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जाहिराम पद नेह

नरोत्तम पाण्डे

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6030
आईएसबीएन :81-88140-92-9

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प्रस्तुत है पुस्तक जाहिराम पद नेह ...

Jahiram Pad Neh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रामकथा भारतीय जन-मानस की प्राण है। यह हिंदु मन में गहरे तक पैठी हुई है। रामायण में अनेक पात्रों का सजीव चित्रण हुआ है। इनमें कुछ पात्र ऐसे हैं जो कथा  में एक-दो बार आए हैं और फिर विलुप्त हो गए। कुछ पुरुष पात्र ऐसे हैं, जो मुख्य भूमिका में तो नहीं रहे पर हैं अत्यधिक महत्त्वपूर्ण और इनकी उपस्थित कथा के अंत तक रही है।

प्रसिद्ध विद्वान लेखक नरोत्तम पांडेय ने रामायण कथा का बड़ी गहराई से अनुशीलन किया है। प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने अपनी तर्क-बुद्धि से रामकथा में से चार रामपद नेहियों-हनुमान, अंगद, लक्ष्मण और भरत-की आस्था, निष्ठा, सेवा-समर्पण एवं शौर्य का विवेचन किया है इसमे जहाँ-तहाँ साधी रूप में वाल्मीकीय रामायण  के आख्यानों की सहायता ली गई है।

‘जाहिराम पद नेह’ में युवराज अंगद का चरित्र एवं व्यक्तित्व शेष चरित्रों की तुलना में अधिक सकर्मक और निष्काम है। सुग्रीव कुशल प्रशासक हैं। विभीषण की क्रियाएँ भेदमूलक हैं।
धर्म अद्यात्म में रुचि रखने वाले एवं रामायण-प्रेमी पाठकों के लिए एक पठनीय पुस्तक।

जाहिराम पद नेह


‘जाहिराम पद नेह’ के अंतर्गत चार राम पद नेहियों की आस्था-निष्टा, सेवा-समर्पण और शौर्य का आकलन किया गया है। रामकथा के ‘शत कोटि अनेका’ रूपों में मानस कथा ही इसका आधार है। जहाँ-तहाँ वाल्मीकीय आख्यानों की सहायता ली गई है।

अंगद को इसलिए ग्रहण किया गया है क्योंकि इनका व्यक्तित्व बाकी चरित्रों की तुलना में अधिक सार्थक, सकर्मक और निष्काम लगता है। सुग्रीव सक्षम प्रशासक हैं, विभीषण की क्रियाएँ भेद-मूलक हैं। मानस का कलेवर वस्तुतः भरत, हनुमान, लक्ष्मण और अंगद ने ही सजाया है। प्रकाशन सौजन्य के लिए मेसर्स लग्गेज, लंदन के चिं. इंदीप अहलूवालिया एवं चि. संदीप अहलूवालिया का हार्दिक धन्यवादी हूँ।

तथास्तु

नरोत्तम पांडेय


महाबीर बिनवऊँ हनुमाना



‘महाबीर बिनवऊँ हनुमाना।
राम जासु जस आप बखाना।।’


‘रामचरितमानस’ में हनुमानजी का सर्वप्रथम प्रवेश किष्किंदा कांड में होता है। यों वंदना के संदर्भ में बाल कांड की उपर्युक्त पंक्तियों में उनका नमन-वंदन किया गया है। प्रकारांतर की कथाओं में राम-जन्म के पश्चात् उनके बल-रूप के दर्शन हेतु भगवान् भोलेनाथ शिशु-कीस हनुमानजी को भी अपने साथ ले गए थे, किंतु मानस में इसका उल्लेख नहीं है। श्रीराम और सुग्रीव का मिलन नितांत विरोधी मनःस्थितियों में हुआ, यह हनुमानजी ही थे जिन्होंने समन्वय-सेतु के रूप में ‘पावक साक्षी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ’ दोनों में मित्रता कराई। सीता-हरण के बाद उन्हें खोजते दोनों भाई शबरी की कुटिया मे पहुँचे। उसने उन्हें पंपा-सरोवर जाने की सलाह दी। कहा, वहाँ कपिपति सुग्रीव से मित्रता होगी। सीता की खोज में वह सहायक होंगे। भगवान् श्रीराम सुग्रीव से मिलन की आतुरता में ऋष्यमूक पर्वत की ओर जा रहे थे। उनकी मनःस्थिति थी ‘तहँ होइहि सुग्रीव मिताई’, और वहाँ भयाक्रांत सुग्रीव ने देखते ही सोचा—


‘पठए बालि हौंहि मन मैला।
भागौं तुरत तजौं यह सैला।।’


सुग्रीव ने राम और लक्ष्मण को आते हुए देखा। उन्होंने देखा कि जहाँ तक बल की सीमा हो सकती है और जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती, वैसे दो पुरुष-सिंह चले आ रहे हैं। दोनों-के-दोनों ही रूप और बल के निधान हैं। सुग्रीव भयभीत हो गए। भीत तो वह रहते ही थे कुछ उनके वानर-वीर अन्य शिखरों पर से भाग खड़े हुए, किंतु सभी यूथपति उन्हें चारों ओर से घेर सतर्क हो गए। उनकी वानर-जनित चपलता और व्याकुलता को हनुमानजी ने राजोचित नहीं ठहराया, वीर पुरुष की भाँति धैर्य से काम लेने की सलाह दी।

सुग्रीव भीत ही नहीं थे, वह ‘अति सभीत’ थे। जब सीता की खोज करने के लिए विभिन्न दिशाओं में वानर यूथपतियों को भेजा जा रहा था, सुग्रीव एक-एक कर सबको बता रहे थे, पूरव में जाने पर यहाँ नदी, वहाँ वन, उसके आगे पहाड़, फिर झरना मिलेंगे। पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में पड़ने वाले दुर्गम पथों और व्यवधानों को भी सुकंठ ने बताया। श्रीराम बहुत विस्मित हुए। सुग्रीव ने किसी कक्षा में भूगोल की शिक्षा पाई नहीं, नक्शा या ग्लोब कभी देखा नहीं, किंतु सभी दिशाओं के मार्गों और प्रतिरोधों का सही-सही विविरण प्रस्तुत कर रहे हैं। राम ने पूछा ‘मित्र, भूमण्डल का यह ज्ञान तुम्हें कहाँ से प्राप्त हुआ ?’ प्रभु बालि के प्रहारों से बचने के लिए सात बार भूमंडल की परिक्रमा की थी।’ सुग्रीव ने उत्तर दिया—

‘ताकें भय रघुबीर कृपाला ।
सकल भुवन मैं फिरेऊँ बिहाला।।’

अनुभव  प्रत्यक्ष था। ऐसा व्यक्ति भले राजा ही क्यों न हो, भीत और अति सभीत होगा ही। उन्होंने हनुमानजी के वटुक रूप धारण कर श्रीराम के पास जाने को कहा और यह भी कहा कि बहुत बुद्धिमानी से उन दोनों से बात करके यह पता लगाएँ कि कहीं मुझसे प्रतिशोध लेने के लिए इन्हें बालि ने तो नहीं भेजा है। और बातचीत के इन तमाम संदर्भों में हनुमानजी का मुख सदा सुग्रीव की ओर रहे, ताकि उनकी बातचीत की भंगिमाओं का सुग्रीव भी आकलन कर सकें। साथ ही, हनुमानजी उनकी दुर्भावनाओं का, यदि हों, तो संकेत देंगे, ताकि—

‘पठए बालि होंहि मन मैला।
भागौं तुरत तजौं यह सैला।।’

क्या विचित्र विडंबना है, प्रभु श्रीराम चले आ रहे हैं कि ‘तहँ हो इहि सुग्रीव मिताई’ और सुग्रीव दो चित्त हैं कि ‘भागौं तरत तजौं यह सैला।’ सुग्रीव भागने के लिए तैयार खड़े हैं। गीता में भीष्म पितामह ने दुर्योधन को हर्षित करने के लिए सिंहनाद करके शंख बजाया, प्रत्युत्तर स्वरूप पांडव वीरों ने भी शंख ध्वनि की। उस ध्वनि से दुर्योधन क्या, समस्त ‘धार्त राष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्’ धृतराष्ट्र पुत्रों के हृदय विदीर्ण हो गए। हर्ष-प्रवर्धन क्या होगा ?

वन के शांत-एकांत निर्जन प्रांतर में जहाँ किंचित् कदाचित् ही मनुष्यों की गतिविधि दीख पड़ती हो, वहाँ शौर्य और सौंदर्य को मूर्तिमंत वीर वेश में सायुध विचरते देख हनुमानजी को भी असामान्य लगा होगा, किंतु किसी घबराहट या कौतूहल के बिना, अति सामान्य रूप से कपिराज सुग्रीव की आज्ञा शिरोधार्य कर विप्रवेश में ‘पुरुष जुगल हबल रूप निधाना’ के पास गए। मानस में श्रीमद् हनुमद् का श्रीराम से यह प्रथम मिलन था और आगे की चार चौपाइयों तथा एक दोहे में बड़े ही विनय एवं विनीत भाव से उन्होंने पूछा है यों तो सारे प्रश्नों के मूल में एक ही उद्देश्य था, ‘पुरुष जुगल’ के विचरण का ‘हेतु’ पता लगाना। किंतु प्रश्नों की गहराई में पड़ने पर ‘ज्यों-ज्यों डूबे श्याम रंग त्यों-त्यों उज्ज्वल होय’ चरितार्थ होता है। हनुमान जी ने सर्वप्रथम ‘पुरुष युगल’ की रूपाकृति देखी, उनका बाह्य वेश-परिवेश देखा और अंततः उनके पार-ब्रह्मत्व का अभिबोध किया। ये भक्त के अंतर्मन के उत्कर्ष और उपलब्धि की क्रमिक सरणियाँ हैं।

हनुमानजी ने पूछा, ‘श्यामल-गौर शरीरवाले आप लोग कौन हैं ? क्षत्रिय के वेश में वन में क्यों घूम रहे हैं ? अग्रतः सकलं शस्त्रं, पृष्ठतः सशरः) धनुः-यह रूप तो समाज के रक्षक का है। लता-द्रुमों से भरा वन आखेट की जगह है। यहाँ वह भी दुर्लभ है। जंगल की यह कंटकाकीर्ण धरती आपके लिए सर्वथा अयोग्य है। आपके चरण कोमल हैं। (हनुमानजी को क्या पता, विगत चौदह वर्षों से इसी ‘कठिन भूमि’ पर ये ‘कोमल पद’ संचरण कर रहे हैं।) वन में विचरने का आप लोगों का ‘हेतु’ क्या है ? आपके शरीर बहुत ही मृदुल मनोहर और सुंदर हैं। फिर किस कारण वन की यातनाएँ, झंझा-झकोर, तेज हवाएँ और धूप सह रहे हैं ?’

श्रीराम-लक्ष्मण पहले हनुमानजी को सामान्य व्यक्ति दीख पड़ते हैं, इनका वेश राजपुरुष का है। फिर स्वामी-भद्रो मानुस लगते हैं। अगली दृष्टि में उनके गषित्व देवत्व का बोध हनुमान लला को होता है और पूछ बैठते हैं—क्या आप नर-नारायण हैं या ब्रह्मा-विष्णु –महेश त्रिदेवों में से कोई हैं ? सहसा उन्हें अखिल भुवनपति की ईश्वरता, अनंतता का भान होता है। कहीं ‘जन्मादयस्य यतः’ ही पृथ्वी का उद्धार करने के लिए, तारने के लिए, उसका भार कम करने के लिए मनुष्य-रूप में अवतरित तो नहीं हुए हैं ?


‘जग कारन, तारन भव भंजन धरनी बार।
की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार।।’


इतना कहकर हनुमानजी मौन हो गए। श्रीरामने उत्तर दिया-हम कौशलनरेश दशरथ के पुत्र हैं। पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर हम वन आए हैं। हमारा नाम राम और लक्ष्मण है। हमारे साथ एक सुकुमारी स्त्री भी थी। वन राक्षसों ने उसका हरण कर लिया है। हम उन्हें ही ढूँढ़ते  फिर रहे हैं। छोड़ो इन बातों को, अपनी बातें मैं कहाँ तक कहूँ ? तुम बताओ, तुम कौन हो ?


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