब तो न जाने कैसे-कैसे आघात और आवेग उत्पन्न हुए होंगे !’

स्वामी विवेकानन्द की इस वाणी के साथ अपने प्रथम परिचय की बात सुभाष बाबू ने अपनी आत्मकथा में सविस्तार लिखी है। 1912 ई. में जब वे तरुणाई के झंझावतों से होकर गुजर रहे थे, तभी उनके जीवन में यह महत्त्वपूर्ण घटना हुई और इसके फलस्वरूप उनके चिन्तन को एक नयी दिशा मिली। वे लिखते है- ‘एक दिन अकस्मात् ही मैंने अपने को ऐसी स्थिति में पाया, जिससे संकट की उन घड़ियों में मुझे सर्वाधिक सहायता मिली। मेरे एक संबंधी (सुहृद् चन्द्र मित्र), जो हमारे शहर में नये-नये आए थे, हमारे बगल के ही मकान में निवास करते थे। एक दिन मुझे (किसी कार्यवश) उनके घर जाना पड़ा। उनकी पुस्तकों में मेरी निगाह स्वामी विवेकानन्द के वाङ्मय पर पड़ी।

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