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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


कथाकार और उपन्यासकार के रूप में शिवानी की लेखनी ने स्तरीयता और लोकप्रियता की खाई को पाटते हुए एक नई जमीन बनाई थी जहाँ हर वर्ग और हर रुचि के पाठक सहज भाव से विचरण कर सकते थे। उन्होंने मानवीय संवेदनाओं और सम्बन्धगत भावनाओं की इतने बारीक और महीन ढंग से पुनर्रचना की कि वे अपने समय में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखकों में एक होकर रही।

कहानी, उपन्यास के अलावा शिवानी ने संस्मरण और रेखाचित्र आदि विधाओं में भी बराबर लेखन किया। अपने सम्पर्क में आए व्यक्तियों को उन्होंने करीब से देखा, कभी लेखन की निगाह से तो कभी मनुष्य की निगाह से, और इस तरह उनके भरे-पूरे चित्रों को शब्दों में उकेरा और कलाकृति बना दिया।

‘जालक’ शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह है जिसमें उन्होंने अपने परिचय के दायरे में आए विभिन्न लोगों और घटनाओं के बहाने से अपनी संवेदना और अनुभवों को स्वर दिया है।
आशा है, शिवानी के कथा-साहित्य के पाठकों को उनकी ये रचनाएं भी पसंद आएँगी।


एक


कभी-कभी अचानक ही विधाता हमें ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व से मिला देता है, जिसे देख स्वयं अपने जीवन की रिक्तता बहुत छोटी लगने लगती है। हमें तब लगता है कि भले ही उस अन्तर्यामी ने हमें जीवन में कभी अकस्मात् अकारण ही दंडित कर दिया हो, हमारे किसी अंग को हमसे विच्छिन्न कर हमें उससे वंचित तो नहीं किया। फिर भी हममें से कौन ऐसा मानव है, जो एकान्त में, ध्यान-स्तुति-जपार्चन के बीच अपनी विपत्ति के कठिन क्षणों में विधाता को दोषी नहीं ठहराता। मैंने कुछ समय पूर्व एक ऐसी अभिशप्त काया देखी थी, जिसे विधाता ने कठोरतम दंड दिया था, किन्तु उसे वह नतमस्तक आनन्दी मुद्रा में झेल रही थी, विधाता को कोसकर नहीं।

उसकी कोठी का अहाता एकदम हमारे बँगले के अहाते से जुड़ा था। अपनी शानदार कोठी की बरसाती में उसे पहली बार कार से उतरते देखा, तो आश्चर्य से देखती ही रह गई। कार का द्वार खुला, एक प्रौढ़ा ने उतरकर पिछली सीट से एक व्हील चेयर निकाल सामने रख दी और भीतर चली गई। दूसरे ही क्षण, धीरे-धीरे बिना किसी सहारे के, कार से एक युवती ने अपने निर्जीव निचले धड़ को बड़ी दक्षता से नीचे उतारा, फिर बैसाखियों से ही व्हील चेयर तक पहुँच उसमें बैठ गई और बड़ी तटस्थता से उसे स्वयं चलाती कोठी के भीतर चली गई। मैं फिर नित्य नियत समय पर उसका यह विचित्र आवागमन देखती और आश्चर्यचकित रह जाती-ठीक जैसे कोई मशीन बटन खटखटाती अपना काम किए चली जा रही हो।

धीरे-धीरे मेरा उससे परिचय हुआ। कहानी सुनी तो दंग रह गई। नियति के प्रत्येक कठोर आघात को अमानवीय धैर्य एवं साहस से झेलती वह बित्तेभर की लड़की मुझे किसी देवांगना से कम नहीं लगी। मैं चाहती हूँ कि मेरी इन पंक्तियों को उदास आँखोंवाला वह गोरा, उजला लखनऊ का मेधावी युवक भी पढ़े, जिसे मैंने कुछ समय पूर्व अपनी बहन के यहाँ देखा था। वह आई.ए.एस. की परीक्षा देने इलाहाबाद गया। लौटते समय किसी स्टेशन पर चाय लेने उतरा तो गाड़ी चल पड़ी। चलती ट्रेन में हाथ के कुल्हड़ सहित चढ़ने के प्रयास में गिरा और पहिये के नीचे हाथ पड़ गया। प्राण तो बच गए, पर दायाँ हाथ चला गया। उसी विच्छिन्न भुजा के साथ-साथ धीरे-धीरे वह मानसिक सन्तुलन भी खो बैठा। पहले दुख भुलाने के लिए नशे की गोलियाँ खाने का बदअभ्यास पाला और अब नूरमंजिल की शरण गही है। केवल एक हाथ को खोकर ही उसने हथियार डाल दिए। इधर चन्द्रा, जिसका निचला धड़ है निष्प्राण मांसपिंडमात्र, सदा उत्फुल्ल है, चेहरे पर विषाद की एक रेखा भी नहीं, बुद्धि-दीप्त आँखों में अदम्य उत्साह, प्रतिपल-प्रतिक्षण भरपूर जीने की उत्कट जिजीविषा, और फिर कैसी-कैसी महत्त्वाकांक्षाएँ!

"मैडम, आप लखनऊ जाते ही क्या मुझे ड्रग रिसर्च इंस्टिट्यूट से पूछकर यह बताने की कृपा करेंगी कि क्या वहाँ आने पर मेरे विषय में माइक्रोबायोलॉजी से सम्बन्धित कुछ सामग्री मिल सकेगी?"

"मैडम आप कह रही थीं कि आपके दामाद हवाई के ईस्ट वेस्ट सेन्टर में हैं। क्या आप उन्हें मेरा बायोडाटा भेजकर पूछ सकेंगी कि मुझे वहाँ की कोई फैलोशिप मिल सकती है?"

यहाँ कभी सामान्य-सी हड्डी टूटने पर या पैर में मोच आ जाने पर ही प्राण ऐसे कंठागत हो जाते हैं, जैसे विपत्ति का आकाश ही सिर पर टूट पड़ा है। और इधर, यह लड़की है कि पूरा निचला धड़ ही सुन्न है, फिर भी बोटी-बोटी फड़क रही है। ऊँची नौकरी की एक ही नीरस करवट में उसकी प्रतिभा निरन्तर डूबती जा रही है। सम्प्रति वह आई.आई.टी. मद्रास में काम कर रही है। जन्म के 18वें महीने ही जिसकी गरदन के नीचे पूरा शरीर पोलियो ने निर्जीव कर दिया हो, उसने किस अद्भुत साहस से नियति को अँगूठा दिखा, अपनी थीसिस पर डॉक्टरेट ली होगी!

"मैडम, मैं चाहती हूँ कि कोई मुझे सामान्य-सा सहारा भी न दे। आप तो देखती हैं, मेरी माँ को मेरी कार चलानी पड़ती है। मैंने इसी से एक ऐसी कार का नक्शा बनाकर दिया है, जिससे मैं अपने पैरों के निर्जीव अस्तित्व को भी सजीव बना दूंगी। यह देखिए, मैंने अपनी 'लैब' में भी अपना संचालन कैसा सुगम बना लिया है। मैं अपना सारा काम अब स्वयं निबटा लेती हूँ।"

उसने मुझे तस्वीरें दिखाईं। समस्त सामग्री उसके हाथों की पहुंच तक ऐसे धरी थी कि निचला धड़ ऊपर उठाए बिना ही वह मनचाही सामग्री मेज पर उतार सकती थी। किन्तु उसकी आज की इस पटुता के पीछे है एक सुदीर्घ कठिन अभ्यास की यातनाप्रद भूमिका। स्वयं डॉ. चन्द्रा के प्रोफेसर के शब्दों में, "हमने आज तक दो व्यक्तियों के सम्मिलित रूप में नोबल पुरस्कार पाने के ही विषय में सुना था, किन्तु आज हम शायद पहली बार इस पी-एच.डी. के विषय में भी कह सकते हैं।" देखा जाए तो यह डॉक्टरेट भी संयुक्त रूप से मिलनी चाहिए। डॉ. चन्द्रा और उनकी अद्भुत साहसी जननी श्रीमती टी. सुब्रह्मण्यम् को। पचीस वर्ष तक इस सहिष्णु महिला ने पुत्री के साथ-साथ कैसी कठिन साधना की और इस साधना का सुखद अन्त हुआ 1976 में, जब चन्द्रा को डॉक्टरेट मिली माइक्रोबायोलॉजी में। विषय था, ऑक्जलेट एंड फॉरमेट डीकम्पोजिंग बैक्टीरिया। अपंग स्त्री-पुरुषों में, इस विषय में डॉक्टरेट पानेवाली डॉ. चन्द्रा प्रथम भारतीय हैं।

“जब इसे सामान्य ज्वर के चौथे दिन पक्षाघात हुआ तो गरदन के नीचे इसका सर्वांग अचल हो गया। भयभीत होकर हमने इसे बड़े से बड़े डॉक्टर को दिखाया। सबने एक स्वर में कहा, 'आप व्यर्थ पैसा बरबाद मत करिए। आपकी पुत्री जीवन-भर केवल गरदन ही हिला पाएगी। संसार की कोई भी शक्ति इसे रोगमुक्त नहीं कर सकती।" सहसा श्रीमती सुब्रह्मण्यम् का कंठ अवरुद्ध हो गया, फिर वह धीमे स्वर में मुझे बताने लगीं, “मेरे गर्भ में तब इसका भाई आ गया था। इसके भयानक अभिशाप के बावजूद मैंने कभी विधाता से यह नहीं कहा कि प्रभो, इसे उठा लो, इसके इस जीवन से तो मौत भली है! मैं निरन्तर इसके जीवन की भीख ही माँगती रही। केवल सिर हिलाकर यह इधर-उधर देख-भर सकती थी। न हाथों में गति थी, न पैरों में, फिर भी मैंने आशा नहीं छोड़ी। एक आर्थोपेडिक सर्जन की बड़ी ख्याति सुनी थी, वहीं ले गई।

“एक वर्ष तक कष्टसाध्य उपचार चला और एक दिन स्वयं ही इसके ऊपरी धड़ में गति आ गई, हाथ हिलने लगे, नन्हीं उँगलियाँ मुझे बुलाने लगीं। निर्जीव धड़ को मैंने सहारा देकर बैठना सिखा दिया। पाँच वर्ष की हुई, तो मैं ही इसका स्कूल बनी।"

मेधावी पुत्री की विलक्षण बुद्धि ने फिर उन्हें चमत्कृत कर दिया, सरस्वती स्वयं ही जैसे आकर जिह्वान पर बैठ गई थी। बंगलौर के प्रसिद्ध माउंट कारमेल में उसे प्रवेश दिलाने में उन्हें कान्वेंट द्वार पर लगभग धरना ही देना पड़ा।

"नहीं मिसेज सुब्रह्मण्यम्," मदर ने कहा, "हमें आपसे पूरी सहानुभूति है, पर आप ही सोचिए, आपकी पुत्री की व्हील चेयर लेकर कौन पूरे क्लास रूम में घुमाता फिरेगा?"

“आप चिन्ता न करें मदर, मैं हमेशा उसके साथ रहूँगी।" और फिर पूरी कक्षाओं में अपंग पुत्री की कुर्सी को परिक्रमा में स्वयं घुमाती वे पीरियडदर-पीरियड उसके पीछे खड़ी रहतीं। प्रत्येक परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर चन्द्रा ने गोल्ड मेडल जीते। बी.एस-सी. किया, प्राणिशास्त्र में एम.एस-सी. में प्रथम स्थान प्राप्त किया और बंगलौर के प्रख्यात इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस में अपने लिए स्पेशल सीट अर्जित की। केवल अपनी निष्ठा, धैर्य एवं साहस से पाँच वर्ष तक प्रोफेसर सेठना के नीचे शोधकार्य किया। इसी बीच माता-पिता ने पेन्सिलवानिया से व्हील चेयर मँगवा दी, जिसे डॉ. चन्द्रा स्वयं चलाती हुई पूरी लैब में बड़ी सुगमता से घूम सकती थी। कैलियर क्रचेज, ऐलबो क्रचेज, लेदर जैकेट के कठिन जिरहबख्तर में कसी उस हँसमुख लड़की को देख मुझे युद्धक्षेत्र में डटे राणा साँगा का ही स्मरण हो आता था। क्षत-विक्षत शरीर में घावों के असंख्य चिह्न, किन्तु मंडित भव्य मुद्रा।

"मैडम, आप तो लिखती हैं, मेरी ये कविताएँ देखिए। कुछ दम है क्या इनमें?"

मैंने जब वे कविताएँ देखीं, तो आँखें भर आईं। जो उदासी उसके चेहरे पर कभी नहीं आने पाई, वह अनजाने ही उसकी कविता में छलक आई थी। फिर उसने अपनी कढ़ाई-बुनाई के सुन्दर नमूने दिखाए। लड़की के दोनों हाथ जैसे दोनों पैरों का काम भी करते हों, निरन्तर मशीनी खटखट में चलते रहते हैं। जर्मन भाषा में माता-पुत्री दोनों ने मैक्समूलर भवन से विशेष योग्यता सहित परीक्षा उत्तीर्ण की। गर्ल-गाइड में राष्ट्रपति का गोल्ड कौर्ड पानेवाली वह प्रथम अपंग बालिका थी। यही नहीं, भारतीय एवं पाश्चात्य संगीत दोनों में उसकी समान रुचि है। अपने अलबम को अपनी निर्जीव टाँगों पर रख वह मुझे अपने चित्र दिखाने लगी। पुरस्कार ग्रहण करती डॉ. चन्द्रा, प्रधानमन्त्री के साथ मुस्कराती खड़ी डॉ. चन्द्रा, राष्ट्रपति को सलामी देती बालिका चन्द्रा, और व्हील चेयर में लेदर जैकेट में विभिन्न बैसाखियों का सहारा लेकर अपनी डॉक्टरेट ग्रहण करती डॉ. चन्द्रा।

"मेरी बड़ी इच्छा थी, मैं डॉक्टर बनूँ। अपंग डॉ. मेरी वर्गीज के सफल जीवन की कहानी पढ़ चुकी थी। परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने पर भी मुझे मेडिकल में प्रवेश नहीं मिला। कहा गया, मेरा निचला धड़ निर्जीव है, मैं एक सफल शल्य-चिकित्सक नहीं बन पाऊँगी।" किन्तु डॉ. चन्द्रा के प्रोफेसर के शब्दों में, "मुझे यह कहने में रंचमात्र भी हिचकिचाहट नहीं होती कि डॉ. चन्द्रा ने विज्ञान की प्रगति में महत् योगदान दिया है। चिकित्सा ने जो खोया है, वह विज्ञान ने पाया।"

चन्द्रा के अलबम के अन्तिम पृष्ठ में है उसकी जननी का बड़ा-सा चित्र, जिसमें वे जे.सी. बंगलौर द्वारा प्रदत्त एक विशिष्ट पुरस्कार ग्रहण कर रही हैं 'वीर जननी' (Valiant Mother) का पुरस्कार। बहुत बड़ी-बड़ी उदास आँखें, जिनमें स्वयं माँ की व्यथा भी है और पुत्री की भी, अपने सारे सुख त्यागकर नित्य छाया बनी पुत्री की पहिया-लगी कुर्सी के पीछे चक्र-सी घूमती जननी की व्यथा, नाक के दोनों ओर हीरे की दो जगमगाती लौंगें, पृथुल अधरों पर विजय का उल्लास, जूड़े में पुष्पवेणी! मेरे कानों में उस अद्भुत साहसी जननी शारदा सुब्रह्मण्यम् के शब्द अभी भी जैसे गूंज रहे हैं, 'ईश्वर सब द्वार एकसाथ बन्द नहीं करता। यदि एक द्वार बन्द करता भी है, तो दूसरा द्वार खोल देता है।'

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