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सागर के इस पार से उस पार से

कृष्ण बिहारी

प्रकाशक : ट्रांसग्लोबल पब्लिशिंग कम्पनी प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6029
आईएसबीएन :878-81-904835-9

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प्रस्तुत है आत्मकथा ....

Sagar Ke Es Par Se Us Par Se

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संघर्ष कमोबेश हर किसी की जिन्दगी में होता है परन्तु कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें कदम-कदम पर संघर्ष करना पड़ता है। कृष्ण बिहारी ऐसे ही कर्मठ लोगों में से एक हैं।
इस किताब में वे अपनी रामकहानी पढ़ाई के तुरन्त बाद अपनी बेरोजगारी और रोजगार के बीच झूलते हुए दिनों से करते हैं। हिन्दी में प्रथम श्रेणी एम. ए. पास नौजवान के साथ दुनिया किस अजीबोगरीब ढंग से पेश आती है और रोजी-रोटी की तलाश उसे कैसे-कैसे नजारे दिखाती है इसकी खासी तफसील इस आत्मकथा में है। हालाँकि यह न तो किसी खास बिन्दु से शुरू होती है न ही किसी पड़ाव पर जाकर रुकती है, बस एक भरी-पूरी नदी की तरह यहाँ से वहाँ अपनी दिशा तलाशकर बहती नजर आती है।

कृष्ण बिहारी मूलतः कथाकार हैं और उनकी ज्यादातर कहानियाँ आस-पास के लोगों की कहानियाँ हैं। उनकी कहानियों के सैकड़ों देशी-विदेशी चरित्रों में से कुछ को उन्होंने अपनी आत्मकथा के इस हिस्से में पेश किया है जिनके बिना उनकी खुद की कहानी नहीं कही जा सकती। इनमें से अधिकतर साहित्य और शिक्षा जगत के लोग हैं। कानपुर, सिक्किम, बम्बई और अबूधाबी में गुजारे अपने दिनों और अनुभवों को बहुत बेलौस होकर लिखा गया है।

इस पूरी कहानी में से बम्बई के राजेश्वर गंगावार, उनका परिवार और अबूधाबी में शील साहब ऐसे अविस्मरणीय चरित्र हैं जो पाठक को अभिभूत करते हैं। सिक्किम में अद्यापन, कानपुर के दैनिक ‘आज’ में फीचर लेखन, बेरोजगारी के दिनों में परिवार से सम्बन्ध इन प्रसंगों पर विस्तार से बचकर एक खाड़ी देश में नौकरी मिलने, बम्बई होकर वहाँ पहुँचने और वहाँ के परिवेश को आत्मसात करते हुए सफलतापूर्वक उस चित्रित करने का एक दिलचस्प और बेहद पठनीय विवरण इसमें है जो कहीं-कहीं बड़ी निस्संगता से सच्चाई को पर्त-दर-पर्त  खोलता चलता है। अपने कम मीठे और ज्यादातर खट्टे अनुभवों को बड़ी संजीदगी से सुनाते हुए लेखक आत्मकरुणा और हीनभावना से मुक्त रहा है। यह कम बड़ी बात नहीं है। हिन्दी में अब तो अनेक चर्चित आत्म  कथाएँ हैं परन्तु बयान की दोटूक शैली के चलते यह पाठकों को उसी तरह आकर्षित करेगी जैसे कृष्ण बिहारी की कहानियाँ करती रही हैं।

राजेन्द्र राव

वीरेन डंगवाल, सुशील सिद्धार्थ, पूर्णिमा वर्मन
और छोटे भाई
सुभाष सिंगोठिया के अलावा
उन दूरियों के नाम जिन्हें आज अपने सबसे करीब पाता हूँ...

कृष्ण बिहारी

भूमिका


‘सागर के इस पार से, उस पार से’ की रूपरेखा कानपुर स्थित अमर उजाला अखबार में संपादक और कवि वीरेन डंगवाल के ऑफिस में उपजी थी। मैं उनसे जब पहली बार मिला तो यह जानकर अच्छा लगा कि वे मुझे नाम से जानते हैं और उन्होंने मेरी कहानियाँ पढ़ी हैं।
पहली मुलाकात में ही उन्होंने आग्रह के साथ कहा कि आप हमारे लिए भी लिखिए। मैंने उन्हें बताया कि अखबारों में मैं केवल ‘दैनिक जागरण’ के लिए ही लिखता हूँ। हालाँकि कभी ‘आज’ में लगभग दो साल तक नियमित काम भी किया। यह सही है कि मैंने ऐसी कोई कसम नहीं खाई थी कि मैं केवल जागरण मे ही लिखूँगा। एक अच्छे सम्पादक की विशेषता ही यही है कि वह लेखक से रचना प्राप्त कर ले। इस मामले में मुझे डॉ. जयनारायण, प्रभाकर श्रोत्रिय जी और दैनिक जागरण के श्री राजेन्द्र दुबे बहुत सजग और सफल संपादक नज़र आते हैं। श्री दुबे तो इतना दबाव बढ़ा देता हैं कि रचना दिए बिना राहत नहीं मिलती। उन्होंने मुझसे सचमुच एक ऐसा काम करवा लिया कि अगर उनका दबाव न होता तो शायद मैं उसे न करता। यह उनका आदेशमूलक सस्नेह आग्रह ही है कि मैं उन्हें एक के बाद एक ऐसी कहानियाँ दे रहा हूँ जिसमें केन्द्रीय पात्र यूँ तो बच्चा है मगर समाज और वातावरण भी उसी प्रमुखता से उभरा है।

श्री डंगवाल को फिलहाल तो मैंने उस दौरान लिखे कुछ व्यंग्य लेख दिए और फिर अगर कई मुलाकातों में यह यह हुआ कि खाड़ी में रहनेवाले एशियाई मूल के लोगों के बारे में धारावाहिक स्तम्भ की शुरुआत करूँ। बात तो हो गई थी और मेरे पास लिखने के लिए भरपूर सामग्री भी थी मगर मेरी दिक्कत यह थी कि छुट्टियों से वापस आने के बाद डंगवालजी से संपर्क मुझे ही करना होता था। वह भी फोन पर। कभी बात हो पाती और कभी नहीं। उन्होंने मेरे कई लेख छापे मगर न तो उनकी सूचना दी और न ही अपने कार्यालय में किसी को यह ज़िम्मेदारी कि प्रकाशित रचनाओं की कटिंग मुझे भेजे। इस मामले में बहुत से संपादक संवेदना शून्य हैं। मुझे ‘अमर उजाला’ में प्रकाशित अपने लेखों के बारे में हमेशा दूसरों से पता चला। ‘अमर उजाला’ में प्रकाशित किसी भी रचना को मैंने नहीं देखा है। एक कविता कवि मान बहादुर सिंह पर भी प्रकाशित हुई थी। उसकी पाण्डुलिपि भी मेरे पास नहीं है। जब अगली बार अपनी छु्टियों में कानपुर गया तो पता चला कि वीरेन डंगवाल बरेली चले गए।

वे बरेली से ही आए भी थे। मुहावरा भी तो हैं उल्टे बाँस बरेली को। ‘अमर उजाला’ के दफ्तर में भी कई बार गया लेकिन मुझे अपनी प्रकाशित रचनाओं की कटिंग नहीं मिली। पैसा या पारिश्रमिक तो ख़ैर मिलना ही नहीं था। मुझे ‘पेमेण्ट’ करने से पहले सम्पादक यह सोच लेते हैं कि जो लेखक खाड़ी के देश में रह रहा है उसे क्यों पैसा देना। पत्रिका या अखबार तक वे इसलिए नहीं भेजते कि डाक खर्च बहुत आता है। यह हाल तथा कथित बड़ी पत्रिकाओं का है। हिन्दी की दशा दयनीय नहीं है। उसे दयनीय बनाने वाले बड़े सम्पादक हैं। पूँजीपतियों को खुश करने की उनकी कोशिश में हिन्दी का लेखक भले ही सपरिवार मिट जाए इसकी चिन्ता उन्हें नहीं है जो बड़े प्रतिष्ठानों में काम करते हुए स्वयं तो मोटी-मोटी सभी सुविधाओं का लाभ उठाते हैं मगर जिनके लिखने के बल पर अडीशन निकलता है वे अगर मर भी जाएँ तो क्या फर्क पड़ता है ? दूसरे मरने वाले फिर मिल जाएँगे। इस मामले में लघु पत्रिकाएँ निकालने वाले फिर भी अपनी सीमाओं में ईमानदारी बरत रहे हैं। लेकिन ईमानदारी बरतने वालों की संख्या बहुत कम है। बहरहाल, जो भी हुआ वह इस कृति का निमित्त तो हुआ ही। वीरेन डंगवाल को मैं पढ़ता हूँ। वे भी मुझे पढ़ते होंगे। क्योंकि छपता तो मैं भी हूँ। उनका आभारी हूँ कि यह कृति आकार ले सकी।

इस प्रोजेक्ट पर काम करने के बारे में जब मैंने गम्भीरता से सोचा तो मुझे लगा कि एक ऐसी दुनिया जिससे मैं पूरी तरह अपरिचित था और मेरी तरह ही बहुत से लोग अनजान हैं, साथ ही जिस दुनिया के बारे में बड़ी अजीब धारणाएँ फैली हैं, क्यों न उसे ही अपने लिखने की विषय वस्तु बनाया जाए अबूधाबी में पहुँचने पर पहले दिन ही एक मलयालम फिल्म ‘अकरे’ देखने का मौका मिला था। इससे पूर्व केवल एक मलयालम फिल्म सन् 76-77 में देखी थी जो ‘मन का आँगन’ शीर्षक से हिन्दी में डब की गई थी। वह फिल्म एक नई थीम ‘पुरुष नपुंसकता’ को लेकर बनी थी मगर प्रचारित और विज्ञापित कुछ इस प्रकार हुई थी कि ‘सेक्सी’ फिल्म का दर्ज़ा पा गई थी। युवक-युवतियों में फिल्म को लेकर बहुत क्रेज था। मैंने भी वह फिल्म देखी थी, फिल्म पसन्द आई थी। एक ऐसे विषय पर फिल्म थी जिसकी चर्चा कोने-अतरे में भी काम करने में लोग हिचकते थे। आज भी हिचकते हैं।
 
‘मन का आँगन’ के बाद तो कुछ समय के लिए मलयालम फिल्मों की हिन्दी डबिंग का सिलसिला चल निकला और उत्तर भारत में यह मान लिया गया कि दक्षिण भारत की औरते केवल ब्लाउज और पेटीकोट में ही रहती हैं और साउथ की फिल्में ब्लू फिल्मों से ज्यादा सेक्सी हैं। लेकिन यह सब कुछ बहुत दिन नहीं चला। खैर बात ‘अकरे’ की हो रही है तो इस शीर्षक का अर्थ है कि उस पार की घास ज़्यादा हरी दिखती है। जबर दस्त फिल्म थी। इस फिल्म ने चमक-दमक वाले संसार से मेरा मोह भंग पहले दिन ही कर दिया, मगर ! भाग्य प्रारब्ध कुछ तो होता होगा कि उन्नीस वर्ष यहाँ निकल गए। जब इस विषय पर लिखना शुरू किया तो सबसे उपयुक्त शीर्षक ‘अकरे’ ही लगा। इसके कुछ भाग लखनऊ से प्रकाशित होने वाले ‘जनसत्ता’ ने छापे और कुछ वहीं से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘शब्दसत्ता’ ने। यह सब सुशील सिद्धार्थ ने किया। इसकी कुछ किश्तें प्रकाशित हो चुकी थीं। जब मैं अपनी अगली छुट्टियों  में लखनऊ गया तो ‘जनसत्ता’ कार्यालय में प्रतिभा कटियार ने कहा कि आपका स्तम्भ ‘अकरे’ बहुत प्यारा है।

जनसत्ता में इसके कुछ ही अंश प्रकाशित हो सकते थे कि सुशील सिद्धार्थ वहाँ से निकल गए और इसका प्रकाशन स्थगित हो गय। प्रकाशन क्या, इसे लिखना ही स्थगित हो गया। धारावाहिकों के साथ ऐसा प्रायः होता है कि अगर लिखवाने वाला अपनी सीट से गया तो उसके प्रोजेक्ट भी गायब हो जाते हैं। दूसरों को उसमें कुछ गंध आती है। जब ‘अकरे’ का मामला स्थगित हो गया तो वह सीरीज ही टूट गई और उस पर सोचना भी। कई साल बाद अचानक इण्टरनेट पर प्रकाशित बहुचर्चित पत्रिका की सम्पादिका श्रीमती पूर्णिमा वर्मन से टेलीफोन पर परिचय हुआ और उन्होंने जिए हुए को एक नए एंगल से देखने का सुझाव दिया। उसी का फल है ‘सागर के पार से, उस पार से’।

यह मेरी आत्मकथा नहीं है। मुझ जैसों की कथा है। वैसे भी आत्मकथा में ‘आत्म’ जैसा कुछ नहीं होता। उसमें भी दूसरे ही शामिल होते हैं। और अगर इसे आत्मकथा ही माना जाए तो यह बताना मेरा दायित्व हो जाता है कि यह उसका दूसरा भाग है। यह भी क्या बात हुई कि अगर आत्मकथा लिखी जाए तो उसकी शुरुआत मध्य से हो। मैं शब्दों का सहारा लेकर अपने लिए दया का कोई माहौल बनाना नहीं चाहता। बीस साल से गल्फ़ में हूँ। एयर कंडीशंड कमरे में रहता हूँ। नई निसान कार का ओनर हूँ। अच्छे से अच्छे काग़ज़ पर बहुत मँहगे पेन से लिखता हूँ। कुरियर सर्विस से रचना भेजता हूँ। हमेशा अपनी ओत से फोने करके दोस्तो-दुश्मनों की खैरियत लेता रहता हूँ। जहाँ तक सम्भव हुआ है, सबकी मदद की है। मुझे जानने वाला एक व्यक्ति भी ऊपर मेरे बयानों से असहमति नहीं जता सकता यह संस्कार मैंने अपने निर्माताओं से पाया है। कृतज्ञताज्ञापन बहुत छोटा शब्द है लेकिन ऐसा न करना बहुत बड़ी कृतघ्नता होगी। मुझे मेरे परिवेश ने बनाया है। सबसे पहले मैं अपने बाबूजी को याद करूँगा।

 वे मेरे सच्चे दुश्मन थे। पिता से बड़ा कोई ईमानदार दुश्मन नहीं होता। माँ का कर्ज तो कभी चुकता ही नहीं। हकीकत है कि दुनिया में मुझे माँ जैसी कोई दूसरी औरत कहीं दिखी ही नहीं। मेरे शिक्षक जो गोविन्द से भी बड़े हैं उन्होंने हमेशा मेरा मार्गदर्शन किया है। मेरे दोनों छोटे भाई और छोटी बहनें। इनके बारे में क्या कहूँ ? कि घर में सबसे बड़ा होकर भी मैं इन सबसे डरता हूं। डरता हूँ, क्योंकि मैं ऐबी हूँ और मेरे भाई-बहन उनसभी ऐबों से दूर जिनके मैं करीब हूँ। असल में मैं इन सबसे नहीं डरता। इनकी मोहब्बतों से डरता हूँ। जब मैं अवकाश में भारत पहुँचता हूँ तो मिलते ही ममता कहती है कि भइया रात को पीकर मत आना। मत आना का मतलब न आने से नहीं है। उसे डर लगता है कि मैं कहीं पीकर ड्रॉइव करते हुए दुर्घटना का शिकार न हो जाऊँ। भाई कहता है कि कहीं किसी स्टेज से कुछ बोलोगे नहीं। उसे मालूम है कि मेरे विचार बहुत उल्टे-सीधे हैं। सबसे छोटी अनीता कुछ नहीं कहती लेकिन उसके कुछ न करने में ही बहुत कुछ कहा हुआ रहता है। उसे मैं समझता हूँ। इतना प्यार ठीक नहीं। मगर इतना प्यार मुझे मिला है।

बहुत प्यार पाया है। बहुत प्यार खोया है। शहर का कर्ज़ तो मैं उसी तरह नहीं उतार सकता जैसे माँ का, जैसे गाँव का। मेरा शहर मेरी बुनियाद के न दिखने वाले महत्त्वपूर्ण पायों में से एक है। इसी शहर में मैंने प्रेम को महसूसा। इसी प्रेम ने मेरी जिन्दगी बदल दी। सहज प्रेम ने मेरा सर्वस्व बदल दिया। मेरी निर्मित में सर्वश्री राव और श्यामनंदन वर्मा का स्थान महत्वपूर्ण है। निस्संदेह श्रीमती वर्मा यानी कि भाभीजी का खामोश योगदान भूल पाना असम्भव है। कैसे भूल सकता हूँ कि डॉ. रमेश शर्मा और डॉ. राम जन्म राम खर्मा के सुझाव जो लेखन  के रास्तों का पता दे सके। और अन्त में अपनी पत्नी और बेटों के उस धैर्य के प्रति हृदय से विनम्र हूँ जिनके अनिर्वचनीय सहयोग ने मुझे रचनात्मक होने दिया।

गाँव, घर और अपनों को भुला पाना बहुत कठिन ही नहीं असम्भव होता है। सब याद आते हैं। असल में रचनाकारों के जीने के यही सहारे हैं। इनके बिना जीवन की भारी साँसें ले पाना आसान नहीं है। मैं बचकर लेखन नहीं करना चाहता। लिखकर जीना चाहता हूँ। मरना तो एक दिन सबको है। लेकिन समय से पहले की मौत मुझे स्वीकार नहीं।
मैं आपकी प्रतिक्रिया का आभारी रहूँगा। शायद वही मेरा उत्साह बढ़ाए कि मैं इसका अगला भाग शीघ्र ही आपको सौंप सकूँ।

कृष्ण बिहारी

1
हाथों की अबूझ लकीरें


सिक्किम की नौकरी मैंने एक झटके में छोड़ दी थी। बिना आगा-पीछा सोचे। इससे पहले भी मैंने ऐसा कई बार किया था। कई नौकरियाँ तो मेरे हिसाबसे बहुत छोटी भी थीं। पर, दो-तीन नौकरियाँ तो सचमुच न केवल ठीक-ठाक बल्कि बहुत ठीक थीं। लेकिन तब बात और थी। मैं अविवाहित था और ऐसे खतरे उठा सकता था। मगर एक बच्चे का बाप अचानक ऐसा निर्णय लेना यह नियात अव्यावहारिक थी। खैर—जो मुझे करना था वह कर चुका था और मैं अब यह भी कह सकता हूँ कि  एक बच्चे का या कई बच्चे का बाप होना व्यक्ति के चरित्र को नहीं बदल सकता। निर्णय लेने के क्षण कुछ ही होते हैं।
इस्तीफा देने के बाद ही मेरे निकटतम मित्र जान सके थे कि मैंने नौकरी छोड़ दी। वे सब भी सकते की हालत में थे। ऐसा होना स्वाभाविक भी था क्योंकि बीस मिनट पहले मैंने उन सबके साथ स्कूल के अटेंण्डेंस रजिस्टर पर इनकमिंग कॉलम में हस्ताक्षर किए थे तो इस्तीफा देने की बात तक मन में नहीं थी।

 ज़ाहिर है कि जो कुछ हुआ वह तत्कालीन प्रधानाचार्य की बदतमीजी को न सह पाने की प्रतिक्रिया में हुआ था। मैंने उनकी मेज़ से ही क़ाग़ज लेकर उन्हीं के सामने इस्तीफा लिखा और उनके मुँह पर दे मारा था जबकि उन्हें इसकी उम्मीद नहीं थी। उन्होंने मुझे टार्चर करने के लिए एक नुस्खे को आजमाना चाहा था जो उनके ही गले पड़ गया। मैंने अपना इस्तीफा देते हुए उनसे कहा—‘‘अब मैं आपके अधीन काम नहीं करूँगा।’’ और उनके चेम्बर से बाहर निकल आया और अपने फ्लैट पर जाने के लिए चल पड़ा। उन दिनों मैं स्कूल के ही अलॉट किए फ्लैट में रहता था जो तिब्बत रोड पर था मैं अपनी गति से स्कूल गेट की ओर चला जा रहा था और वह घबराएँ हुए मेरे पीछे थे कि इस तरह बिना एक महीने की नोटिस दिए मैं नौकरी नहीं छोड़ सकता। उनकी पीछा करती आवाज़ का मुझ पर कोई असर नहीं था।

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