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महर्षि विश्वामित्र

अशोक कौशिक

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6050
आईएसबीएन :81-288-1757-4

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वर्णांतर दशरथ पुत्र राम को राक्षसत्व के नाश के लिए तैयार करने वाला गुरु और एक अखण्ड आर्यावर्त का आलोकित सूर्य।

Maharshi Vishvamitra - A Hindi Book by Ashok Kaushik

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय वाङ्मय के पूर्ण पुरुष, तपस्वी, साधक, रागी, विरागी युगद्रष्टा महर्षि विश्वामित्र मात्र पौराणित आख्यान नहीं हैं बल्कि अपने कर्मपथ पर चलकर जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य पर विजय प्राप्त करने वाले वह चरित्र नायक हैं जिनका जीवन गाथा हर उस व्यक्ति के लिए प्रकाश स्तम्भ है जो हर बाधा को पार कर असीम की यात्रा का अभिलाषी है।
विश्वामित्र भारतीय पुराण साहित्य का अद्वितीय चरित्र। विश्वामित्र ने राजा के रूप में राज्य विस्तार किया...साधक के रूप में साधना की...राजर्षि पद से ब्रह्मर्षि पद पाने वाला एकमात्र तपस्वी व्यक्तित्व का अकेला शक्तिशाली ऋषि।

भूमिका

विश्वामित्र भारतीय वाङ्मय के महत्त्वपूर्ण नायक हैं। इनके जन्म के विषय में दो प्रकार के उल्लेख मिलते हैं। एक उल्लेख के आधार पर इनका वंश, प्रजापति से प्रारम्भ माना जाता है जिसमें प्रजापति-कुश-कुश-नाम-गाधि (गाथिन) और फिर विश्वामित्र। इसी प्रसंग मे विश्वामित्र का साधना से पहले का नाम था विश्वरथ माना गया है।

वंश की दूसरी परम्परा में सबसे पहले इशीरथ, फिर कुशिक, फिर गाथिन और फिर विश्वामित्र।

वाल्मीकि रामायण, महाभारत और पुराणों में तथा अनेक ग्रन्थों में अनेक प्रकार से विश्वामित्र की कथा का उल्लेख है। विश्वामित्र के साथ घटनाओं में विश्वामित्र और वशिष्ठ का नन्दिनी को लेकर संघर्ष और विश्वामित्र का त्रिशंकु को संदेह देवलोक में भेजने का प्रयास और विश्वामित्र का राम को लेकर वन में राक्षसों के वध की भूमिका तैयार करना और तपस्या करते हुए इन्द्र के द्वारा भेजी गई मेनका के साथ संसर्ग के उपरांत एक कन्या का जन्म, जिसे बाद में कण्व ऋषि ने पाला और जिसका नाम शकुन्तला पड़ा। इसी शकुन्तला से कण्व के आश्रम में राजा दुष्यन्त ने गन्धर्व विवाह किया। जिससे भरत नाम का वीरपुत्र पैदा हुआ।

उक्त महत्त्वपूर्ण घटनाओं के क्रम में बहुत कुछ असमानताएं हैं। यद्यपि पुराकथा के नायक या मिथक कथाएं अपनी रम्य कल्पनाओं के द्वारा बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित की गई हैं। आस्था से कुछ लोग यह मानते हैं कि यह विश्वामित्र एक ही थे जो समय के इतने अन्तराल तक इन घटनाओं के साथ जीवित रहे और इनके समकालीन जमदाग्नि तथा उनके पुत्र परशुराम भी थे।

किन्तु, यदि आस्था को थोड़ा-सा अनुसंधान और तर्क की कसौटी पर लें तो यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि यह एक व्यास पीठ रही होगी और उस पर बैठने वाला प्रत्येक ऋषि विश्वामित्र के नाम से अभिहित होता होगा। क्योंकि पुराण संदर्भों में कहीं वशिष्ठ का प्रसंग आता है और कहीं विश्वामित्र का। कहीं-कहीं पर तो नाम भी दिए गए हैं क्यों कि हरिश्चन्द्र कालीन विश्वामित्र हो सकता है सत्यव्रत त्रिशंकु तक चला हो और इसी का वशिष्ठ के साथ संघर्ष हुआ हो। इसी प्रसंग में विश्वामित्र का वर्णान्तर भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि एक क्षत्रिय राजा शस्त्र-बल से अपना प्राप्य न पाकर तपस्या के बल पर ब्रह्मत्व पद प्राप्त करता है। चाहे जो भी हो विश्वामित्र की पूरी कथा में संघर्ष की एक ऐसी प्रदीप्ति है जिसे हम अपने अन्तर-सत्य के रूप में अनुभव कर सकते हैं।

अपने भीतर बैठे हुए अहंकार का विसर्जन और त्याग के चरम उत्कर्ष की प्रतिष्ठा तथा अपने प्राप्य को पाने के लिए सर्वस्व लगा देने की दृढ़ भावना विश्वामित्र के चरित्र से अनुभव की जा सकती है।
जब-जब हम अपने इन पुराकथा के चरित्रों को पढ़ते हैं या जब-जब उनकी पुनर्रचना करते हैं तो जो वे होते हैं उनके साथ उनका वह रूप भी बनता है जो हम चाहते हैं। इसीलिए इस छोटे से परिचयात्मक और औपन्यासिक विधान में हमने अपनी दृष्टि से विश्वामित्र को समझने का प्रयास किया है।
इस रचना में हमने कालचक्र के तीनों कालखण्डों को आपस में गूंथने का रचनात्मक प्रयास किया है और यदि इससे तर्क पुष्ट न भी होता हो और भाव को समृद्धि का एक अंश मिलता हो तो भी हमारा प्रयत्न सफल माना जाना चाहिए।

डॉ. विनय

महर्षि विश्वामित्र


‘‘आप प्रजापति हैं कौशिक ! इस आर्यावर्त के !’’
‘‘प्रजापति का अर्थ जानते हो ?’’
‘‘जिससे प्रजा की सृष्टि और पालन होता है ? वही प्रजापति होता है आर्य !’’ शिष्य ने झुककर अपना वाक्य पूरा किया।
‘‘अभी उस भूमिका में आने में समय लगेगा।’’
‘‘आपको भी !’’
‘‘हाँ ! मुझे भी। जीवन की प्राप्ति वही सत्य होती है जो अर्जित की जाए। वंश-परम्परा का महत्त्व है किन्तु स्व-अर्जन की तुलना किसी भी सिद्धि से नहीं की जा सकती।’’
‘‘तो फिर।’’

‘‘तो फिर कुछ करने का विचार ही तो मुझे आन्दोलित कर रहा है वत्स ! और मैं उसी चिन्ता और चिन्तन में हूं। यह दूर तक फैला अंधकार, कभी-कभी बरस पड़ने वाले मेघ...लगता है यम और इन्द्र ने मिलकर पृथ्वी के विरुद्ध षड्यंत्र किया हो।’’
‘‘कैसा षड्यंत्र देव ?’’
‘‘पृथ्वी अशांत होती है तो समझता हूं यह देवलोक का छल है।’’
‘‘देवता छल क्यों करते हैं ?’’
‘‘अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए।’’

‘‘किन्तु देवता सर्वशक्तिमान वर देने का शक्ति रखने वाले हैं। वे तो सबसे अधिक सुरक्षित हैं।’’
‘‘जो सबसे अधिक सुरक्षित दिखते हैं, वे ही सबसे अधिक असुरक्षित होते हैं वत्स !’’
‘‘तो क्या उनका अस्तित्व असुरक्षित रहता है?’’
‘‘वे समझते हैं।’’...कौशिक ने शिष्य के प्रश्न का उत्तर दिया और आगे चलने लगे। वे नहीं चाहते थे कि शिष्य के प्रश्न-उत्तरों के झमेले में अपने चिन्तन का मूल स्रोत छोड़ दें और यदि शिष्य इसी तरह पूछता रहा तो उन्हें अपने भीतर बैठने में कठिनाई होगी।

इस समय कौशिक अपने मन के गहरे में कुछ सोचना चाहते थे। एक भुक्त अनदेखा अतीत...अतीत की विस्मयकारी घटनाएं उनके मस्तिष्क को आन्दोलित कर रही थीं।

पिछले एक माह से वे चल रहे हैं। अपनी राजधानी छोड़े हुए तीस दिन व्यतीत हो गए किन्तु अभी तक अपना गन्तव्य नहीं समझ पाए। मार्ग में शिष्यों की भीड़ लगती रही, प्रजाजन आते रहे और जाते रहे उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से आराम नहीं मिला फिर भी एक उमंग थी कि अपने गन्तव्य तक पहुँचना है। मार्ग में उन्होंने अनेक कथाएं सुनाईं और दिन भर-नर नारियों को आशीर्वाद देते हुए यात्रा तय करते रहे।

त्याग की छाप उनके चेहरे पर स्पष्ट पड़ रही थी। क्षात्र तेज की दीप्ति और ब्रह्म तेज की प्राप्ति की उमंग जैसे आलोक के घेरे बनाकर उनके मुखमंडल पर घूम रही थी। कौशिक ने एक क्षण रुककर सामने मार्ग पर देखा, फिर इधर-उधर ऊपर-नीचे और फिर चलने लगे। शिष्य को उनके इस कार्य-कलाप से आश्चर्य हो रहा था। किन्तु अब तक वह कितनी बार उन्हें ऐसा करता देख चुका था।
किन्तु इस बार कौशिक थोड़े ही समय चले कि फिर रुक गए। ऐसा लगता था कि उनका गन्तव्य आ गया था।

वह आश्रम कौशिकी नदी के किनारे एक विशाल आश्रम के रूप में स्थित था कौशिक ने चारों ओर दृष्टि घुमायी। दूर-दूर तक ऊंचे-ऊंचे वृक्षों के बीच, सौन्दर्य से बनी कुटियाएं अब भी थीं। नदी यद्यपि अभी दिखाई नहीं दे रही थी किन्तु उसके जल का स्पर्श करके आती हुई वायु उनकी नाक को तृप्त कर रही थी और इससे उनके पूरे व्यक्तित्व में स्वच्छता और स्फूर्ति का आविर्भाव हो रहा था।
‘‘आचार्य !’’ शिष्य ने कुछ कहना चाहा।

‘‘हां वत्स ! बोलो क्या बात है ?’’
‘‘हमारा गन्तव्य यही है क्या ?’’
‘‘हाँ !’’ और कौशिक एक स्वच्छमार्ग से आगे बढ़ने लगे। यह सम्भव नहीं था कि शीघ्र ही सारे वन, आश्रम में घूमकर देखा जाए किन्तु अपने निवास के लिए तो स्थान बनाना ही होगा। थोड़ी दूर चलकर कौशिक ने देखा कि एक कुटिया में प्रकाश है।
‘‘यहां कुटिया में प्रकाश।’’ शिष्य बोला।
‘‘यह निर्जन स्थान है वत्स, यहां ऋषि मुनि रहते हैं। कहीं पास में गुरुकुल भी होना चाहिए।....हमें अन्धकार के कारण कुछ नहीं दिख रहा।’’


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