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सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :81-8361-171-8

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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......

सुनहु तात यह अकथ कहानी

सुनहु तात यह अकथ कहानी में शिवानी ने अपनी ही जिन्दगी में झाँक कर देखा हैं। ये संस्मरण हैं जो आत्मकथा के रूप में लिखे गए हैं। इसमें उनके घर-परिवार के लोग हैं। कई पीढ़ियों से सीधा साक्षात्कार हो जाता है। इसमें और भी बहुत से दूसरे लोग हैं, उनसे जुड़ी रोचक और मार्मिक कहानियाँ हैं। कुछ घटनाएं और प्रसंग तो ऐसे हैं कि पढ़कर दिल दहल जाता है।

इसी नाम में समाज ,रीति-रिवाज, संस्कृति, धार्मिक भावनाओं और विश्वासों-अंधविश्वासों को कहानी के साथ गूंथ कर अधिक सशक्त बना दिया है। इसके साथ ही इसमें शिवानी के पति और बड़ी बहिन तथा साहित्यकार अमृतराय के मर्मस्पर्शी संस्मरणों के साथ दो अन्य प्रेरच रचनाएं भी दी गई है। इस बार इस पुस्तक में शिवानी के परिजनों तथा आत्मीय जनों के फोटो भी दिए गए हैं।


एक


तुलसीदासजी ने जिस सन्दर्भ में भी यह पंक्ति लिखी हो, जो लिखने जा रही हूँ, उस सन्दर्भ में मुझे यह एकदम सटीक लगती है-

सुनहु तात यह अकथ कहानी
समुझत बनत, न जाय बख़ानी।

अभी कुछ ही दिन पूर्व मेरी एक प्रशंसिका पाठिका ने मुझसे अनुरोध किया था कि मैं अपनी आत्मकथा लिखू, 'समय आ गया है शिवानीजी, कि आप अपने सुदीर्घ जीवन के अनुभवों का निचोड़ हमें भी दें, जिससे हम कुछ सीख सकें।

पर यह क्या इतना सहज है? जीवन के कटु अनुभवों को निचोड़ने लगी, तो न जाने कितने दबे नासूर फिर से रिसने लगेंगे; और फिर एक बात और भी है। मेरी यह दृढ़ धारणा है कि कोई भी व्यक्ति भले ही वह अपने अन्तर्मन के लौह कपाट बड़े औदार्य से खोल अपनी आत्मकथा लिखने में पूरी ईमानदारी उड़ेल दे, एक-न-एक ऐसा कक्ष अपने लिए बचा ही लेता है, जिसकी चिलमन उठा तांक-झाँक करने की धृष्टता कोई न कर सके। सड़ी रूढ़ियों और विषाक्त परम्पराओं से जूझते-जूझते जर्जर जीवन आसन्न मृत्यु के भय से इतना क्लांत हो जाता है कि अतीत को एक बार फिर खींच दूसरों को दिखाने की न इच्छा ही शेष रह जाती है, न अवकाश।

जिनके दौर्बल्य को बहुत निकट से देखा है, जिनके सहसा बदल गए व्यवहार ने जीवन के अन्तिम पड़ाव में कई बार आहत किया है, उनके विषय में कुछ लिखने का अर्थ ही है रिसते घावों को कुरेद स्वयं दुखी होना। इतना अवश्य है कि नारी बनाकर विधाता ने नारी के अनेक रूपों को देखने-परखने का प्रचुर अवसर दिया है; उसकी महानता, उसकी क्षुद्रता देख कभी-कभी दंग रह गई हूँ, क्या नारी भी ऐसी नीचता पर उतर सकती है? नारी-क्षुद्रता का अहंकार जितना ही प्रचंड होता है, उतना ही प्रचंड होता है उसका दिया आघात।

मैंने इस सुदीर्घ जीवन में क्षणिक जय-पराजय का स्वाद भी चखा है, निर्लज्ज मिथ्याचारिता का रहस्य भी कुछ-कुछ समझने लगी हूँ। इसी क्षुद्रता, मिथ्याचारिता के प्रतिरोध का उद्दाम संकल्प मुझे एक नित्य नवीन प्राणदायिनी शक्ति भी प्रदान कर जाता है। न अब मुझे किसी आत्मघाती मूढ़ता का भय रह गया है, न सत्य को उजागर करने में संकोच।

वर्षों पूर्व पन्ना के राजज्योतिषी ने मेरा हाथ देखकर कहा था, "तुम एक दिन राजमाता बनोगी, यदि नहीं बनी तो मैं समझूगा, सब शास्त्र मिथ्या हैं। तुम्हारे वामहस्त की रेखा दुर्लभ है, किन्तु अन्त तक, तुम्हारे भाग्य को अदृष्ट का कंटक-व्याल डँसता रहेगा। जिस पर भी अपना सर्वस्व लुटाने को तत्पर रहोगी, उसी की प्रवंचना तुम्हें एक न एक दिन अवश कर देगी।" तब उस भविष्यवाणी को हँसकर ही उड़ा दिया था। उस अदृष्ट व्याल की फूत्कार को कभी भुला नहीं पाई। न जाने कब डँस ले?

डँसा उसने कई बार, न जाने कितनी बार आहत हुई, किन्तु अभी तक वह निष्प्राण नहीं कर पाई। प्रत्येक बार इसी क़लम का जहर-मोहरा उसके घातक विष को चूसकर व्यर्थ कर गया। वामहस्त की दुर्लभ रेखा भी व्यर्थ नहीं गई। विधाता ने राजमाता भी बना दिया, किन्तु वर्षों पूर्व पितामह की दी गई सीख को गाँठ में बाँधकर चली हूँ, इसी से शायद प्रभुता का मद मदालस नहीं बना पाया-

कबिरा इतना मोहि दे, जामें कुटुम्ब समाय
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।

अहिंसा और मैत्री के सिद्धान्त आज हम भले ही भूल गए हों, भले ही किसी विराट परिकल्पना के पीछे भागना हमारे लिए स्वप्नवत बन गया हो, हमारे संस्कार अभी पूर्णतया विलुप्त नहीं हुए हैं। प्रत्येक गृहस्थी को सुखी बनाने के लिए गृह के एक-न-एक सदस्य को त्याग करना ही पड़ता है, ऐसा त्याग जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी किसी विराट वट-वृक्ष की उदार छाया की भाँति, नवीन पीढ़ी का पथ शीतल करता रहे, उसे अपनी शीतल बयार का प्रकाश अपनी शाखा-प्रशाखाओं से झर-झरकर झरता प्रकाश देता रहे।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारतीय वर्तमान समाज अपना स्वाधीन चिन्तन बहुत पहले खो चुका है। आज की हमारी नवीन संस्कृति हो, या नवीन चिन्तन, उसका लगभग सबकुछ पश्चिम से उधार ली गई सम्पत्ति है। वह कर्ज चुकाने में एक दिन हम स्वयं कंगाल हो जाएँगे, यह हम अभी नहीं समझ पा रहे हैं, जब समझेंगे तो बहुत देर हो चुकी होगी। जिस हृदयहीन निर्ममता से हमने अपनी भाषा को भुला दिया है, उसी निर्ममता से हम एक दिन अपनी जन्मदायिनी जननी को भी भुला बैठें, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। रिश्ते महज एक औपचारिकता की डोर से बँधे रह जाएँगे। उस विकट भविष्य की कल्पना मात्र से रोम-रोम सिहर उठता है, जब न जनक-जननी की मृत्यु का अशौच हमें त्रस्त कर पाएगा, न पुत्रों को सिर मुंडाने या चिता की परिक्रमा करने का ही अवकाश मिलेगा। वह दिन भी दूर नहीं, जब 'बाई डैड', 'बाई मौम' कहकर ही सन्तान, महाप्रस्थान के उन अभागे यात्रियों को विदा देगी।
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