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व्यावहारिक जीवन में वेदान्त

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5970
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक व्यावहारिक जीवन में वेदान्त......

Vyavaharik Jeevan Mein Vedant

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वक्तव्य

‘व्यावहारिक जीवन में वेदान्त’ का यह तेरहवाँ संस्करण है। प्रस्तुत पुस्तक स्वामी विवेकान्द जी के ‘Practical Vedanta’  का अनुवाद है। इसमें स्वामी जी द्वारा लन्दन में व्यवहार्य वेदान्त पर दिये चार भाषणों का संकलन हैं। साधारणतः लोगों में यह धारणा प्रचलित है कि वेदान्द केवल सिद्धान्त का ही समुच्चय है, वह केवल बुद्धिवादियों के मस्तिष्क की चहारदीवारी तक ही सीमित है, दैनिक कर्मजीवन के पहलुओं के साथ उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है अतः व्यावहारिक जीवन में इसका महत्त्व नहीं है।

 परन्तु इन भाषणों द्वारा स्वामीजी ने स्पष्ट दर्शा दिया है कि किस प्रकार वेदान्त अत्यन्त व्यावहारिक है तथा वह मनुष्य को किस प्रकार अपने सर्वांगीण जीवनगठन में सहायता प्रदान करता है। इन भाषणों में स्वामीजी ने वेदान्त के प्रमुख सिद्धान्तों की आलोचना करते हुए उनको दैनिक जीवन में व्यवहृत करने का मार्ग स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट कर दिया जाता है; उन्होंने दिखला दिया है कि किस प्रकार राजा से लेकर रंक तक-सभी समान रूप से जीवन के सभी क्षेत्रों में इससे लाभान्वित हो सकते हैं और इस तरह उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि वेदान्त की उपादेयता सार्वभौम है।

हम आशा करते हैं जनता इस पुस्तक के प्रकाशन से अत्यधिक लाभान्वित होगी।

व्यावहारिक जीवन में वेदान्त  
प्रथम भाग

(10 नवम्बर 1896 ई. को लन्दन में दिया हुआ व्याख्यान)
बहुत से लोगो ने मुझसे व्यावहारिक जीवन में वेदान्तदर्शन की उपयोगिता पर कुछ बोलने के लिए कहा है। मैं तुम लोगों से पहले ही कह चुका हूँ, सिद्धान्त बिल्कुल ठीक होने पर भी उसे कार्यरूप में परिणित करना एक समस्या हो जाती है। यदि उसे कर्मंरूप में परिणित नहीं किया जा सकता, तो बौद्धिक व्यायाम के अतिरिक्त उसका और कोई मूल्य नहीं। अतएव वेदान्त यदि धर्म के स्थान पर आरुढ होना चाहता है तो उसे सम्पूर्ण रूप से व्यावहारिक होना चाहिए। हमें अपने जीवन की सभी अवस्थाओं में उसे कार्यरूप में परिणित कर सकना चाहिए। केवल यही नहीं अपितु आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है, उसे भी मिट जाना चाहिए; क्योंकि वेदान्त एक अखण्ड वस्तु के  सम्बन्ध में उपदेश देता है-वेदान्त कहता है कि एक ही प्राण सर्वत्र विद्यमान है।

धर्म के आदर्शो को सम्पूर्ण जीवन को आविष्ट करना, हमारे प्रत्येक विचार के भीतर प्रवेश करना और कर्म को अधिकाधिक प्रभावित करना चाहिए। मैं व्यावहारिक पक्ष पर क्रमशः प्रकाश डालूँगा। किन्तु ये व्याख्यान भावी व्याख्यानों की उपक्रमणिका के रूप में हैं, अतः पहले हमें वेदान्तसिद्धान्त का परिचय प्राप्त करना होगा और यह समझना होगा कि ये सिद्धान्त किस प्रकार पर्वतों की गुफाओं और घने जंगलों में से निकलकर कोलाहलपूर्ण नगरों की व्यस्तताओं में कार्यान्वित हुए है। इन सिद्धान्तों में एक विशेषता यह है कि इनमें  से अधिकांश निर्जन अरण्यवास के फलस्वरूप प्राप्त नहीं हुए जिन व्यक्तियों को हम सब से अधिक कर्मण्य मानते हैं, वे ही राजसिंहासन पर बैठनेवाले राज-राजर्षि इनके प्रणेता हैं।

श्वेतकेतु आरुणि ऋषि के पुत्र थे। ये ऋषि सम्भवतः वानप्रस्थी थे। श्वेतकेतु का लालन-पालन वन में ही हुआ; किन्तु वे पांचालों के नगर में गये और प्रवाहण जैवलि की राजसभा में उपस्थित हुए। राजा ने उनसे पूछा, ‘‘मरते समय प्राणी इस लोक में किस प्रकार मगन करता है, क्या यह तुम जानते हो।’’-‘‘नहीं।’’ ‘‘किस प्रकार यहाँ उसका पुनर्जन्म होता है, जानते हो’’- ‘‘नहीं।’’ ‘‘पितृयान’ और ‘देवयान’ के विषय में कुछ जानते हो ?’’-आदि आदि। इस प्रकार राजा ने और भी अनेक प्रश्न किये। श्वेतकेतु किसी भी प्रकार प्रश्न का उत्तर दे सका। तब राजा ने कहा, ‘‘तुम कुछ नहीं जानते।’’ बालक ने लौटकर पिता से सब हाल कह सुनाया। पिता ने कहा, ‘‘मैं भी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं जानता।

अगर जानता तो क्या तुम्हें न सिखाता ?’’ तब राजा के पास गया और उनसे इस गुप्त विषय की शिक्षा देने क लिए प्रार्थना की। राजा ने कहा, ‘‘यह विद्या-यह ब्रह्मविद्या–केवल राजाओं को ही ज्ञात थी, पुरोहितों को इसका कभी ज्ञान न था।’’ जो हो, इसके बारे में उसने जो कुछ जानना चाहा, वे उसकी शिक्षा देने लगे। इस प्रकार हम अनेक उपनिषदों में यही पाते हैं कि वेदान्तदर्शन केवल वन में ध्यान द्वारा ही नहीं जाना गया, किन्तु उसके सर्वोत्कृष्ट भिन्न-भिन्न अंश सांसारिक कर्मों में विशेष व्यस्त मनीषी लोगों द्वारा ही चिन्तित तथा प्रकाशित किये गये। लाखों मनुष्यों के निरंकुश शासक इन राजाओं की अपेक्षा अधिक कार्यव्यस्त और कौन हो सकता है ? किन्तु साथ ही इन शासकों में कोई गम्भीर चिन्तक भी थे।

इन सब बातों से ही स्पष्ट होता है कि यह दर्शन व्यावहारिक है। परवर्ती काल की भगवद्गीता को तो शायद तुम लोगों में से बहुतों ने पढ़ा होगा। यह  वेदान्तदर्शन का एक सर्वोत्तम भाष्यस्वरूप है। कितने आश्चर्य की बात है कि इस उपदेश का केन्द्र है संग्रामस्थल ! यहीं श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस दर्शन का उपदेश दिया है। और गीता के प्रत्येक पृष्ठ पर जो मत उज्ज्वल रूप से प्रकाशित है, वह है तीव्र कर्मण्यता किन्तु उसी के बीच अनन्त शान्तभाव। इसी तत्व को कर्मरहस्य कहा गया है और इस अवस्था को पाना ही वेदान्त का लक्ष्य है।

हम साधारणतया अकर्म का अर्थ करते है निश्चेष्टता, पर यह हमारा आदर्श नहीं हो सकता। यदि यही होता तो हमारे चारों ओर की दीवालें भी परमज्ञानी होतीं, वे भी तो निश्चेष्ट है। मिट्टी के ढेले और पेड़ों के तने भी जगत् के महातपस्वी गिने जाते, क्यों कि वे भी तो निश्चेष्ट हैं और यह भी नहीं कि किसी भी तरह कामनायुक्त होकर किये जानेवाले कार्य कर्म कहलाये जा सकते हैं। वेदान्त का आदर्श जो यथार्थ कर्म है, यह अनन्त शान्ति के साथ संयुक्त है। किसी भी प्रकार की परिस्थितियों में व स्थिरता नष्ट नहीं होती- चित्त का वह साम्यभाव कभी भंग नहीं होता। हम लोग भी बहुत कुछ देखने सुनने के बाद समझ पाते हैं कि किस प्रकार की मनोवृत्ति ही सब से अधिक उपयोगी होती है।

लोगों ने मुझसे यह प्रश्न अनेक बार किया है कि हम इस कार्य के लिए जो एक प्रकार का आवेग अनुभव करते हैं, यदि न रहे तो हम कार्य कैसे करेंगे ? मैं भी बहुत दिन पहले यही सोचता था, किन्तु जितनी मेरी आयु बढ़ रही है, जितना अनुभव बढ़ता जा रहा है, उतना ही मैं देखता हूँ कि यह सत्य नहीं है कार्य के भीतर आवेग जितना कम रहता है, उतना ही वह उत्कृष्ट होता है। हम लोग जितने अधिक शान्त होते हैं, उतना ही हम लोगों का आत्मकल्याण होता है और हम काम भी अधिक अच्छी तरह कर पाते हैं। जब लोग भावनाओं के अधीन हो जाते हैं, तब अपनी शक्ति का अपव्यय करते हैं, अपने स्नायुसमूह को विकृत डालते है, मन को चंचल बना डालते हैं, किन्तु काम बहुत कम कर पाते है। जिस शक्ति का कार्य रूप में परिणित होना उचित था।

वह वृथा भावुकता मात्र में पर्यवसित होकर नष्ट हो जाती है। जब मन अत्यन्त शान्त और एकाग्र रहता है केवल तभी हम लोगों की समस्त शक्ति सत्कार्य में व्यय होती है। यदि तुम जगत् के महान कार्यकुशल व्यक्तियों की जीवनी कभी पढो, तो देखोगे कि अद्भुद शान्त प्रकृति के लोग थे। कोई भी वस्तु चित्त की स्थिरता भंग नहीं कर पाती थी। इसलिए जो इसलिए जो व्यक्ति शीघ्र ही क्रोध, घृणा या किसी अन्य आवेग से अभिभूत हो जाता है, वह कोई काम नहीं कर पाता, अपने को चूर चूर कर डालता है और कुछ भी व्यावहारिक नहीं कर पाता। केवल शान्त, क्षमाशील स्थिरचित व्यक्ति ही सब से अधिक काम कर पाता है।

वेदान्त आदर्श का उपदेश देता है, और आदर्श वास्तविक की अपेक्षा कहीं अधिक उच्च होता है। हम लोगों के जीवन में दो प्रवृतियाँ देखी जाती हैं। एक है अपने आदर्श का सामंजस्य जीवन से करना और दूसरी को आदर्श के अनुरूपर उच्च बनाया। इन दोनों का भेद भली भाँति समझ लेना चाहिए।–क्योंकि पहली प्रवृति हमारे जीवन का एक प्रमुख प्रलोभन है। मैं सोचता हूं कि मैं कोई विशेष प्रकार का कार्य कर सकता हूँ-शायद उसका अधिकांश ही बुरा है और उसके पीछे शायद क्रोध धृणा अथवा स्वार्थ का आवेग ही विद्यमान है।

अब मानों किसी व्यक्ति ने मुझे किसी विशेष आदर्श के सम्बन्ध में उपदेश दिया निश्चय ही उसका पहला उद्देश्य यही होगा कि स्वार्थ तथा आत्मसुख का त्याग करों। मैं सोचता हूं कि यह करना तो असम्भव है। कि किन्तु यदि किसी ने एक ऐसे आदर्श के सम्बन्ध में उपदेश दिया जो मेरे स्वार्थ और निम्न भावों का समर्थन करे, तो मैं उसी समय कह उठता हूं, ‘यही है मेरा आदर्श’ और मैं उसी आदर्श का अनुसरण करने के लिए तत्पर हो जाता हूँ। इसी प्रकार ‘शास्त्रीय’ बात को लेकर लोग आपस में झगड़ते रहते हैं कि जो मैं समझता हूँ, वहीं शास्त्रीय है, तथा जो तुम समझते हो वह अशास्त्रीय है।  

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