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विवाह उपहार

टी.डी. आनन्द

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6044
आईएसबीएन :81-288-1768-X

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प्रस्तुत है पुस्तक विवाह उपहार ......

Vivah Upahar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विवाह मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है। विवाह के बाद ही नर-नारी गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर, समाज के लिए एक सद्गृहस्थ का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। गृहस्थी में रहकर ही वह सात्त्विक एवं शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए पूर्णता को प्राप्त होते हैं। यह पुस्तक उन सभी नवयुवकों और नवयुवतियों के लिए उपहारस्वरूप है। जो विवाह मंडप की ओर प्रवेश कर रहे हैं।

ताकि इस पुस्तक के मार्गदर्शन द्वारा वह राष्ट्र और समाज के लिए आदर्श बन सकें।
विवाह, सामज में एक धार्मिक संस्कार है, जिसमें पुरुष और स्त्री के बीच में पति-पत्नी का संबंध स्थापित किया जाता है। विवाह का वास्तविक अर्थ ऊपर उठना है। इससे स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के पूरक बनकर ईश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर होते हैं। ‘विवाह बंधन’ दो अलग-अलग शरीरों, व दो आत्माओं को एक करके ‘उस परम तत्त्व’ के समीप ला देता है और उनके जीवन में खुशियाँ भर देता है। ‘विवाह उपहार’ पुस्तक के द्वारा लेखक समाज में वैवाहिक आदर्श द्वारा स्वच्छ और संस्कारित समाज के निर्माण की कामना करता है।

यह उपहार


यह पुस्तक उन नवयुवकों और नवयुवतियों को समर्पित है जो विवाह करने जा रहे हैं अथवा जिनका अभी विवाह हुआ है। जो नवयुवक अपना जीवन शुरू करने जा रहे हैं उन्हें परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व में कुछ कर दिखाना है और अपनी भावी सन्तान का आदर्श बनकर उनका मार्गदर्शन करना है।

दो शब्द


भारत एक ऐसा देश है, जहाँ हमारे पूर्वज सौ वर्ष तक ही लम्बी आयु सुखपूर्वक जीते थे। गृहस्थ आश्रम में रहकर वे बच्चों, बूढ़ों, मेहमानों और संतों की सेवा करने में पूरा योगदान देते थे। ब्रह्मचर्य आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम के लोग गृहस्थी लोगों की सहायता से आगे बढ़ पाते थे। आज के बदलते परिवेश माता-पिता और बच्चों पर भी पड़ रहा है। इसके लिए कोई उपाय ढूँढ़ना होगा।
इन बदलते वातावरण में नई पीढ़ी को वैवाहिक जीवन के बारे में उचित मार्गदर्शन नहीं मिल पा रहा है। खाना, पीना, संगीत, मनोरंजन और पुराने रीति-रिवाजों द्वारा विवाह सम्पन्न हो रहे हैं। विवाह का अर्थ, विवाह का महत्त्व, विवाह की आवश्यकता, विवाह की जिम्मेदारियाँ, सुखी दाम्पत्य जीवन, सुखी पारिवारिक जीवन जीने के बारे में युवकों को और युवतियों को बहुत कम ज्ञान प्राप्त हो रहा है, जिसके कारण शीघ्र विवाह-विच्छेद हो रहे हैं।

विवाह कोई गुड्डे गुड़ियों का खेल नहीं है। यह दो शरीरों और दो आत्माओं के मिलन के साथ दो परिवारों का भी मिलन है। अत: नई पीढ़ी को विवाह के बारे में ज्ञान देने की परमावश्यकता है। जिन परिवारों में ‘गुरुजन’ विवाह का अर्थ, पति-पत्नी के कर्त्तव्य और सुखी जीवन जीने की कला के बारे में बताते हैं और तलाक जैसे रोग से बच पाते हैं।

प्रस्तुत पुस्तक में विवाह के बारे में, सुखी दाम्पत्य जीवन के बारे में और सुखी पारिवारिक जीवन और जीने की कला का ज्ञान देने के लिए लिखी गई है ताकि कि नई पीढी अपने पूर्वजों की तरह सुखी दाम्पत्य जीवन एवं सुखी पारिवारिक जीवन जी सके और आग की तरह फैलते तलाक जैसे रोग से बच सके।

मुझे आशा है कि प्रस्तुत पुस्तक युवक और युवतियों को विवाह की जिम्मेदारियों से अवगत कराते हुए उन्हें सुखपूर्वक वैवाहिक जीवन जीने के लिए मार्ग- दर्शन करेंगी। इसके साथ जीवन के उद्देश्य का ज्ञान देते हुए यह लोक-परलोक बनाने का मार्ग प्रशस्त करेगी। पुस्तक को और उपयोगी बनाने के लिए दिए गए सुझावों का स्वागत किया जाएगा।

लेखक

गृहस्थ आश्रम


हमारे ऋषि मुनियों ने 100 वर्ष तक जीवन को सुखपूर्वक जीने के लिए जीवन के 100 वर्षों को चार भागों में बाँटा है। इन भागों को हम चार आश्रम भी कहते हैं। ये आश्रम हैं :-
1.    ब्रह्मचर्य आश्रम- जन्म से 25 वर्ष की आयु तक
2.    गृहस्थ आश्रम- 26 वर्ष की आयु से 50 वर्ष की आयु तक
3.    वानप्रस्थ आश्रम- 51 वर्ष की आयु से 75 वर्ष की आयु तक
4.    संन्यास आश्रम- 76 वर्ष की आयु से 100 वर्ष की आयु तक
1.    ब्रह्मचर्य आश्रम- जन्म से 25 वर्ष की आयु का समय सीखने का समय है। बच्चा माता-पिता से, गुरुओं से और दूसरे लोगों के अनुभवों से कुछ सीखता है। इससे वह ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए ज्ञान प्राप्ति पर ध्यान देता है। पहले आश्रम में वह शिक्षा पाता था अब स्कूल कॉलेजों में शिक्षा पाता है।

2.    गृहस्थ आश्रम- 26 वर्ष की आयु का युवक युवती से विवाह करता है। अपने बाल-बच्चों के साथ अपने माता-पिता को पालता है। मेहमानों और दूसरे आने वाले लोगों की सेवा करता है।


3.    वानप्रस्थ आश्रम- इस आश्रम में मानव 51 वर्ष से 75 वर्ष की आयु तक घर में रहते हुए अपने अनुभवों एवं ज्ञान से समाज के लोगो को, विशेषकर पिछड़े लोगों को लाभ पहुँचाता है। वह अपने परिवार और दूसरे रिश्तेदारों से आसक्ति कम करता जाता है।

4.    संन्यास आश्रम- 76 वर्ष के बाद वह मोक्ष पाने के लिए घर परिवार छोड़कर आश्रम या किसी एकान्त स्थान में रहता है ! उसके लिए अपने पराए का भाव नहीं रहता। वह संसार के भले की सोचता है। उसके लिए संसार कुटुम्ब बन जाता है।
गृहस्थ आश्रम की महानता

चारों आश्रमों में गृहस्थ आश्रम को ऊँचा स्थान दिया गया है। प्रभु ने सृष्टि की रचना की। स्त्री पुरुष के मेल से सन्तान की उत्पत्ति होती है। संसार की रचना और वृद्धि इस गृहस्थ आश्रम पर निर्भर करती है। बाकी के तीन आश्रम भी इस आश्रम पर आधारित हैं। गृहस्थी ही ब्रह्मचर्य आश्रम के बालक और बालिकाओं को पालता है और उनकी शिक्षा का प्रबंध करता है। वानप्रस्थ में जाने वाले बूढ़े लोगों को भी गृहस्थ आश्रम के लोगों का आश्रय लेना होता है। एक सच्चा गृहस्थ अपने बाल-बच्चों के साथ अपने माता-पिता का भी ध्यान रखता है संन्यासियों, ऋषि मुनियों और दूसरे अतिथियों के आने पर एक सच्चा गृहस्थ समय निकाल कर तन, मन और धन से उनकी सेवा करता है। यही कारण है कि माता-पिता और महापुरुषों के आशीर्वाद से वह 100 वर्ष तक सुखपूर्वक जी जाता था। एक आदर्श गृहस्थ, आने वाली पीढ़ी का मार्ग-दर्शन करता है। समय के बदलने के बावजूद भारत में यह परम्परा अब भी देखने को मिल रही है। इस परम्परा को आगे बढ़ाना नई पीढ़ी के हाथ में है।  

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